Monday, 3 February 2014

पाक सत्ता और इमरान

पाक सत्ता में आने की नई संभावना हैं इमरान खान ?
0 तीन यानी आर्मी, अमेरिका और अल्लाह उसको चला सकते हैं !
           -इक़बाल हिंदुस्तानी
    लाहौर के मीनारे पाकिस्तान पर इमरान खान ने एक लाख से अधिक लोगों की जो कामयाब रैली पिछले दिनों की उसको लेकर यह गलतफहमी पालना ठीक नहीं कि वे सब लोग चुनाव होने पर उनको वोट भी देेंगे। अगर एक मिनट के लिये इस अनुमान को मान भी लिया जाये कि वह चुनाव जीतकर आश्चर्यजनक तरीके से पाक मंे सरकार भी बना सकते हैं तो यह सवाल अपनी जगह खड़ा है कि वे सरकार चलायेंगे कैसे? सबको पता है कि इमरान खान एक क्रिकेटर रहे हैं। एक बेहतरीन खिलाड़ी बेहतरीन राजनेता भी साबित हो यह ज़रूरी नहीं। जिस तरह से हमारे देश में एक बेहतरीन अर्थविशेषज्ञ मनमोहन सिंह एक प्रधानमंत्री के तौर पर पूरी तरह नाकाम साबित हो रहे हैं उसी तरह इमरान के भाषण से यह साफ लग रहा है कि पाकिस्तान के भले के लिये उनके पास कोई सुनियोजित प्रोग्राम नहीं है।
   वह भी अभी से वही बातें दोहरा रहे हैं जो उनसे पहले घाघ पाक शासक सत्ता मंे आने और सरकार बनाये रखने को कहते रहे हैं। उनका काम यह लग रहा है कि घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने। उनको अमेरिका के सामने हर वक्त कटोरा लिये खड़ा पाक न दिखाई देकर हमारा कश्मीर दिखाई दे रहा है। वह हमें पाठ पढ़ा रहे है कि जब दुनिया की महाशक्ति अमेरिका अफगानिस्तान में सेना के बल पर कामयाब नहीं हो पाया तो हम फौज के बल पर कश्मीर को कब तक बचाये रखेंगे। इमरान भूल रहे हैं कि अमेरिका आज अगर अफगानिस्तान में नाकाम हुआ तो इसलिये कि उसने पाकिस्तान पर विश्वास किया जबकि अमेरिका के लिये अफगानिस्तान पराया और अजनबी मुल्क था जबकि कश्मीर हमारा है और उसके निवासियों का 99 फीसदी हिस्सा हमारे साथ है।
   जो एक फीसदी सरफिरे नौजवान या दूसरे अलगाववादी लोग गुमराह होकर कश्मीर को भारत से अलग करने का सपना देख रहे हैं उनको हम अपने तरीके से या तो समय आने पर समझा लेंगे या फिर लातों से भूत बातों से नहीं मानेंगे तो उनको राहे रास्त पर लाना भी हमको आता है। अधिकांश कश्मीरी लोग हमारे संविधान के हिसाब से बाकायदा चुनाव में हिस्सा लेते हैं। सरकार और स्थानीय निकायों का गठन कश्मीरी अपना वोट देकर अपनी खुशी और अपनी मर्जी से करते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कश्मीर हमारी सरकार के बनाये लगभग सभी कानूनों को अपनाता रहा है। वहां की अदालतें हमारे कानून के हिसाब से ही चलती हैं। इमरान को चाहिये कि पहले पाक की चिंता करें कश्मीर की नहीं।
   इमरान खान को पता होना चाहिये कि जिस अमेरिका को आज वे कोस रहे हैं उसी की बदौलत आज पाकिस्तान ज़िंदा है। पाकिस्तान ने जो बबूल का पेड़ बोया था उसपर फल तो आने ही नहीं थे। कट्टरपंथ और आतंकवाद का नतीजा है कि आज पाक खुद उस मुसीबत का शिकार है जो उसने कभी भारत और अमेरिका के लिये पैदा की थी। वहां मस्जिदों नमाज़ पढ़ते लोग और स्कूल जाते मासूम बच्चे तक सुरक्षित नहीं हैं। सही बात तो यह है कि पाक जब तक भारत को हव्वा और कश्मीर को अपने बापदादा की जायदाद समझकर उससे दावा नहीं छोड़ेगा वह हमारा और कश्मीर का बिगाड़ तो कुछ खास नहीं पायेगा लेकिन अपने आप को एक दिन ज़ख़्मी करते करते ख़त्म कर लेगा। अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का शौक इमरान मियां भी पालना चाहें तो हम उनकी आत्महत्या पर अफसोस ही जता सकते हैं रोक तो नहीं सकते।
   जिस तरह से हमारे यहां सदी के महान अभिनेता अमिताभ बच्चन और चुनाव मंे तहलका मचाने वाले चुनाव आयुक्त टीएन शेषन राजनीति में आकर नाकाम रहे, उसी तरह से इमरान खान भी पाक मंे सरकार बनाकर कोई तीर नहीं मार सकते। सबसे पहले तो पाक और उसके बाशिंदो को एक बात साफ तौर पर समझनी होगी कि मुकाबला बराबर वालों का होता है। भारत एक पहाड़ है और जब तक वह हमें बिना वजह अपना दुश्मन मानकर हमसे टक्कर लेने का दुस्साह करता रहेगा उसे तबाह और बर्बाद होने से कोई नहीं बचा सकता। धर्म और साम्प्रदायिकता के आधार पर घृणा और ईष्या रखने वाला पाकिस्तान चाहे इमरान खान को सत्ता सौंपे या फौज का हमारा नहीं अपना ही शत्रु है। इमरान ख़ान के तेवर देखकर लगता है कि वह पाकिस्तान को कुएं से निकालकर खाई में ही ले जा सकते हैं।
    इमरान ख़ान की नीयत कितनी ही पाक को आतंकवाद, अराजकता और कंगाली के दलदल से निकालने की हो लेकिन कहते हैं कि पाकिस्तान को तीन यानी आर्मी, अमेरिका और अल्लाह चलाते रहे हैं। अब अमेरिका उसके बार बार विश्वासघात और मिशन अफ़गानिस्तान पूरा होने से उसको पहले की तरह गोद में बैठाने को तैयार नहीं है। आर्मी के सत्ता में आने के षड्यंत्रों की बार बार चर्चा ज़रूर हो रही है लेकिन वह भी पाकिस्तान के काबू से बाहर जाते हालात का ठीकरा अपने सर फोड़ने को तैयार शायद ही हो। अब ले देकर अल्लाह ही पाकिस्तान का मालिक है। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान को दुश्मनों की ज़रूरत नहीं है क्योंकि उसकी तबाही आती है तो वह अमेरिका जैसी महाशक्ति को आंखे दिखाता है।
   पाकिस्तान के सेनाप्रमुख जनरल परवेज़ कयानी ने जब यह चेतावनी दी थी कि अमेरिका हमें ईराक या अफगानिस्तान न समझे क्योंकि हमारे पास परमाणु बम है, तब कुछ लोगों को यह लगा होगा कि शायद वाक़ई अमेरिका को एक बार फिर सोचना चाहिये कहीं ऐसा न हो कि अमेरिका के अधिक दबाव बनाने से पाक बौखलाकर कोई अतिवादी क़दम उठा बैठे लकिन अब पता चला है कि अमेरिका तो अमेरिका है खुद भारत के जंग के अलावा कोई रास्ता न बचने जैसे कड़े बयानों से 26/11 के मुंबई हमलों के बाद कैसे पाकिस्तान की सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी थी। पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालीज़ा राइस ने अपनी किताब नो हाई ऑनर्समें इसकी विस्तार से चर्चा की है।
     इमरान ख़ान भूल रहे हैं कि अमेरिका पाकिस्तान के लिये लंबे समय से ऑक्सीजन का काम करता रहा है। यह तो अमेरिका की अजब कहानी है जब तक भारत कश्मीर  और पूरे देश में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दंश अकेले झेलता रहा तब तक उसको आतंकवाद के वैश्विक ख़तरे का अहसास नहीं हुआ लेकिन जब वलर््ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमला हुआ तो उसको पूरी दुनिया ख़तरे मंे नज़र आने लगी। उसने दो टूक एलान कर दिया कि जो इस मामले में उसका साथ नहीं देगा वह आतंकवाद के पक्ष में माना जायेगा।
   हमले के एक माह बाद ही अमेरिका ने अक्तूबर 2001 में अलकायदा को इसका ज़िम्मेदार ठहराकर अफगानिस्तान पर धावा बोल दिया। अरबो डालर, लाखों  नागरिकों और हज़ारों सैनिकों की जान जाने के बाद अमेरिका को पता चला कि समस्या की जड़ तो पाकिस्तान में है। पहले तो उसने  दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी माने जाने वाले ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के एबटाबाद में न केवल खोज निकाला बल्कि बिना पाक सरकार की मदद और जानकारी के मौत के घाट भी उतार दिया। अब उसने पाक सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया कि वह नाटक न करके आतंकवाद के पूरी तरह सफाये के लिये बिना शर्त कार्यवाही में अमेरिका का साथ दे नहीं तो बर्बादी और दुश्मनी को झेलने को तैयार हो जाये।
   दरअसल सारा विवाद उस हक़्कानी ग्रुप पर कार्यवाही करने का है जिसको पाकिस्तान की सेना अपनी बहुत बड़ी पूंजी मानकर चल रही है। उधर अमेरिका ने तय कर लिया है कि हक़्कानी आतंकवादी समूह को ठिकाने हर हाल में लगाना है। 2014 तक अमेरिका को नाटो के साथ ही अफगानिस्तान से विदा होना है लिहाज़ा वह उससे पहले ही आतंकवाद के सारे बीज वहां से चुनचुन कर ख़त्म करना चाहता है लेकिन पाकिस्तान और कट्टरपंथी वहां इसके बाद दूसरा ही खेल खेलने की तैयारी किये बैठे हैं। इसी मुद्दे को लेकर पाक अमेरिकी सम्बंध लगातार बिगड़ रहे हैं। उधर अमेरिका को अहसास हो चुका है कि हक्कानी समूह पाक की ही एक छद्म फौज है। सच तो यह है कि अमेरिका और पाक के सम्बंध सीआईए के एजेंट रेमंड डेविस की पाक में गिरफ़्तारी के बाद से ख़राब होने शुरू हो गये थे।
   ओबामा डेविस को काफी लंबी जद्दो जहद के बाद ही आज़ाद करा पाये थे। यही वजह है कि रेमंड डेविस के मामले में ही नहीं वह पहले 9/11 के बाद अलकायदा पर हमले को लेकर भी ऐसे ही तेवर अमेरिका को दिखा चुका है लेकिन जैसे ही तत्कालीन प्रेसिडेंट जार्ज बुश के इशारे पर रिचर्ड आर्मिटेज ने उसको सबक़ सिखाने की चेतावनी दी थी तो वह इसके लिये सारी शर्तें मानने को तैयार हो गया था। ऐसे हालात में एक खिलाड़ी पाक की सत्ता चला पायेगा यह मानना मुश्किल है क्योंकि सरकार चलाना बच्चो का खेल नहीं है।
0 मुझे क्या ग़रज़ पड़ी है तुझे नीचा दिखाने को,

  तेरे आमाल काफी है तेरी हस्ती मिटाने को।।

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