गरीबी:सरकार की नीति नहीं नीयत भी साफ़ हो
0 गरीबों की संख्या
से सीमा हटाना एक सकारात्मक क़दम है!
-इक़बाल
हिंदुस्तानी
देर आयद दुरस्त आयद
माना जाये तो सरकार गरीबी की नई रेखा खींचने को चारों तरफ से हो रही आलोचना के बाद
तैयार तो हुयी लेकिन सवाल इस मामले में उसकी नीति से अधिक नीयत का है। अब उसने
सरकारी कार्यक्रमों का फायदा देने का आधार तय करने को एक और नई समिति बनाने का फैसला
किया है। इस बार गरीबी तय करने का आधार सामाजिक, आर्थिक और
जातिगत जनगणना के बाद योजना आयोग, ग्रामीण विकास मंत्रालय, राज्यों के
प्रतिनिधि और विशेषज्ञ मिलकर करेंगे। हालांकि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपना 26
और 32 रूपये प्रतिदिन आय वाला गरीब माना जाने वाला विवादास्पद शपथपत्र वापस लेने
से मना कर दिया है लेकिन सरकारी योजनाओं का लाभ देने के लिये अब उनकी संख्या पर
कोई सीमा नहीं लगाई जायेगी यह एक सकारात्मक बात होगी।
योजना आयोग के
अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने यह बदलाव प्रधनमंत्राी
मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के इस मामले में हस्तक्षेप के बाद किया है। इससे पहले
सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य अरूणा राय और
ज्यां द्रेज सहित एन सी सक्सेना आदि विशेषज्ञ भी गरीबी रेखा को लेकर योजना आयोग को
खूब खरी खोटी सुना चुके हैं।
अगर कोई आदमी बीमार
हो और उसे यही पता नहीं लगे कि उसको क्या रोग है तो वह अपना इलाज कैसे करा सकता है? ऐसा ही आलम
हमारी सरकार का है। वह आज तक यही तय नहीं कर पा रही है कि गरीब किसे कहा जाये, और गरीबी
क्यों बढ़ रही है ? योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में शपथपत्र देकर कहा है कि शहरी
क्षेत्र में 32 रू0 और गांव में 26 रू0 में एक आदमी प्रतिदिन अपने सारे ख़र्च चला
सकता है। सरकार के इस रूख़ पर एक प्रसंग याद आ रहा है । एक बार एक अमीर बच्चे ने
स्कूल में गरीबी पर निबंध लिखा था। उसने लिखा एक गरीब परिवार था। मां गरीब और
बेचारा बाप भी गरीब। यहां तक कि उनके बच्चे भी गरीब। हालत इतनी ख़राब कि उनके पास
एक ही पक्का घर था। बच्चो को रहने के लिये अलग अलग कमरे भी नहीं थे। सब मिलकर एक
ही टीवी से काम चलाते थे।
हद यह कि एक कार थी
जो काफी पुरानी हो चुकी थी। फिर भी उनका ड्राइवर उन बच्चो को उसी कार से स्कूल ले
जाने के साथ बाज़ार भी ले जाता था। उनका नौकर भी गरीब था। वह बेचारा अपनी
मोटरसाइकिल से उनके घर आता था। गरीबी का हाल यह था कि यह परिवार साल में एक बार ही
पिकनिक पर जा पाता था। यह कहानी उस अमीर बच्चे की मासूमियत के साथ साथ यह भी बताती
है कि ज़मीन से जुड़े आदमी और भुक्तभोगी में क्या फ़र्क़ होता है। जिस के पैर पड़ी न
बिवायी वो क्या जाने पीर पराई।
आज हमारी संसद में
302 करोड़पति सांसद बैठे हैं। उनको क्या पता गरीबी किसे कहते हैं। जाहिर है कि आज
चुनाव लड़ना जितना महंगा हो चुका है उससे शेष 243 सांसद भी ऑनपेपर करोड़पति भले ही न
होें लेकिन उनकी हैसियत भी करोड़पति के आसपास ही होगी। दरअसल संसद की कैंटीन मंे 32
रूपये में दो टाइम का बेहतरीन खाना मिल जाता है। यही नहीं बल्कि रेलवे, योजना आयोग
और केंद्र सरकार के कई विभागों में 15 रूपयों तक में शानदार खाने की थाली मिलती
है। संसद में मिलने वाली 18 रूपये की थाली में सब्जी रोटी के साथ दाल चावल, रायता, अचार, पापड़, सलाद, मिठाई और
दूसरे कुल दस आइटम मिल जाते हैं। अगर आप दाल रोटी खाना चाहें तो यह आपको 10 से 12
रूपये में ही उपलब्ध हो जायेगी।
यह सप्लाई रेलवे की
तरफ से माननीय सांसदों के लिये होती है लेकिन संसद का स्टाफ और वहां आने जाने वाले
भी इस सस्ती थाली का भरपूर लाभ उठाते हैं। मज़ेदार बात यह है कि जिस शहरी 32 रूपये
में सरकार गरीबी की परिभाषा तय कर रही है, उसमें केवल
दो वक्त का खाना ही नहीं बल्कि खाने पीने की दो दर्जन चीज़ों को शामिल किया गया है।
इनमें ताज़ा फल, मेवे ,मांस और शराब तक शामिल है।
हो यह रहा है कि
1991 में नई आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद से सरकार बढ़ती गरीबी के उन वास्तविक
आंकड़ों को छिपाने का लगातार प्रयास कर रही है जिससे उसके उन दावों की पोल खुलती है
जिसमें कहा गया था कि दो चार साल बाद एलपीजी यानी उदारीकरण, निजीकरण और
वैश्वीकरण से देश में सबका भला होगा। इसमंे रोज़गार बढ़ाने के जो वादे किये गये थे
वे भी हवाई साबित हो चुके हैं साथ ही महंगी चिकित्सा से हर साल मध्यमवर्ग के तीन
से चार करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे जा रहे हैं। अगर यह कहा जाये कि सरकार
अमीरों को और अमीर तथा गरीबों को और गरीब
बनाने के रास्ते पर पूरी बेशर्मी से चल रही है तो कुछ अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह
बात हम नहीं खुद आंकड़े बयान कर रहे हैं। हर साल जब करोड़पतियों के नाम जारी होते
हैं तो देश में उनकी सूची पहले से और लंबी हो जाती है जबकि गरीबों की संख्या दिन ब
दिन बढ़ती जाती है।
योजना आयोग के
सुप्रीम कोर्ट मेें दिये ताज़ा हलफनामे में शहर में 965 रू0 और गांव में 781 रू0 से
अधिक मासिक ख़र्च करने वाले को भले ही अमीर माना गया हो लेकिन इससे पहले यही सीमा
क्रमशः 538.60 रू0 और 356.30 रू0 थी। योजना आयोग की ही तेंदुलकर कमैटी ने देश की
आबादी के कुल 37 प्रतिशत लोगों को गरीबी रेखा से नीचे बताया था। असंगठित क्षेत्रा
में उद्योगों के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग के तत्कालीन चेयरमैन अर्जुन सेनगप्ता ने
2006 की एक रिपोर्ट में देश की 77 प्रतिशत आबादी की हालत ऐसी बताई थी कि वह 20 रू0
रोज़ से कम पर गुज़ारा कर रही है। ग्रामीण मंत्रालय ने 2009 में एन सी सक्सेना की एक
कमैटी इस काम के लिये बनाई तो उसका कहना था कि देश की आधी जनसंख्या गरीबी रेखा से
नीचे जी रही है। ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनीशिएटिव द्वारा सर्वे
में यह तादाद 65 करोड़ बताई गयी है।
इस स्टडी में मल्टी
डायमेंशियल पावर्टी इंडेक्स का इस्तेमाल किया गया है। विश्व बैंक के अनुमान के
अनुसार देश की 80 प्रतिशत आबादी दो डालर से कम पर गुज़ारा कर रही है जो
अंतराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से बेहद गरीब है। हालत इतनी ख़राब है कि अकेले आठ
उत्तरी भारत के राज्यों में ही 42.1 करोड़ गरीब रह रहे हैं जो दुनिया के 26 सबसे
गरीब अफ्रीकी देशों की कुल 41 करोड़ आबादी से भी अधिक है।
पहले सरकार गरीबी
का पैमाना कैलोरी को मानती थी जिसके अनुसार गांव मंे 2400 और शहर में 2100 से कम
कैलोरी प्रयोग करने वाला निर्धन माना जाता था। योजना आयोग छठी पंचवर्षीय योेजना के
समय से गरीबी निर्धारण का काम कर रहा है। इसमें राज्य और राष्ट्रीय स्तर दोनों पर
ही सर्वे होता है। यह निर्धरण 1979 में गठित एक टास्कफोर्स की सिफारिश के आधार पर
किया जाता है। पहले यह सर्वे न्यूनतम आवश्यकताओं और ज़रूरी खपत के आधर पर होता था
लेकिन बाद में इस पर विवाद होने पर प्रो0 लकड़वाला के नेतृत्व में एक स्पेशलिस्ट
गु्रप की सिफारिशों पर संशोधन भी किये गये। आजकल गरीबी रेखा का जो पैमाना अपनाया
जाता है उसमें भोजन के साथ साथ शिक्षा और चिकित्सा पर किये जानेे वाला ख़र्च भी
शामिल किया गया है।
जानकारों का कहना है
कि जो सरकार गरीबों की गणना करने में ही ईमानदार नहीं है वह उनका भला करने में
कैसे ईमानदार हो सकती है? बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार का गरीबों पर कितना बुरा असर पड़ता है
सरकार अच्छी तरह जानती है लेकिन वह आज तक राशन की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी
दुरस्त करने के लिये गंभीर नज़र नहीं आती। सब जानते हैं कि गरीबों के हिस्से की
सब्सिडी का आधे से अधिक लाभ बिचौलिये उठा रहे हैं लेकिन सरकार ने इसलिये चुप्पी
साध रखी है क्योंकि उसकी मशीनरी ही नहीं बल्कि अधिकाश ं विधायक,सांसद और
मंत्री तक इस लूट में बराबर अपना हिस्सा बांट रहे हैं। दुष्यंत की दो लाइनें पेश
हैं।
0 रोटी नहीं तो क्या
हुआ तू सब्र तो कर,
आजकल जे़रे बहस है
दिल्ली में यह मुद्दा ।
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