मुसलमानांे
को आरक्षण से पहले उच्च ि श्क्षा की ज़रूरत है!
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0अब
तक उनको सभी राजनीतिक दलों द्वारा भावनाओं में बहाकर मात्र वोटबैंक के रूप में
इस्तेमाल किया जाता रहा है!
आजकल मुसलमानों को राज्य और केंद्र सरकार की
ओर से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण देने की ज़ोरशोर से वकालत की
जा रही है। हम यहां इस बात पर चर्चा नहीं करना चाहते कि यह कवायद इस समय यूपी का
चुनाव नज़दीक देखकर मुसलमानों को वोटों के लिये पटाने के लिये की जा रही है या
वास्तव में उनका भला करने की नीयत है? अगर
उनका वाक़ई कल्याण करना है तो केवल आरक्षण से काम नहीं चलेगा। क्योंकि आरक्षण
पिछड़ों के कोटे से उनको अगर दिया भी जाता है तो यह असली सवाल जल्दी ही सामने आ
जायेगा कि दलितों की तरह उनके लिये नौकरियां तो उपलब्ध करा दी गयीं लेकिन वे इतने
पढ़े लिखे, सम्पन्न
और सक्षम हैं ही नहीं कि उनको आरक्षित सेवाओं का पूरा लाभ दिया जा सके। फिर
निजीकरण के इस दौर में सरकारी नौकरियां बची ही गिनती की हैं। इसलिये केवल आरक्षण
से पूरी कौम का भला नहीं हो सकता। इसके लिये तो सबका विकास ही एकमात्र रास्ता है।
जहां तक उच्च शिक्षण संस्थाओं में उनको आरक्षण
देने की बात है तो मुसलमानों में आधुनिक
शिक्षा को लेकर अकसर यह बहस होती रही है
कि वे दीनी तालीम को ही असली शिक्षा क्यों समझते हैं ? एक आंकड़ें से इस बात को समझा जा सकता है। एक
शिकायत यह की जाती है कि मुसलमानों की आबादी तो देश मंे सरकारी आंकड़ों के हिसाब से
13.5 प्रतिशत है जबकि खुद मुसलमानों के दावे के अनुसार असली आबादी 20 परसेंट से भी
अधिक हैं, और उनकी भागीदारी सरकार की ए क्लास सेवाओं में
मात्र एक से दो प्रतिशत है। इसका कारण उनके साथ पक्षपात होना बताया जाता है जबकि
हमें यह बात पूरी तरह ठीक इसलिये नज़र नहीं आती क्योंकि एक तो भारतीय प्रशासनिक
सेवा के लिये चयन का तरीका इतना पारदर्शी और निष्पक्ष है कि उसमें भेदभाव की
गुंजाइश ही नहीं है।
इसका सबूत सहारनपुर मदरसे के एक मौलाना और
कश्मीर का वह युवा शाह फैसल है जिसने कुछ साल पहले आईएएस परीक्षा में टॉप किया था।
एक वजह और है। इस तरह की सेवाओं के लिये ग्रेज्युएट होना और महंगी कोचिंग हासिल
करना आजकल ज़रूरी माना जाता है जबकि मुसलमानों में स्नातक पास की दर 3.6 प्रतिशत
है। साथ ही इंग्लिश मीडियम कालेज और महंगी कोचिंग की सुविधा उनको उपलब्ध नहीं है।
अधिकांश मुसलमान चूंकि गरीब और पिछड़े हैं लिहाज़ा वे इस स्तर तक आसानी से पहंुच ही
नहीं पाते। ऐसा सच्चर कमैटी की रिपोर्ट में दर्ज है। एक समय था जब सर सैयद अहमद
खां ने इस ज़रूरत को समझा था और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की स्थापना की।
मुसलमानों के धार्मिक नेताओं ने उनको
अंग्रेज़ों का एजेंट बताया गया और बाक़ायदा अंग्रेज़ी पढ़ने और उनके खिलाफ़ अरब से फ़तवा
लाया गया। उनको चंदे के तौर पर जूते भेंट किये गये लेकिन उनको अपनी कौम से दिली
हमदर्दी थी सो उन्होंने बुरा नहीं माना और लगातार अपने मिशन में बदनामी और जान का
ख़तरा उठाकर भी लगे रहे। मुसलमानों को यह बात समझनी होगी कि आज केवल मदरसे की
तालीम से वे दुनिया की दौड़ में आगे नहीं बढ़ सकते।
मैं अपने शहर नजीबाबाद ज़िला बिजनौर यूपी मंे
देखता हूं। यहां मुसलमानों की आबादी 65 प्रतिशत से अधिक है। यहां 12 इंटर कालेज
हैं जिनमें से केवल 2 मुस्लिमों के हैं। दो डिग्री कालेजों मंे से उनका एक भी नहीं
है। इन 14 में से 4 जिनमें दोनों डिग्री कालेज भी शामिल हैं, एक और अल्पसंख्यक समाज जैन बंधुओं के बनाये
हुए हैं। मात्र एक प्रतिशत आबादी वाले सिख समाज का भी एक इंटर कालेज है। ईसाई तो
बेहतरीन सैंट मैरिज़ स्कूल हर नगर कस्बे की तरह यहां भी चला ही रहे हैं। मज़ेदार बात
यह है कि जो दो कालेज मुस्लिमों के हैं उनमें भी प्रबंधतंत्र में भयंकर विवाद है।
हम यह नहीं कहना चाहते कि उनको दूसरे कालेजों में प्रवेश नहीं मिलता या उनको वहां
नहीं पढ़ना चाहिये बल्कि इससे उनके आधुनिक और प्रगतिशील शिक्षा के प्रति रुजहान का
पता चलता है।
दूसरी तरफ देखिये नजीबाबाद में पिछले दिनों
मस्जिदों का नवीनीकरण और नये मदरसे बनाने का बड़े पैमाने पर अभियान चल रहा है। हो
सकता है यह अभियान कमोबेश और स्थानों पर भी चल रहा हो लेकिन मुझे वहां के बारे में
पक्का मालूम नहीं है। नजीबाबाद की लगभग पचास मस्जिदों को सजाने संवारने में दस लाख
से लेकर एक करोड़ रुपया तक ख़र्च किया जा रहा है। इस रुपये का अधिकांश हिस्सा
स्थानीय मुसलमानों ने अपने खून पसीने की कमाई से चंदे की शक्ल में दिया है। ऐसा ही
कुछ मामला मदरसों के नवीनीकरण और नवनिर्माण का भी है।
इन मदरसों का मौलाना सरकार की लाख कोशिशों के
बावजूद आध्ुानिकीकरण कर साइंस और मैथ पढ़ाने को तैयार नहीं हैं, ऐसे में मुसलमान दुनियावी, अंग्रेजी मीडियम और उच्च शिक्षा जब नहीं
लेंगे तो वे आरक्षण पाकर भी कैसे आगे बढ़ सकते हैं। इस पर बहस होनी ही चाहिये कि
इसी मज़हबी कट्टरता की सोच की वजह से भी तो कहीं उनकी आज यह हालत नहीं हुई?
किसी भी रोग के इलाज के लिये सबसे पहले यह
मानना पड़ता है कि आप बीमार हैं। अगर आप अपनी कमियों और बुराइयों के लिये किसी
दूसरे की साज़िश को ज़िम्मेदार ठहराकर केवल कोसते रहेंगे तो कभी समस्या का हल नहीं
निकल पायेगा। यह आरोप लगाना बहुत आसान है कि हमारे साथ पक्षपात होता है। अगर आज
मुसलमान शिक्षा, व्यापार, राजनीति, अर्थजगत, विज्ञान, तकनीक, शोध
कार्यों, सरकारी
सेवाओं और उद्योग आदि क्षेत्रों में पीछे है तो इसके लिये उनको अपने गिरेबान मंे
झांककर देखना होगा न कि दूसरे लोगों को दोष देकर इसमें कोई सुधार होगा। समय के साथ
बदलाव जो लोग स्वीकार नहीं करते उनको तरक्की की दौड़ में पीछे रहने से कोई बचा नहीं
सकता।
अंधविश्वास और भाग्य के भरोसे पड़े रहने से जो
कुछ आपके पास मौजूद है उसके भी खो जाने की आशंका अधिक हैं। हम यह नहीं कह सकते कि
प्रगति और उन्नति के लिये हम अपने मज़हब को छोड़कर आध्ुानिकता और भौतिकता के नंगे और
स्वार्थी रास्ते पर आंखे बंद करके चल पड़ें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि आज के
दौर में जो लोग आगे बढ़कर अपना हक़ खुद हासिल करने को संगठित और परस्पर सहयोग और
तालमेल का रास्ता दूसरे लोगों के साथ नहीं अपनायेंगे उनको पिछड़ने से कोई बचा नहीं
सकता। मुसलमानों को यह सोचना होगा कि समाज के दूसरे वर्गों के साथ कैसे मिलजुलकर
कट्टरपंथ को छोड़कर हर क्षेत्र में आगे बढ़ना है।
मुस्लिम समाज को लेकर कुछ लोगांे ने यह राय
बना रखी है कि यह एक बंद सोच का समाज है जिसे भावनाओं में बहाकर वोट लिये जा सकते
हैं। हिंदू समाज को भी कुछ समय तक इस तरीके से वोेटों की राजनीति के लिये इस्तेमाल
किया गया लेकिन वह जल्दी ही इस चक्रव्यूह से बाहर निकल आया जिससे वोटों के
सौदागरों का वोटबैंक का खेल वहां अधिक नहीं चल पाया लेकिन कुछ दल और नेता
मुसलमानों की समस्याओं को हल करने की बजाये उनको भड़का कर वोट तो ले लेते हैं लेकिन
उनको मात्र बातों से खुश रखना चाहते हैं।
उर्दू , मुस्लिम
यूनिवर्सिटी, मुस्लिम
पर्सनल लॉ, शरीयत, बाबरी मस्जिद, भाजपा, तसलीमा
नसरीन और सलमान रूशदी कुछ ऐसे भावुक मुद्दे नेताआंे ने मुसलमानों को हमेशा उलझाने
के लिये बना रखे हैं जिनसे बाहर निकलने की कोई कोशिश परवान चढ़ाने की कोई कोशिश कोई
करता है तो उन लोगों को अपनी राजनीति ख़तरे में नज़र आने लगती है। बिरादरी और धर्म
से उूपर उठकर वोट करने से जो विकास होगा स्वाभाविक रूप से उसका लाभ मुस्लिमों को
भी मिलेगा। सड़क, स्कूल, अस्पताल और कारखाने अगर किसी राज्य में लगते
हैं तो उस विकास का लाभ अपने आप ही मुस्लिम आबादी को भी मिलना तय है।
दरअसल इस बात को संजीदगी से समझने की ज़रूरत
है कि कोई भी पार्टी या नेता अगर किसी भी वर्ग या जाति को यह सपना दिखाता है कि वह
ही उसका एकमात्र मसीहा है तो वह सरासर झूठा और मक्कार होता है। अगर कोई विकास होगा
ही नहीं तो चंद लोगों को छोड़कर एक बिरादरी या धर्म के लोगों को भी क्या लाभ हो
सकता है? जिस
प्रकार बसपा की सरकार में मायावती ने यह भ्रम फैलाया है कि वह दलितों की एकमात्र
मसीहा हैं उनके कामों से यह साबित नहीं किया जा सकता कि उन्होंने दलितों की भलाई
के लिये कोई ठोस काम किये हैं। हां दलित विद्वानों और महापुरूषों के नाम पर
उन्होंने पार्क, योजनाएं
और ज़िले बनाकर दलितों को मानसिक रूप यह सम्मान और आभास ज़रूर कराया है कि वे भी
सत्ता में आकर अपना सर गर्व से उूंचा कर सकते हैं।
ऐसे ही यूपी के कई बार सीएम रहे मुलायम सिंह
यादव यह खास ध्यान रखते हैं कि ऐसे कौन से बयान हैं जो देकर मुसलमानों को खुश किया
जा सकता है। भाजपा और शिवसेना भी यही काम हिंदुओं के द्वारा करने की कोशिश करके
फेल हो चुकी हैं। अब सबका विकास ही एकमात्र रास्ता बचा है।
0 मेरे
बच्चे तुम्हारे लफ्ज़ को रोटी समझते हैं,
ज़्ारा तक़रीर कर दीजिये कि इनका पेट भर जाये।
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