मीडिया के निषाने
पर अमीर और ताक़तवर लोग क्यों नहीं आते?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0 पीएम बेईमान सरकार के मुखिया फिर भी ईमानदार बता रहा है
मीडिया
आज मीडिया की
हालत यह है कि पीएम मनमोहन सिंह को ईमानदार का तमग़ा तब भी बराबर यही मीडिया दिये
चला जा रहा है जबकि उनके नेतृत्व में चल रही सरकार अलीबाबा चालीस चोर की कहानी
दोहराती नज़र आ रही है। अगर नोट किया जाये तो उद्योगपति कभी हमारे मीडिया के निशाने
पर नहीं होते वजह मनमाफिक खुराक मिलते रहना, बदले में मुंह बंद
रखना। सरकारी मशीनरी में भी बड़े नौकरशाह हमेशा इस बात का ख़याल रखते हैं कि किस
मीडिया वाले को विज्ञापन, नक़द या उपहार से खुश रखना है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब
मीडिया खुद ही भ्रष्टाचार का केंद्र बन चुका हो तो वह दूसरे के भ्र्र्रष्टाचार को
रोकना तो दूर उजागर करने के लिये भी कहां से दिल और हिम्मत लायेगा? बिकाउू
कंटेंट और मुनाफाखोरी के एकसूत्री प्रोग्राम से चल रहा मीडिया भ्र्र्र्र्रष्ट नहीं
होगा तो क्या होगा? अब मीडिया दो चार ख़बरों कोे रोकने या छापने के पैसे नहीं
लेता बल्कि पूरा ठेका लेता है।
राष्ट्रमंडल
खेलों के घोटालों को लेकर जो कुछ अंदरखाने तय हुआ था वह सबके सामने आ ही चुका है।
जिनको प्रचार का ठेका मिल गया वे उसकी गड़बड़ी देखकर भी अनदेखा कर रहे थे और जिनको
टुकड़ा नहीं डाला गया वे पहले दिन से बखिया उध्ेाड़ रहे थे। अब तो पूरे मीडिया
संस्थान ही बिकने लगे हैं जो सुरेश कलमाड़ी को वचन दे चुके थे कि वे न केवल देश की
शान कॉनवैल्थ गेम्स को बताकर उनकी इज़्ज़्ात में चार चांद लगाने वाले संपादकीय
लिखेंगे बल्कि किसी तरह की गड़बड़ी या कमी सामने आने पर हल्का हाथ रखेेंगे। आज
मीडिया में भी उसी तरह से भ्रष्टाचार व्याप्त हो चुका है जिस तरह से समाज के अन्य
क्षेत्रों में इसने जड़ें जमा ली है। वैसे भी यह तो स्वाभाविक सी बात है कि
भ्रष्टाचार को पनपने के लिये जो उर्वर ज़मीन चाहिये वह मीडिया में प्रचुर मात्रा
में मौजूद है।
शक्ति चाहे जिस तरह
की हो वह भ्रष्टाचार का आवश्यक संसाधन माना जाता है और आज के दौर में जब
जनप्रतिनिधियों और न्याय के मंदिरों तक पर उंगलिया उठ रही हों तो मीडिया अपने आप
ही और भी ताकतवर हो जाता है। जहां अधिकार हैं वहां उनका दुरूपयोग होने की भी उतनी
ही अधिक संभावना सदा से रही है। एक ऐसा समाज जो धर्म और नैतिकता का ढोंग अधिक करता
हो जबकि व्यवहार में पूरी तरह बेईमान और अव्वल दर्जे का शैतान बन चुका हो वहां
मीडिया का और अधिक उसको कैश करना तय है। जहां तक इलैक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया का
सवाल है वह तब बेमानी हो जाता है जबकि कम और ज्यादा का अंतर उनकी ब्लैकमेलिंग में
रह जाता है। दर्शक और पाठक की तादाद अलग अलग होने से उसके उद्देश्य और लक्ष्य पर
कोई अंतर नहीं पड़ता।
जब से चुनाव में
पेड नीव्ज़ का चलन आया है तब से तो भ्रष्टाचार की मीडिय में हद ही नहीं रही है। मैं
कुछ दैनिक अख़बारों का चीफ ब्यूरो और अपने अख़बार का संपादक और प्रकाशक भी रहा हूं
सो अच्छी तरह देखा और समझा है कि मीडिया किस तरह सफाई से अपने विज्ञापनों से लेकर
अन्य स्वार्थों की पूर्ति करता है। मिसाल के तौर पर एक विज्ञापन तो वह होता है जो
उसको छपवाने वाला खुद चलकर हमारे पास आता है और एक विज्ञापन वह होता है जो हम
पत्रकार लोग पार्टी से जाकर मांगते हैं। वह कभी इस दबाव में कि विज्ञापन न देने पर
कहीं यह उसके खिलाफ ख़बर न छापदे और कभी इस डर से कि उसकी जरूरी ख़बर छापने से
इनकार न करदे, अनचाहे मन से एड. दे देता है। भले ही वह मन ही मन मीडिया को
गालियां देता रहे।
कुछ मीडियावाले
तो यह ज़हमत भी गवारा नहीं करते कि पार्टी से अनुमति तो दूर उसका मैटर तक ले लें।
वे तो ज़बरदस्ती उसका विज्ञापन छापकर बिल थमा आते हैं। अब या तो बंदा पत्रकार से
भुगतान न कर दुश्मनी मोल ले या फिर उसको बर्दाश्त से बाहर होने के बावजूद बिल अदा
करे। इतना ही नहीं असली समस्या यह एक एड छपने के बाद शुरू होती है कि देखा देखी और
अख़बार वाले भी जबरन यही एड छापकर उस पार्टी के पास पहंुचने लगते हैं। यही कारण है
कि कई बार भनक लगने पर पार्टी संवाददाता से अपील करती है कि वह अपना कमीशन ले ले
और एड न छापे और कई बार वह पूरे बिल का पेमेंट भी इस शर्त पर कर देती है कि उसका
एड किसी कीमत पर न छापा जाये। इतना ही नहीं कुछ सनक की हद तक ईमानदार पत्रकार जब
उससे हर हाल में विज्ञापन छापकर ही पैसा लेने की बात कहते हैं तो वह अपने बच्चो के
नाम या फोटो देकर अनजान एड के लिये हामी भर लेता है। जिसके नीचे हम सब या नागरिक
आदि छद्म नाम लिखा होता है।
चुनाव के दौरान
पहले तो एड की पौबारह रहती थी लेकिन इन दिनों पेड नीव्ज़ का एक शालीन नाम रखा गया
है ‘पैकेज’। यह पैकेज क्या अच्छा खासा अख़बार और पत्रकार के बीच एक
खुला सौदा होता है अपनी विश्वसनीयता और ईमानदारी को नीलाम करने का। पैकेज देने
वाला नेता, दल या प्रत्याशी दो टूक तय कर लेता है कि अब वह ज़माना तो
गया जब लोग अख़बार में एड देखकर या ज़्यादा एड छपता देखकर प्रभावित होे जाते थे और
वोट दे दिया करते थे। अब तो वह देखना चाहते हैं कि किसका पलड़ा चुनाव में भारी हो
रहा है। इस पैकेज के तहत फर्जी सर्वे और विश्लेषण छापे जाते हैं जो वास्तव में तो
विज्ञापन ही होेते हैं लेकिन उनको समाचार के रूप में छापकर पाठकों को धेखा दिया
जाता है। कई कम बेईमान अख़बार वाले उस ख़बरनुमा विज्ञपान के नीचे बहुत बारीक और
छोटे फोंट में ‘एडीवीटी’ का टीका लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
0 नहीं शिकवा मुझे कुछ बेवफाई का तेरी हरगिज़,
गिला तब हो अगर
तूने किसी से भी निभाई हो।
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