खून के रिश्ते क्यों हो रहे हैं खून के प्यासे?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
मेरठ
से ख़बर आई है कि वहां माल रोड पर एक आदमी ने अपने दोस्त के साथ मिलकर अपने दो मासूम
बेटांे और पत्नी को काट डाला। अपने ही बच्चो का गले रेतते हुए इस ज़ालिम बाप को ज़रा
भी तरस नहीं आया। पुलिस ने इस दर्दनाक हत्याकांड मंे बिना जांच के ही अवैध सम्बंधों
का दावा कर केस की गंभीरता को कम करने का प्रयास किया।
अभी इस
ख़बर की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उरई से समाचार आया कि विदवा गांव में एक भाई ने अपने सगे भाई को कुल्हाड़ी से काट डाला। बताया जाता
है यहंा दोनों भाइयों केे बीच प्रोपर्टी को लेकर विवाद चल रहा था। एक भाई ने जब दूसरे
से सम्पत्ति बंटवारे पर ज़ोर दिया तो वह आपा खो बैठा और गुस्से में पागल होकर पास पड़ी
कुल्हाड़ी से सगे भाई के खून से हाथ रंग लिये।
तीसरी ख़बर
रामपुर के मिलक से आई है जिसमें तीन भतीजों ने मिलकर अपने चाचा को मौत के घाट उतार
दिया। बताया जाता है कि काफी समय से परिवार के बीच शादी में न बुलाने को लेकर आपसी
विवाद चल रहा था। एक भतीजा चाचा को मनाने गया तो नशे में देखकर चाचा ने उसको उल्टे
पांव भगा दिया। विडंबना यह रही कि जो भतीजा मामले को निबटाने की नीयत से गया था वही
खून ख़राबे की वजह बन गया।
हालांकि
ये तीनों मामले यूपी के हैं और ऐसे अनेक मामले रोज़ ही हो रहे हैं लेकिन सब पुलिस और
मीडिया तक नहीं पहंुचने से पूरे देश के आंकड़े इतने भयावह नहीं दिखाई पड़ते जितने कि
खून के रिश्ते आज खून के प्यासे हो गये हैं। पति पत्नी के रिश्ते को हालांकि खून का
नहीं माना जाता लेकिन जीवनभर साथ मरने साथ जीने की कसम खाने से यह रिश्ता भी खून के
रिश्ते से कम अहम नहीं होता। फिर भी जब कोई पति अपनी पत्नी को मौत की नींद सुलाता है
तो अकसर पुरूष प्रधान समाज मृतका के बारे में
बिना जांच पड़ताल और ठोस सबूत के यह चर्चा शुरू कर देता है कि हत्या आरोपी की
पत्नी के ज़रूर किसी पराये पुरूष से अवैध सम्बंध रहे होंगे। जिस तरह से बलात्कार के
मामलों में अकसर मर्द औरतों की बोल्ड पौशाक को लेकर उत्तेजित करने का झूठा और घटिया
आरोप उल्टे बलात्कार पीड़ित युवती या महिला पर ही लगाते हैं वैसे ही इन हत्याओं के मामलों
में भी किया जाता है।
अजीब बात
यह है कि यहां पुलिस इस बहाने को मानने के लिये पहले से ही तैयार बैठी रहती है। पुलिस
को इस तरह की कार्यशैली से एक तात्कालिक लाभ यह होता है कि जहां कानून व्यवस्था पर
उठने वाली उंगली थम जाती है, वहीं पुलिस को यह कहने का बहाना मिल जाता है कि इस
मामले में कानून एडवांस में क्या कर सकता है?
दरअसल
पूंजीवाद और समाजवाद का अंतर धीरे धीरे हमारे सामने आने लगा है लेकिन दौलत और शौहरत
के पुजारी मुट्ठीभर लोग इस सच्चाई को लगातार झुठलाने का प्रयास कर रहे हैं कि पैसा
कमाने की होड़ समाज से रिश्ते नातों, धर्म, मर्यादा और नैतिकता को पूरी तरह ख़त्म करती जा रही
है। पूंजीवाद के सबसे बड़े वैश्विक गढ़ अमेरिका की हालत दिन ब दिन पतली और समाजवाद के
आज भी मज़बूत किले चीन की हालत लगातार मज़बूत होने से भी हमारी आंखे नहीं खुल रही हैं।
सच यह है कि आज हम इतने स्वार्थी और एकांतवादी होते जा रहे हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता
और अपनी मनमानी करने के लिये हम रिश्तों नातों को कच्चे धागों की तरह तोड़ने में एक
पल भी नहीं लगाते।
अगर थोड़ा
झगड़ा और रूठना मनाना होकर ये सम्बंध फिर से प्यार मुहब्बत की डोर में बंध जायें तो
फिर भी आपसी तालमेल और साझा जीवन का एक रास्ता निकल सकता था लेकिन आज तो हालत यह हो
गयी है कि साझा परिवार टूटते जा रहे हैं। कुछ लोग तो शादी से पहले ही लड़के के परिवार
के सामने यह शर्त रख देते हैं कि उनकी लड़की
शादी के बाद अलग रहना पसंद करेगी। वे यह कहते हुए ज़रा भी संकोच नहीं करते कि
वे जिस परिवार से अपना रिश्ता जोड़ने जा रहे हैं उसको तोड़ने का प्रयास विवाह होने से
पहले ही कर रहे हैं। कई परिवार तो इस शर्त को पहली बार में ही ठुकरा देते हैं लेकिन
अधिकांश परिवार दहेज़ के लालच या किसी बड़े और प्रभावशाली खानदान से जुड़ने के मोह में
यह नाजायज़ मांग स्वीकार कर लेते हैं।
अकसर
यह भी देखने मंे भी आता है कि शादी के समय अगर यह शर्त न भी रखी जाये कि वधु अलग रहना
चाहेगी तो यह पहले से ही मन बना होता है कि लड़की जब लड़के को अपनी मुट्ठी में कर लेगी
तो यह कौनसा मुश्किल काम है कि लड़के को उसके परिवार से लेकर लड़की किसी कीमत पर भी अलग
होने का अभियान शुरू कर दे। यहीं से अलगाव के बीज बो दिये जाते हैं। यह अजीब बात है
कि लगभग सभी मांबाप अपनी लड़की को को यह समझाकर ससुराल भेजते हैं कि शादी के बाद अपने
पति को अपने हिसाब से चलाने की पूरी कोशिश करना और मौका देखते ही अलग हो जाना जिससे
सास ससुर और ननद, भावज, जेठ, जेठानी और देवर देवरानी की सेवा और
ज़िम्मेदारी से बचा जा सके जबकि अपने घर आने वाली लड़के की बहू से सौ प्रतिशत यह आशा
करते हैं कि वह अपने मायके को भूलकर लड़के के पूरे परिवार के हिसाब से चले।
अगर अपने
घर आई बहू लड़के को अलग करने के बारे में धेाखे से भी ज़बान खोले तो पूरी ससुराल उसके
पीछे हाथ धेकर पड़ जाती है, जैसे उसने
कोई बहुत बड़ा पाप कर दिया हो, लेकिन यही काम जब बाकायदा दूसरे घर जाकर उनकी कन्या
करती है तो इस मुहिम को न केवल वध्ुा पक्ष का पूरा समर्थन और आशीर्वाद होता है बल्कि
उनके विचार और तर्क भी इस चाहत के पक्ष में हो जाते हैं। ये दो पैमाने ही आज खून के
रिश्तों का खून होने के पीछे मौजूद हैं। जो भाई शादी से पहले अपने छोटे भाई को लक्ष्मण
और बड़े भाई को राम का दर्जा देता है वही शादी के बाद उसके खून का प्यासा हो जाता है।
ज़मीन जायदाद के बंटवारे की बात चल निकलती है और जब इसमेें आनाकानी और मांबाप की तरफ
से पक्षपात होता है तो फिर साज़िशें और नफ़रतें पनपने लगती हैं। जिन माता पिता के लिये
उनका बेटा कभी आंख तारा हुआ करता था उनके लिये वह बोझ और मुसीबत बन जाता है।
बात बढ़ते
बढ़ते यहां तक जा पहंुचती है कि अपना हिस्सा अपनी मांग के हिसाब से न मिलने पर दोनों
भाई न केवल लड़ने लगते हैं बल्कि एक दिन गाली गलौच और मारपीट के बाद मामला थाने तहसील
पहुुंच जाता है। यही हाल माता पिता में से अधिकांश मामलों में पिता के साथ होता है।
अदालत में मुकद्मा शुरू होने के बाद बोलचाल तक बंद हो जाती है। उसके बाद दोनो ंपक्ष
आपस में एक दूसरे से रंजिश रखने लगते हैं। यह पता ही नहीं चलता कि कब खून के रिश्ते
एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये। हर किसी को यह लगता है कि दूसरा उसको समझता ही नहीं
।
साथ साथ
यह भी दुहायी दी जाती है कि उसकी ज़रूरत और
भावनाओं का ख़याल नहीं रखा जा रहा है जबकि यह शिकायत करते समय वह खुद यह भूल जाता है
कि उसने दूसरों की परवाह की है या वह खुद भी ‘मैं, मेरा और मेरा परिवार’ के एक सूत्राीय कार्यव्रफम पर चल
रहा है। इसके बाद यह दरार यहीं ख़त्म नहीं होती बल्कि इस संकीर्णता और स्वार्थ का भी
विस्तार होता है। दर्जन दो दर्जन से चार पांच लोगों की छोटी यूनिट में आध्ुानिक प्रगतिशील
माता पिता के बोल्ड सोच के बच्चे चाहते हैं कि उनका अपना निजी कमरा, फोन, टीवी और अलग कंप्यूटर हो। कमरे में
अटैच टॉयलेट बाथरूम हो। उनका कौन दोस्त या सहेली कब उनसे मिलने आये उसपर घर के लोगों
की न केवल नज़र न हो बल्कि इस बारे में उनसे कोई सवाल तक न करे कि कौन कहां से कब क्यों
उनसे मिलने आता है?
इस
मामले में बहनों का मामला और पेचीदा है जहां वे अपना हक़ सम्पत्ति में मांग लेती है
वहां उनको हिस्सा तो अकसर मिलता ही नहीं साथ ही परिवार से उनका बहिष्कार और शुरू हो
जाता है। भाई ही नहीं प्रायः मातापिता भी अकसर ऐसा ही करते हैं। इस चक्कर में न केवल
उनसे रिश्ता नाता ख़त्म कर दिया जाता है बल्कि मामला कभी कभी जीजा जी के सर थोपकर उनकी
हत्या तक कर दी जाती है। हालांकि कुछ लोग जीजा साले के रिश्ते को खून का नहीं मानते
लेकिन जिस रिश्ते से बहन बंधी हो उसमें बहनोई का सम्बंध सीधे न सही अप्रत्यक्ष रूप
से खून से तो जुड़ ही जाता है। स्पश्ट है कि जब रिश्ता खून से जुड़ जाता है तो भौतिक
विवादों को लेकर उनका भी वैसा ही हश्र होता है जैसा वास्तविक खून के रिश्तों का होता
है। इसको और गहराई से समझना चाहें तो चचेरे, तयेरे और ममेरे भाइयों का भी पैसे
और प्रोपर्टी के बंटवारे को लेकर यही हाल होेता है।
कहने
का मतलब यह है कि जब हम पूंजीवादी व्यवस्था में जी रहे हैं तो उसकी बुराइयां और कमियां
भी हमको झेलनी होगी। यह नहीं हो सकता कि हम
गुड़ खायें और गुलगुलों से परहेज़ करें। शिक्षा के साथ साथ जब तक हम सही शिक्षा, समाज व नैतिकता के बारे में नहीं
सोचेंगे तब तक खून के रिश्तों का खून ऐसे ही नहीं बहता रहेगा बल्कि यह वारदातें और
ख़तरनाक हादसे बढ़ते ही जायेंगे। एक शायर की चार लाइनें यहां पेश हैं-
0 अजीब लोग हैं क्या खूब मुंसफी की है,
हमारे क़त्ल
को कहते हैं खुदकशी की है।
इसी लहू में
तुम्हारा सफीना डूबेगा,
ये क़त्ल नहीं
तुमने खुदकशी की है।।
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