Monday, 3 February 2014

विकास की राजनीति और UP


विकास की राजनीति को तरसता यूपी
         -इक़बाल हिंदुस्तानी
कांग्रेस के युवराज माने जाने वाले राहुल गांधी को यूपी की दयनीय हालत देखकर गुस्सा आता है तो प्रदेश के नेताओं को युवराज पर इस बात को लेकर गुस्सा आ रहा है कि उनको कांग्रेस शासित राज्यों और केन्द्र का भ्रष्टाचार , जंगलराज और महंगाई नहीं दिख रही। उधर सपा बसपा का जातिवादी और भाजपा का साम्प्रदायिक राज देख चुका यहां का मतदाता इन सब दलों की राजनीतिक पैंतरेबाजी देखकर गुस्सा हो रहा है। कभी केंद्र की राजनीति को निर्णायक रूप से तय करने वाला देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश आज धर्म और जाति की राजनीति की अंधी सुरंग में फंसकर रह गया है।
   हालांकि उत्तराखंड बनने के बावजूद लोकसभा की 80 और विधानसभा की 403 सीटों के एतबार से देखा जाये तो इसके प्रभाव और महत्व में कुछ ख़ास अंतर नहीं आना चाहिये था, लेकिन 1989 के बाद से बाबरी मस्जिद/रामजन्मभूमि विवाद  से राज्य की राजनीति ने जो करवट ली वह आज तक पटरी पर वापस लौटने को तैयार नहीं लगती। 2007 के चुनाव में जब लंबे समय के बाद बसपा की बहनजी के नेतृत्व में 206 विधायकों की स्पश्ट बहुमत की सरकार बनी तो लोगों का विश्वास था कि शायद अब रोज़ रोज़ गठबंधन तोड़ने की छोटे राजनीतिक दलों और निर्दलीय विधायकों की ब्लैकमेलिंग पर रोक लगेगी और मायावती न केवल दलितों बल्कि पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और गरीब उच्च जातियों के भी हितों का पूरा ख़याल रखते हुए तेजी से विकास कार्यों का बढ़ावा देंगी।  
    इससे पहले लोगों को सपा के राज के अंतिम दिनों में निठारी का वह वीभत्स कांड भी याद था जिस पर बड़े आराम से सपा के वरिष्ठ नेता और मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव ने यह कहकर लोगों के ज़ख़मों पर नमक छिड़का था कि इतने बड़े प्रदेश में ऐसे छोटे मोटे मामले तो होेते ही रहते हैं। जो बसपा पहले दलित वोट बैंक को पक्का करने के लिये बिना किसी संकोच के तिलक तराज़ू और तलवार, इनको मारो.....का नारा खुलेआम देती थी अब वही ब्रहमा विष्णु महेश है, हाथी नहीं गणेश है का नारा घड़ चुकी थी।
    मुसलमानों ने सपा और कांग्रेस के विकल्प के तौर पर भाजपा का ख़तरा कम होता देख बसपा को एक मौका यह अपील स्वीकार करते हुए भी देने का मन बनाना शुरू किया था कि अगर बसपा इतनी सीटें जीत ले कि उसको भाजपा के समर्थन की आवश्यकता ही न रह जाये तो वह मुसलमानों का सपा से अधिक भला कर सकती है।
    वही हुआ जिसका डर था कि जिस तरह भाजपा ने मंदिर के नाम पर भावनायें भड़काकर 1991 में चुनाव तो जीत लिया लेकिन उसके पास भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटाने का कोई सुनियोजित कार्यक्रम नहीं था जिससे भय और भूख तो प्रदेश में बढ़ती गयी लेकिन भ्रष्टाचार को बढ़ाने का ठेका स्वंय भाजपा की सरकार भी नहीं छोड़ पायी। सपा के राज में भी यादव और पिछड़ी जातियों के साथ मुसलमानों ने जिस उम्मीद से मुलायम को सत्ता सौंपी थी वह कभी परवान चढ़ती नज़र नहीं आई अलबत्ता उर्दू अनुवादकों और शिक्षकों के नाम पर कुछ भर्तियां करने के साथ मुलायम ने अपनी जाति और अपने क्षेत्र सैफई को विश्व स्तर की सुविधायें देने मंे कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
   सपा को लगता था कि मुसलमान तो केवल भाजपा की सरकार बनने से रोकने और भावनात्मक बयानों से ही संतुष्ट हो जाता है तो फिर उसके लिये कुछ अधिक करने की क्या ज़रूरत है। इस दौरान सपा ने एक बार चौ0 अजित सिंह के रालोद की सपोर्ट से सरकार बनाई तो कुछ ज़िले उनको अपने तरीके से चलाने को छोड़ दिये जिससे वह भी संतुष्ट रहे।
    अगर धर्म और जाति के आंकड़ों के हिसाब से गुणा भाग की जाये तो प्रदेश में सबसे अधिक संख्या 28 प्रतिशत पिछड़ी जाति, उसके बाद 22 प्रतिशत दलित, 16 प्रतिशत मुसलमान, 11 प्रतिशत ब्रहम्ण, 9 प्रतिशत ठाकुर, 4 प्रतिशत वैश्य, 4 प्रतिशत जाट और 5 प्रतिशत अन्य जातियों के वोट माने जाते हैं। पिछड़ों में यादवों      की तादाद सबसे अधिक बताई जाती है। यह विडंबना ही है कि देश की स्वतंत्रता के बाद से यूपी में 1989 तक अधिकांश समय कांग्रेस का ही राज रहा। उसके वोट बैंक में मुख्य रूप से ब्रहम्ण$दलित$मुसलमान हुआ करते थे।
    बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने के बाद से मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा कांग्रेस से ऐसा ख़फा हुआ कि आज तक उसने कांग्रेस को माफ करने का पूरी तरह मन नहीं बनाया। आखि़र वह उस कांग्रेस को माफ कर भी कैसे सकता है जिस पर उसने बाबरी मस्जिद बचाने का भरोसा किया था। मुसलमान धार्मिक रूप से बेहद संवेदनशील होता है। इस बात को कांग्रेस शायद भूल गयी कि मुसलमानों ने 1400 साल बीतने के बाद भी आज तक कर्बला के यज़ीद को माफ नहीं किया तो वह बाबरी मस्जिद की दो दशक पुरानी शहादत के लिये कांग्रेस को कैसे माफ कर सकता है। यही वजह है कि आज 22 साल बाद भी मुसलमान पूरी तरह कांग्रेस की तरफ लौटने को तैयार नहीं है।
   उधर मंदिर मस्जिद विवाद की शतरंज तो बिछाई थी कांग्रेस ने लेकिन मौका भांपकर उसपर वोट बैंक की चालें चलनी शुरू कर दी भाजपा ने। उसने न केवल कांग्रेस का सबसे मज़बूत वोट बैंक ब्रहम्ण तोड़ा बल्कि कुछ पिछड़ी जातियों को भी अपने साथ लामबंद करके प्रदेश की राजनीति को मंडल बनाम मंदिर की राजनीति में रंग दिया। हालांकि 1989 के बाद बनी जनता दल की सरकार को भाजपा ने मौके की नज़ाकत देखते हुए बाहर से समर्थन दिया था लेकिन उसकी नज़र राममंदिर के रथ पर चढ़कर खुद सत्ता की सवारी करने की थी। धीरे धीरे वह अपने मकसद में कामयाब होती गयी और 1991 में उसने अपने बल पर सत्ता हासिल भी कर ली।
  उसके बाद जिसका डर था वही बात हुयी कि प्रदेश की राजनीति धर्म से धीरे धीरे जाति की तरफ बढ़ चली और समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साझा गठबंधन ने भाजपा के हिंदुत्व को धता बताते हुए पिछड़ी और दलित जाति के गठबंधन को मुस्लिम मतों के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाबी हासिल कर लीं। यहां मुस्लिम मतदाताओं का एक सूत्राीय कार्यक्रम भाजपा हराओ अभियान था। पहले मुलायम सिंह ने इस गठबंधन की आड़ में अपने सजातीय यादव बंधुओं को सत्ता की मलाई चटाने का काम किया तो मौका देख एक दूर की कौड़ी लाते हुए भाजपा ने बसपा की सरकार पहली बार अपनी सपोर्ट से बनवाकर पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों का यह अनोखा समीकरण तोड़ दिया।
    मायावती ने प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनकर भविष्य की दलित राजनीति की नींव मज़बूत करने की ठानी। इसके बाद सरकार गिरी और फिर से वही समीकरण चुनाव बाद उभरकर सामने आये जिसमंे सपा बसपा के बीच दरार पैदा होने के कारण भाजपा और बसपा ने बारी बारी से चलने वाली छह छह माह की सरकार बनाने का नया प्रयोग किया लेकिन अपनी बारी पूरी होते ही बसपा वादे से मुकर गयी और जब भाजपा अपनी सरकार अपने बल पर विधायकों को तोड़कर बनाने में कामयाब हो गयी तो बसपा हाथ मसलकर रह गयी लेकिन उसने देखो और इंतज़ार करो की नीति अपनाते हुए हथियार नहीं डाले।
   इस दौरान मुलायम सिंह ने केंद्र में राजग की अटल सरकार अल्पमत में आने के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में बनने जा रही सोनिया गांधी की सरकार विदेशी मूल के बहाने से रोककर यूपी में तीसरी बार भाजपा के समर्थन से बनी बसपा की सरकार तनाव बढ़ने के साथ गिरने पर अपनी अल्पमत सरकार बनने का रास्ता तलाश कर लिया।
   हालांकि उनके सामने समस्या भाजपा से समर्थन न लेने और बसपा के विधायकों को तोड़कर दलबदल कानून से उनको बचाने की बड़ी चुनौती के रूप में मौजूद थी लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी से पर्दे के पीछे अच्छे सम्बंधों का लाभ सपा को भाजपा के तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी के सौजन्य से मिला जिन्होंने मुलायम की सरकार का कार्यकाल पूरा होने तक यह फैसला दबाये रखा कि बसपा के विधायक टूट के समय एक तिहायी थे या नहीं जब तक मामला अदालत में तय हुआ तब तक मुलायम सिंह अपना कार्यकाल पूरा कर चुके थे ।
   इस एहसान का बदला मुलायम सिंह ने लखनउ में अटल के सामने सपा का उम्मीदवार न उतारकर चुकाया। बसपा ने हालांकि तीन तीन बार भाजपा से मिलकर सरकार बनाकर मुसलमानों को खुद से दूर कर लिया लेकिन इसके बाद दलितों के अंदर मायावती को अपने बलबूते पर प्रदेश की सीएम बनाने की जो इच्छा पैदा हुयी इसी का नतीजा है कि दलित एक ऐसा सॉलिड वोट बैंक बन गया जिसको बसपा जहां चाहे वहां स्थांनांतरित कर सकती है। बसपा की यही सोशल इंजीनियरिंग उसको अपने बल पर स्पश्ट बहुमत की सरकार बनवाने में कामयाब रही लेकिन यहां एक बात बसपा भूल रही है कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ा करती।
   जो गैर दलित वोट उसको मिला था वह सपा के जंगल राज से तंग आकर ऐंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर के कारण भी मिला था। यह इधर उधर होने वाला वोट किसी एक पार्टी या नेता के साथ चिपका नहीं रहता बल्कि हवा का रूख़ देखकर चुनाव के ऐन टाइम पर ही फैसला करता है।
   प्रदेश में कानून व्यवस्था के नाम पर जंगलराज सपा के अंतिम दौर से भी अधिक कायम हो जाने, नरेगा और केंद्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं मं बेहद भ्रष्टाचार बढ़ने, थाने नीलाम होने, खुद बसपा मंत्रियों और विधायकों के गंभीर आरोपों मंे फंसने, जनता की गाढ़ी कमाई का अरबों रूपया पार्कों और स्मारकों मंे लगने, किसानों की खेती की ज़मीन औने पौने दामों में जबरन अधिग्रहित करने, अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों में मोटी कमाई करने, पुलिस द्वारा फर्जी़ एनकाउंटरों में यूपी के सबसे अधिक बेकसूरों के मारे जाने के मानव अधिकार आयोग के गंभीर आंकड़ों आदि से बसपा को सत्ता में एक बार फिर लौटने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिये वहीं बसपा से नाराज़ मतदाता विकल्प के तौर मुख्य विरोधी दल सपा को चुनाव जिताने जा रहा है यह खुशफहमी मुलायम सिंह को नहीं होती तो वह कांग्रेस से गठबंधन टूटने का लोकसभा चुनाव का भूलसुधार करने में देर नहीं करते।
   खुद कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी चाहे जितनी मेहनत यूपी के मिशन 2012 को सामने रखकर कर रहे हों लेकिन उनकी पार्टी के नेतृत्व में चल रही सेंटर की सरकार के भ्रष्टाचार और महंगाई से उनको लोकसभा जैसा सपोर्ट भी मिलने के दूर दूर तक आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है वह आज भी दिन में सपने देख रही है जबकि उसके हिंदुत्व को खुद हिंदू जनता ही कभी का ठुकरा चुकी है। उसके पास न कोई चुनावी रण्नीति है और न ही विकास का नया मॉडल । वह तो अब पूरी तरह कांग्रेस की बी टीम बन चुकी है जिससे वह और दलों के लिये पहले ही अछूत बनी हुयी है।

   अगर सपा, कांग्रेस और लोकदल का किसी ठोस साझा न्यूनतम विकास कार्यक्रम के आधार पर गठबंधन होता है तो बसपा को कड़ी टक्कर दी जा सकती है, अन्यथा विकल्प न मौजूद होने से इस समय तो बसपा थोड़ी सी सीटें खो कर भी सबसे बड़ी पार्टी बनने से रूकती नज़र नहीं आ रही है।

No comments:

Post a Comment