Tuesday, 4 February 2014

मोदी के PM बनने की कवायद


मोदी की पीएम बनने की क़वायद या पश्चाताप?
0 शक क्यों न हो राजनेताओं ने अपनी विश्वसनीयता गंवा दी है!
           -इक़बाल हिंदुस्तानी
       गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के अपने पक्ष मंे दिये गये एक फैसले के बाद जिस तरह से तीन दिन का उपवास सद्भावना के लिये रखा उसका मतलब अलग अलग निकाला जा रहा है। हालांकि इसका मक़सद एकता के लिये प्रार्थना बताया जा रहा है लेकिन उनके विरोधी और खासतौर पर कांग्रेसी शंकर सिंह वाघेला इसे ढोंग बताने के बावजूद खुद इसी तरह का उपवास कर रहे हैं। मोदी इस उपवास के ज़रिये जो संदेश देना चाहते हैं उसके लिये उन्होंने प्रदेशवासियों के नाम एक चिट्ठी भी लिखी है जिसको पूरे देश की जनता तक पहुंचाने के लिये अख़बारों और टीवी चैनलों पर प्रकाशित और प्रसारित किया गया है। मोदी ने अपने उपवास को एक मिशन का नाम दिया है और देश के साथ साथ इस को समाज को भी समर्पित किया है। इस अभियान का उद्देश्य सभी के लिये एकता, सौहार्द और भाईचारे की कामना बताया गया है।
   चिट्ठी में मोदी ने यह माना है कि 21वीं सदी की शुरूआत गुजरात के लिये अच्छी नहीं रही जिसमें भूकंप से लेकर 2002 के दंगों में गयी बेकसूर लोगों की जान और माल के नुकसान को दुःखद दौर स्वीकार किया गया है। मोदी ने यह तो कबूल किया कि वे कसौटी के दिन थे लेकिन यह नहीं माना कि इस परीक्षा मंे वे जानबूझर भी नाकाम रहे। यह ठीक है कि आज गुजरात विकास कर रहा है लेकिन यह सच मोदी को अब पता लगा है कि शांति, एकता, सद्भाव और भाईचारे का वातावरण ही प्रगति को सही दिशा में ले जा सकता है। मोदी का दृढ़ता से यह मानना कि जातिवाद के ज़हर और साम्प्रदायिक उन्माद ने कभी किसी का भला नहीं किया, अगर सच है तो सुखद आश्चर्य का विषय है।
   साथ ही गुजरात ने भी यह बात समझ ली हैकहना एक तरह से यह माना जा सकता है कि मोदी और उनकी भाजपा ने भी यह वास्तविकता स्वीकार कर ली है। ऐसी विकृतियों से उूपर उठकर गुजरात ने सर्वसमावेशी विकास का मार्ग अपनाया है यह बताता है कि धर्मनिर्पेक्षतावादियों की यह दलील देर से ही सही मोदी को माननी पड़ी है कि विकास का असली मतलब क्या होता है।
   इतना ही नहीं घोर साम्प्रदाायिक, संकीर्ण और अहंकारी माने जाने वाले मोदी ने यह पहली बार कहा है कि वे उन लोगों के आभारी हैं जिन्होंने पिछले दस सालों में उनका ध्यान उनकी वास्तविक गल्तियों की ओर आकृष्ट किया है। मोदी अब तत्कालीन एनडीए सरकार के पीएम वाजपेयी की राजधर्म निभाने की सलाह पर भी सहमत होते नज़र आ रहे हैं जिसमें वे कहते हैं कि राज्य का सीएम होनेे के नाते हर नागरिक की पीड़ा उनकी अपनी पीड़ा है और सभी को न्याय मिले यह राज्य का कर्तव्य है। सबका साथ सबका विकास का नारा भी मोदी की पहले की हिंदूवादी एकतरफा छवि से छुटकारा पाने का प्रयास नज़र आता है।
   देश एकता और विविधता की बेहतरीन मिसाल मान लेने वाले मोदी मन से यह मानते हैं या नहीं यह तो उनका मिशन पीएम पूरा होने के बाद ही पता चल सकता है, बहरहाल सवाल यह अहम है कि उनकी मातृसंस्था आरएसएस उनको केवल बदला हुआ प्रोजेक्ट करना चाहती है या अपना सदियों पुराना नज़रिया बदलकर कथनी करनी एक रखते हुए इस देश की राजनीति और व्यवस्था को आमूल चूल बदलकर भ्रष्टाचार और अन्याय से वास्तव में मुक्त करना चाहती है।
   जहां तक अमेरिका का सवाल है उसे मोदी,भाजपा या गुजरात से कोई लेना देना नहीं है उसका तो एक सूत्री प्रोग्राम यह है कि कल अगर राहुल गांधी या कांग्रेस की बजाये भारत के लोग सत्ता का ताज मोदी के सर पर रख देते हैं तो साम्प्रदायिकता, दंगे और संकीर्णता का चोला उतारकर मोदी अभी से एकता और भाईचारे का तानाबाना बुनते नज़र आयें जिससे हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और वाली कहावत लागू होती नज़र आये तो कोई बुराई नहीं है लेकिन मोदी की दंगों और अहंकार वाली छवि के रहते उनको जैसा का तैसा स्वीकार करना अमेरिका के लिये मुश्किल होगा।
   यह सारी कवायद कोर्ट के जिस फेसले को लेकर चल रही उसमें सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात मंे गोधरा कांड के बाद हुए दंगों की एक अहम घटना गुलबर्ग सोसायटी के मामले में यह फैसला दिया है कि इस केस की सुनवाई पहले नियमानुसार निचली अदालत में ही की जाये। इस एक तकनीकी पहलू को गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने इतना बड़ा मुद्दा बना दिया है मानो सुप्रीम कोर्ट ने उनको दंगों में बेदाग घोषित कर दिया हो या फिर यह मान लिया हो कि गुजरात मंे दंगा ही नहीं हुआ। सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने ही इससे पहले दंगो से जुड़े कई बेहद गंभीर मामले गुजरात से दूसरे राज्यों में केवल इस आशंका से स्थानान्तरित कर दिये थे क्योंकि मोदी की विवादास्पद छवि को देखते हुए कोर्ट ने यह मान लिया था कि गुजरात में निष्पक्ष सुनवाई संभव नहीं है।
    गुलबर्ग सोसायटी वाले मामले मंे दंगाइयों ने कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी सहित सैकड़ों लोगों को पुलिस की मौजूदगी में ज़िंदा जलाकर मार डाला था। यह भी चर्चा है कि जब जाफरी ने मोदी से संपर्क करने का प्रयास किया तो उनसे तो जाफरी की बात नहीं हो पाई लेकिन मोदी की तरफ से भी उनको निराशाजनक जवाब ऐसा ही दिया गया जिसका मतलब यह निकलता था कि अब अपनी हाईकमान सोनिया गांधी से कहो कि वह आपको बचायें। यह तो दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि इन बातों में कितनी सच्चाई है लेकिन यह सच आईने की तरह बिल्कुल साफ है कि मोदी ने दंगों के दौरान वही भूमिका अदा की जो रोम जलने पर नीरो ने बंसरी बजाकर की थी।
    इसी हरकत पर उस समय के पीएम अटल बिहारी वाजपेेयी ने मोदी से राजधर्म निभाने को कहा भी था लेकिन तत्कालीन गृहमंत्राी और उपप्रधानमंत्री एल के आडवाणी का खुला समर्थन चूंकि आरएसएस के साथ मोदी को प्राप्त था जिससे सब सोची समझी साज़िश का हिसाब से माना जाता रहा है।
     दंगे जिस तरह शुरू हुए और जितने बड़े पैमाने पर चले और जैसे चुनचुनकर अल्पसंख्यकांे को निशाना बनाया गया, उससे साफ पता चल रहा था कि इसमें मोदी की शह शामिल है। सरकारी मशीनरी और पुलिस को शासन ने किस तरह तमाशाई या दंगाइयों की मदद करने को कहा हुआ था इसका भंडाफोड़ कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से लेकर हर्षमंदर जैसे ईमानदार आइएएस पहले ही कर चुके हैं। आज जिस अमेरिकी रिपोर्ट को लेकर मोदी फूले नहीं समा रहे इसी अमेरिका ने उनको वीज़ा देने से इंकार कर उनको भारत का पहला दंगाई मुख्यमंत्राी होने का तमगा भी दिया था।
    यह ठीक है कि गोधरा दंगों के बाद हिंदू साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से हारती लग रही बीजेपी इंसानी लाशों पर वोट लेकर जीत गयी थी। यह भी सही है कि गुजरात में विदेशी निवेश से लेकर विकास और प्रगति के कई आयाम तय किये गये हैं लेकिन जिस मुख्यमंत्री का नज़रिया अपनी जनता के लिये हिंदू मुस्लिम जैसा साम्प्रदायिक और संकीर्ण रहा हो वह भारत का पीएम बनने का सपना भले ही देखता हो लेकिन उसको इस देश की जनता इसलिये भी सर माथे पर नहीं बैठा सकती क्योंकि अटल जैसे उदार समझे जाने वाले नेता को तो राजग के घटक दल पीएम बनाने पर राज़ी हो गये थे लेकिन कट्टर समझे जाने वाले आडवाणी का ही नम्बर आज तक नहीं आ सका है।
    शायद मोदी भूल रहे हैं कि उनको बिहार में नितीश कुमार ने चुनाव प्रचार से दूर रखकर ही इतनी भारी जीत हासिल की थी। ममता, जयललिता, नवीन पटनायक, चन्दरबाबू नायडू और मायावती तक को मोदी के नाम पर सख़्त एतराज रहा है जिससे वह कभी भी इस देश की मुस्लिम ही नहीं अधिकांश उदार और सेकुलर हिंदू जनता के नेता नहीं बन सकते अगर विश्वास नहीं हो तो पीएम पद के दावेदार बनकर भ्रम दूर करलें।
 0 सिर्फ़ एक क़दम उठा था गलत राहे शौक में,

    मंज़िल  तमाम  उम्र  मुझे  ढूंढती  रही ।।  

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