Saturday, 1 February 2014

सांसद सेवक हैं स्वामी नहीं

सांसदों को अपने विशेष अधिकारों की चिंता है कर्तव्यों की नहीं ?
   -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 वे बार बार अपने आपको सेवक की बजाये स्वामी जता रहे हैं!
     अन्ना के आंदोलन से अंदर ही अंदर खौफ़ज़दा कांग्रेसी नेता ही नहीं अब राजद, भाकपा और शिवसेना नेता तक खुलेआम संसद सर्वोच्च होने की दुहाई दे रहे हैं। वे अपनी कारों पर लालबत्ती भी मांग रहे हैं। उनको पता नहीं यह बात कब समझ आयेगी कि अगर संसद सांसदों से बनी है और वे अपने विशेषाधिकारों की तो चिंता करते हैं लेकिन जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को भुला देते हैं तो उनको आज नहीं तो कल जनता चुनाव में संसद से बाहर का रास्ता भी दिखा सकती है। संसद को सर्वोच्च बताकर वे सब एक दिखने का प्रयास करते नज़र आ रहे हैं। वैसे आंकड़ों के हिसाब से देखें तो यह बहस वहीं आ जायेगी कि धर्म कोई बुरा नहीं होता उसके मानने वाले बुरे हो सकते हैं। ऐसा ही इस मामले भी कहा जा सकता है कि चलो माना संसद सर्वोच्च है लेकिन सांसद सर्वोच्च नहीं हो सकते ।
  अब सवाल यह है कि संसद तो अपने आप में सजीव या कोई सोचने समझने वाली इमारत नहीं है वह तो सांसदों के द्वारा चलती है। हमारे सांसदों का स्तर क्या है यह देखना हो तो उस में कुल 543 सांसदों में से 150 यानी 28 प्रतिशत अपराधिक पृष्ठभूमि के हैं। इनमें से 8 विजयी सांसदों ने शपथ पत्र दिया ही नहीं जिससे अपराधिक रिकॉर्ड वालों की संख्या डेढ़ सौ से भी अधिक हो सकती है। इनका वर्गीकरण करें तो पता चलता है कि इनमें से 72 गंभीर अपराधों के आरोपी हैं। जो कुल सांसदों का लगभग 14 प्रतिशत है। अगर अपराधों की संख्या के हिसाब से देखा जाये तो इन सांसदों पर कुल 412 अपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। इनमें से 213 मामले आईपीसी की गंभीर धाराओं के तहत दर्ज हैं। यह तादाद लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि 2004 के आम चुनाव में ऐसे विवादास्पद सांसदों की तादाद 128 थी। उस बार गंभीर आरोपों वाले एमपी 55 ही थे।
   अगर दलों के हिसाब से देखें तो इस लोकसभा में आरोपी सांसदों के मामले में भाजपा के 42 कांग्रेस के 41 और सपा व शिवसेना के आठ आठ सांसद सबसे से उूपर सूची में दर्ज है। जिस संसद में आज 315 सांसद ऑन पेपर करोड़पति हों उनसे गरीबों को न्याय देने की क्या आस की जा सकती है? हम यह नहीं कह रहे हैं कि अमीर सांसद गरीबों के दुश्मन होते हैं लेकिन यह भी सच है कि सिस्टम ही ऐसा बन गया है कि कोई आदमी ज़रूरत से अधिक पैसा बिना गरीबों का हक़ मारे कमा ही नहीं सकता। अपवाद और उदाहरण ही बात हम नहीं कर रहे हैं। जिस देश में गरीब तीन चौथाई रहते हों उसमें गरीब सांसद तो एक चौथाई भी जीतकर नहीं आ सकते। सवाल फिर वही आयेगा कि जब तक जनता जागरूक नहीं होगी तब तक राजनेता मनमानी से कैसे बाज़ आ सकते हैं।
   वैसे भूमि अधिग्रहण के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ यह गलतफहमी दूर कर चुकी है कि संसद सर्वोच्च है। दरअसल हमारा संविधान सर्वोच्च है। सुप्रीम कोर्ट का दो टूक कहना है कि रूल ऑफ लॉ हमारे संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है। इसे संसद भी समाप्त नहीं कर सकती बल्कि उल्टे यह संसद पर बाध्यकारी है। मनमानापन या किसी मामले में तर्कसंगत न होना रूल ऑफ लॉ का उल्लंघन माना जायेगा। ज़ाहिर बात है कि बेतहाशा बढ़ रहा भ्रष्टाचार मौजूद रहते रूल ऑफ लॉ कैसे लागू किया जा सकता है इसका मतलब है कि लोकपाल बिल पास होेेेेना रूल ऑफ लॉ की ज़रूरत है। बात और बढ़ेगी तो कल यह भी मानना पड़ेगा कि संविधान भी तब तक ही सर्वोच्च है जब तक जनता का उसमें यह विश्वास बना हुआ है कि वह उसकी भलाई के लिये काम कर रहा है।
   अगर बार बार यही दुहाई दी जायेगी कि संसद या संविधान सर्वोच्च है तो फिर उसमें संशोधन क्यों करने पड़ते हैं? ज़ाहिर है कि जनहित सर्वोच्च है। सांसदों को अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिये कि वे बहुमत से सरकार भले ही बनालें और चलालें लेकिन उनका विश्वास मतकहीं खो चुका है।
    वे 43 साल से लोकपाल बिल को जानबूझकर एक सुनियोजित साज़िश के तहत लटकाये हुए हैं। आज जनता उनसे अन्ना हज़ारे के नेतृत्व मंे शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन चलाकर मज़बूत लोकपाल बिल लाने की जायज़ मांग कर रही है तो वे तरह तरह के हथकंडे अपनाकर भ्रष्टाचार के पक्ष मंे खड़े नज़र आ रहे हैं। वे भ्रष्टाचार की बजाये अन्ना और जनता से लड़ते दिखाई दे रहे हैं। एक बार साम दाम दंड भेद से चुनाव जीतकर वे पांच साल मनमानी और खुली लूट का लाइसेंस चाहते हैं? वे ये भूल रहे हैं कि बड़े बड़े तानाशाह और पुलिस और फौज भी जनता के सामने नहीं टिक पाते हैं। अब नेताओं की चोरी और सीना जोरी से जनता के सब्र का पैमाना लब्रेज़ हो चुका है और वह कभी भी छलक सकता है।
   ताज़ा मामला सौ सांसदों द्वारा लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को संयुक्त रूप से एक मांगपत्र देकर यह मांग करना है कि उनको भी अपनी कार पर लालबत्ती लगाने का हक़ मिलना चाहिये। उनका यहां तक दावा है कि बिना लालबत्ती के अपने इलाक़े में घूमते समय उनको हीनभावना का एहसास होता है। साथ साथ उनका दर्द यह भी है कि जहां यूपी में मायावती की सरकार ने उनको लालबत्ती का अधिकार दे रखा है वहीं दिल्ली मंे घुसते ही उनको अपनी लालबत्ती उतारनी पड़ती है क्योंकि राजधानी में उनको ऐसा करने की इजाज़त नहीं है।
    उनकी यह भी मांग है कि उनको हाईवे पर बिना टोलटैक्स चुकाये वीवीआईपी की तरह जाने की छूट होनी चाहिये। माननीयोें का यह भी कहना है कि उनको लालबत्ती लगाने की अनुमति नहीं होने से एक तो आम आदमी की तरह आयेदिन जाम में फंसना पड़ता है दूसरे एमपी होने के बावजूद पुलिस उनकी और उनकी गाड़ी की जांच पड़ताल करती है। स्पीकर ने सांसदों की मांग को विशेषाधिकार समिति को सौंप दिया था। समिति ने विचार करके 30 नवंबर को अपने रिपोर्ट में सांसदों की मांग पूरी किये जाने की सिफारिश कर दी है। समिति का कहना है कि लालबत्ती का सीधा सम्बंध सांसदों की हैसियत से है। अब यह देखना है कि सरकार समिति की सिफारिश को मानकर क्या 543$245 सांसदों को लालबत्ती लगाने की इजाज़त देने को तैयार होती है या नहीं?
   यह बात हमारी समझ से बाहर है कि हमारे माननीय जनप्रतिनिधि यह बात अच्छी तरह जानने बावजूद कि आम आदमी को जाम में फंसकर और पुलिस की जांच पड़ताल से कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता है फिर भी बजाये वास्तविक समस्या का सबके लिये हल निकालने के अपने लिये शॉर्टकट रास्ता निकाल रहे हैं। साथ ही वे अपने रौब के लिये लालबत्ती की ख़्वाहिश रखते हैं। उनका यह भी कहना है कि उनसे चाहे मामूली ही रक़म का हो टोलटैक्स भी ना वसूला जाये। इसका मतलब आम के आम गुठलियों के दाम। उनके पैसे भी बचेंगे और सामने वाले पर यह रौब भी गालिब होगा कि ये कोई वीआईपी जा रहे हैं। कमाल है कि जिस सांसद को जनता अपना सेवक बनाकर चुनाव जिताती है वह आज अपने आपको राजा महाराजा समझ कर अपने लिये विशेष अधिकार की व्यवस्था चाहता है।
   उसको इस आशंका से भी कोई सरोकार नहीं है कि अकसर अपराधी लालबत्ती वाली गाड़ी की तलाशी नहीं होने का बेजा फायदा उठाकर कई बार संगीन वारदात अंजाम दे चुके हैं। अगर 788 सांसदों को लालबत्ती की परमीशन मिल जाती है तो पहले ही राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधनमंत्री, राज्यसभा के उपसभापति, लोकसभा अध्यक्ष, डिप्टी स्पीकर, सेंटर के मिनिस्टर, इलेक्शन कमिशनर, न्यायधीश और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ सैकड़ों लालबत्ती वाली कारों की सड़कों पर बाढ़ सी आ जायेगी। यह ठीक ऐसी ही बात है जैसे कोई चौकीदार अपने मालिक से भी अधिक सुविधायंे चाहता हो। हमारे माननीय सांसदों को पता है कि जनता कैसे घंटों यातायात व्यवस्था गड़बड़ाने से जाम मंे फंसी रहती है और किस तरह पुलिस जांच पड़ताल के नाम पर नागरिकांे को परेशान करती है लेकिन वे फिर भी व्यवस्था सुधारने के बजाये अपने लिये वीआईपी ट्रीटमंेट चाहते हैं।
   उनको पता होना चाहिये कि अगर जनता परेशान रहेगी तो उनको यह सुख सुविधायें और राजा महाराजाओं वाले ऐशोआराम एवं जलवा अधिक समय तक मयस्सर होने वाला नहीं है। बेहतर है कि वे आत्मसाक्षात्कार करें  नहीं तो जनता बगावत पर मजबूर हो सकती है।
0 जिन पत्थरों को हमने अता की थी धड़कनें,

  जब बोलने लगे तो हम ही पर बरस पड़ें।।

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