लेकिन
मेरी आंखों में तुझे डर ना मिलेगा...-इक़बाल हिंदुस्तानी
0 वो
क़लमकार ही क्या जो सच कहने से डरता हो!
प्रवक्ता डॉटकॉम पर मैंने कुछ दिन पहले
मुसलमानों के आज के हालात पर एक लेख लिखा था। इसमें यह बात ख़ास तौर पर उठाई गयी
थी कि मुसलमानों को सरकार द्वारा आरक्षण देने का लाभ तब तक नहीं होगा जब तक कि वे
कट्टरता और मदरसों की परंपरागत शिक्षा
छोड़कर उच्च शिक्षा में आगे नहीं आयेंगे। इसी कारण वे दलितों से भी अधिक
गरीब और पिछड़ चुके हैं। उनका धर्म के नाम पर परिवार नियोजन से परहेज़ करना भी आज के
हालात की एक बड़ी वजह है। यह अलग बात है कि खुद भारत सरकार के आंकड़ें इस बात की
गवाही दे रहे हैं कि जो मुसलमान आधुनिक, वैज्ञानिक
और प्रगतिशील शिक्षा लेकर सम्पन्न हो गये वे गैर मुस्लिमों की तरह ही परिवार छोटा
रखने लगे हैं। इस लेख को जहां अनेक लोगों ने सराहा वहीं मेरे कुछ शुभचिंतकों ने
मुझे आगाह किया कि ऐसी कड़वी सच्चाई मत लिखा करो जिससे मुसलमानों का कट्टरपंथी सोच
वाला वर्ग आप से नाराज़ हो जाये।
0यह सच तो
टूटकर कब का बिखर गया होता,
अगर मैं
झूठ की ताक़त से डर गया होता।
उन्होंने यह भी पूछा कि आपको ऐसा लिखने मंे डर
नहीं लगता? मेरा कहना है कि सच वह फुटबाल
होती है कि जिसको दर्जनों खिलाड़ी सुबह से शाम तक मैदान लातें मारते हैं लेकिन उस
बॉल का कुछ भी तो नहीं बिगड़ता अगर कुछ समय के लिये पंक्चर हो भी जाये या हवा निकल
जाये तो थोड़ी देर में फिर से ठीक होकर पहले की तरह मज़बूत और फौलादी होकर चुनौती
देती नज़र आती है। जबकि झूठ पानी का बुलबुला होता है जिसकी ज़िंदगी भी क्षणिक होती
है। सच एक पहाड़ है तो झूठ एक राई की तरह होता है। वैसे तो मैं अपने चाहने वालों का
आभारी हूं कि उनको मेरी इतनी चिंता है कि वे मुझे किसी ख़तरे में नहीं डालना चाहते
लेकिन एक बात अपने दोस्तों को स्पश्ट करना चाहता हूं कि यह अपना अपना मिज़ाज होता
है कि एक आदमी खुद पर भी जुल्म और नाइंसाफी चुपचाप सहता रहता है जबकि दूसरा आदमी
किसी दूसरे, पराये कहे जाने वाले या विदेशी
आदमी तक पर ज्यादती बर्दाश्त नहीं करता।
0कुछ लोग यूं ही शहर में हमसे ख़फ़ा हैं,
हरेक से अपनी भी तबिअत नहीं मिलती।
जहां तक
मेरा मामला है मैंने हमेशा सच और ईमानदारी के हक़ में क़लम चलाई है। पत्रकारिता में
भी मेरा यह मिशन रहा है कि कलम जो लिखेगा वो बेबाक होगा अगर दिल यह माना सहाफत
करूंगा। एक बार की बात मुझे आज तक याद है। पंजाब में उन दिनों आतंकवाद चरम पर था।
हमारे यहां भी उन दिनों आतंकवादियों ने पहली बार किसी पेटरोल पंप पर डकैती डाली थी।
घटना देर रात की थी। सुबह जब पत्रकारों को यह ख़बर मिली तो लूटे गये पंप कर्मचारी
ने हमंे यह भी बताया कि आतंकवादी यह कह गये हैं कि अगर किसी अख़बार में यह ख़बर
छपी तो उस पत्रकार को भी नहीं छोड़ेंगे। यह धमकी सुनकर एक बार को तो सभी पत्रकार
साथी सहम गये। एक दो ख़बर छापना तो दूर वहां से बिना ख़बर नोट किये ही चलते बने।
हमने आराम से ख़बर नोेट की और चले गये। एक बात मेरे दिमाग़ में भी आई कि अगर सब एक
साथ ख़बर लिखेंगे तो आतंकवादी किस किस को सबक़ सिखायेेंगे?
0उसूलों
पर जो आंच आये तो टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर जिं़दा नज़र आना ज़रूरी है।
दूसरे कुछ
बातें बदमाश ऐसे ही चलते चलते डराने का कह जाते हैं। होना कुछ नहीं है लेकिन केवल
मेरे साथ समस्या यह थी कि मेरा अख़बार सांध्य दैनिक था जिसमें सबसे पहले ख़बर छपनी
थी और बाकी सब समाचार पत्रों में कल आनी थी। ख़ैर मैंने हिम्मत जुटाई और पहले पेज
पर मुख्य ख़बर बनाकर छाप दी। साथ ही आतंकवादियों की प्रैस को दी गयी धमकी एक बॉक्स
भी छपा। हालांकि मेरे दिल में यह बात बार बार कुछ दिन तक आती रही कि आतंवादी ख़बर
छपने पर नाराज़ होकर कुछ भी कर सकते हैं लेकिन मेरा दिमाग़ मुझे हरबार यही समझाता कि
जो डर गया वो मर गया। इसके बाद रेल राज्यमंत्री सतपाल महाराज, राज्य सरकार के मंत्री नरेश अग्रवाल, हाजी याकूब कुरैश और आज़म खां से कई बार प्रैस
वार्ता में बहस और टकराव हुआ लेकिन हमने उनके हर बार धमकी देने के बावजूद कभी भय
का अहसास नहीं किया।
0ये फूल
मुझे कोई विरासत में मिले हैं,
तुमने मेरा कांटों भरा बिस्तर नहीं देखा।
ऐसे ही
नजीबाबाद मंे गंगा जमुनी तहज़ीब को जिं़दा रखने के लिये 1992 में अयोध्या में
विवादित इमारत के ध्वंस के बाद जब होली मिलन कराने के लिये कोई मुस्लिम सामने आने
को तैयार नहीं था उस समय इन पंक्तियों के लेखक ने संयोजक बनकर इस एकता और भाईचारे
की परंपरा को जारी रखने का बीड़ा उठाया और इस चुनौती को कट्टरपंथियों की तमाम
धमकियों के बावजूद अंजाम तक पहंुचाने में मेरे परम मित्र और कवि प्रदीप डेज़ी, छोटे भाई शादाब ज़फर शादाब जी हां प्रवक्ता पर लेख
लिखने वाले, और आफताब नौमानी ने भरपूर सहयोग
किया। लेख और ख़बरों पर धमकी भरे फोन और चिट्ठी आना तो आम बात रही है लेकिन हम
जानते हैं कि ऐसे लोग कायर और ढोंगी होते हैं इसलिये कई बार पुलिस को बताना तो दूर
हमने परिवार और मित्रों में भी धमकी की चर्चा करना ज़रूरी नहीं समझा।
0 हर जु़बां
ख़ामोश है अब हर नज़र खामोश है,
क्या बतायें आदमी क्या सोचकर ख़ामोश है।
परिवार
में भी शादी से पहले एक बार ख़बरों पर हंगामा होने पर गलतफ़हमी के कारण ऐसी हालत आई
कि मुझ से कहा गया कि या तो आप परिवार छोड़ दो या फिर अख़बार तो हमेन अख़बार न
छोड़ने का ही विकल्प चुना था यह अलग बात है कि बाद मंे ऐसी नौबत नहीं आई कि विकल्प
लागू हो। अब ऐसा करने से किसे बुरा लगता है और किसे अच्छा इसकी परवाह मैं नहीं
करता हूं। मुझे अधिक से अधिक लोगों को खुश करके चुनाव तो लड़ना नहीं है। साथ ही
मुझे अपनी प्रशंसा और सराहना का भी इतना शौक नहीं है कि इसके लिये अगर झूठ लिखना
पड़े या फिर वह लिखना पड़े जिससे लोग खुश तो हो जायें लेकिन उनका भला न हो तो मेरा
मानना है कि यह क़लमकार का मिशन नहीं है।
0 मज़ा
देखा मियां सच बोलने का ,
जिधर तुम हो उधर कोई नहीं है।
जिस तरह
से डायबिटीज़ के एक मरीज़ को वह डॉक्टर अच्छा लगता है जो यह कहे कि मीठा खूब खाओ और
किसी तरह की दवाई या परहेज़ की भी ज़रूरत आपको नहीं है उसी तरह से कलमकार का मामला
होता है कि अगर वह अपने पाठक को यह कहे कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह बिल्कुल ठीक
है। सच कहने का साहस इसलिये न करे कि इससे उसका पाठक नाराज़ और ख़फ़ा हो सकता है तो
मेरा मानना है कि वह कड़क और सख़्त डाक्टर पहले डॉक्टर से कहीं अधिक बेहतर है जो यह
कहता है कि आपको डायबिटीज़ है और अब आपको ज़िंदगीभर मीठे से परहेज़ रखना है यानी
लिमिट में शुगर लेनी है और अगर आप मेरी सलाह नहीं मानेंगे तो आपको इंसुलिन इंजैक्शन
से देनी होगी। इतने पर भी काम नहीं चलेगा तो अस्पताल में भर्ती कर लूंगा।
0यूं तो ज़बां थी सभी पर मगर,
चुप हमीं से मगर रहा गया।
कहने का
मतलब यह है कि हमें यह नहीं देखना कि सामने वाले को क्या अच्छा लगेगा बल्कि यह
देखना चाहिये कि उसके लिये वास्तव में अच्छा है क्या? यह बात तो क्षणिक बुरी लगेगी लेकिन जो लोग
चापलूसी और चाटुकारिता से लोगों को यह अहसास नहीं होने देते कि कमी और गल्ती कहां
है उनसे बड़ा दुश्मन कौन हो सकता है? जब किसी
बंदे को यही नहीं पता चलेगा कि रोग क्या है और उसकी जड़ कहां है तो उसका इलाज कैसे होगा? मुसलमानों की और समस्याओं के साथ सबसे बड़ी समस्या
यही है कि उनको असलियत का आईना दिखाने की हिम्मत कोई नहीं करता? वे जज़्बाती और भावुक होते हैं जिससे उनकी
संवेदनशीलता को कैश करने के लिये अकसर ऐसे बयान दिये जाते हैं जिनसे मुसलमानों को
फायदा तो दूर उल्टे नुकसान अधिक होता है। हालांकि मेरे खिलाफ न तो किसी ने कोई
फतवा जारी किया और न ही कोई नोटिस लेने लायक़ धमकी दी गयी लेकिन इससे पहले मेरे
बेबाक लेखों पर कुछ लोगों ने नाखुशी ज़रूर जताई।
0मैं एक
क़तरा ही सही मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।
कुछ तरह
तरह की धमकियां भी दीं लेकिन मेरा मानना है कि जितने लोगों ने भी दुनिया में सच और
भलाई की लड़ाई लड़ी उनको कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। डरपोक और बुज़दिल आदमी
पत्रकार या क़लमकार नहीं हो सकता इसलिये जो डर गया वह मर गया। मैं समझता हूं कि अगर
आज कुछ नादान और बेवकूफ लोग हमारी बातों से नाराज़ होकर हमें नुकसान पहुंचाते भी
हैं तो यह समाज के हित मंे छोटी सी कीमत होगी। कुछ पाने को कुछ खोना भी पड़ता है
इसलिये हमारा संकल्प है कि मर सकते हैं लेकिन डर नहीं सकते।
0 मैं यह
नहीं कहता कि मेरा सर ना मिलेगा,
लेकिन मेरी आंखों में तुझे डर ना मिलेगा।।
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