Saturday, 1 February 2014

विशेषाधिकार खत्म होने चाहिये..

संसदों के विषेषाधिकार ख़त्म करने का समय आ गया है!
                           -इक़बाल हिंदुस्तानी
      भ्रष्टाचार के खिलाफ़ रामलीला ग्राउंड में अपने भाषणों में नेताओं और सांसदों के बारे में की गयी अभद्र टिप्पणियों को लेकर फिल्म कलाकार ओमपुरी, टीम अन्ना के मुख्य सदस्य प्रशांत भूषण और किरण बेदी के खिलाफ संसद में विशेषाधिकार हनन के नोटिस दिये गये हैं। हालांकि अभी यह तय नहीं है कि इन लोगों के खिलाफ माननीयों के विशेषाधिकार हनन का मामला बनता है या नहीं? यह फैसला स्पीकर और राज्यसभा के सभापति को तय करना है। अगर वे इससे सहमत होते हैं तो यह केस संसद की विशेषाधिकार हनन समिति को भेजा जायेगा जो इस पर जांच करके रिपोर्ट सदन में रखेगी। इसके बाद आरोपियों को सज़ा भी मिल सकती है।
     इसमें तो कोई दो राय नहीं कि राजनेताओं की आलोचना करने का अधिकार जनता को संविधान ने दिया है लेकिन ऐसा करते समय यह ख़याल रखा जाना चाहिये कि भाषा शैली संयमित और मर्यादाएं बनी रहें। जहां तक बॉलीवुड कलाकार ओमपुरी का सवाल है उनसे अनपढ़ और नालायक जैसे शब्दों के प्रयोग करने पर आयोजकों ने हालांकि माइक वापस ले लिया था लेकिन रिटायर्ड आईपीएस किरण बेदी व जानेमाने वकील जैसे प्रशांत भूषण  ऐसी बातें कैसे बोल गये जिनसे माननीयांे के मान को ठेस पहुंच गयी यह समझ से बाहर है। इस मामले में मैगससे पुरस्कार विजेता और टीम अन्ना के सबसे होशियार अरविंद केजरीवाल की समझ की दाद देनी पड़ेगी कि उनके पास शब्दों के साथ साथ जानकारी का इतना ख़ज़ाना है कि किरण, प्रशांत और ओमपुरी से भी अधिक सख़्त बातें बोलकर वे नेताओं के निशाने पर आने से बच गये।
  हमारा मानना है कि कोई भी कलमकार अपनी इसी प्रतिभा से कई बार मंच से बड़ी बड़ी हस्तियों की मौजूदगी में इशारों ही इशारों मंे लफ़जों का ऐसा जादू दिखाता है कि समझने वाले समझ जाते हैं कि वह कहां और क्या बोल रहा है और जिसके बारे में वह कह रहा होता है कई बार वह भी उसको दाद देने को मजबूर होता है और कई बार उसको घर जाकर या किसी के बताने के बाद समझ आता है कि उक्त पंक्तियां उसके नाम क्यों की गयीं थीं। दरअसल जिन लोगों पास भावनायें तो अधिक होती हैं लेकिन उनकी जानकारी और शब्दकोष कम होता है वे कभी कभी न केवल ऐसी गल्तियां कर जाते हैं बल्कि क्रोध और आवेश में गाली गलौच और हिंसा पर उतर आते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमें घर और बाहर का अंतर तो करना ही होगा।
    हम भी इस बात से सहमत हैं कि सांसदों का मान सम्मान बना रहना चाहिये लेकिन एक अपील हम उनसे भी करना चाहते हैं कि ये जो विशेषाधिकार उनको दिये गये हैं येे जनता ने ही दिये हैं। ये विशेषाधिकार जनता के हित में इस्तेमाल करने के लिये होते हैं। एक बात यह भी कही जाती है कि अपनी इज़्जत अपने हाथ होती है। आज देखने में यह आ रहा है कि भले ही सांसद विशेषाधिकार की दुहायी देकर संसद से आरोपियों को दोषी सिध्द होने पर सज़ा भी दिलादें लेकिन उनको अगर वास्तविकता पता करनी हो तो कभी अपने संसदीय क्षेत्र में बिना किसी बड़े काफिले के या किसी बाहरी इलाके मंे जायें और ये न बतायें कि वे सांसद हैं। फिर वहां आम लोगों से चर्चा शुरू करें कि हमारे नेताओं के बारे में उनकी क्या राय है?
   हमारा दावा है कि वहां जितने भी लोग खड़े होंगे उनमें से अधिकांश एक आवाज़ में उनको ऐसे शब्दों से नवाजे़ंगे कि अगर वे सहनशील नहीं हुए तो वहीं झगड़ा शुरू हो जायेगा। इतना ही नहीं अगर वे इन भ्रष्ट नेताओं का इलाज मालूम कर बैठे तो भीड़ से फिर सामूहिक एक आवाज़ आयेगी कि सबको पानी के जहाज़ मंे बैठाकर बीच समंदर मंे ले जाकर डुबोदो। या फिर फांसी चढ़ादो या गोली मारदो। हम इन सुझावों से सहमत नहीं हैं क्योंकि अकेले नेता ज़िम्मेदार नहीं हैं बल्कि हमारा सारा समाज गड़बड़ है पर जनता की जान से अधिक माननीयों का मान नहीं है, यह बात भी याद रखी जानी चाहिये। जहां तक सांसदों की आलोचना का सवाल है वह बजाये भद्दे शब्दों के तथ्यों और तर्कों पर आधारित होनी चाहिये। मिसाल के तौर पर संसद में जिन सांसदों ने रूपये लेकर सवाल पूछे थे उससे माननीयों के विशेषाधिकार पर सवाल उठने स्वाभाविक ही हैं कि विशेषाधिकार की सीमा तय करने का समय भी आ गया है।
   झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसद रिश्वत कांड में कोर्ट ने यह साफ कहा था कि यह साबित होने के बावजूद कि सांसदों ने रिश्वत लेकर संसद में नरसिम्हा राव सरकार के पक्ष में वोट दिया अदालत इसलिये कोई कार्यवाही नहीं कर सकती क्योंकि उनको संसद में किये गये किसी भी काम के लिये विशेषाधिकार प्राप्त है। इसके बाद मनमोहन सरकार के विश्वास मत के समय भाजपा सांसदों ने सदन में नोटों की गड्डियां लहराते हुए यह आरोप लगाया था कि ये रूपये उनको मनमोहन सरकार के पक्ष में वोट डालने को दिये गये थे लेकिन इस मामले में भी लीपापोती कर दी गयी।
   हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जब सरकार को लताड़ लगाई तो पुलिस कार्यवाही के लिये कुछ सक्रिय होती नज़र आई लेकिन अभी भी गारंटी से यह नहीं कहा जा सकता कि इस केस में भी कोई ठोस एक्शन हो पायेगा।
   यह भी कहा जाता है कि संसद और सांसदों पर उंगली उठाना हमारे लोकतंत्र को कमज़ोर बनायेगा लेकिन यह भी देखा जाना चाहिये कि यह स्थिति क्यों आई कि हमारे सांसद सदन मंे अमर्यादित आचरण करते प्रायः पाये जाते हैं। हाल ही मंे एक निर्णय सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की बैंच ने कहा है कि सरकार अपना काम करने का तरीका अगर नहीं बदलती है तो दस साल बाद देश के लोग आपको खुद ही सबक सिखायेंगे। बैंच ने बिना नाम लिये अन्ना के आंदोलन का उल्लेख करते हुए यहां तक कह दिया कि जो कुछ अब हुआ है आगे आंदोलन इससे भी बड़ा होगा।
   सरकार और सांसद पता नहीं इस बात से परिचित हैं कि नहीं इससे पहले भी कोर्ट को सरकार द्वारा किये जाने वाले तमाम काम इसलिये करने पड़ते हैं क्योंकि सरकार या तो नाकारापन दिखाती है या फिर जानबूझकर भ्रष्ट मंत्रियों अधिकारियों और सांसदों को बचाने के लिये लगातार झूठ पर झूठ बोलती है। गोदामों के बाहर सड़ने वाले अनाज के मामले में सुप्रीम कोर्ट को इसीलिये कहना पड़ा था कि अगर सरकार फालतू अनाज सुरक्षित नहीं रख सकती तो भूखे लोगों को निःशुल्क बांटने की व्यवस्था करे। इस पर पीएम साहब ने न्यायपालिका को अपनी सीमा में रहने का बयान दे दिया जबकि यह नहीें देखा कि उनकी सरकार की नालायकी की वजह से यह हालत बनी।
   इसके बाद सीवीसी पीके थामस और ए राजा से लेकर करूणानिधि की सांसद पुत्री कनिमोझी को बचाने के लिये सरकार ने ज़मीन आसमान एक कर दिया लेकिन जब कोर्ट ने सख़्ती की तो मजबूर होकर थामस को हटाना पड़ा और राजा व कनिमोझी को जेल भेजा गया। ऐसे ही हज़ारों मामलों में यही माननीय सांसद उन भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ जांच होने के बाद पर्याप्त सबूत होने के बाद भी मुकदमा चलाने की अनुमति देने से सरकार को रोकते हैं। बस इन लोगों का तमाम मामलों में एक ही जवाब होता है कि जैसा आलाकमान कहेगा वे वैसा ही करेंगे। हाल ही में आधा दर्जन कांग्रेस शासित राज्यों के सीएम तक यह लिखकर दे चुके हैं कि लोकपाल के मामले में जैसा सोनिया गांध्ी कहंेगी वे वैसा ही लोकपाल स्वीकार करने को तैयार हैं।
   अजीब हालात हैं सोनिया खुद पीएम बनी नहीं। उन्हांेने अपनी कठपुतली बनकर काम करने वाले एक ऐसे पूर्व नौकरशाह को पीएम बना दिया जिसकी अमेरिका, वलर््ड बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रति निष्ठा भी असंदिग्ध रही है। विकीलीक्स ने इस बात का खुलासा काफी पहले कर दिया था। हमारे पीएम साहब एक बार भी जनता के बीच चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं कर सके। इसीलिये सांसदों के संसद में किये गये भ्रष्ट कामों को भी लोकपाल के दायरे में लाने की मांग की जा रही थी।
0 न इधर उधर की बात कर यह बता क़ाफिला क्यों लुटा,

  मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।

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