पैट्रोल के दाम बढ़ाना सरकार की मजबूरी ?
0 रूपये का मूल्य गिरने से इंटरनेषनल मार्केट में सस्ता होने के
बावजूद भी तेल मिलता है महंगा!
-इक़बाल हिंदुस्तानी
देश में पैट्रोल की
कीमत बढ़ते बढ़ते राजधानी में 68.64 रूपये तक जा पहंुची है लेकिन हमारी सरकार एक
व्यापारी की तरह अधिक से अधिक मुनाफ़ा टैक्स के रूप में कमाने से परहेज़ करने को
तैयार नज़र नहीं आती। यही हालत तेल कम्पनियों के बढ़ते लाभ की है। इस बार यह
बढ़ोत्तरी 1.80 रु0 है तो इससे पिछली बार 16 सितंबर को प्रति लीटर दाम 3.14 रु0 बढ़े
थे। अगर पड़ौस के देशों के हिसाब से ही देखा जाये तो पाकिस्तान में 41.81रू0 और
बंगलादेश में 44.80 रू0, और हमारा रोल मॉडल बनाया जा रहा अमेरिका भी इसको 42.22 रू0 की
दर से बेच रहा है। भारत में जनवरी 2009 से पैट्रोल 65 प्रतिशत से भी महंगा हो चुका
है।
हालांकि आज हम अपनी
ज़रूरत का 70 प्रतिशत पैट्रोल आयात करते हैं लेकिन औद्योगिक संगठन एसोचैम का अनुमान
है कि 2012 आते आते हमारा आयात 85 प्रतिशत तक पहंुच जायेगा। जहां तक
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम बढ़ने का सवाल है तो मंदी के दौर में जहां यह
30 डालर तक नीचे उतर चुका है वहीं आमतौर पर 80 डालर प्रति बैरल इसके औसत रेट बने
रहते हैं। 2008 में अधिकतम उूंचाई यह 147 डालर की छू चुका है। तेल की कीमतें बढ़ने
का एक कारण डालर की आजकल लगातार बढ़ रही कीमत भी है। हालांकि यह माना जा रहा है कि
अमेरिका मंे फिर से घिर रही मंदी की वजह से अभी तेल के दाम उस हिसाब से नहीं बढ़
रहे जिसका अनुमान लगाया जा रहा था।
तेल के दाम में आने
वाले उतार चढ़ाव के लिये कोई एक कारण ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता। मध्यपूर्व के
तेल उत्पादक देशों में राजनीतिक अस्थिरता, जनअसंतोष और युध्द के कारण
आपूर्ति मंे बाधा आने से और चीन व भारत जैसे विकासशील देशों में बढ़ती खपत के कारण
इसके दामों में भारी उठापटख़ होती रहती है। चीन की विकास दर 9 तथा भारत की 8.5
प्रतिशत होने से दुनिया के अकेले इन दो देशों में ही तेल की मांग दिन ब दिन बढ़ती
जा रही है। जानकार सूत्रों का दावा है कि 2018 से तेल के उत्पादन में पहले स्थिरता
आयेगी और उसके बाद धीरे धीरे गिरावट का दौर शुरू होकर आने वाले 40 से 50 साल में
तेल की यह दौलत ख़त्म हो जायेगी।
ऐसा नहीं है कि तेल
की बढ़ती मांग से तेल के भंडारों के समाप्त होने की ही आशंका है, बल्कि
सट्टेबाज़ी और बड़ी तेल कम्पनियों का इसके मूल्यांे को लेकर चलने वाला खेल इसको
महंगा भी बना रहा है। शेयर बाज़ार और वित्तीय बाज़ारों में बढ़ रही अनिश्चितता और
ख़स्ताहाली मुनाफाखोरों का रूख़ तेल के कारोबार की तरफ मोड़ रही है। मल्टीनेशनल
कम्पनियों का प्रबंधतंत्र बाकायदा तेल के दामों को ‘मैनिपुलेट’ करता रहता है। उधर सरकार की नीति निजी वाहनों को बढ़ावा देते
जाने की होने से तेल की खपत बेतहाशा बढ़ना स्वाभाविक ही है लेकिन इसकी पूर्ति कैसे
होगी इस बारे में सरकार ने कोई स्थायी नीति नहीं बनाई है।
मनमोहन सिंह जब 1991
में नरसिम्हा राव की सरकार में वित्तमंत्री बने थे तो उस समय तेल मूल्यों के
निर्धारण के लिये एक समिति बनाई गयी थी। एडमिनिस्ट्रेटिव प्राइज़ मैकेनिज़्म के
अनुसार हर 15 दिन बाद तेल के दामों की समीक्षा किये जाने की योजना तैयार की गयी
लेकिन 2004 तक यह व्यवस्था चली और उसके बाद बंद कर दी गयी। सरकार ने 1963 मंे खाद
एवं रसायन मंत्रालय से अलग कर पैट्रोलियम मंत्रालय का गठन किया था। तब से अब तक
कुल 48 सालों में 41 पैट्रोलियम मिनिस्टर बनाये जा चुके हैं। हालत यह है कि यूपीए
की सरकार में ही अब तक मणिशंकर अय्यर, मुरली देवड़ा के बाद अब जयपाल रेड्डी सहित तीन मंत्री बनाये जा
चुके हैं, यानी तेल महंगाई का ठीकरा मंत्री के सर फोड़ दिया जाता है।
एक तरफ हमारी सरकार
का दावा है कि सब्सिडी देने से उसका ख़ज़ाना ख़ाली होता जा रहा है इसलिये वह तेल
बाज़ार भाव पर एक व्यापारी की तरह बेचेगी, दूसरी तरफ इन दिनों
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पैट्रोल और डीज़ल के दाम लगातार गिरने के बाद भी वह पहले
से ही काफी महंगा कर दिये गये तेल के दाम घटाने को तैयार नहीं है। इसका कारण यह
बताया जाता है कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में हमारी
सरकार रूपये का बार बार अवमूल्यन करती रहती है जिससे डालर का रेट अपने आप ही बढ़
जाता है। चूंकि इंटरनेशनल मार्केट से तेल डालर में खरीदा जाता है इससे यह सस्ता
होने के बावजूद हमारे लिये लगातार महंगा होता जा रहा है। वैसे भी कारपोरेट घरानों
के एजेंट की तरह काम करने वाली सरकार को आम जनता के हित से क्या लेना देना?
1967 में बने तेल
उत्पादक देशों के संगठन ओपेक के सदस्य सउूदी अरब, इराक, कुवैत, क़तर, बहरीन, सीरिया, यूएई, अल्जीरिया, मिस्र, लीबिया आदि
हालांकि यह दावा करते हैं कि वे तेल का उत्पादन मांग के अनुसार बढ़ाकर इसके दाम एक
सीमा से अधिक बढ़ने नहीं दंेगे लेकिन अन्य तेल उत्पादक देश ईरान, ओमान, यमन, अंगोला, नाईजीरिया, सूडान, ट्यूनीशिया, इथोपिया, ऑस्ट्रेलिया के
साथ ही एशिया और यूरूप के ऐसे कई देश हैं जिन पर किसी का कोई ज़ोर नहीं है। तेल
उत्पादक देशों में आजकल मची उथल पुथल भी इसके दाम बढ़ने का एक कारण मानी जाती है।
पिछले दिनों ट्यूनीशिया के बाद मिस्र और लीबिया तो इस आग में झुलसे ही साथ ही यमन, बहरीन और
सीरिया तक भी तेल की चिंगारी पहुुंच चुकी है।
कुवैत ने 14 माह का
मुफ्त खाना और नक़द बोनस अपनी जनता को बांटकर तो सउूदी अरब की शाही सरकार ने जनता
पर 36 अरब डालर ख़र्च करने का ऐलान करने के साथ साथ महिलाओं को भविष्य में न केवल
चुनाव में वोट देने बल्कि प्रत्याशी बनने का कानून बनाने का वायदा किया है। इसके
बाद वहां सरकारी सेवकों के वेतन में 15 प्रतिशत बढ़ोत्तरी भी कर दी गयी है। ऐसे ही
लीबिया में विद्रोह दबाने के लिये सरकारी नौकरों के वेतन में 150 प्रतिशत की
वृध्दि और हर घर को नकद मदद दी गयी है।
उत्पादन के हिसाब से
देखा जाये तो तेल का प्रतिदिन उत्पादन 3.5 करोड़ बैरल से 8 करोड़ बैरल केेे बीच रहता
है। इतना भारी अंतर मांग में उतार चढ़ाव के चलते आता है। 23 जून को इसी साल अमेरिका
के दबाव में अंतर्राष्ट्रीय उूर्जा एजंसी ने इसके एमरजेंसी स्टॉक में से अचानक 6
करोड़ बैरल तेल खुले बाज़ार में बेचकर तेल के दामों को ब्रैक लगाने चाहे थे लेकिन यह
कदम वक्ती तौर पर ही ऐसा मकसद हासिल कर सका। 31दिसंबर 2010 को कच्चे तेल का खुले
बाज़ार में दाम 91.36 डॉलर था जो आज 88 डालर रह जाने के बाद भी अब तक तेल के दाम
हमारे देश में 15.38 रूपये तक बढ़ चुके हैं। बताया जाता है कि तेल की खपत तो 25
सालों में 31 प्रतिशत की दर से बढ़ी लेकिन सट्टेबाज़ी की वजह से इसके दाम ढाई गुना
तक बढ़ चुके हैं। तेल की खपत 2030 तक चार गुना होने के आसार हैं।
वैसे ओपेक के कई
देशों ने अपने वादे के मुताबिक तेल का उत्पादन खपत के हिसाब से लगातार बढ़ाया है
जिससे इसके दाम मात्र 30 डॉलर प्रति बैरल रह गये थे। इस संकट से निबटने के लिये
पहले सउूदी अरब ने अपना तेल उत्पादन कम कर दिया और उसके बाद 1986 में अचानक घाटा
पूरा करने को जब उसने उत्पादन 250 प्रतिशत तक बढ़ाया तो तेल की कीमत दस डॉलर तक आ
गयी। बहरहाल सरकार चाहे तो पैट्रोल पर अपना टैक्स कम करके भी जनता को राहत दे सकती
है।
0अच्छी नहीं है शहर के
रस्तों की दोस्ती,
आंगन में फैल जाये न
बाज़ार देखना।।
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