मल्टीब्रांड एफ़डीआई यानी चोर छिप गया भागा नहीं है!
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0ममता को पैकेज देकर जल्दी बिल्ली थैले से बाहर आ जायेगी।
खुदरा कारोबार
में विदेशी निवेश का भूत ममता की तृणमूल कांग्रेस के अड़ जाने से फिलहाल छिप गया है
लेकिन यह मानना खुद को धोखा देना होगा कि यह हमेशा के लिये भाग गया है। दरअसल कम
लोगों को यह अंदर की बात पता है कि जून में जब वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी अमेरिका
गये थे तो वहां अमेरिकी विदेशमंत्री टिमिथी गैटनर ने उनसे कहा था कि हम बैंकिंग, इंश्योरेंस और मल्टी ब्रांड रिटेल में भारत को तेजी से आगे
बढ़ता देखना चाहते हैं। मज़ेदार बात यह है कि आज जो भाजपा विपक्ष में होने की वजह से
यूपीए के इस क़दम का जमकर विरोध कर रही है वह 1998 से 2004 के बीच एनडीए सरकार के दौरान बढ़ चढ़कर इस तरह की आर्थिक
नीतियों का खुलकर समर्थन करती रही है।
हालत यह थी कि 2002 में एनडीए की वाणिज्य और उद्योग मंत्री मुरासोली मारन ने
ग्रुप आफ मिनिस्टर्स के सामने एक नोट पेश किया था जिसमें रिटेल में शत प्रतिशत
विदेशी निवेश की सिफारिश की थी। इतना ही
नहीं 2004 के चुनाव में एनडीए के विज़न डाक्यूमेंट में भी रिटेल में
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बात मौजूद थी।
सच यह है कि
उदारीकरण में जब एक ओर हमारी मल्टीनेशनल
कम्पनियां विदेशों में जाकर रिटेल कारोबार में सिक्का जमा रही हैं तो हम
अपने देश के दरवाजें़ दूसरों के लिये कैसे बंद रख सकते हैं? दरअसल विदेशी कम्पनियां वालमार्ट, कार्फू और टेस्को दूसरे देशों में जो गुल खिला चुकी हैं
उनसे डर लगना नेचुरल ही है। यह ठीक है कि कुछ समय तक किसान को अपनी उपज का बढ़ा हुआ
दाम और उपभोक्ता को सस्ता सामान मिलेगा लेकिन यहीं एक पेंच है कि बाद में
प्रतियोगिता में अन्य देसी कम्पनियों और व्यापारियों को ठिकाने लगाने के बाद इन
भीमकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मोनोपोली हो जाना तय है। जहां 2020 तक 80 लाख से एक करोड़ नये रोज़गार पैदा करने का दावा किया जा रहा
है वहीं यह भी निश्चित है कि 6 करोड़ फुटकर दुकानदारों को यह फैसला निगल भी जायेगा।
हमारे यहां कुल
रिटेल का 60 प्रतिशत हिस्सा खाने पीने का सामान है जो लगभग 11000 अरब रुपये का होता है। एक सर्वे बताता है कि महानगरों में
लगभग 68 प्रतिशत अनाज दाल मसाले और 90 प्रतिशत फल सब्ज़ियां दूध मांस और अंडे छोटी दुकानों से
ख़रीदे जाते हैं। मीडियम क्लास सिटी में यह आंकड़ा क्रमशः 79, 92, और 98 है। इसका मतलब यह है कि पहले से देश में मौजूद रिलायंस स्पेंसर और बिग बाज़ार जैसे बड़े देसी डीलर भारतीयों को अपनी तरफ नहीं खींच पाये
हैं। इनका हिस्सा आज भी मात्र 2 प्रतिशत बना हुआ है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि छोटा
दुकानदार जहां औसत 280 मीटर की दूरी पर उपलब्ध है वहीं संगठित क्षेत्र के बड़े
शॉपिंग माल डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर हैं।
मल्टी ब्रांड
रिटेल से महंगाई घटने का तर्क भी गले नहीं उतरता क्योंकि भारत में देसी मल्टी
ब्रांड रिटेलर आने के बावजूद पिछले साल उल्टे महंगाई और बेकाबू हो चुकी है। भंडारण
और आपूर्ति का ढांचा बने बिना किसानों को भी इसका कोई लाभ नहीं मिलेगा। देखने की
बात यह होगी कि क्या भारत जैसे विशाल बाज़ार में मल्टी नेशनल कम्पनियों असंगठित
दुकानदारों से प्रतिस्पर्धा करने को प्रबंधन और भंडारण में भारी पूंजीनिवेश करने
को तैयार होती हैं या नहीं क्योंकि यह तो तय है कि अब चाहे जितना शोर मचाया जाये
लेकिन जब देश ने एक तरह से शराब जैसी पूंजीवादी नीति स्वीकर कर ही ली है तो उसका
नशा हुए बिना तो नहीं रहेगा। हमारी सरकार पर ये लाइनें कितनी सटीक बैठती हैं-
0 फूल था मैं कांटा बनाकर रख दिया,
और अब कहते हैं कि
चुभना छोड़दे।
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