Tuesday, 4 February 2014

मज़बूत लोकपाल की कुंजी जनता के पास


मज़बूत लोकपाल की कुंजी सत्ता नहीं जनता के पास है!
      -इक़बाल हिंदुस्तानी
     मज़बूत लोकपाल की मांग को लेकर सरकार और अन्ना हज़ारे दोनों अपनी अपनी बात पर अड़ गये हैं। अब सरकार ने अन्ना को 16 अगस्त से अनशन करने को लेकर भी जिस प्रकार अपनी शर्तें थोपनी शुरू की हैं उससे साफ जाहिर है कि सरकार उनके आंदोलन को लेकर घबरा रही है। वह जानती है कि वह चाहे उूपर से कितना ही दिखावा करे कि अन्ना के अनशन का उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने जा रहा लेकिन यूपीए सरकार को डर है कि कहीं पहले की तरह उसके महाभ्रष्टाचार को लेकर अंदर ही अंदर खदबदा रही जनता अगर एक बार अन्ना के अनशन के समर्थन में सड़कों पर उतर आई तो हालात बेकाबू होते देर नहीं लगेगी।
    यहां सरकार एक बड़ी भूल कर रही है यह समझकर कि अगर वह अन्ना को अनशन करने से कम से कम रोक भी नहीं पाये तो तीन दिन और पांच हज़ार लोगों की सीमा लगाकर उसका असर कम से कम कर देगी। ऐसे ही सरकार पहले जंतर मंतर और अब जेपी पार्क को लेकर दिल्ली पुलिस और कानून व्यवस्था की आड़ में टीम अन्ना को इधर से उधर दौड़ाने का जो चूंहा बिल्ली का खेल खेल रही है उससे भी अन्ना को देश में बिना अनशन के ही सहानुभूति और  समर्थन बढ़ रहा है। अगर सरकार अन्ना को कानून के बल पर अनशन लोकतांत्रिक ढंग से  करने से रोकने में कामयाब होने का सपना देख रही है तो यह खुशफहमी उसकी सुप्रीम कोर्ट दूर कर सकता है।
    सरकार शायद यह बात भी भूल गयी है कि योगगुरू बाबा रामदेव के आंदोलन से निबटने को जो तौर तरीके सरकार ने अपनाये थे उसपर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए भविष्य में इस तरह की दमनकारी और अलोकतांत्रिक हरकतों से परहेज़ करने की सख़्त हिदायत की थी। अगर सीमा से बाहर जाकर अन्ना को विरोध के शांतिपूर्ण आंदोलन से रोकने की सत्ता के बल पर कोशिश की गयी तो सबसे बड़ी अदालत एक बार फिर से संविधान की रक्षा के लिये हस्तक्षेप करने को मजबूर हो जायेगी। साथ ही ख़तरा यह भी मौजूद है कि अगर अन्ना के लिये सरकार ने मनमानी करते हुए आंदोलन के सारे रास्ते बंद करने की गल्ती की तो वह अन्न के साथ जल त्याग तक की चेतावनी दे रहे हैं।
    वह अगर जेल में रहकर भी अनशन के साथ जल त्याग कर देते हैं तो फिर जंतर मंतर के अनशन से भी बड़ा भूचाल पूरे देश में सरकार को देखने को मिल सकता है। हालांकि अमेरिका को हमारे घरेलू मामलों में दख़ल नहीं देना चाहिये लेकिन यह भी कड़वा सच है कि वह दख़ल देता है और हमारी सरकारें चाहे भाजपा की हों या कांग्रेस की उसकी बात का असर भी लेती हैं। अमेरिकी प्रतिनिधि ने यह इशारा दे दिया है कि अन्ना को भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने से रोकने को यूपीए सरकार जो तौर तरीके अपना रही है उससे अमेरिका सहमत नहीं है। उसने यहां तक कह दिया है कि अन्ना ही नहीं किसी को भी शांतिपूर्ण तरीके से अपना विरोध दर्ज कराने का अधिकार दिया जाना चाहिये।
    अब देखना यह है कि अपनी स्वतंत्र विदेश नीति से लेकर आर्थिक नीति तक अमेरिका के दबाव में तय करने वाली सरकार अपने आका की हिदायत का इस मामले में कितना पालन करती है।
      कुछ भी हो यह तो मानना ही पड़ेगा कि आखि़रकार सरकार अन्ना के दबाव में कमज़ोर ही सही लोकपाल बिल पेश करने को मजबूर तो हुयी। यह अलग बात है कि वह यह सच किसी कीमत पर मानने को तैयार नहीं है कि यह कमज़ोर और भ्रष्टाचार पर लीपापोती वाला दिखावटी और खोखला लोकपाल भी वह समाजसेवी अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के आंदोलन की वजह से लाने को मजबूर हुयी है।
   हालांकि हम अन्ना की इस ज़िद से सहमत नहीं हैं कि या तो उनकी टीम द्वारा प्रस्तावित मज़बूत और सख़्त जनलोकपाल बिल पेश किया जाये या फिर सरकार अपना औपचारिक और ख़ानापूरी करने वाला लोकपाल  भी पेश न करे। यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे लालू , मुलायम और मायावती आदि कुछ लोग संसद में महिला आरक्षण बिल इसलिये पेश नहीं करने दे रहे क्योंकि इसके पास होने से पिछड़ी, अल्पसंख्यक और दलित जैसी कमज़ोर वर्ग की महिलायें और इनके समाज का प्रतिनिधित्व विधनमंडलों में घट जायेगा। उनकी मांग है कि पहले इन वर्गाें के लिये महिला आरक्षण में अलग से कोटा तय किया जाये तभी वे इस बिल को पास होने देंगे। इससे कुछ लोगों को यह कहने का मौका मिल रहा है कि इस बहाने की आड़ में ये लोग महिलाओं को आरक्षण नहीं देना चाहते क्योंकि इनकी सोच पुरूषप्रधान है।
     लोकपाल के दायरे मंे पीएम, न्यायपालिका और संासदों को रखने से कहीं अधिक आम आदमी की कदम कदम पर होने वाली भ्रष्टाचार से मुठभेड़ है जिस पर अन्ना की टीम के सदस्य और वरिष्ठ समाजसेवी स्वामी अग्निवेश ने बहुत अध्कि जोर दिया है । यह बात सही भी है कि आम आदमी रिश्वत खोरी से बेहद नाराज़, परेशान और आज़िज़ आ चुका है। आज हालत यह हो चुकी है कि वह थाने जाता है तो उसको वहां शिकायत सुनने की बजाये दुत्कार दिया जाता है और वह तहसील जाता है वहां उसके राशन कार्ड से लेकर जाति प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र और खसरा खतौनी के रेट तय है। जो यह तयशुदा सुविधा शुल्क नहीं देगा उसका काम नहीं होगा।
     इतना ही नहीं यही आम आदमी सरकारी अस्पताल जायेगा तो अव्वल तो वहां डाक्टर नहीं मिलेगा और संयोग से वह मिल गया तो ऐसे पेश आयेगा मानो उस मरीज़ को देखकर कोई ऐहसान कर रहा हो। कभी कभी वह  भी 50 या 100 रुपये जेब गर्म करने को मांग लेता है। अब बारी आयेगी दवा की तो वह तो कभी की ख़त्म बताई जायेगी। अगर धोखे से कोई दवाई वहां मौजूद मिल भी गयी तो फिर वही भेंटपूजा का सवाल सामने आयेगा। वही आम आदमी बैंक जायेगा तो उसका खाता नहीं खुलेगा जैसे वह कोई विदेशी नागरिक या बंगलादेशी घुसपैठिया हो।
    अगर किसी की सिफारिश या शिकायत के डर से खाता खोलने को बैंक तैयार भी होगा तो निवास प्रमाण पत्र के नाम पर उससे डोमिसाइल मांगा जायेगा जो एक दो सप्ताह और 500 से हज़ार रुपये के ख़र्च में बनेगा। अगर उसको खाता अपने बच्चे के स्कूल के वज़ीफे के लिये खोलना हो तो भले ही वह खाता बिना मोटी रक़म यानी नोप्रिफल एकाउंट के नाम पर खोलने के रिज़र्व बैंक के आदेश हों लेकिन और झमेले इतने खड़े कर दिये जायेंगे कि वह तौबा कर लेगा। बैंक से साधरण आदमी को कर्ज मिलने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।
    इतना ही नहीं अगर उसका बच्चा उच्च शिक्षा में अपनी प्रतिभा के बल पर आ जाता है तो उसको एजुकेशन लोन देने में भी जमकर चक्क्र कटाये जायेंगे। कारोबार करने को तो उस आम आदमी को बैंक अपने पास फटकने भी नहीं देते। हद यह है कि वह जिस काम से जिस सरकारी कार्यालय में जाता है वहां उसको भूखे भेड़ियों की तरह शिकार बनाने का निर्लज प्रयास किया जाता है।
    इसलिये सबसे अधिक ज़रूरी यह है कि निचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिये आम आदमी को यह अधिकार दिया जाना चाहिये था कि वह सीधे लोकपाल को किसी अधिकारी या कर्मचारी की शिकायत करे और तय समयसीमा में उस पर कार्यवाही किया जाना ज़रूरी हो, लेकिन हमारा मानना यह है कि अन्ना को यह समझना चाहिये कि जो नेता खुद अधिकांश भ्रष्ट माने जाते हैं और पिछले 43 साल से लोकपाल लाने से जानबूझकर बच रहे हैं तो फिलहाल अगर एक लंगड़ा लूला और दिखावटी लोकपाल ही लाने को सरकार अगर बेमन से तैयार हुयी है तो यह समय इस मांग पर अड़ने का नहीं है कि या तो वैसा ही मज़बूत लोकपाल बिल पास करो जैसा इस देश की जनता चाहती है या फिर हम कमज़ोर लोकपाल को भी पास कराना नहीं चाहते।
     अन्ना की टीम को एक कड़वी हक़ीक़त और माननी चाहिये कि इस देश की जनता ने जिन भ्रष्ट राजनेताओं को चुना है जब तक चुनाव में या राइट टू रिकॉल से उनको हटाकर उनकी औकात नहीं बताई जायेगी तब तक उनको इस खुशफहमी में रहने से नहीं रोका जा सकता कि उनके पास पांच साल मनमानी करने का लाइसेंस है। जब मतदाता धर्म, जाति और धन के लोभ में वोट डालेंगे तो भ्रष्टाचार, कालाधन और पूंजीवादी नीतियों को लागू करने से सरकार को कैसे रोका जा सकता है। एक समस्या और सामने आती है कि कांग्रेस नामक सांपनाथ को सत्ता से बाहर करें तो भाजपा नामक नागनाथ की सरकार बनने का रास्ता खुल जाता है जबकि कम्युनिस्टों को इस देश की आस्तिक जनता गले से उतारने को किसी कीमत पर तैयार नहीं होती, क्षेत्राीय दलों का की हैसियत न तो सेंटर सरकार बनाने लायक है और न ही उनका रिकॉर्ड भी कोई बहुत अच्छा है तो फिर जनता करे तो क्या करे?
   अन्ना इसके लिये पहले सामाजिक आंदोलन चलाकर लोगों की मानसिकता बदलें तो मज़बूत लोकपाल का रास्ता इसी जनता के बीच से होकर निकल सकता है। मशहूर शायर की कुछ लाइनें याद आ रही है-
0 चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया,
  पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया,
  तुम बीच में न आती तो कैसे बनाता सीढ़ियां,

  दीवारों में मेरी राह में आने का शुक्रिया।।

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