Sunday, 9 February 2014

सरकार अब तो जागो !


सरकार बात जूते से चांटे तक आ पहुंची है, अब तो जागो!
           -इक़बाल हिंदुस्तानी
0बेशक हिंसा गलत है लेकिन कानून की सुन कौन रहा है?
   केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को सरदार हरविंदर सिंह ने चांटा मार दिया। इस चांटे की गूंज पूरे देश में सुनी जा रही है। यह थप्पड़ दरअसल शरद पवार या एक मंत्री को नहीं बल्कि पूरी सरकार को पड़ा है। जो कांग्रेस नेता इसके लिये भाजपा नेता यशवंत सिन्हा को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं उनका कहना कुछ ऐसा ही है जैसे कोई सरकार किसी खुफिया एजंसी को इस बात के लिये दोषी ठहराये कि उसके यह बात कहने से ही पड़ौसी देश ने हमला किया कि हमला हो सकता है। यह तो सिन्हा जी की दूरअंदेशी की बात है कि उन्होंने माहौल देखते हुए लोगों के गुस्से को समय से पहले ही पहचाना।
   हालांकि लोकतंत्र में हिंसा के लिये कोई जगह नहीं होती लेकिन यहां सवाल यह उठ रहा है कि क्या वास्तव में हमारे देश में लोकतंत्र है? क्या कानून की बात सुनी जाती है? क्या जनता भ्रष्टाचार और महंगाई से बुरी तरह परेशान है यह बात राजनेताओं को अभी तक पता नहीं लगी है। अन्ना हज़ारे ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किया तो पहले उनको सर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबा बताया गया। फिर उनके आंदोलन के पीछे विदशी शक्तियां और अमेरिका का हाथ देखा गया। फिर उनको तिहाड़ जेल में बंद कर दिया गया। फिर उनके पीछे संघ परिवार को बताया गया।
    यानी इतनी विशाल भीड़ सब संघ के इशारे पर जमा हो गयी। कमाल है। सरकार इतनी कमज़ोर और संघ इतना मज़बूत। पहले अन्ना का अनशन लंबा खींचकर उनको स्वर्ग पहंुचाने का इंतज़ार करते रहे फिर जब पूरे देश में उबाल आने लगा तो मजबूर होकर बेमन से आश्वासन देकर मामले को ठंडे बस्ते मंे डालने की नीयत से लटका दिया गया। फिर टीम अन्ना का चरित्रहनन व उत्पीड़न किया गया। अभी भी लोगों को विश्वास नहीं है कि सरकार मज़बूत जनलोकपाल बिल पास कर ही देगी। क्या करें पुलिस और अफसरों की तरह हमारी सरकार के विश्वास का भी दिवाला निकल चुका है।
  एक कहावत है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। अपराध की रपट थाने में लिखाने जाओ तो पुलिस नहीं लिखती। अगर किसी सिफारिश या पहंुच से यह चमत्कार हो भी जाये तो दूसरी पार्टी से पैसा खाकर एफ आर लगाने का विकल्प खुला है। अगर यह भी नहीं हुआ तो केस कमज़ोर बनादेेंगे। फिर अदालत में अ से आजा द से देजा ल से लेजा त से तारीख़ का दसियों साल तक खेल चलता रहेगा। कई लोग मर जाते हैं लेकिन मुकदमों जीहां मुंह क़दमों में फैसले नहीं होते। मालिकों को मकान दुकान और अपना हिस्सा जीते जी नहीं मिलता और चुनाव में धंाधली होने पर पूरा कार्यकाल बीत जाता है लेकिन यह तय नहीं हो पाता कि वास्तव में चुनाव में कोई गड़बड़ थी या नहीं?
   सरकारी सस्ता गल्ला वाला चीनी खाकर तेल पी जाता है और सरकारी डाक्टर चोट लगने के बावजूद बिना पैसा खाये असली मेडिकल तो नहीं बनाता लेकिन जेब गर्म कर आपके विरोधी को फर्जी गंभीर चोटों का प्रमाण पत्र तुरंत पकड़ा देता है जिससे आपको सबक सिखाकर वह झूठी एफआईआर दर्ज करा देता है। अब पुलिस भी फीलगुड करके फौरन एक्टिव हो जाती है। आपको पकड़ भी लेती है और थाने में आप पर थर्ड डिग्री भी इस्तेमाल कर देती है। ये तो दो चार मिसालें हैं। आप सरकार से जुड़े किसी काम के लिये चले जायें कहीं आपकी सुनवाई नहीं होगी।
    लोग तरह तरह की मांगों को लेकर रोड और रेल का चक्का जाम कर देते हैं सरकार वोटों का गणित देखकर गंूगी बहरी बनी रहती है। जो लोग यह दुहाई दे रहे हैं कि अपनी बात चांटा मारकर नहीं शांति से और कानून के दायरे में कही जानी चाहिये हम भी उनसे सहमत हैं लेकिन सवाल यह है कि जब कानून अपना काम नहीं करेगा तो कोई न कोई हरविंदर तो अपना हाथ चलायेगा ही।
     कृषिमंत्री पवार को बलविंदर द्वारा मारे चांटे पर एक घटना याद आ रही है। बिजनौर ज़िले के वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक स्व0 बाबू सिंह चौहान साहब ने एक बार अनाज की कमी के चलते अपने अख़बार में कई दशक पहले 1964 में एक ख़बर छाप दी थी। ख़बर का हेडिंग था-भूखा मानव क्या करेगा। इस ख़बर में यह लिखा था कि जब बाज़ार में खाद्यान की कमी के चलते अनाज काफी महंगा बिक रहा था। ऐसे में एक गरीब रिक्शावाला जिसके बच्चे रोटी न मिलने से दो दिन से भूखे थे। बाज़ार में एक किराने की दुकान पर गया। उसने दो किलो आटा तुलवाया। जब वह लालाजी को पैसे देने लगा तो वह कम थे। लालाजी ने उससे और पैसे देने को कहा।
   उसने कहा कि उसके पास और धन नहीं है। इसपर लालाजी ने उसे आटा देने से मना कर दिया। वह ज़िद पर अड़ गया कि वह आटा लेकर ही जायेगा। बहस और जोर ज़बरदस्ती के बाद वह गरीब रिक्शावाला अपने बच्चो की भूख मिटाने को आटा छीनकर भागने लगा। इसपर बाज़ार में लोग उसके पीछे भागने लगे। उसे पकड़कर आटा छीन लिया गया। उसको धेखेबाज़ और लुटेरा बताया गया। पहले मारा पीटा गया फिर पुलिस के हवाले कर दिया गया। पुलिस और प्रशासन ने उसकी व्यथा न सुनकर उसका चालान कर दिया। ऐसे में चौहान साहब की इंसानियत जागी और उन्होंने यह समाचार इस शीर्षक से जब छापा तो पॉवर के नशे में चूर तत्कालीन ज़िलाधिकारी ने चौहान साहब के खिलाफ ही उल्टे मोर्चा खोल दिया।
   उनको इस मानवता प्रेमी समाचार के प्रकाशन के लिये जेल जाना पड़ा। इसके साथ ही अख़बार और परिवार को भी इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। कहने का मतलब यह है कि हमारे राजनेता और अधिकारी केवल कानून की दुहाई देते हैं लेकिन यह नहीं सोचते कि यह नौबत क्यों आती है कि लोग कानून का सहारा न लेकर अपने तरीके से थप्पड़ जैसी कार्यवाही करने पर उतर आते हैं।
    यह ठीक है कि किसी भी सभ्य समाज में थप्पड़ मारकर किसी समस्या का समाधन नहीं किया जा सकता लेकिन यह सवाल भी तो अपनी जगह खड़ा है कि जब नेता प्यार और अमन से की जाने वाली मांग पर कान न देकर केवल तभी सुनते हों जब उनकी जान पर बन आये। आयेदिन देखने में आ रहा है कि दुर्घटना होने पर कोई भी अधिकारी और पुलिस तब तक मौके पर नहीं आते जब तक कि लोग जाम न लगायें। इतना ही नहीं एक्सीडेंट के ज़िम्मेदार भी तब तक मुआवज़ा देने को तैयार नहीं होते जब तक कि जनता किसी तरह का दबाव न बनाये। पुलिस रपट भी जाम या प्रदर्शन के बाद ही लिखती है।
    सरकार माओवादियों और आतंकवादियों से बात करने को बिना शर्त तैयार रहती है लेकिन राजधनी में प्रदर्शन कर मांगपत्र देने वालों पर लाठीचार्ज और गोली चलवाती है। उत्तराखंड में स्वामी निगमानंद आमरण अनशन करते करते मर जाते हैं और मणिपुर में इरोम शर्मिला दस साल से अपफस्पाके खिलाफ भूख हड़ताल करती रहती है लेकिन कोई सुनवाई करने को तैयार नहीं होता। एक बात हमारे नेता और अधिकारी कान खोलकर सुन लेें कि हिंसा का समर्थन न करने के बावजूद अगर वे लोगों के दुख तकलीफ पर गूंगे बहरे बने रहेंगे तो यह स्वाभाविक है कि अब लोग और अधिक सहन नहीं करेंगे। बात अब जूते से चांटे तक आ पहंुची है अभी भी नहीं जागे तो फिर मत कहना कि भारत की सहनशील जनता ‘‘ऐसा’’ भी कर सकती है???
0अब तख़्त हिलाये जायेंगे,
 अब ताज उछाले जायेंगे।
 बढ़ते भी चलो कटते भी चलो,
बाजू भी बहुत हैं सर भी बहुत,
बढ़ते ही चलो कि अब डेरे,

मंज़िल पे ही डाले जायेंगे।।

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