Thursday, 26 December 2024

आंबेडकर को मानते हैं?

*डा. अंबेडकर को अगर मानते हैं, 
उनके संविधान को क्यों नहीं मानते?*
0 पिछले दिनों संसद में बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर को लेकर ज़ोरदार बहस हुयी। सरकार और विपक्ष दोनों यह दिखाने की कोशिश कर रहे थे जैसे उनसे बड़ा अंबेडकर का चाहने वाला कोई दूसरा नहीं हो सकता। लेकिन सच यह है कि बाबा साहब के नाम पर उनकी मूर्ति और संविधान को लेकर बड़े बड़े दावे करने वाले विभिन्न दल और नेता अंबेडकर के विचारों उसूलों और उनके बताये रास्ते पर चलने को तैयार नहीं हैं। खासतौर पर मोदी सरकार और राज्यों की भाजपा सरकारों ने अंबेडकर को लेकर बहुत आडंबर किये हैं। इसके पीछे दलित समाज को खुश करने का नाटक अधिक रहा है। लेकिन बाबा साहब ने भारत का जो संविधान बनाया था। उस पर कोई चलने को तैयार नहीं है। यह ठीक ऐसी ही बात है जैसे हिंदू समाज पूरे विश्व को एक परिवार बताता है। लेकिन जब वर्ण व्यवस्था और अल्पसंख्यकों का सवाल आता है तो इसका एक बड़ा वर्ग उनके खिलाफ खुलेआम खड़ा हो जाता है। ऐसे ही मुसलमान इस्लाम की बड़ी बड़ी बातें करते हैं। लेकिन जब अमल की बात आती है तो पैगंबर का सब्र और सुलह का रास्ता छोड़कर कई जगह कुछ कट्टरपंथी मुसलमान उग्र होकर खुद मुसीबत मोल ले लेते हैं।    
*-इकबाल हिंदुस्तानी*
कहने को हमारे देश में लोकतंत्र है। चुनी हुयी सरकारें हैं। पुलिस है। कोर्ट हैं। जांच एजेंसियां हैं। मीडिया हैं। संविधान है। चुनाव आयोग सूचना आयोग मानव अधिकार आयोग अल्पसंख्यक आयोग सीबीआई और ईडी जैसी कथित स्वायत्त संस्थायें हैं। यानी कानून का राज बताया जाता है। लेकिन वास्तव में क्या सब नागरिकों के अधिकार समान हैं? व्यवहार में तो ऐसा बिल्कुल भी नजर नहीं आता है। विडंबना यह है कि हमारे पीएम सीएम एमपी एमएलए पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी सभी संविधान की शपथ लेकर अपने पद ग्रहण करते हैं। लेकिन हम देख रहे हैं कि कई मामलों में आयेदिन इस शपथ के विपरीत वे आजकल पूरी निडरता और क्रूरता से अन्याय पक्षपात अत्याचार का काम करने में हिचक नहीं रहे हैं। विधानमंडलों में पक्षपातपूर्ण कानून बनाने से लेकर पुलिस के द्वारा अपने विरोधी लोगों को टारगेट करने में अब उनको जरा भी लज्जा नहीं आती है। क्या संविधान इसकी इजाजत देता है? नहीं देता तो आप डा. अंबेडकर को काहे झूठमूठ की श्रध्दांजलि का नाटक करते हो? 
    एक नया संविधान विरोधी चलन देखने में आ रहा था कि अगर किसी पर दंगा या किसी अपराध का आरोप लगता है तो उस पर अपराध साबित होने से पहले ही पुलिस प्रशासन सत्ता में बैठे अपने आकाओं का राजनीतिक एजेंडा लागू करने के लिये उसके घर या दुकान व अन्य प्रोपर्टी पर बुल्डोजर चलवा देता था। क्या कानूनन बिना नोटिस दिये कोई सरकार ऐसा कर सकती है? संविधान से नहीं कर सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले ही इस तरह के मामलों पर कुछ हद तक रोक लगा दी है। इसके बाद भी यूपी में कुख्यात अपराधियों के नाम पर फर्जी मुठभेड़ में आरोपियों को मार डालना और कई के पांव में गोली मारकर हाफ एनकाउंटर कर देना अब आम बात हो चुकी है। ऐसे ही भीड़ द्वारा किसी पर भी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहंुचाने का आरोप लगाकर उसकी जान ले लेना अब सामान्य सा हो चुका है। क्या ये संविधान के हिसाब से सही है? नहीं तो बाबा साहब को कहां मान रहे हैं आप? आज दंगा होने पर एक वर्ग विशेष को सबक सिखाने और एक वर्ग विशेष को तुष्टिकरण कर उनसे थोक में वोट लेकर अनैतिक तरीके से चुनाव जीतने को यह सब सोची समझी योजना के तहत करने का विपक्ष का आरोप सही नजर नहीं आ रहा है? 
      अपवाद के तौर पर कभी कहीं हो जाता तो इन हरकतों को नजर अंदाज भी किया जा सकता था। लेकिन ऐसा एक दो बार नहीं एक दो राज्यों में नहीं कई राज्यों में एक पार्टी की सरकारें लगातार कर रही हैं तो क्या इसे कानून का राज कहा जा सकता है? हालांकि विपक्ष की सरकारें भी दूध की धुली नहीं हैं। कांग्रेस ने अपने 40 साल के एकक्षत्र राज में संविधान का खूब मज़ाक बनाया है। चुनी हुयी दर्जनों सरकारें अपने राजनीतिक स्वार्थ में बर्खास्त की हैं। अब भाजपा सरकार उससे भी कई गुना आगे निकलकर तमाम संविधान विरोधी काम खुलेआम कर रही है। क्या इसे संविधान का राज कहा जा सकता है? क्या ऐसा करने वाले बाबा साहब के समर्थक हो सकते हैं? बाबा साहब के संविधान के नाम पर साम्राज्यवादी मनमानी अत्याचारी अन्यायपूर्ण और पक्षपातपूर्ण शासन व्यवस्था लागू करने का काम कैसे किया जा सकता है? अब यह बात ढकी छिपी नहीं रह गयी है कि एक संस्था और एक दल खुलेआम एक वर्ग विशेष का दानवीकरण करने पर तुला है। इस वर्ग के खिलाफ धर्म संसद के नाम पर आयेदिन जहर उगला जा रहा है। 
     सुप्रीम कोर्ट के हेट स्पीच के खिलाफ सख़्त कानूनी कार्यवाही करने के बार बार आदेश के बावजूद सरकारें अव्वल तो इन मामलों का संज्ञान ही नहीं लेती। जब मामला कोर्ट में चला जाता है तो मजबूरन हल्की धाराओं मेें एफआईआर दर्ज की जाती हैं। इसके बाद सत्ता के इशारे पर जांच के नाम पर केस को कमजोर किया जाता है। नतीजा यह होता है कि कोर्ट से आरोपियों को जल्दी ही जमानत मिल जाती है। आरोपी फिर से अपने नफरत और झूठ फैलाने के मिशन में लग जाते हैं। दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों सेकुलर हिंदू दलितों और संघ परिवार की विचार धारा का विरोध करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के मामलोें मेें जरूरत से ज्यादा तेजी दिखाई जाती है। उनके मामलों में धारायें भी अधिक गंभीर लगाई जाती हैं। उनकी जमानतों का कोर्ट में लगातार विरोध किया जाता है। उधर कोर्ट जहां पहले छोटे छोटे मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर पिछली सरकारों से सखती से जवाब तलब करते थे। आजकल देखने में आ रहा है कि या तो सरकार के खिलाफ आने वाले केस सुनवाई के लिये लिस्टेड ही नहीं होते या फिर उन पर कोर्ट राहत देने में पहले जैसे उदार नहीं रहे हैं। 
   सुप्रीम कोर्ट के एक चीफ जस्टिस ने कहा था कि इंसाफ केवल होना ही नहीं चाहिये बल्कि होता हुआ नजर भी आना चाहिये। इतना तो साफ है कि आज न्याय हो भी रहा हो तो वह नजर नहीं आ रहा है। इतना ही नहीं सरकारों ने संविधान के खिलाफ काम करके भी विरोध के रास्ते बंद कर दिये हैं। मीडिया से लेकर कोर्ट चुनाव आयोग ईडी सीबीआई इनकम टैक्स कई बार सरकार का पक्ष लेते नज़र आते हैं। विपक्षी नेताओं को करप्शन का आरोप लगाकर पहले घेरा जाता है, डराया धमकाया जाता है फिर भी नहीं मानने पर उनको जेल भेज दिया जाता है, उनकी सम्पत्यिां ज़ब्त कर ली जाती हैं, जब वे भाजपा में आ जाते हैं तो उनकी एक एक हज़ार करोड़ की सम्पत्यिां वापस करने के साथ ही उनको पाक साफ घोषित कर विधायक सांसद मंत्री और उपमुख्यमंत्री के साथ सीएम तक बना दिया जाता है। क्या बाबा साहब के संविधान पर चलकर यह सब अनर्थ किया जा सकता है? तमाम सरकारी संस्थान निजी हाथों में सौंपकर आरक्षण खत्म किया जा रहा है? सरकारी पदों पर नियुक्तियों में खुलकर घोटाला बेईमानी गड़बड़ी भाईभतीजावाद जातिवाद और साम्प्रदायिकता का खुला खेल फरूखाबादी बेशर्मी से खेला जा रहा है। पक्ष हो या विपक्ष उनकी सरकारों का करप्शन पक्षपात भेदभाव अन्याय अत्याचार बेईमानी और झूठ कई बार साफ नज़र आता है लेकिन बाबा साहब की दुहाई देंगे।                                      
*0 उसके होंठों की तरफ ना देख वो क्या कहता है,*
*उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता है।।*
*0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर व पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Friday, 20 December 2024

प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट

*प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट का भाविष्य: 
कोर्ट नहीं सरकार का रूख़ तय करेगा?* 
0 देश में एक बार फिर मंदिर मस्जिद के कई विवाद खड़े होने लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने वक्ती तौर पर इन पर स्टे कर दिया है। कुछ लोगों को लगता है कि प्लेसेज़ आफ़ वर्शिप एक्ट के रहते इस तरह के विवाद खड़े ही नहीं होने चाहिये थे। कुछ लोग इस तरह के विवादों को तूल देने के लिये पूर्व चीफ़ जस्टिस चंद्रचूड़ की उस मौखिक टिप्पणी को मानते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि यह एक्ट किसी धर्म स्थल का स्वरूप बदलने से रोकता है लेकिन उसका सर्वे कर सच जानने से नहीं रोकता । इसका नतीजा यह हुआ कि बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे का रास्ता इस टिप्पणी से खुल गया। इसके बाद मथुरा की ईदगाह अजमेर की दरगाह और संभल की जामा मस्जिद से लेकर दिल्ली की जामा मस्जिद तक के सर्वे का मामला निचली अदालतों में पहंुच गया।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
1991 में जब पी वी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट पास किया था तो उस टाइम मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं का एतराज़ यह था कि इसमें बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि को शामिल क्यों नहीं किया गया। जबकि यह मामला कोर्ट में विचाराधीन था और इसे भाजपा व संघ परिवार ने बहुत बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना रखा था जिससे इसको एक्ट से बाहर से रखा गया था। कम लोगों को पता होगा कि उस समय भाजपा ने इस एक्ट का भी यह कहकर विरोध किया था इससे हिंदुओं के आस्था पूजा और एतिहासिक धार्मिक धरोहरों को वापस पाने के मौलिक अधिकार का हनन होगा। लेकिन वह सत्ता में नहीं होने की वजह से इस कानून को पास होने से रोक नहीं सकी थी। आज हालात बदल चुके हैं। भाजपा तीसरी बार सत्ता में आई है। काफी लंबे समय से इस एक्ट को भाजपा की सोच से प्रभावित कुछ वकील सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते रहे हैं। कोर्ट इस एक्ट की संवैधानिकता को परखने के लिये केंद्र सरकार से उसका रूख कई बार जानने के लिये कई साल से समय दे रहा है। लेकिन मोदी सरकार इस पर चुप्पी साधे रही है। आमतौर पर किसी भी दल की सरकार सत्ता में हो संसद से पास हुए किसी भी कानून का बचाव वह करती रही है। लेकिन प्लेसेज़ आॅफ वर्शिप एक्ट के पक्ष में भाजपा शुरू से ही नहीं रही है। 
  इसलिये यह माना जा रहा है कि वह आज नहीं तो कल इसके खिलाफ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संसद से पास कानून के विरोध की तरह कोर्ट में अपना पक्ष रख सकती है। वह इस एक्ट को खत्म भी कर सकती है। यह भी हो सकता है कि वह इसमें कुछ संशोधन करके हिंदुओं के लिये बहुत महत्व के चंद धार्मिक स्थलों को मस्जिद से बदलकर मंदिर करने के अभियान में कानून के स्तर पर सहयोग करने को खुलकर सामने आये। लेकिन इसमें यह भी आशंका है कि इस पर सुप्रीम कोर्ट अपनी मुहर लगाने से मना कर दे। यह अजीब बात है कि जो लोग इस एक्ट को बनाते हुए यह कहकर विरोध कर रहे थे कि इस एक्ट से बाबरी मस्जिद राममंदिर विवाद को बाहर नहीं रखा जाना चाहिये था। आज वही सबसे अधिक इस कानून का हवाला देकर कह रहे हैं कि इसमें साफ लिखा है कि जो धार्मिक स्थल 15 अगस्त 1947 में जिस स्वरूप में था जिसके पास था जिस धर्म का था वह वही रहेगा। यानी उसको बदला नहीं जा सकता, ऐसा इस एक्ट में लिखा है। इतना ही नहीं अब इस एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर मस्जिद विवाद में जो कुछ कहा था 
उसका वास्ता देकर भी याद दिलाया जा रहा है कि सबसे बड़ी अदालत ने न केवल यह माना था कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गयी थी बल्कि यह भी कहा था कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना सरासर कानून का उल्लंघन था। कोर्ट ने यह भी दोहराया था कि इतिहास में सैंकड़ो साल पहले अगर किसी धार्मिक स्थल को तोड़कर कोई दूसरा पूजा स्थल बना भी दिया गया हो तो इतिहास की उस गल्ती को अब सुधारा नहीं जा सकता। साथ ही यह भी कहा था कि यह काम कम से कम अदालतें तो बिल्कुल भी नहीं कर सकतीं। अदालत ने इस एक्ट को देश के धर्मनिर्पेक्ष स्वरूप को बनाये और बचाये रखने के लिये भी अपरिहार्य बताया था। इसलिये 1991 का प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट भविष्य में ऐसे किसी विवाद को पूरी तरह से रोकने के लिये सही बनाया गया है। आज इस एक्ट को यह कहकर ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है कि यह एक्ट हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करता है। यह भी कहा गया है कि यह एक्ट संविधान के खिलाफ बनाया गया है। यहां तक दावा किया गया है कि ऐसा कोई कानून बनाने का संसद को अधिकार ही नहीं था। 
     कुछ लोगों का कहना है कि धार्मिक स्थल जैसे के तैसे रखने की कट आॅफ डेट 15 अगस्त 1947 नहीं 1192 होनी चाहिये जब पृथ्वी राज चैहान जंग हार गये थे। इस पर कुछ लोग यह भी कहते हैं कि फिर तो यह तारीख 712 सन होना चाहिये जब मुहम्मद बिन कासिम पहली बार किसी मुस्लिम राजा के तौर पर भारत आया था। हो सकता है कि रिटायर्ड मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने विवादित धार्मिक स्थल का सर्वे करने से 1991 के इस कानून में कहीं भी नहीं रोकने की बात मौखिक रूप से सही कही हो लेकिन उस बात का न्यायिक निर्णय में कही चर्चा ना होेेेेने के बावजूद ऐसे विवादित मामले लोवर कोर्ट में दायर करने और उन पर सर्वे का आदेश जल्दबाज़ी में पास करने की बाढ़ आ गयी जिससे इस एक्ट का मकसद मंशा और मूल आत्मा ही ख़तरे में पड़ गयी। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्टे करके उस भूल को सुधारा है। लेकिन इस एक्ट की संवैधनिकता और इस पर केंद्र सरकार के रूख के जाने बिना सुप्रीम कोर्ट किसी अंतिम निर्णय तक नहीं पहंुच सकता। जिससे देश में ऐसे विवादित मामले थोक में सामने आने और उन पर आपसी टकराव बढ़ने की तलवार अभी भी लटकी हुयी है। 
हालांकि यह भी ज़रूरी नहीं है कि केंद्र सरकार या याचिका कर्ताओं के मात्र यह कहने से सुप्रीम कोर्ट इस कानून को असंवैधनिक मानने को तैयार हो जाये कि इससे हिंदुओं के मौलिक पूजा के अधिकार का हनन होता है। लेकिन इतना ज़रूर है कि देश की एकता अखंडता और भाईचारा व शांति बनाये रखने के लिये यह एक्ट बहुत बड़ी चर्चा का विषय बन गया है। संभल मेें जामा मस्जिद के कोर्ट के दूसरी बार सर्वे के आदेश के बाद जो हिंसा हुयी जिसमें कई लोग मारे गये वह भी अफसोसनाक और निंदनीय है। लेकिन जब तक इस देश की जनता को यह बात समझ नहीं आती कि मंदिर मस्जिद के विवादों से राजनीति को लाभ होता है और जनता के असली मुद्दे दफन हो जाते हैं तब तक सुप्रीम कोर्ट से ही यह आशा की जा सकती है कि वह जनहित देशहित और मानवता के हित में इस तरह के मामलों पर स्थाई और ठोस रोक हमेशा के लिये लगा सकता है।
0 वक्त ऐसा कि बग़ावत भी नहीं कर सकते,
और ज़ालिम की हिमायत भी नहीं कर सकते।।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 5 December 2024

बढ़ती आर्थिक असमानता

बढ़ रही है आर्थिक असमानता, पूंजीवाद इस सच को नहीं मानता!
0 जी 20 सम्मेलन मंे ब्राजील के पीएम लूला डी सिल्वा ने दुनिया में बढ़ती आर्थिक असमानता के लिये पूंजीवाद को ज़िम्मेदार बताते हुए बड़े कारापोरेट घरानों और पूंजीपतियों पर सुपर रिच टैक्स यानी सम्पत्ति कर की मांग की है। आपको याद दिलादें फिलहाल ब्राजील के पास ग्रुप 20 की अध्यक्षता है। ग्रुप की इनइक्विलिटी सम्मिट में यह प्रस्ताव रखा गया था। हमारे देश में मोदी सरकार ने उल्टा बड़े पूंजीपतियों पर टैक्स कम कर दिया है। साथ ही अडानी अंबानी जैसे चंद पूंजीपतियों को सरकार का संरक्षण मिल रहा है। जिससे इनकी सम्पत्ति दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती जा रही है। भारत इस सच से हमेशा आंखें चुराता है लेकिन अब वित्तमंत्री और आरबीआई के गवर्नर इस गंभीर मुद्दे पर चर्चा करने केे लिये मजबूर हो गये हैं।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     दुनिया की पूरी इकाॅनोमी लगभग 100 ट्रिलियन डालर है। इनमें सबसे अधिक अर्थव्यवस्था अमेरिका की 30 ट्रिलियन तो चीन की 20 ट्रिलियन डालर है। भारत की इकाॅनोमी मात्र 3.6 ट्रिलियन डालर है। जो कि विश्व में पांचवे स्थान पर आती है। आंकड़ों से समझा जा सकता है कि पूरी दुनिया की कुल दौलत में से आधी अकेले अमेरिका और चीन के पास है। जी 20 की बैठक में शामिल होने वाले दुनिया के तमाम देशों के वित्तमंत्री और सेंटरल बैंकों के गवर्नर के नाम हैं। हमारे देश में न केवल पूंजीवाद चल रहा है बल्कि खुलकर आवारा पूंजी अपना खेल खेल रही है। हालत अब यह है कि पहले पूंजीपति राजनीतिक दलों को चंदा देकर कुछ काम निकाल लिया करते थे। लेकिन अब वे बाकायदा सत्ताधरी दल को इतना बड़ा चंदा देेे रहे हैं कि सरकार उनके हिसाब से न केवल बन रही गिर रही है बल्कि नीतियां भी उनकी सुविधा संरक्षण और लाभ को केंद्र में रखकर बन रही है। मोदी भाजपा और संघ को इस बात से कोई समस्या नहीं है। मोदी तो एक बार आवेश में यहां तक कह चुके हैं कि क्या अमीरों को गरीब कर दे सरकार? दरअसल मोदी का आर्थिक माॅडल शुरू से ही अडानी जैसे पंूजीपतियों को खुला संरक्षण देकर उनसे पार्टी के लिये बेतहाशा चुनावी चंदा लेकर सत्ता में आना और संघ का एजेंडा आगे बढ़ाना रहा है। उनको बढ़ती आर्थिक असमानता से कोई सरोकार नहीं है। उनको घटते रोज़गार से भी कोई प्राॅब्लम नहीं है। 
विडंबना यह है कि मोदी इस मामले में अकेले नहीं हैं बल्कि पूरी दुनिया खासतौर पर अमेरिका ब्रिटेन यूरूप जी 20 के अधिकांश देश पूंजीपतियों के साथ ही खड़े हैं। आॅक्सफेम की आर्थिक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में आर्थिक असमानता अश्लीलता की सभी सीमायें पार कर गयी है। सर्वे के अनुसार पिछले दस साल में विश्व के एक प्रतिशत अमीरों ने कुल 42 प्रतिशत दौलत जोड़ी है। दुनिया के 50 प्रतिशत बाॅटम के लोगों के पास जितनी दौलत है उससे 34 गुना अधिक सम्पत्ति इन चंद धनपतियों के पास है। लोकसभा चुनाव के दौरान जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यही बात बोली थी तो भाजपा ने उनको ऐसे घेरा जैसे वे कोई देश विरोधी बात कह रहे हैं? पीएम मोदी ने तो राहुल गांधी के इस बयान को साम्प्रदायिक रंग देकर यहां तक कह दिया था कि वे हिंदूआंे की सम्पत्ति छीनकर मुसलमानों को बांटना चाहते हैं। सच यह है कि हिंदुत्व की आड़ में संघ परिवार भाजपा और मोदी चंद पूंजीपतियों के हित में अधिक काम कर रहे हैं। लेकिन सत्ता की पाॅवर अपने पुलिस प्रशासन और गोदी मीडिया के बल पर वे दुष्प्रचार के सहारे जनता को ऐसा महसूस कराते हैं जैसे उनसे बड़ा हिंदू समर्थक कोई दूसरा नहीं है। वे सभी गैर भाजपा दलों विपक्षी नेताओं सेकुलर हिंदुओें को हिंदू विरोधी देश विरोधी और करप्ट बताते हैं लेकिन इन दलों के साथ चुनावी गठबंधन करने में उनको तनिक भी संकोंच नहीं होता। 
साथ ही जिन विरोधी नेताओं को वे बेईमान हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी तक बताते रहते हैं उनके भाजपा में आने पर बेशर्म से चुप्पी साध लेते हैं। उनके खिलाफ पहले से दर्ज करप्शन के केस बंद कर क्लीन चिट दे दी जाती है। जी 20 में आर्थिक असमानता का मुद्दा चर्चा का विषय बन जाने पर मोदी सरकार मजबूरी में इस पर अपना पक्ष रख रही है। लेकिन इससे पहले उनकी सरकार आॅक्सफेम की रिपोर्ट को झुठला चुकी है। अब खुद सरकार के आर्थिक सर्वे में भी जब यही बात बार बार उभरकर सामने आ रही है कि आर्थिक असमानता वास्तव में है। यह बढ़ती भी जा रही है। ऐसे में मोदी सरकार के लिये इस मुद्दे से आंखे चुराना अधिक दिन संभव नहीं होगा। जी 20 में यह चर्चा हो रही थी कि दुनिया के कुल 3000 अरबपतियों पर 2 प्रतिशत सुपर रिच टैक्स लगाकर 200 से 250 बिलियन डालर जुटाये जा सकते हैं। मोदी सरकार के तमाम दावों वादों और आश्वासनों के बावजूद देश में बढ़ती बेरोज़गारी महंगाई और गरीबी से जनसंख्या के बड़े हिस्से का जीवन यापन करने को ज़रूरी आय अनाज कपड़ा मकान शिक्षा और स्वास्थ्य का खर्च असहनीय होता जा रहा है। 
हालत यह है कि देश के मीडियम क्लास का साइज़ कम होने लगा है। बड़ी बीमारी नौकरी छूटने या अचानक बड़ा नुकसान होने से तीन करोड़ लोग हर साल मीडियम क्लास से निधर््ान वर्ग में आ जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि केवल जीडीपी बजट और इकाॅनोमी का साइज़ बढ़ने से नहीं बल्कि संसाधनों अर्जित धन और सम्पत्ति के न्यायपूर्ण बंटवारे से ही समग्र समाज का भला हो सकता है। नेशनल संैपल सर्वे आॅफिस एनएसएसओ उपभोग के आंकड़ों के आधार पर आय का विवरण तय करता है लेकिन नई स्टडी इसको ठीक पैमाना नहीं मानती। आर्थिक जानकारों का कहना है कि लोगोें की आय का बड़ा हिस्सा ऐसी मदों में चला जाता है जिसका कंज़प्शन से सीधा सरोकार नहीं होता है। इस मामले में नेशनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकाॅनोमिक रिसर्च और प्युपिल रिसर्च आॅफ इंडियाज़ कंज्यूमर इकाॅनोमी हाउस होल्ड इनकम के आंकड़े बेहतर पैमाना अपनाने से अधिक कारगर और विश्वसनीय हैं। इससे भारत जैसे विभिन्न क्षेत्रोें आर्थिक स्तरों और सामाजिक वर्गों का आय का स्तर ठीक से समझने में आसानी हो जाती है। विश्व असमानता के आंकड़े भी नेशनल एकाउंट टैक्स रिकाॅर्ड और पंूजीगत आय पर निर्भर होते हैं। इससे पहले कि दुनिया में दस्तक दे रही मंदी बड़ी विकराल समस्या का रूप धारण कर ले भारत जी 20 के देश नाटो देश यूरूपीय यूनियन से जुड़े देश अमेरिका ब्रिटेन चीन रूस फ्रांस अरब देशों को चाहिये कि वे आर्थिक असमानता को रोकने सबको रोज़गार देने और अमीरों पर सुपर रिच टैक्स लगाकर गरीबों को उनके खातों में सीध्ेा मदद भेजने की व्यवस्था सुनिश्चित करें नहीं तो पंूजीवाद भी समाजवाद की तरह धरती से उखड़ना शुरू हो जायेगा।
0 हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये,*
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।*
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Saturday, 30 November 2024

बढ़ती बेरोजगारी

सरकारी आंकड़ों की जादूगरी जारी, 
फिर भी बढ़ती जा रही है बेरोज़गारी?
0 मोदी सरकार जब से सत्ता में आई है तब से वादों दावों और नारों के साथ फर्जी आंकड़ों की जादूगरी से जनता को ऐसा अहसास कराया जा रहा है। मानो सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा हो। इसके बावजूद देश में महंगाई बेरोज़गारी और गरीबी बढ़ती ही जा रही है। सच यह है कि काॅरपोरेट सैक्टर ने हर साल 1,45,000 करोड़ का टैक्स बचाकर भी नया निवेश नहीं किया है। जिससे रोज़गार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं। 2013 से 2022 तक उत्पादन क्षेत्र में मात्र 32 लाख रोज़गार पैदा हुए हैं। 18 प्रतिशत लोग घरेलू तौर पर अवैतनिक काम में लगे हैं। बड़े वाहनों की बिक्री घट रही है। मीडियम क्लास की तादाद भी कम होने लगी है। लेकिन सरकार धर्म की राजनीति कर चुनाव जीतने में लगी है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
आर्थिक सर्वेक्षण बता रहा है कि सरकार रोज़गार के अवसर बढ़ाने में लगातार नाकाम हो रही है। दस साल से स्किल इंडिया चलने का दावा किया जा रहा है लेकिन 51.25 प्रतिशत युवाओं में नौकरी पाने लायक ज़रूरी योग्यता व क्षमता ही नहीं है। सरकार इसका ठीकरा राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र पर फोड़कर अपना पल्ला झाड़ रही है। इसका दुष्परिणाम यह है कि एआई कौशल क्षेत्र में उल्टा नौकरी कम हो रही हैं। 11 करोड़ रोज़गार कृषि और 06.5 करोड़ एमएसएमई यानी कुल 94 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र से जुड़े हैं। वित्तमंत्री विपक्ष के बेरोज़गारी के आंकड़ों को विश्वसनीय नहीं मानती लेकिन सवाल यह है कि खुद सरकार के पास भी कोई अधिकृत आंकड़ा क्यों नहीं है। 2017 में सरकार को अरविंद पनगढ़िया ने रोज़गार के आंकड़े दिये थे। जिनको सरकार ने सार्वजनिक न कर ठंडे बस्ते में डाल दिया था। हर दस साल में जनगणना के दौरान ही नियमित रोज़गार और हर पांच साल मेें अनिगमित क्षेत्र के रोज़गार की गणना कराई जाती रही है। लेकिन 2021 में यह कोरोना की वजह से नहीं होने से यह आंकड़ा भी सामने नहीं आ सका है। एक जानकारी के अनुसार 2020 से 2023 तक काॅरपोरेट का लाभ टैक्स छूट से बढ़कर चार गुना तक पहुंच गया है। लेकिन काॅरपोरेट ने न तो नई नौकरियां दीं और न ही पुराने कर्मचारियों का वेतन अपने बढे़ लाभ के अनुपात में बढ़ाया। अरविंद सुब्रमण्यम का कहना है कि इस सरकार में दो खास काॅरपोरेट घरानों को सरकार का खुला संरक्षण मिलने से अन्य उद्योग स्वामी निवेश करने से बचने लगे हैं। 
सरकारी नीतियां इन दो उद्योग समूह के हिसाब से ही बन रही हैं जिससे मीडिया से लेकर पोर्ट एयरपोर्ट टेलिकाॅम और सीमेंट जैसे कई बड़े क्षेत्रों पर इन दोनों का एकतरफा कब्ज़ा हो गया है। हालत यह है कि 2014 से 2023 तक काॅरपोरेट कर घटकर 26 प्रतिशत होने से व्यक्तिगत कर बढ़कर 35 प्रतिशत आ रहा है। काॅरपोरेट एक तो नई नौकरी नहीं दे रहा अगर देता भी है तो संविदा पर सेवा कराने का चलन बढ़ता जा रहा है। आॅनलाइन कारोबार बढ़ते जाने से असंगठित क्षेत्र की 16 लाख नौकरी हाल में चली गयी हैं। जानकार बताते हैं कि देश में हर साल 79 से 81 लाख नये रोज़गार की ज़रूरत होती है। विडंबना यह है कि जिस देश में 80 करोड़ से अधिक लोग सरकारी निशुल्क राशन पर जीवन गुज़ारने पर मजबूर हांे वहां उपभोक्ता बाज़ार कैसे बढ़ेगा? यह भी अर्थशास्त्र का सिध्दांत है कि जब तक खपत नहीं बढ़ेगी नया निवेश कर नया उत्पादन कौन कंपनी और क्यों बढ़ायेगी? यानी नया रोज़गार और नौकरी बढ़ने की संभावना कैसे पैदा होगी? एनसीआरबी का आंकड़ा बता रहा है कि बेरोज़गारी की वजह से 2018 में हर दो घंटे में तीन बेरोज़गार जान देते थे अब यह आंकड़ा बढ़कर एक घंटे में दो बेरोज़गारों की आत्महत्या पर पहंुच गया है। 
   सरकार का झूठ इससे भी पता चलता है कि 2016-17 में काम करने वाली कुल आबादी देश में जहां 42.79 प्रतिशत यानी 40 से 41 करोड़ थी वह 2023-24 में बढ़कर मात्र 41 से 42 करोड़ बताई जा रही है। जबकि वास्तविक काम करने वाली जनसंख्या 55 से 60 प्रतिशत होती है। सरकार ने पिछले दिनों आरबीआई के एक सर्वे का हवाला देते हुए दावा किया था कि पिछले 3 से 4 साल में 8 करोड़ रोज़गार पैदा हुए हैं। सच यह है कि रिज़र्व बैंक ऐसा कोई सर्वे नहीं करता है। यह सरकार को खुश करने और जनता को गुमराह करनेे के लिये पीएलएफएस के आंकड़ों को ही तोड़ मरोड़कर मन माफिक परिणाम निकाल कर परोसने की राजनीतिक कला है। इन आंकड़ों में एक खेल यह किया जाता है कि जो अनपेड लेबर है उसको भी स्वरोज़गार में जोड़कर आंकड़ा काफी बढ़ा चढ़ाकर दिखाया जाता है। मिसाल के तौर पर जो लोग अपने परिवार के मुखिया की खेती या दुकान या ठेले पर काम में बिना किसी वेतन के हाथ बंटा देते हैं उनके श्रम की गणना नये रोज़गार के तौर पर कर ली जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि इससे किसी को नया रोज़गार तो मिला ही नहीं होता। यह कोई देखने को तैयार नहीं है कि भारत की 45 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती करती है जबकि जीडीपी में उसकी भागीदारी मात्र 15 प्रतिशत है तो इससे यह असमानता और विषमता कैसे दूर होगी? इससे इस बड़े क्षेत्र की उत्पादकता भी कम रह जाती है। 
सरकार इपीएफ में दर्ज होने वाले नामों को भी नया रोज़गार मानकर आंकड़ों में हेरफेर करती रहती है। जबकि सबको पता है कि जो लोग पहले से संविदा या अनियमित सेवा दे रहे हैं। उनके रोज़गार नियमित होने पर उनका नाम कर्मचारी भविष्यनिधि संगठन में दर्ज करना अनिवार्य होता है। मनरेगा के 50 से 100 दिन के काम को भी कुछ संगठन नये रोज़गार पाने वालों में जोड़कर रोज़गार पाने वालों का फर्जीवाड़ा करते हैं। कोरोना लाॅकडाउन में जब तमाम लोगों के रोज़गार बड़े पैमाने पर चले गये तो उनका आंकड़ा तो बेरोज़गारों में जोड़ा नहीं गया लेकिन जिन लोगों ने मनरेगा छोटी दुकान या ठेला लगाया उनको नये रोज़गार में शामिल कर रोज़गार बढ़ने का ढोल पीट दिया गया।
0 तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं,
 मगर वो क्या करे जिसका भरोसा टूट जाता है।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

रेवड़ी से जीते झारखंड और महाराष्ट्र

महाराष्ट्र लाडली बहन योजना से, 
झारखंड मईया सम्मान से जीते?
0 महाराष्ट्र में एनडीए और झारखंड में इंडिया गठबंधन की जीत को एक एक से बराबर कहना ठीक नहीं होगा। महाराष्ट्र न केवल बहुत बड़ा राज्य है बल्कि वह मुंबई के देश की आर्थिक राजधानी कहलाने से बहुत अधिक अहम भी है। साथ ही वहां शिवसेना और एनसीपी के बंटवारे से यह देखना भी रोचक था कि मराठी जनता किसको असली दल मानती है। हालांकि लोकसभा चुनाव में 48 में से 30 सीट जीतकर कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन ने अपनी बढ़त साबित कर दी थी लेकिन उसको यह नहीं भूलना चाहिये था कि सीटों में डेढ़ गुना से अधिक अंतर होने के बावजूद दोनों गठबंधन के वोटों मंे मात्र एक प्रतिशत का ही फ़र्क था। महाराष्ट्र की जीत में लाडली बहन योजना तो झारखंड में मइया सम्मान योजना इंडिया गठबंधन की जीत में बड़ी वजह बनी है।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    महाराष्ट्र की भारी बहुमत वाली बंपर जीत से पीएम मोदी भाजपा संघ परिवार शिवसेना शिंदे गुट और एनसीपी अजित पवार गुट ने एनडीए को हरियाणा के बाद एक और लाइफलाइन देकर यह साबित कर दिया है कि पिछले लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन की बढ़त और भाजपा का संसद में बहुमत के आंकड़े से कुछ पीछे रह जाना महज़ एक अपवाद संयोग और विपक्ष का संविधान खतरे मंे बताकर दलितों आदिवासियों व कुछ पिछड़ों को अपनी तरफ मोड़ लेेने का दांव तात्कालिक क्षणिक और सियासी जुगाड़ था। हालांकि झारखंड में भाजपा का बंग्लादेशी घुसपैठिये आदिवासियों की रोटी बेटी और माटी छीन लेंगे का नारा नाकाम रहा। वहां लोगों ने भाजपा के घोर झूठे और सांप्रदायिक फर्जी दुष्प्रचार को भाव न देकर आदिवासी अस्मिता और क्षेत्रीयता को महत्व दिया है। लोगों ने भाजपा के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर इस लिये भी कान नहीं दिये कि अगर वास्तव में घुसपैठ हो भी रही है तो यह केंद्र सरकार की नाकामी है। साथ ही झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया और राज्य के सीएम हेमंत सोरेन को केंद्र द्वारा कथित करप्शन के आरोप में जेल भेजे जाने का गुस्सा भी भाजपा के खिलाफ गया। इसके साथ ही आदिवासी जेएमएम सरकार की कल्याणकारी योजनाओं जैसे मय्या सम्मान से भी संतुष्ट नज़र आये। हालांकि यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं होगा कि महाराष्ट्र में महायुति गठबंधन की कार्यशैली से खुश होकर मराठी जनता ने इतना ज़बरदस्त बहुमत एनडीए को दिया है। 
सच तो यह है कि महायुति का सत्ता में होना इस दौरान जनकल्याण की कई आकर्षक योजनायें जैसे महिलाओं को खुश करने वाली लाडली बहना योजना लागू करना केंद्र का उसको हर तरह से सहयोग करना बंटेंगे तो कटेंगे जैसे नारों का महाराष्ट्र के चुनाव में पहुंच जाना और पीएम का इसी नारे को थोड़ा परिष्कृत कर एक हैं तो सेफ हैं के ज़रिये खुलकर हिंदू वोट बैंक की राजनीति करना चुनाव आयोग का सत्ताधारी दल के पक्ष में पूरी बेशर्मी से झुक जाना काॅरपोरेट और खासतौर पर अडानी पर मंुबई की धारावी झुग्गी झोंपड़ी का पुनर्निर्माण का ठेका बचाये रखने के लिये अपनी तिजोरी का मंुह खोल देना सत्ताधारी दल पर अकूत धन से वोट खरीदने का आरोप गोदी मीडिया का सत्ता के पक्ष में विपक्ष पर दिन रात झूठे आरोप लगाना बदनाम करना जनविरोधी बताना देशद्रोही तक कहना ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स के ज़रिये विरोधी नेताओं उनको चंदा देने वालों और उनका साथ देने वालों को निशाने पर लेने से लेकर तरह तरह के हथकंडे अपनाकर साम दाम दंड भेद से किसी कीमत पर भी चुनाव जीतने का अभियान एनडीए के पक्ष में गया है। अगर निष्पक्षता ईमानदारी और बिना पूर्वाग्रह के देखें तो साफ नज़र आ रहा है कि सत्ताधरी दल का मुकाबला विपक्ष करने की स्थिति में नहीं था। उसको लोकसभा चुनाव में बढ़त मिलने से उसका नैतिक बल ज़रूर बढ़ गया था। 
कांग्रेस अधिक से अधिक सीट पर लड़कर राज्य में अपना महत्व फिर से वापस लाना चाहती थी। शिवसेना ठाकरे भी इसी कोशिश में थी। उधर शरद पवार पर जब से यह आरोप लगा कि 2019 में अडानी के घर हुयी बैठक में वे नई सरकार बनाने की योजना में शामिल थे तो जानकारों का यहां तक कहना है कि वे मोदी से अपने अच्छे रिश्ते की वजह से जानबूझकर अपने भतीजे अजित पवार को दिखावे की बगावत करके एनडीए गठबंधन में भेजने को अपनी मर्जी से तैयार हुए थे। उधर दलितों की सबसे बड़ी पार्टी बहुजन अघाड़ी इंडिया गठबंधन से अलग चुनाव लड़कर एनडीए गठबंधन की जीत का रास्ता तैयार करने में लगी थी। साथ ही मुस्लिम वोटों के ठेकेदार बनकर भाजपा का खेल खेलने वाले एमआईएम के कई प्रत्याशी इंडिया गठबंधन के वोट काटकर महायुति की मदद करने में शर्म महसूस नहीं कर रहे थे। इसके अलावा कांगे्रस और उसके साथी घटक अपने विद्रोही उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने या एक दूसरे के वोट बैंक को नुकसान पहंुचाने से बाज़ नहीं आये। हालांकि यही काम भाजपा और एनडीए के दूसरे घटकों ने भी कम या अधिक किया है लेकिन भाजपा व महायुति के पास ऐसे बागी प्रत्याशियों को सत्ता से धमकाने या ललचाने का एक अतिरिक्त विकल्प उपलब्ध था जिससे महाविकास अघाड़ी वंचित था। 
कुल मिलाकर चुनाव नतीजों का विश्लेषण टीका टिप्पणी और क्या हुआ कैसे हुआ क्यों हुआ अभी आंकड़े विस्तार से आने तक चलता रहेगा लेकिन एक बात साफ हो गयी है कि भाजपा और उसके गठबंधन एनडीए के पास जो शक्ति सत्ता और संसाधन हिंदुत्व का तड़का लगाने तक सरकारी एजंसियों के दुरूपयोग के उपलब्ध हैं वे इंडिया गठबंधन के पास न तो हैं और न ही साम्प्रदायिक कट्टर और नफरत का कार्ड विपक्ष सेकुलर होने की वजह से खेल सकता है लिहाज़ा ऐसा लगता है कि भाजपा अभी लंबे समय तक राज करती रहेगी चाहे इसके लिये उसे ‘कुछ भी’ करना पड़े। कल तक पीएम मोदी भाजपा और तथाकथित संघी मानसिकता के अर्थशास्त्री जिन जनहित की योजनाओं को राज्यों के बजट का दिवाला निकालने वाला और रेवड़ी कल्चर कहकर मज़ाक उड़ाया करते थे। आज उन योजनाओं के सहारे ही जब भाजपा एक के बाद एक राज्य का चुनाव जीत रही है तो उसको जनता को नकद सहायता देकर अर्थव्यवस्था को गति देने वाला बताया जा रहा है। जबकि महाराष्ट्र में 7 लाख करोड़ का बजट घाटा पहले ही चल रहा है। 
     जब 2019 में राहुल गांधी ने पहली बार न्याय योजना के नाम से देश के सबसे गरीब 5 करोड़ परिवारों को हर साल 72000 रूपये देने का एलान किया था तो उस योजना का जमकर भाजपा ने विरोध किया था। महाराष्ट्र में इसीलिये चुनाव हरियाणा व कश्मीर के साथ नहीं कराया गया था। महाराष्ट्र में कुल 4.69 करोड़ महिला मतदाता हैं। राज्य में 21 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। 52 लाख नई महिलायें इस बार चुनाव में पहली बार वोटर बनी हैं। वहां ढाई करोड़ से अधिक महिलाओं को 1500 रूपये के हिसाब से कुल पांच किश्तों में 7500 रूपये दिये जा चुके हैं। साथ ही चुनाव जीतने पर यह राशि बढ़ाकर 3000 करने का वादा भी किया गया है। यही वजह है कि महिलाओं के मत पुरूषों से 6 प्रतिशत अधिक डाले गये हैं। ज़ाहिर बात है कि इनमें से अधिकांश सत्ताधारी महायुति के पक्ष में गये होंगे। लेकिन यह सवाल अपनी जगह है कि जिस राज्य में 6 माह में 1267 किसानों ने आत्महत्या की हो और बेरोज़गारी चरम पर हो वहां उन पुरूषों को ऐसी कोई नकद सहायता क्या सोचकर नहीं दी गयी है? 
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 14 November 2024

चौहान साहब होते तो....

चैहान साहब आज होते तो कट्टरपंथियों के निशाने पर होते!

0 वरिष्ठ पत्रकार चिंतक और ललित निबंध लेखक स्व. बाबूसिंह चैहान जब तक जीवित रहे अपनी लेखनी बिना यह देखे निष्पक्षता स्पश्टता और मानवता के पक्ष में चलाते रहे कि उनके सच लिखने से किस वर्ग के कट्टरपंथी नाराज़ हो जायेंगे। बाबूजी तो यहां तक कहा करते थे कि अगर उनके लिखने बोलने और कार्य करने से संप्रदायवादी जातिवादी और फासिस्ट तत्व खफ़ा होते हैं तो समझ जाना चााहिये कि वे अपने मिशन पर सही जा रहे हैं। उनका कहना था कि जिस दिन यथास्थितिवादी और अंधवश्विासी लोग आपकी सराहना करने लगे समझ लीजिये आप अपने सत्य तथ्य और प्रमाण्किता के रास्ते से भटक चुके हैं। यही वजह है कि ऐसा माना जाता है कि चैहान साहब आज होते तो कट्टरपंथियों के निशाने पर होते। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कहने को देश में लोकतंत्र है। चुनाव भी हो रहे हैं। मीडिया है। न्यायपालिका है। संविधान है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। अखबार छप रहे हैं। टीवी चैनल चल रहे हैं। लेकिन सच इन सबमें गुम सा हो गया है। चैहान साहब आज जीवित होते तो इन मूल्यों लक्ष्यों और उसूलों के लिये लड़ रहे होते। हालांकि उनकी सोच के चंद लोग अपवाद स्वरूप आज भी पूरी तरह पंूजीवाद लाभ और स्वार्थ को लात मारकर न्याय समाजवाद और सौहार्द की लड़ाई लड़ रहे हैं। बिजनौर टाइम्स और चिंगारी जैसे उनके लगाये पौधे भी वटवृक्ष बन गये हैं। उनके सुपुत्र श्री चंद्रमणि रघुवंशी और श्री सूर्यमाणि रघुवंशी भी उनकी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। बि.टा. ग्रुप से जुड़े आॅफिस फील्ड के पत्रकार समाचार पत्र वितरक हाॅकर विज्ञापनदाता लेखक कवि और सबसे बढ़कर पाठकों का एक बड़ा वर्ग इन विषम परिस्थितियों में भी मिशनरी पत्रकारिता के साथ खड़ा है। यह इस बात का प्रमाण है कि झूठ की आंधी चाहे जितनी भी प्रचंड हो लेकिन वह सच के दिये को बुझा नहीं सकती। आज का दौर ऐसा दौर है। जिसमें सत्ता में ऐसे लोग हावी हैं। जिनका विश्वास संविधान लोकतंत्र और समानता में नहीं है। उनका काॅरपोरेट के साथ एक काॅकटेल बन गया है। उन्होंने मीडिया के साथ ही पुलिस और प्रशासन न्यायपालिका और जांच एजंसियों सहित लगभग सभी सरकारी संस्थानों को बंधक बना लिया है।
वे विपक्ष या असहमति के आवाज़ को दुश्मन मानते हैं। ऐसे में अधिकांश पिं्रट और इलैक्ट्राॅनिक मीडिया ने उनके सामने घुटने टेक दिये हैं। इसका समीकरण बहुत सीधा है। पहले दूरदर्शन और आकाशवाणी को सरकार का भोंपू माना जाता था। जब ये दोनों सरकार का राग दरबारी छेड़ते थे तो किसी को बहुत हैरत भी नहीं होती थी। यही वजह है कि आज के दौर में इनकी विश्वसनीयता रसातल में जा चुकी है। लेकिन जब उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो लोगों को लगा था कि अब सरकारी मीडिया की मनमानी पर लगाम लगेगी। शुरू में कुछ दिन यह आशा फलीभूत होती भी नज़र आई लेकिन फिर एक दिन ऐसा आया जब सत्ता और पूंजीपतियों ने हाथ मिला लिया। ऐसे में सत्ता पूंजीपतियों को कानून ताक पर रखकर लाभ देने लगी और बदले में पूंजीपतियों ने न केवल अपनी तिजोरी का मंुह खोल दिया बल्कि सत्ता की चाकरी में अपने अखबार और चैनलों को पूरी तरह से सरकार के कदमों में बिछा दिया। इसी का अंजाम यह हुआ कि निजी मीडिया झूठा नफरती और फर्जी आंकड़ों का रोबोट बन गया है। आज पूरी बेशर्मी बेहयाई और निर्लजता से गोदी मीडिया सरकार की गोद में बैठा है। ऐसे में बाबूजी याद आते हैं। उनको आप किसी तरह के लालच और डर से अपने मकसद से डिगा नहीं सकते थे। वे होते तो सच लिखते। बड़े बड़े अखबारों और टीवी चैनलों की पोल खोल देते। उनके इस अभियान से सरकार नाराज़ होती। सांप्रदायिक और फासिस्ट शक्तियां उनको निशाने पर लेती लेकिन वे हार मानने वाले नहीं थे। 
हालांकि उनके दिखाये रास्ते पर ही आज बिजनौर टाइम्स और चिंगारी चल रहे हैं। इन दोनों अखबारों को भी अपने उसूलों सच और न्याय का साथ देने की कीमत चुकानी पड़ रही है। मुझे याद आ रहा है कि एक बार चैहान साहब ने भुखमरी के दौर में एक आदमी के रोटी चुराने के मामले को लेकर एक खबर छाप दी थी कि भूखा मानव क्या करेगा? इस पर तत्कालीन अधिकारी उनसे खफा हो गये थे। उनका आरोप था कि चैहान साहब जनता को अनाज चोरी और लूट के लिये भड़का रहे हैं। लेकिन चैहान साहब तो एक ज़िम्मेदार संवेदनशील और मानवतावादी पत्रकार का अपना कर्तव्य पूरा कर रहे थे। ऐसा ही शायद उनके जीते आज होता जब वे अन्याय अत्याचार और पक्षपात के खिलाफ खुलकर लिखते बोलते तो शासन प्रशासन के निशाने पर आने के साथ ही उस कट्टर सोच के लोगों की आंख की किरकिरी बन जाते जो सबको अपने हिसाब से हांकना चाहते है। वे बुल्डोज़र के विध्वंस के खिलाफ बहुत तीखा लिखते। वे माॅब लिंचिंग को लेकर सवाल खड़ा करते। वे चुनाव आयोग के पक्षपात पर चुप नहीं रहते और ईडी व सीबीआई के गलत इस्तेमाल पर जमकर आवाज़ उठाते चाहे इसके लिये उनको विपक्षी दलों का साथ देने वाला ही क्यों कहा जाता। वे न्यायपालिका के स्लैक्टिव निर्णयों पर भी कलम चलाने से खुद को नहीं रोक पाते चाहे इसकी कीमत उनको कोर्ट की मानहानि का मुकदमा झेलकर ही क्यों चुकानी पड़ती। वे अडानी अंबानी जैसे चंद पूंजीपतियों को सारे संसाधन बैंक लोन और देश की नवरत्न कंपनियां औने पौने दामों में सौंप दिये जाने का भी मुखर विरोध करते चाहे इसके लिये उनको उनके अंदर का कम्युनिस्ट एक बार फिर जाग जाने का उलाहना ही क्यों ना दिया जाता। 
वे कई वरिष्ठ वकीलों लेखकों मानवाधिकारवादियों और स्वतंत्र सेवा करने वालों को झूठे आरोप लगाकर जेल भेजने और सालों तक बंद रखने का हर हाल में विरोध करते चाहे इसके लिये उनको अरबन नक्सल का समर्थक ही क्यों ना बताया जाता। वे बारी बारी से सबके निशाने पर आते लेकिन उच्च जातियों के गरीबों पिछड़ों वर्ग के कमजोरों दलितों के पीड़ितों और अल्पसंख्कों के साथ होने वाले पक्षपात पर लगातार कलम चलाते रहते चाहे इसके लिये उनको सरकार के कोपभाजन का शिकार ही क्यों होना पड़ता। खास बात यह थी कि वे केवल कलम ही नहीं चलाते थे बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सड़क पर उतरकर आंदोलन करना और जेल भरो अभियान चलाना भी उनको आता था। आज वे होते तो यह कदम उठाने से भी नहीं हिचकते। बिजनौर ज़िले की शान मिशनरी पत्रकारिता के जनक और लेखक व चिंतक श्री बाबूसिंह चैहान का नाम आज यूपी ही नहीं पूरे देश में मान सम्मान कलम के ज़रिये समाजसेवा समाज सुधार और युग परिवर्तक के पहचाना जाता है। उनके सहित्य की चर्चा करें तो गिनाने के लिये बहुत लंबी सूची है। कहने का मतलब यह है कि चैहान साहब कोई साधारण पत्रकार लेखक या काॅमरेड नहीं थे। वे अगर आज होते तो उनको यह माहौल घुटनभरा लगता जिसमें पत्रकारिता मिशनरी से व्यवसायिक ही नहीं पूरी बेशर्मी और निर्लजता से चाटुकारिता नफ़रत और समाज को बांटने के काम में लगी है। उनको यह सब किसी कीमत पर सहन नहीं होता और वे इस पतन बेहयायी और समाज विरोधी पत्रकारिता का जमकर विरोध करते। चैहान साहब के लिये गोदी मीडिया का यह दौर असहनीय इसलिये भी होता क्योंकि वे जब जब टीवी चैनल और सरकार के गुलाम बन चुके अधिकांश हिंदी व क्षेत्रीय समाचार पत्र देखते पढ़ते तो उनको ऐसा लगता मानो आज भारत मंे सच लिखना बोलना और उस पर चर्चा करना अपराध बन गया है। जब हम उनके मार्गदर्शन में चिंगारी बि.टा. के संपादन में सहयोगी के तौर पर डेस्क पर काम करते थे तो कभी कभी वे अपने पुराने अनुभव साझा किया करते थे। कहते थे अगर वे चाहें भी तो भी किसी तानाशाह के पक्ष में नहीं लिख सकते। हालांकि उस दौरान भी अख़बार में वे आपातकाल के खिलाफ लिखने से बाज़ नहीं आये।

0 मैं चुप रहा तो मुझे मार देगा मेरा ज़मीर,

  गवाही दी तो अदालत में मारा जाउूंगा।।

 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

बुलडोजर पर सुप्रीम ऑर्डर

सुप्रीम आॅर्डर से रूकेगा बुल्डोज़र या सरकारें बाईपास निकाल लेंगी?
0 सबसे बड़ी अदालत ने मनमाना बुल्डोज़र चलाने के खिलाफ सख़्त रूख़ अपनाते हुए व्यापक दिशा निर्देश जारी कर दिये हैं। लेकिन जानकारों को शक है कि इसके बावजूद बुल्डोज़र आरोपियों के घर पर चलने से रूक जायेगा या सरकारें कोर्ट के अन्य आदेशों निर्देशों और रूलिंग के खिलाफ पहले की तरह बाईपास निकालकर संविधान के खिलाफ मनमर्जी चलाती रहेंगी और सर्वोच्च न्यायालय चुप रहेगा? ‘बुलडोज़र जस्टिस’ के नाम पर तबाही, बरबादी, अन्याय, मनमानी और अत्याचार का यह सिलसिला यूपी से शुरू हुआ था। देखते ही देखते यह कानून विरोधी अभियान भाजपा शासित दूसरे राज्यों में भी पहुंच गया। यूपी सरकार के प्रवक्ता ने फैसले पर यह कहते हुए अपना पल्ला अभी से झाड़ लिया है कि शीर्ष अदालत का आदेश दिल्ली के संदर्भ में है, उत्तर प्रदेश सरकार इसमें पार्टी नहीं थी।        
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      सुप्रीम कोर्ट ने सैक्शन 142 के तहत डायरेक्शन जारी करते हुए साफ कहा है कि किसी भी आरोपी ही नहीं अपराधी का भी सज़ा के तौर पर घर तोड़ना असंवैधानिक यानी गैर कानूनी है। ऐसा करना सरकारी शक्ति का गलत प्रयोग करना माना जायेगा। जबकि सरकार का काम कानून का राज कायम करना होता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि बिना मुकदमा चलाये किसी भी इमारत को नहीं गिराया जा सकता। फिर भी प्रशासनिक अधिकारी अगर मनमाने तरीके से पहले की तरह किसी का घर गिराते हैं तो वे व्यक्तिगत रूप से इस अपराध के ज़िम्मेदार होंगे और उनके वेतन से पीड़ित को हरजाना दिलाया जायेगा। ऐसे अफसरों को दंडित भी किया जायेगा। सरकार दोषी मिली तो उसको अवैध ध्वंस का मुआवज़ा देना होगा। अदालत का कहना है कि पुलिस प्रशासन जज नहीं बन सकता। न्याय करना और सज़ा देना कोर्ट का काम है। अवैध निर्माण को जुर्माना लगाकर नियमित भी किया जा सकता है। किसी आरोपी ही नहीं अपराधी के अपराध का दंड उसके बेकसूर पूरे परिवार को बेघर करके नहीं दिया जा सकता। 15 दिन का नोटिस देना नोटिस स्थानीय नगर निकाय के अनुसार होना नोटिस रजिस्टर्ड पोस्ट से भेजना मकान के अवैध हिस्से का उसमें सपश्ट उल्लेख करना आरोपी को अपना पक्ष रखने का मौका देना तीन महीने में पोर्टल बनाकर उस पर नोटिस साझा करना नोटिस की जानकारी ज़िलाधिकारी को देना डीएम द्वारा एक माह के भीतर नोडल अधिकारी नियुक्त करना अवैध निर्माण तोड़ने की वीडियो बनाना आदि आदि अनिवार्य किया गया है। 
नोटिस के दो बड़े मकसद होते हैं। एक तो यह कि आप विवादित जगह को छोड़कर सुरक्षित कहीं और चले जायें और अपना जीवन यापन का सामान टूटने से बचाने के लिये वहां से समय रहते निकाल लें। दूसरा मकसद यह होता है कि अगर कोई छोटा या मामूली कानूनी उल्लंघन हुआ है तो उसको मानचित्र के हिसाब से सही कर के भूल सुधार कर लें। सौ टके का सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस महत्वपूर्ण फैसले पर राज्य सरकारें अमल करेंगी या नहीं करेंगी? आप कहेंगे लागू नहीं करेंगी तो न्यायालय की मानहानि में फंस जायेंगी? यूपी सरकार के मंत्री ओमप्रकाश राजभर दावा किया है कि उनकी सरकार किसी की निजी सम्पत्ति पर बुल्डोज़र नहीं चलाती है। उनका यह भी कहना है कि सार्वजनिक सम्पत्तियों और अवैध कब्ज़ों पर बुल्डोज़र चलाया जाता है। यूपी सरकार का कहना है कि कोर्ट के इस आॅर्डर से अपराधियों के मन में कानून का भय पैदा होगा। साथ ही माफिया व संगठित अपराधियों पर लगाम लगाने में आसानी होगी। इन बयानों से आप समझ सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के बुल्डोज़र के खिलाफ फैसले से क्या बदलने जा रहा है? दरअसल कोर्ट ने खुद ही मनमानी करने वाली सरकारों को इसके लिये एक वैकल्पिक रास्ता दे दिया है। अदालत ने साफ कर दिया है कि अगर सार्वजनिक स्थान जैसे सड़क गली फुटपाथ रेलवे लाइन नदी या जल निकाय पर अनधिकृत निर्माण हो तो यह निर्देश लागू नहीं होंगे। 
सरकारें इन अपवादों का सहारा लेकर अपना ध्वस्तीकरण अभियान जारी रख सकती हैं? अधिकांश मामले तो कार्ट में उसके निर्देशोें का उल्लंघन करने को लेकर पहुंचेगे ही नहीं क्योंकि जिस का घर गिरा दिया गया और उस पर असली नकली आरोप लगाकर केस बनाकर उसे जेल भेज दिया गया हो वह कोर्ट कैसे जायेगा? निचली अदालते ऐसे मामलों में अकसर स्टे देती नहीं। बड़ी अदालतों में जाने को धन संसाधन और समय अधिक चाहिये जो सबके पास होता नहीं। सुप्रीम कोर्ट किसी समाजसेवी संस्था के शिकायत करने पर ऐसे व्यक्तिगत मामलों पर तब तक सुनवाई करता नहीं जब तक पीड़ित स्वयं कोर्ट में ना आये। इससे पहले बड़ी अदालत फर्जी एनकाउंटर के खिलाफ भी कई बार कडे़ दिशा निर्देश जारी कर चुकी है। लेकिन हम देख रहे हैं कि अब फर्जी एनकाउंटर पहले से अधिक हो रहे हैं। साथ साथ यूपी में तो हाफ एनकाउंटर जिनमें आरोपी के पैर में गोली मार दी जाती है। थोक में हो रहे हैं। लेकिन न तो कोई सुप्रीम कोर्ट जाता है न ही सुप्रीम कोर्ट इन मामलों में सू मोटो लेकर खुद किसी सरकार डीजीपी या प्रशासन से जवाब तलब करता है। 
     हमें आशंका है कि जिस तरह से बुल्डोज़र जस्टिस के नाम पर अन्याय कर राजनीति करके सरकारें अपना वोट बैंक मज़बूत कर बार बार बिना ठोस विकास रोज़गार और वास्तव में कानून व्यवस्था ठीक किये आराम से चुनाव जीत जाती हैं। उसके चलते वे अपना बुल्डोज़र अभियान किसी ना किसी तरह से चालू रखेंगी और कानून व संविधान का उल्लंघन ठीक वैसे ही करती रहेंगी जैसे कि वे धर्म परिवर्तन संवैधानिक होते हुए भी लव जेहाद के नाम पर उसको रोकने में काफी सीमा तक सफल रही हैं। सब देख रहे हैं कि कैसे सरकारंे उनके समर्थक और सत्ताधारी दल नफरत झूठ और करप्शन करके भी साफ बचके निकल जाते हैं जबकि विरोधी नेता सेकुलर हिंदू और अल्पसंख्यक दलित व गरीब बिना अपराध साबित हुए ही केवल आरोप लगने पर केस दर्ज होने और हिरासत में लेने के बाद सालों तक जेलों में बंद कर ज़मानत ना दिये जाने से अपना काम धंधा बंद होने और घर दुकान पर बुल्डोज़र चला दिये जाने से तबाह और बर्बाद हो रहे हैं।
*0 यहां मज़बू से मज़बूत लोहा टूट जाता है,*
 *कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है।*
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Wednesday, 23 October 2024

परिवार बढ़ाओ ?

नायडू की ‘परिवार बढ़ाओ’ अपील पर अब भाजपा चुप क्यों है ?
0 आंध््रा प्रदेश के सीएम चन्द्रबाबू नायडू ने कहा है कि ‘‘राज्य के परिवारों को कम से कम दो या अधिक बच्चे पैदा करने का लक्ष्य रखना चाहिये। अतीत में मैंने जनसंख्या नियंत्रण की वकालत की थी, लेकिन अब हमें भविष्य के लिये जन्म दर बढ़ाने की ज़रूरत है। राज्य सरकार एक कानून बनाने की योजना बना रही है।’’ अगर यही बात कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्लाह ने कही होती तो संघ परिवार से लेकर मीडिया तक उनको आबादी बढ़ाओ जेहादी, देशविरोधी और हिंदुओं के खिलाफ साज़िश करने वाला बता रहा होता। खुद हमारे पीएम पिछले लोकसभा चुनाव में मुसलमानों को अधिक बच्चे पैदा करने वाला बताकर कांग्रेस पर हिंदुओं से सम्पत्ति छीनकर उनको देने का आरोप लगा चुके हैं।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
आंध्रा के मुख्यमंत्री नायडू के परिवार नियोजन के खिलाफ बोलने के बाद तमिलनाडू के सीएम स्टालिन ने भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए अपने प्रदेश के लोगों से कुछ ऐसी ही अपील कर दी है। हो सकता है कि आगे दक्षिण के अन्य राज्यों के मुखिया भी इस बयानबाज़ी में नायडू के साथ खड़े नज़र आयें। दरअसल यह सारा विवाद उत्तर बनाम दक्षिण या दक्षिण बनाम देश के बाकी राज्य होने वाला है। इसकी वजह यह है कि 2026 में लोकसभा क्षेत्रों का एक बार फिर नया परिसीमन होना है। चूंकि संसदीय सीटों का सीमांकन जनसंख्या के आधार पर होता है। उसी के आधार पर बाद में राज्यसभा और विधानसभा व विधान परिषद सीटों का चुनाव होता है। ऐसे में परिवार नियोजन में सक्रिय भागीदारी कर जिन दक्षिण के राज्यों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनको नये परिसीमन में सीटें कम होेने का डर सता रहा है। इसके उलट उत्तर के यूपी बिहार जैसे राज्यों की आबादी तेज़ी से बढ़ने के कारण एमपी की सीटें बढ़ने के पूरे आसार हैं। हालांकि परिवार नियोजन अपनाने से राज्यों के लोगों को बेहतर शिक्षा स्वास्थय और रोज़गार मिलने से अच्छा जीवन जीने का लाभ मिलता हैै, लेकिन राजनीतिक रूप से यह घाटे का सौदा लगता है। दक्षिण के राज्यों में यह सम्पन्नता समृध्दि और प्रगति साफ नज़र भी आती है। 
दक्षिणी राज्य जब जब लोकसभा के परिसीमन की बात आई यह मांग करते रहे हैं कि उनकी संसद में भागीदारी कम ना हो इसके लिये सीटों के सीमांकन का आधार आबादी न रखकर क्षेत्रफल या राज्य के पहले से चले आ रहे प्रतिनिधित्व को बनाया जाये। इसके लिये वे देश के उन तीन लोकसभा क्षेत्रों का उदाहरण भी देते हैं जिनमें बहुत कम आबादी होने के बावजूद उनको एक संसदीय क्षेत्र माना गया है। मिसाल के तौर पर लक्षदीप संसदीय क्षेत्र के मतदाता केवल 64,473 लद्दाख के 2,74,000 और दादरा नागर हवेली एवं दमन दीव के 2,92,882 वोटर्स हैं। उधर इसके विपरीत तेलंगाना के मलकाजगिरी  में 31,50,313 कर्नाटक के बंगलुरू उत्तर में 28,49,250 और यूपी के गाज़ियाबाद में 27,28,978 रिकाॅर्ड अधिकतम मतदाता भी हैं। कहने का मतलब यह है कि इतने कम और इतने अधिक मतदाता किन्हीं अपरिहार्य और तकीनीकी कारणों से भी हो सकते हैं। मामला केवल आबादी और संसदीय सीट घटने का नहीं है। दक्षिण के राज्यों को यह भी नाराज़गी है कि उत्तर के राज्य अर्थव्यवस्था में उतना योगदान नहीं दे रहे हैं जितना उनको बढ़ती आबादी के कारण कोटा दिया जा रहा है। 
आंकड़े बताते हैं कि 2021 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय जहां मात्र 49,407 रूपये थी वहीं यूपी में यह आंकड़ा मात्र 70,792 रू. था। इसके विपरीत तमिलनाडू में यही पर कैपिटा इनकम रिकाॅर्ड 2,41,131 तो कर्नाटक में 2,65,623 रूपये थी। नायडू की चिंता यह भी है कि उनके राज्य में प्रजनन दर रिकाॅर्ड स्तर पर गिरकर मात्र 1.5 रह गयी है। जबकि वर्तमान आबादी को स्थिर बनाये रखने के लिये टोटल फर्टिलिटी रेट 2.1 होना ज़रूरी है। उनको आशंका है कि अगर आबादी में गिरावट का यह सिलसिला जारी रहा तो उनके राज्य को भविष्य में चीन और जापान जैसी आबादी घटने के बाद पैदा होने वाली समस्याओं का सामना करना होगा जिसमें परिवार पर आश्रित बुज़र्गों की संख्या बढ़ती जाती है जबकि रोज़गार करने वाले युवा सदस्य लगातार कम होते जाते हैं। तमिलनाडू के सीएम इस मामले में नायडू से भी आगे निकलकर बयान दे रहे हैं कि ‘‘राज्य में बुजुर्ग विवाहित जोड़ों को 16 प्रकार की सम्पत्ति का आशीर्वाद देते हैं। इस आशीर्वाद का मतलब यह नहीं कि आपके 16 बच्चे होने चाहिये, पर अब ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है, जहां लोग सोचते हैं कि उन्हें सचमुच 16 बच्चो का पालन पोषण करना होगा।’’ 
आपको याद होगा कि कुछ धार्मिक गुरू काफी समय से बढ़ती आबादी को ना रोककर और बढ़ाने की विवादित अपील करते हुए यही दलील देते आये हैं कि अगर ऐसा ना किया गया तो उनका समुदाय दूसरे समुदाय से संख्या में कम हो जायेगा। वे बच्चो को अल्लाह की देन भी बताते रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि अल्लाह के मामले में इंसान को दख़ल नहीं देना चाहिये। इसके विपरीत प्रगतिशील और उदारवादी लोगों का एक समूह भी आबादी कम करने के विचार का विरोध करता रहा है। हालांकि इस समूह के अपने तर्क धार्मिक कट्टरपंथी और सांप्रदायिक लोगों से बिल्कुल अलग हैं। उनका दावा है कि आज हमारा देश सबसे युवा है। अगर हम अपने नौजवानों को चीन की तरह शत प्रति शत रोज़गार देने में सफल हो जायें तो हम दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। ऐसे ही हमारे पीएम मोदी जी खुद इस बात पर बड़ा गर्व करते हंैं कि उनके राज में हमारी अर्थव्यवस्था विश्व में पांचवे स्थान पर आ गयी है। आगे वे इसको तीसरे स्थान पर लाने का सपना भी दिखाते हैं। 
ज़ाहिर बात है कि अनेक कारणों में एक कारण अगर जनसंख्या बड़ी होगी और बढ़ती रहेगी तभी अर्थव्यवस्था बड़ी बनेगी। जहां तक नायडू और स्टालिन का आबादी बढ़ाने का ताज़ा आव्हान है तो उसके पीछे व्यक्ति नहीं उनके सियासी लाभ छिपे हैं। देखना यह है कि जो भाजपा जनसंख्या नियंत्रण का कानून लाने का बार बार दावा करती है वह अपने एनडीए सहयोगी नायडू को आबादी बढ़ाने के प्रोग्राम से कैसे रोकती है? अगर संघ परिवार वास्तव में बढ़ती आबादी को देश के विकास के लिये बाधा मानता है तो अब उसकी परीक्षा का समय आ गया है। भाजपा को चाहिये कि नायडू से कहे कि आबादी बढ़ाने की विवादित अपील तत्काल वापस लें माफी मांगे और ऐसा कोई कानून बनाने का इरादा छोड़ दें नहीं तो हम आपको एनडीए से निकालकर देशहित में अपनी सरकार तक गिरा सकते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और माने जायेंगे।
 0 शेख़ अपनी रग को क्या करेें, रेशे को क्या करें
  मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें।  
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 17 October 2024

शेयर बाजार

शेयर बाज़ार: 93 प्रतिशत लोगों के नुकसान का कौन ज़िम्मेदार?
0 हाल ही में सेबी ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया है कि स्टाॅक मार्केट में फयूचर एंड आॅपशन ट्रेडिंग में 2022 से 2024 के दौरान जिन स्माॅल ट्रेडर्स ने काम किया है। उनमें से 93 प्रतिशत को घाटा हुआ है। 91 प्रतिशत अभी भी नुकसान में चल रहे हैं। आंकड़ें बताते हैं कि नुकसान उठाने वालों की तादाद 73 लाख है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि 2024 में ऐसे व्यक्तिगत ट्रेडर्स में प्रत्येक को 1,30,000 की हानि हुयी है। आमतौर पर 75 प्रतिशत लोग इस कारोबार में किसी न किसी तरह से घाटे में रहकर भी काम कर रहे हैं। ऐसे लोगों की सालाना आमदनी 5 लाख या उससे कम है। आपको याद दिला दें कि जून 2020 में नेशनल स्टाॅक एक्सचेंज ने डेरिवेटिव में काम करने का शेयरहोल्डर्स को पहली बार विकल्प दिया था।      
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
शेयर मार्केट यानी स्टाॅक एक्सचेंज में कई तरह से कारोबार करने का विकल्प होता है। मिसाल के तौर पर कुछ लोग किसी कंपनी का शेयर एक बार खरीदकर लंबे समय के लिये खामोश हो जाते हैं। जब उस कंपनी का शेयर बढ़े हुए दाम पर आता है तो वे उसको बेचकर मुनाफा कमा लेते हैं। शेयर खरीदने के भी कई विकल्प होते हैं। जैसे कंपनी जब अपना इश्यू लाती है तो कुछ लोग तब उसके लिये आवेदन करते हैं। अगर कंपनी का इश्यू ओवर सब्सक्राइब यानी जितने शेयर बिकने के लिये निकाले गये हैं उससे कई गुना अधिक लेने वाले एप्लाई कर देते हैं तो जब यह इश्यू खुलता है उसी दिन इस शेयर के दाम कई गुना बढ़कर खुलते हैं। ऐसे में कुछ लोग अधिक लाभ के चक्कर में ना आकर उसी दिन अपना कोटा बेचकर लाभ कमा लेते हैं। इसके अलावा कुछ लोग शेयर बाज़ार में एक दिन में ही कुछ शेयर खरीदकर उनका पूरा भुगतान करने की बजाये उसी दिन किसी टाइम या शाम होते होते जब तक शेयर मार्केट बंद होता है उसको बेच देते हैं। ऐेसे में नुकसान फायदा कुछ भी हो सकता है। लेकिन इसके लिये बहुत बड़ी पूंजी की ज़रूरत नहीं होती है। सेबी ने जो रिपोर्ट जारी की है वह स्टाॅक एक्सचेंज के फयूचर एंड आॅप्शन के बारे मंे है। यह रिपोर्ट उन लोगों की आंखें खोल देने वाली है जिनको आयेदिन सोशल मीडिया पर यह कहकर भ्रमित किया जाता है कि शेयर मार्केट में कोई भी पैसा लगाकर रातो रात लखपति या करोड़पति बन सकता है? दरअसल फयूचर एंड आॅप्शन का यह कारोबार शेयर मार्केट में पैसा कमाने जल्दी पैसा कमाने और बहुत अधिक पैसा कमाने का सपना दिखाता है। इसके लिये आपको शेयर मार्केट मंे जाने की भी ज़रूरत नहीं है। इसके लिये अपने मोबाइल या लैपटाॅप में आप एक एप डाउनलोड करके भी स्टाॅक मार्केट में घर बैठे काम शुरू कर सकते हैं। अलबत्ता आपको बैंक खाते की तरह शेयर बाज़ार में काम करने के लिये अपना डीमैट एकाउंट ज़रूर खोलना होगा। फयूचर एंड आॅप्शन में आप एक कंपनी का शेयर मान लो जो आज 200 रूपये का चल रहा है। तो उसको भविष्य के लिये 300 के रेट पर बुक कर सकते हैं। आपको लगता है कि वह शेयर अमुक टाइम तक 500 रूपये तक का हो जायेगा। 
   इस तरह आपको उसकी कीमत का अंतर 100 रूपये प्रति शेयर एक तरह से आज ही उस व्यक्ति या कंपनी को देना होगा जिसके पास यह आज मौजूद है। कल अगर इसका रेट आपके अनुमान के हिसाब से बढ़ जाता है तो आपको 200 रूपये प्रति शेयर का लाभ होगा नहीं तो घटने पर उसकी दर से हानि हो सकती है। इसी तरह आप इसका उल्टा यानी आज जो शेयर 100 रूपये का बिक रहा है उसको किसी खास समय के लिये 80 रूपये के दाम पर बुक कर सकते हैं। अगर उसका रेट आपके अनुमान के हिसाब से वास्तव में इतना ही नीचे चला गया तो आपको उसके आज के और आने वाले आपके तय किये कम दाम के बीच का अंतर का पैसा मिल जायेगा। लेकिन रेट आपके हिसाब से नीचे न आने पर आपको उसी अंतर का घाटा भी हो सकता है। कुछ नादान लोग बिना किसी जानकारी के ऐसे लेनदेन की बड़ी डील लालच मंे कर लेते हैं। लेकिन जब उनका अनुमान गलत निकलता है तो उनको एक बार में ही लाखों या करोड़ तक का नुकसान होता है जो उनको जीवनभर फिर संभलने नहीं देता है। यहां आपके दिमाग यह सवाल आ सकता है कि लोग इतना भारी जोखिम क्यों लेते हैं? आप यह भी सोच रहे होंगे कि 91 से 93 प्रतिशत लोग लगातार भारी नुकसान उठाकर भी शेयर मार्केट में क्यों बने हुए हैं? यह अजीब बात किसी की समझ मंे नहीं आयेगी कि केवल 1 से 7 प्रतिशत लोगों को जिस मार्केट में लाभ हो रहा है वहां बाकी के लाखों लोग किस आशा और भरोसे की वजह से अपनी खून पसीने की जमा पूंजी लुटा रहे हैं और फिर भी उसी शेयर मार्केट में बने हुए हैं? दरअसल इसके पीछे एक तो पढ़े लिखे लोगों की सट्टेबाज़ी मानी जा सकती है। दूसरी बात इतना अधिक नुकसान उठाकर भी यह सपना लोग छोड़ने को किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं कि एक ना एक दिन उनकी किस्मत खुल जायेगी और वे चाहे जितना भी तबाह और बरबाद हो जायें लेकिन शेयर मार्केट ही एकमात्र शाॅर्टकट है जिससे वे अमीर बन सकते हैं। कम लोगों को पता है कि शेयर मार्केट में घपले घोटाले भी कम नहीं हैं। 
हिंडन बर्ग ने जिस गड़बड़ी का अडानी की कंपनियों पर आरोप लगाया था। वह इसी तरह के कारनामों की बानगी थी। होता यह है कि कंपनियां इनसाइड ट्रेडिंग कराकर अपनी कंपनी के शेयर के दाम फर्जी तरीके से बढ़ा लेती हैं। कुछ लोगों को कंपनी के उतार चढ़ाव सरकार के बड़े फैसलों और दुनिया में हो रही बड़ी घटनाओं से शेयर मार्केट मंे आने वाले बड़े तूफानों का पहले ही अपने सूत्रों से पता चल जाता है। जिससे वे कुछ खास कंपनी कुछ खास शेयर या डेरिवेटिव में बड़ा दांव चल कर अकूत दौलत एक झटके मेें कमा लेते हैं। कुछ बड़ी कंपनी बड़े लोग और विदेशी निवेशक जानबूझकर किसी बेकार छोटी और डिफाल्टर कंपनी के बिल्कुल नीचे दाम पर पड़े शेयर किसी दिन अचानक बड़े दाम पर खरीदना शुरू कर देते हैं। होता यह है कि बिना वजह जाने जब छोटे निवेशक इस कंपनी का शेयर मामूली दाम से अचानक छलांग लगाता देखते हैं तो वे भी उसके पीछे भागने लगते हैं। यही से धोखे का असली खेल शुरू होता है। बड़े मगरमच्छ मिसाल के तौर पर 10 से 15 रूपये की कीमत का शेयर जब 20 से 40 रूपये तक मंे खरीदते हैं तो बाकी लोग उनकी चाल ना समझकर उनके झांसे में आकर खुद भी बढ़ते दामों पर यह शेयर खरीदना शुरू कर देते हैं। अंत में बड़े निवेशक छोटे निवेशकों को उसी दिन अपनी खरीद बीच में ही रोककर अपना सस्ते में खरीदा सब माल बढ़े हुए दाम पर बेचकर निकल जाते हैं। इसके बाद यह शेयर गिरकर फिर से वहीं आ जाता है जहां से यह बढ़ना शुरू हुआ था।
0 सौ में से 99 लोग जब नाशाद हैं,
  कैसे कह दूं देश अब आज़ाद है।।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 10 October 2024

हरियाणा में कांग्रेस की हार

*हरियाणा हार: कांग्रेस भाजपा से नहीं पहले इवीएम से ही लड़ ले...*  
0 कांग्रस नेतृत्व में विपक्ष का इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में भाजपा को 400 पार की जगह 240 पर रोकने में सफल रहा तो इवीएम सही था। हिमाचल कर्नाटक व तेलंगाना में कांग्रेस और अन्य कई राज्यों में विपक्ष भाजपा को हराकर सरकार बना ले तो इवीएम से कोई शिकायत नहीं लेकिन जब अपनी ही गल्तियों से विपक्ष हार जाये तो इवीएम पर हार का ठीकरा फोड़ दो। अगर कांग्रेस को इवीएम पर इतना ही शक है तो वह भाजपा से लड़ने की बजाये पहले इवीएम के ही खिलाफ आरपार की लड़ाई क्यों नहीं लड़ती? हम यह दावा नहीं कर रहे कि मोदी सरकार इतनी ईमानदार है कि इवीएम में सेटिंग कर नहीं सकती या तकनीकी तौर पर ऐसा हो नहीं हो सकता। कांग्रेस के भ्रमित होने पर सवाल उठता है।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कांग्रेस को ऐसा लग रहा था कि वह अपने बल पर हरियाणा में अकेले लड़कर बहुमत की सरकार बना लेगी। संसदीय चुनाव में उसने 10 में से 5 लोकसभा सीट जीतकर ऐसा मान लिया था। सारे एग्ज़िट पोल भी यही बता रहे थे। पहलवान किसान और जवान जिस तरह से हरियाणा में भाजपा सरकार से नाराज़ थे। उससे भी कांग्रेस को यह अहसास हो चला था कि वह आराम से चुनाव जीतने जा रही है। महंगाई बेराज़गारी और भ्रष्टाचार का ग्राफ भाजपा राज में जिस तेज़ी से उूपर जा रहा था उससे कांग्रेस को पूरा भरोसा हो चुका था कि इस बार सत्ता उसके पास आना तय है। चुनाव से पहले जो सर्वे हो रहे थे उनमें भी कांग्रेस का पलड़ा साफ भारी नज़र आ रहा था। सोशल मीडिया के साथ ही भाजपा समर्थक माने जाने वाला गोदी मीडिया तक दबी ज़बान में कांग्रेस की भाजपा पर बढ़त को छिपा नहीं पा रहा था। यही वजह थी कि कांग्रेस गलतफहमी खुशफहमी अति आत्मविश्वास और हरियाणा के प्रदेश नेतृत्व की ज़िद के सामने जाटों के जातिवाद का शिकार हो गयी। 
कांग्रेस प्रदेश मुखिया भूपंेद्र हुड्डा उनके विरोधी गुट के सुरजेवाला और दलित नेत्री शैलजा आपस में ही लड़ते रह गये और भाजपा व संघ ने अपने 36 सहयोगी संगठनों घर घर पहुंच मैदान मैदान शाखाओं राज्य व केंद्र की सत्ता पुलिस सीबीआई ईडी मीडिया कोर्ट चुनाव आयोग और काॅरपोरेट के अकूत धन के साथ साम दाम दंड भेद के बल पर हारी हुयी बाज़ी जीत में बदल दी। भाजपा ने जिस शातिर ढंग से चुनाव से 6 माह पहले मनोहर खट्टर को हटाकर पिछड़ी जाति से आने वाले नायाब सिंह सैनी को सीएम बनाकर राज्य के 40 प्रतिशत से अधिक पिछड़ों को खुश किया उसको कांग्रेस समझ ही नहीं पायी। इसके साथ ही कांग्रेस ने जनहित की 7 गारंटी देकर राज्य की जनता को लुभाना चाहा तो भाजपा ने उसके जवाब में 20 संकल्प लाकर कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। इतना ही नहीं भाजपा ने कई आकर्षक योजनायें वो भी लागू कर दीं जिनको मुफ्त की रेवड़ी बताकर कभी पीएम मोदी विपक्ष पर सरकारी ख़ज़ाना लुटाने का आरोप लगाया करते थे। भाजपा ने मौका देख बलात्कारी बाबा राम रहीम को चुनाव से ठीक पहले पैरोल दिलाकर उससे अपने पक्ष में पूरी बेशर्मी से वोट देने की अपील भी करा दी। बाबा के अधिकांश भक्त दलित माने जाते हैं। 
इससे भाजपा को जाटव वोट 35 प्रतिशत तो अन्य दलित वोट 46 प्रतिशत तक मिल गया। जबकि कांग्रेस लोकसभा की तरह इस वोट को एकतरफा अपना मानकर चल रही थी। इतना ही नहीं भाजपा ने कांग्रेस के राज्य नेतृत्व के जाट होने की वजह से उसको मात्र 22 प्रतिशत जोटों की पार्टी का तमगा बखूबी लगा दिया। जिस तरह से भाजपा यूपी में सपा को यादव व मुसलमानों की पार्टी होने का लेबल लगाकर दो बार से चुनाव जीत रही है। उसी तरह से उसने हरियाणा में कांग्रेस के जाटों के खिलाफ अन्य 36 जातियां जिनमें अगड़े पिछड़े और दलित शामिल थे उन सबको अपने साथ एक प्लेटपफाॅर्म पर जमा कर लिया। हद तो यह हो गयी कि जिस जाट बिरादरी के बल पर कांग्रेस हरियाणा चुनाव जीतने का सपना देख रही थी उसमें भी भाजपा ने 29 प्रतिशत की सेंध लगा दी और कई जाट बहुल सीटें अन्य जातियों के ध्रुवीकरण से जीत लीं। जिस मुसलमान को कांग्रेस के साथ एकतरफा होने का दावा किया जाता है वह भी उसके साथ केवल 59 प्रतिशत गया और बाकी भाजपा सहित अन्य दलों में बंट गया। इसके साथ ही भाजपा का हिंदुत्व का कार्ड तो अन्य सब मुद्दों पर भारी था ही जिसका कोई तोड़ कांग्रेस के पास नहीं था। 
अब बात करते हैं कि कांग्रेस जीत के प्रबल आसार के बावजूद चुनाव हार गयी तो इसके लिये इवीएम को कसूरवार क्यों बताया जा रहा है? सच तो यह है कि कांग्रेस आज भाजपा के मुकाबले बेहद कमज़ोर पार्टी है वह क्षेत्रीय दलों से भी काफी पीछे है। उसके साथ 70 साल के राज के आरोपों के साथ ही सत्ता का घमंड जुड़ा हुआ है। उसके साथ परिवारवाद अल्पसंख्यकवाद और करप्शन का दाग लगा हुआ है। वह पार्टी के वफादार ईमानदार और जनाधार वाले नेताओं की बजाये चापलूसी चमचागिरी और परिवार पूजा करने वालों को अधिक वेट आज भी देती है। कांग्रेस हाईकमान राज्य के अपने ही बड़े नेताओं के सामने बार बार झुक जाता है। जिसका खुमियाज़ा उसको राजस्थान छत्तीसगढ़ एमपी और अब हरियाणा में भुगतना पड़ा है। कांग्रेस के कुछ नेता उदार हिंदूवाद के समर्थन में खुलेआम बोलते रहते हैं जबकि इसका लाभ भाजपा को होता है। जिस तरह से हिमाचल में उसके नेता विक्रमादित्य ने कई बार भाजपा की भाषा बोली उससे उसके परंपरागत समर्थक मुसलमान ही नहीं सेकुलर हिंदू भी नाराज़ होते हैं। 
    कांग्रेस शुरू से ही गठबंधन बचती रही है। लेकिन 2004 से उसने गठबंधन केंद्र में मजबूरी में किया लेकिन राज्यों में जहां वह कमज़ोर थी वहां तो गठबंधन को तैयार हुयी लेकिन जहां मज़बूत थी वहां उसने क्षेत्रीय दलों को भाव नहीं दिया। हरियाणा में उसको भाजपा से मात्र 0.85 प्रतिशत वोट कम मिले हैं। जबकि संसदीय चुनाव मंे उसकी सहयोगी आम आदमी पार्टी ने 1.79 वोट लिये हैं। ऐसे ही कुल मिलाकर अन्य छोटे दलों ने लगभग 20 प्रतिशत वोट लिये हैं। इनमें से कुछ दल प्रयास करने पर कांग्रेस के साथ आ सकते थे लेकिन सत्ताधारी होने और उसके साथ गठबंधन में धोखा खाने और हवा उसके खिलाफ होने से वे भाजपा के साथ जाने को किसी कीमत पर तैयार नहीं थे। अगर कांग्रेस इन छोटे दलों को 5 से 10 सीट दे देती तो वे तो दो चार ही जीत पाते लेकिन कांगे्रस जो 15 से 20 सीट मात्र 2 से 5 हज़ार वोटों के मामूली अंतर से हारी है उनको जीतकर बाज़ी पलटी जा सकती थी। यही वजह है कि कांग्रेस की इस अकड़ नासमझी और ज़िद की उसके सहयोगी सपा शिवसेना और नेशनल कांफ्रेस ने आलोचना भी की है। अभी भी समय है कि कांग्रेस इवीएम पर सारा ज़ोर न देकर अपनी सोच रण्नीति और विचारधारा पर फिर से विचार करे। कांग्रेस के लिये ग़ालिब का एक शेर कितना सटीक है-
0 उम्रभर ग़ालिब यही भूल करता रहा,
 ध्ूाल चेहरे पे थी आईना साफ़ करता रहा।  
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं*।

Thursday, 3 October 2024

फर्जी मुठभेड़

लाॅ एंड आॅर्डर बनाम रूल आॅफ़ लाॅ, क्यों बढ़ रहे हैं एनकाउंटर?
0 पिछले दिनों तीन अलग अलग राज्यों में विभिन्न अपराधों के आरोपियों के विवादित एनकाउंटर हुए हैं। इन मुठभेड़ों को वहां की सरकारों ने वास्तविक बताकर लाॅ एंड आॅर्डर बनाये रखने के लिये ज़रूरी बताया तो विपक्ष ने रूल आॅफ़ लाॅ की दुहाई देकर इनको फ़र्ज़ी बताते हुए संविधान लोकतंत्र और सरकार की असफलता बताया है। पहले ऐसे विवादित एनकाउंटर माओवादी और आतंकवादी हिंसा से ग्रस्त राज्यों में या माफियाआंे के अंडरवल्र्ड शूटर के नाम पर अकसर होते थे। अन्य राज्यों में ऐसी मुठभेड़ अपवाद के तौर पर होती थी। लेकिन हैदराबाद में वेटनरी डाॅक्टर की रेप के बाद हत्या होने पर उसके सभी आरोपियों को एनकाउंटर में जब मारा गया तो काफी विरोध और दूसरी तरफ स्वागत भी हुआ। इसके बाद यूपी सहित अनेक भाजपा शासित व कुछ विपक्षी सरकारों के राज्यों में यह आम बात हो गयी।       

 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     महाराष्ट्र के बदलापुर कांड के आरोपी को जब पुलिस ने यह कहकर मुठभेड़ में मारा कि वह पुलिस की पिस्टल छीनकर हमला कर रहा था तो हाईकोर्ट ने भारी नाराज़गी दर्ज करते हुए सरकार से कई चुभते हुए सवाल किये। तमिलनाडु में एक हिस्ट्रीशीटर को इसी तरह के विवादित एनकाउंटर में मारा गया। ऐसे ही यूपी में भाजपा सरकार के बनने के बाद लगभग 200 एनकाउंटर और 6000 से अधिक हाफ एनकाउंटर हो चुके हैं। हाफ एनकाउंटर में आरोपी के पैर पर गोली मार दी जाती है। सुल्तानपुर डकैती कांड के यादव जाति के मुख्य अभियुक्त को जब पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया तो सपा नेता अखिलेश यादव ने इस पर ज़बरदस्त विरोध दर्ज कराया। इसके बाद मामले को संतुलित करते हुए पुलिस ने ख़बर दी कि ठाकुर जाति से जुड़ा इसी मामले का एक अन्य अभियुक्त भी मुठभेड़ में मारा गया। पहले राज्य में इस तरह के विवादित एनकाउंटर की शुरूआत मुसलमान आरोपियों से हुयी थी। बाद में इसका दायरा बढ़कर दलित पिछड़े ब्रहम्ण गरीब कमज़ोर और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने तक पहुंच गया। 
यही हाल किसी अपराध के आरोपियों के घर दुकान या उनसे जुड़ी इमारत पर बुल्डोज़र चलाने को लेकर हुआ है। कहने का मतलब यह है कि किसी भी गलत काम की शुरूआत या अधिकता भले ही किसी धर्म विशेष या जाति के साथ शुरू हो लेकिन बाद में समाज के दूसरे लोग भी उस अन्याय अत्याचार और पक्षपात का शिकार हुए बिना नहीं बच सकते। वन नेशन वन इलैक्शन से अब चर्चा वन नेशन वन पुलिस स्टेशन तक आ गयी है। इसमें कहा जाता है कि राज्य चाहे जो हो वहां पुलिस स्टेशन का एनकाउंटर का तरीका लगभग एक जैसा ही क्यों होता है? हर एनकाउंटर के बाद पुलिस एक ही कहानी दोहराती नज़र आती है जिसमें एक अपराध का आरोपी होता है। पुलिस उसको पता नहीं क्यों हर बार रात के अंध्ेारे में ही क्राइम सीन क्रिएट करने या अपराध में प्रयोग हुए हथियार बरामद करने या फिर चोरी डकैती का सामान बरामद करने को सुनसान इलाके में ले जाती है। उस आरोपी पर कई संगीन जुर्म के केस पहले से दर्ज होते हैं। इसके बाद वह आरोपी पुलिस का हथियार छीन लेता है। जबकि बिना प्रशिक्षण के कोई अपराधी पुलिस का हथियार न तो अनलाॅक कर सकता है और ना ही उसको चला सकता है। 
        कई बार पुलिस यह भी दावा करती है कि उसने आरोपी को आत्मसमर्पण करने के लिये कहा लेकिन वह पुलिस पर अपने तमंचे से गोली चलाने लगा। मजबूरन पुलिस ने आरोपी पर जवाबी गोली चलाई और आरोपी मारा गया। बाॅम्बे हाईकोर्ट ने इन जैसी समानताओं को लेकर ही पुलिस से बार बार सवाल पूछे हैं। हैरत की बात यह है कि इस तरह की मुठभेड़ों में हमेशा आरोपी मारा जाता है जबकि पुलिस या तो साफ बच जाती है या हल्की व मामूली चोट खाती है। सुप्रीम कोर्ट भी इस तरह के विवादित एनकाउंटर्स को लेकर कई बार राज्य सरकारों पुलिस और जांच एजंसियों को फटकार लगा चुका है। कोर्ट ऐसे मामलों में अनिवार्य रूप से रिपोर्ट दर्ज कर जांच करने और कोर्ट की गाइड लाइंस को हर हाल में लागू करने को भी कई बार कह चुका है। लेकिन जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के मना करने के बावजूद बुल्डोज़र चल रहा है उसी तरह से एनकाउंटर भी रूक नहीं रहे हैं। एनकाउंटर की गहराई में जाकर देखेंगे तो आप पायेंगे कि इनके पीछे भी राजनीति हो रही है।
     फर्जी मुठभेड़ों के नाम पर कुछ सरकारें यह धारणा बनाने में सफल हैं कि इससे अपराधियों में भय पैदा होगा और आगे दूसरे अपराधी अपराध करने से डरेंगे। उनका यह भी दावा है कि कुछ खास वर्ग धर्म या जाति के लोग ही अपराध करते हैं। वे जनता के एक भ्रमित वर्ग की इस सोच को भी न्यायोचित साबित करने में लगी हैं कि इससे हाथो हाथ न्याय हो रहा है। तथाकथित गैर कानूनी बुल्डोज़र जस्टिस भी इसी धारणा का विस्तार है। इससे सरकारों को वोट ना मिलने का डर भी नहीं रहा है। उल्टा उनके इस गैर कानूनी पक्षपाती और संविधान विरोधी काम से उनका कट्टर समर्थक उनको पहले से अधिक बढ़चढ़कर वोट दे रहा है। लेकिन वह यह भूल गया है कि जब समाज से संविधान कानून और निष्पक्षता का राज खत्म होगा तो आज नहीं तो कल वह भी उसका शिकार बनेगा। कई सरकारें यह दावा भी करती है कि ऐसा करने से लाॅ एंड आॅर्डर सुधर रहा है और अपराध पहले से कम हो रहे हैं। जबकि केंद्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्योरो के आंकड़े इस दावे को झुठला रहे हैं। 
       सच तो यह है कि हमारी पुलिस कोर्ट और जांच एजंसियां जिस कछुवा गति से काम करती हैं उससे लोगों का उनसे भरोसा उठता जा रहा है। वे गैर कानूनी होने के बावजूद ऐसे एनकाउंटर और आरोपियों के घरों पर बुल्डोज़र चलाये जाने को ही न्याय और समस्या का सही हल मान रही हैं। केंद्रीय जांच एजसियां मेन स्ट्रीम मीडिया और भाजपा विपक्ष शासित राज्यों में जिन अपराधों के होने पर एक्टिव हो जाती हैं। वहीं भाजपा शासित राज्यों में वह रेप के अपराधियों को लेकर सज़ा पूरी होने से पहले जेल से छोड़ने उनका ज़मानत पर बाहर आने पर माला पहनाकर मिठाई खिलाकर और तिलक लगाकर स्वागत करने में कोई बुराई नहीं समझती। बाबा राम रहीम को वह बार बार चुनाव के समय पर ही पैरोल दिलाती रहती है। करप्शन के आरोप में पकड़े गये लगभग सभी आरोपी विपक्ष के ही होते हैं। उड़ीसा में एक सेना अफसर और उसकी मंगेतर के साथ पुलिस ने जो कुछ किया उस पर मीडिया में इतनी कवरेज नहीं हुयी जबकि कोलकाता रेप मामले में राष्ट्रपति तक ने अपना डर जताया था। याद रखिये पूरा सिस्टम सुधारे बिना एनकाउंटर हल नहीं खुद प्राॅब्लम बन जायेंगे।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 26 September 2024

पेजर में धमाका

पेजर धमाका: खरीदने के बाद भी मोबाइल पर कं0 का कंट्रोल?
0 हमास के बममेकर याहिया अब्बास के मोबाइल पर 5 जनवरी 1996 को उसके अब्बा की काॅल आई। उसने जैसे ही काॅल रिसीव की उसके सेल फोन में ज़ोरदार धमाका हुआ और उसकी मौत हो गयी। बाद में इस्राइली सुरक्षा एजेंसी शिन बेट ने बताया कि याहिया के मोबाइल में आरडीएक्स लगाया गया था जिसको रिमोट से आॅप्रेट करके विस्फोट किया गया। उस दिन के बाद से ही हमास मोबाइल की जगह सुरक्षित समझे जाने वाले पेजर प्रयोग करने लगा था। आरोप है कि इस्राइल ने इनमें भी अपनी शैल कंपनी के ज़रिये बैट्री के साथ तीन ग्राम विस्फोटक लगाने मंे कामयाबी हासिल कर पिछले दिनों लेबनान में एक साथ 3000 पेजर में विस्फोट कर 9 लोगांे की जान ले ली जबकि 2750 लोग घायल हैं। सवाल है कि क्या आज के दौर में मोबाइल सेफ है?      
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
लेबनान में एक साथ हज़ारों पेजर्स में एक संदेश भेजकर विस्फोट कर हज़ारों लोगों के घायल होने और दर्जनों के मारे जाने के बाद पूरी दुनिया में यह सवाल उठ रहा है कि क्या मोबाइल में भी इसी तरह से विस्फोट कर किसी दुश्मन देश के लोगों को नुकसान पहंुचाया जा सकता है? तो इसका जवाब है कि तकनीक के ज़रिये आजकल कुछ भी मुमकिन है। सवाल यह भी है कि ताइवान से विस्फोटक पीएनटी लगे पेजर हिजबुल्लाह के पास बिना चैकिंग कैसे पहुंच गये? पूरी दुनिया में हर देश के पोर्ट एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशनों पर स्कैन मशीन लगी हैं जो खासतौर पर विस्फोटक सामाग्री हथियार और नशीली चीजे़ं कुछ सेकंड में पकड़ लेती हैं। इससे यह भी लगता है कि इस मामले में कुछ और देश भी शामिल रहे होंगे? आने वाले समय में अगर जंग में परंपरागत हथियारों और इंसानों का इस्तेमाल न कर तकनीक का ऐसा ही खतरनाक कोई नया प्रयोग कोई देश करे तो हैरत की बात नहीं होगी। जहां तक मोबाइल का सवाल है। यह सब जानते हैं कि सेल फोन इंटरनेट के बिना काम नहीं करता। यही वजह है कि सरकार जब चाहती है कानून व्यवस्था के नाम पर आपके मोबाइल को नेट बंद कर डब्बा बना देती है। यह भी सबको पता है कि बिना बैट्री के भी आपका मोबाइल काम नहीं करता है। लेकिन शायद यह कम लोगों को पता होगा कि खरीदने के बाद भी आपके मोबाइल पर आपका पूरा कंट्रोल नहीं होता है। 
हैकर्स की तो बात छोड़ ही दीजिये आपका मोबाइल बनाने वाली कंपनी ही कानूनी तरीके से आपके मोबाइल में अपडेट भेजकर उसके साॅफ्टवेयर को काबू करती रहती है। ज़ाहिर बात है कि वह चाहे तो आपके मोबाइल को अपने दूर स्थित आॅफिस से ही जाम कर सकती है? अभी हाल ही में कुछ कंपनी के मोबाइल में बड़े पैमाने पर अपडेट करने के बाद स्क्रीन पर हरी सफेद लाइनें आने की थोक में शिकायत आ रही है। कुछ कंपनी इसमें अपना मैनुफैक्चरिंग फाॅल्ट मानकर नाम मात्र का शुल्क लेकर इस फाॅल्ट को सुधार भी रही हैं। लेकिन कुछ ने स्क्रीन निशुल्क बदलने के नाम पर हाथ खड़े कर उल्टा दोष कस्टमर के सर ही यह कहकर मढ़ना शुरू कर दिया है कि आपने मोबाइल को लापरवाही से ज़मीन पर गिराया होगा। इसके बाद कई उपभोक्ता नया मोबाइल लेने को मजबूर हो जाते हैं। यह कंपनी की उन चालों में से एक चाल हो सकती है जिसमें वे कुछ समय पुराने मोबाइल में कुछ एप चलने से रोक देती है जिससे उपभोक्ता ना चाहते हुए नया मोबाइल खरीदे। चलिये यह मामला तो उपभोक्ता और कंपनी का आर्थिक विवाद का है जैसे तैसे हल हो ही जायेगा। 
लेकिन इससे आपके उस बुनियादी सवाल का जवाब मिल जाता है कि मोबाइल कितना सुरक्षित है? जिस तरह से ठग और अपराधी किसी का मोबाइल हैक कर उसको चूना लगा देते हैं क्या मोबाइल निर्माता कंपनी भी अपना ही बनाया मोबाइल लोगों को बेचने के बाद भी अपने नियंत्रण में रखती हैं? लगभग सभी नये मोबाइल में कंपनियां अपनी तरफ से कुछ ऐसे एप भी इंस्टाल करके ज़बरदस्ती दे रही हैं जिनसे मोबाइल की सिक्योरिटी हमेशा ख़तरे में रहती है। अजीब बात यह है कि आप अगर इन एप को डिलीट करना चाहें तो आपका मोबाइल चेतावनी देता है कि अगर आपने ऐसा किया तो फिर मोबाइल पहले की तरह नाॅर्मल काम नहीं करेगा। यह अजीब मनमानी है कि मोबाइल आपका और उसमें कौन से एप काम करेंगे यह कंपनी तय करेगी। अगर आप उनसे छुटकारा चाहें तो मोबाइल काम नहीं करेगा। पेगासस एक जासूसी साॅफ्टवेयर है जो किसी के भी मोबाइल में केवल एक काॅल किये जाने से आॅटोमैटिक ही इंस्टाल हो जाता है। इसके बाद आपके मोबाइल का कंट्रोल सरकार के पास चला जाता है। आप सोच रहे होंगे सरकार को यह सब पता होगा तो वह मोबाइल कंपनियों को यह सब करने क्यों दे रही है? 
      2017 में एप्पल के आई फोन 6 के अपडेट आने के बाद उनके बहुत अधिक स्लो चलने की शिकायतें पूरी दुनिया में सामने आने लगी थीं। उस समय आरोप लगा था कि कंपनी ने यह शरारत जानबूझकर अपना नया आईफोन 7 बेचने की नीयत से की है। यह मामला अमेरिका में कोर्ट में गया और दिसंबर आते आते कंपनी को उसी साल यह स्वीकार करना पड़ा कि हां उसने आईफोन 6 की स्पीड साफ्टवेयर अपडेट से खुद ही स्लो की थी जिससे उसकी पुरानी बैट्री पर अधिक लोड ना पड़े और वो चलना बंद ना कर दे। लेकिन उसकी इस दलील को अदालत ने नहीं माना और उसको ग्राहकों को निशुल्क इन पुराने फोन को ठीक करने के आदेश दिये। एप्पल की इससे दुनिया के अनेक देशों में बदनामी और कानूनी कार्यवाही बढ़ते जाने से बहुत किरकिरी होने लगी तो कंपनी पुराने फोन की बैट्री अपने खर्च पर बदलने को तैयार हुई। फ्रांस में भी यह नियम है कि अगर किसी मोबाइल कंपनी ने किसी तरह से अपने बेचे गये मोबाइल में कोई कमी पैदा की तो उसको अपनी कुल टर्न ओवर का पांच प्रतिशत हर्जाना सरकार को देना होगा। इटली में सैमसंग के मोबाइल में भी अपडेट के बाद कुछ इसी तरह की शिकायतें सामने आने लगी थीं। 
इसके बाद वहां की सरकार ने जांच कराकर कंपनी को दोषी पाया और कंपनी पर जुर्माना लगा दिया। फोन कंपनियां मोबाइल बेचने के बाद अपने विज्ञापन भी बेचे हुए फोन में बिना खरीदार की अनुमति के भेजती रहती हैं। साथ ही अपडेट भेजकर स्क्रीन खराब होने पर उसको निशुल्क सही करने की बजाये हार्डवेयर डैमेज होने का बहाना बनाकर ठीक करने से साफ मना कर देती हैंे। हमारी सरकार को भी चाहिये कि मोबाइल कंपनियों के हितों के साथ ही उपभोक्ताओं की सुरक्षा व हित भी देखे।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 19 September 2024

यू टर्न सरकार

100 दिन की एनडीए सरकार, अबकि बार यूटर्न सरकार!
0 2014 और 2019 के बाद 2024 में केंद्र में जो सरकार बनी एक तो वह मोदी सरकार नहीं भाजपा सरकार नहीं एनडीए सरकार है। एक समय था जब मोदी जो चाहते थे जो बोलते थे और जो सोचते थे वही होता था। दरअसल 2002 के भयंकर दंगों के बाद गुजरात का सीएम बनने से लेकर दो बार पीएम बनने के बाद मोदी ने कभी किसी से सलाह मश्वरा या विरोध की परवाह किये बिना अपने तौर तरीकों से सरकार चलाई है। ऐसा पहली बार हुआ है जब संसद में उनको न केवल अपने सहयोगी दलों की सहमति लेनी पड़ रही है बल्कि विपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में इतना मज़बूत हो चुका है कि किसी भी मुद्दे पर जब वह सरकार को घेरता है तो सरकार को उसकी सुननी पड़ती है, नतीजा यह है कि यह सरकार अब तक 10 बार यूटर्न ले चुकी है।       
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     अपने पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार ने जिस मनमाने तरीके से अचानक रात आठ बजे टीवी पर राष्ट्र के नाम संदेश देकर मात्र चार घंटे के नोटिस पर कोरोना महामारी से निबटने को सख़्त लाॅडाउन और दूसरी बार 1000 व 500 के नोट बंद करने के बाद आनन फानन में बिना पूरी तैयारी किये जीएसटी लागू किया। उससे मोदी सरकार की छवि एक ऐसी सरकार की बनी जो संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की बजाये राष्ट्रपति शासन की तरह मानो कोई राजा फैसले करता हो। हालांकि किसान आंदोलन के बाद अपवाद के तौर पर एक बार यूपी चुनाव जीतने के लिये मजबूरी में मोदी सरकार को तीन काले कानून वापस ज़रूर लेने पड़े थे लेकिन कश्मीर से धारा 370 सीएए और तीन तलाक कानून ऐसे मामले थे जिन पर मोदी सरकार ने एक बार फैसला कर लिया तो फिर तमाम विरोध और आशंकाओं के बावजूद वह उस पर डटी रही। 2024 के चुनाव के बाद जब भाजपा ने मोदी की गारंटी के नाम पर 400 पार का नारा लगाकर अपनी सीटें पहले की तरह 300 पार भी न करके 240 पर अटक कर मजबूरी में अपने सहयोगी दलों के साथ एनडीए सरकार बनाई तो उनको यह सच स्वीकार करने में समय लगा कि अब वह पहले की तरह मनमाने एकतरफा और गैर लोकतांत्रिक तरीके से फैसले नहीं कर सकते। 
     वक्फ बिल मोदी सरकार बिना एनडीए के अन्य घटकों से चर्चा किये संसद मंे ले आई और इसका अंजाम यह हुआ कि विपक्ष ही नहीं उसके बड़े सहयोगी जदयू और टीडीपी ही उसका साथ देने को यह सोचकर तैयार नहीं हुए कि इससे उनका अपने प्रदेशों में मुस्लिम मतदाता नाराज़ हो सकता है। इस बिल का ड्राफ्ट पढ़कर ही पता चलता है कि सरकार ने इसके बारे में विपक्ष और मुसलमानों को तो दूर अपने सहयोगी दलों को भी क्यों विश्वास में नहीं लिया? मजबूरन सरकार को किरकिरी से बचने को इस बिल को संयुक्त संसदीय समिति को समीक्षा के लिये भेजना पड़ा। कुछ यही हाल इस सरकार का लेटरल एन्ट्री को लेकर हुआ। विपक्ष के नेता राहुल गांधी पहले ही इस सरकार को कुल 90 केंद्रीय सचिवों में तीन ओबीसी दलित और मुस्लिम होने को लेकर घेरते आ रहे थे। ऐसे में जब लेट्रल एन्ट्री पर संसद मंे विपक्ष के साथ एनडीए घटक लोक जनशक्ति पार्टी ने सुर में सुर मिलाकर ज़बरदस्त विरोध किया तो सरकार को बैकफुट पर आकर इसमें पहली बार आरक्षण की व्यवस्था करने का वादा कर हाल में चल रही नियुक्तियों की प्रक्रिया पर यू टर्न लेना पड़ा। ऐसे ही जब भाजपा की बड़बोली सांसद कंगना रानौत ने आरोप लगाया कि किसान आंदोलन के दौरान हत्या और बलात्कार होते थे तो हरियाणा चुनाव सामने देख घबराई भाजपा ने बिना देर किये उनके बयान से स्वयं अलग कर लिया। कश्मीर चुनाव की पहली केंडीडेट लिस्ट ही भाजपा को विरोध होने पर पहली बार वापस लेनी पड़ी। 
      हरियाणा चुनाव की तारीख सभी दलों से चर्चा कर चुनाव आयोग ने 1 अक्तूबर घोषित की थी लेकिन भाजपा ने ही खुद जब हार के डर से इस तारीख का विरोध किया तो उसको यह तारीख बदलनी पड़ी। सरकार की फूड सेफटी स्टैंडर्ड आॅथोरिटी आॅफ इंडिया ने दूध सप्लाई करने वाली कंपनी से पहले ए वन और ए टू दूध का विज्ञापन यह कहकर हटाने को कहा कि इससे उपभोक्ता भ्रमित हो रहे हैं और फिर अमूल के विरोघ के बाद आदेश वापस ले लिया। ओल्ड पेंशन बनाम न्यू पेंशन का विवाद देश में काफी लंबे समय से चल रहा है। 2004 में पहली बार अटल सरकार ने पुरानी पेंशन खत्म कर न्यू पंेशन शुरू की थी लेकिन सरकारी कर्मचारियों की नाराज़गी को देखते हुए विपक्ष ने इस मुद्दे पर चुनाव जीतकर जब भाजपा के सामने बार बार चुनौती पेश की तो सरकार इसमें सुधार करते हुए यूनिफाइड पेंशन स्कीम नाम बदलकर ले आई जिसमें पुरानी पेंशन जैसी यानी अंतिम वेतन का कम से कम 50 प्रतिशत पेंशन मिलने की गारंटी यू टर्न लेते हुए एनडीए सरकार को देनी पड़ी है। डिजिटल ब्राॅडकास्ट बिल संसद में बिना किसी तैयारी के एनडीए सरकार ने पेश कर दिया लेकिन जब इसका यह कहकर विरोध किया गया कि सरकार नियमन के बहाने विरोध की उन आवाज़ों को बंद करना चाहती है जो उसने मुख्य धारा के मीडिया को अपने हिसाब से चलाकर पहले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गला घोट रखा है। 
      इसके बाद सरकार के पास कोई चारा नहीं था कि वह यूटर्न लेकर इस बिल को भी ठंडे बस्ते में डालने को मजबूर हो गयी। चुनाव से पहले भाजपा के मुखिया जे पी नड्डा ने एक इंटरव्यू मंे अकड़ते हुए कहा था कि अब भाजपा को आरएसएस की ज़रूरत नहीं रही। संघ अपना सांसकृतिक काम करता है और भाजपा अपना राजनीतिक मिशन स्वतंत्र रूप से चलाती है। लेकिन जब भाजपा 303 से 240 सीट पर आ गयी तो संघ प्रमुख मोहन भागवत को अपना गुस्सा निकालने का मौका मिल गया। इसके बाद सरकार ने यूटर्न लेते हुए न केवल भागवत को खुश करने के लिये उनकी सुरक्षा का स्तर बढ़ाकर जे़ड ग्रेड कर दिया बल्कि सरकारी कर्मचारियों के संघ की शाखा में जाने पर लगी दशकों पुरानी रोक भी हटा दी। आम बजट में वित्तमंत्री ने लांग टर्म केपिटल गेन में भारी परिवर्तन करते हुए भविष्य में बेची जानी वाली संपत्तियों पर प्राप्त लाभ पर महंगाई इंडेक्स की छूट खत्म टैक्स का एलान किया था। लेकिन जब इसका ज़बरदस्त विरोध होने लगा तो इसमें संशोधन कर इसको 23 जुलाई से पहले खरीदी अचल संपत्यिों पर लागू करने से यू टर्न लेते हुए एनडीए सरकार ने दसवीं बार हाथ खींच लिये। कहने का मतलब यह है कि एनडीए सरकार भले ही अपने 100 दिन पूरे होने का दिखावटी जश्न मना रही हो लेकिन इस बार विपक्ष के दबाव में वह यूटर्न सरकार बन गयी है।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Wednesday, 11 September 2024

डिजिटल अरेस्ट

सावधान डिजिटल अरेस्ट गै़र कानूनी है, इससे आप बच सकते हैं!
0 साइबर ठगों ने पंजाब के रिटायर्ड डीजीपी जेल अनिल कुमार को दो घंटे डिजिटल अरेस्ट कर उनसे ढाई लाख ठग लिये। बिजनौर ज़िले में ही बैंक आॅफ बड़ौदा की एक मैनेजर को झांसे में लेकर उनसे अपने खाते में बैलेंस ना होने के बावजूद कई लाख आरटीजीएस करा लिया। बिहार के आईएमए मुखिया डा. अभय नारायण सिंह को जालसाज़ों ने एक सप्ताह तक डिजिटल अरेस्ट में रखा और उनसे 123 खातों में 4.4 करोड़ जमा करा लिये। प्रयागराज के एक वकील इनके चंगुल में आने से बच गये तो पटना के एक पत्रकार ने अपनी मां के एकाउंट से गयी रकम इनके पीछे हाथ धोकर पड़ने के बाद अपने पुलिस संपर्कों के बल पर वापस हासिल कर ली। लेकिन सब इतने खुशनसीब नहीं होते हैं। इस लेख में आपको हम बतायेंगे आप डिजिटल अरेस्ट से कैसे बच सकते हैं।        
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
         ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स विभाग द्वारा कुछ सालों से छापा मारकर बड़े बड़े राजनेताओं को पकड़कर जेल भेजने और उनकी लंबे समय तक ज़मानत ना होने से आम आदमी बिना किसी गल्ती अपराध और नियम कानून तोड़े ही इतना डर गया है कि साइबर ठगों की फर्जी काॅल आने ब्लैकमेल करने और डिजिटल अरेस्ट से बचने को अपना कालाधन ही नहीं अपनी ज़िंदगी भर की ईमानदारी से जमा की गयी पूंजी भी चुपचाप उनके खातों में ट्रांस्फर करने को तैयार हो जाता है। हालांकि सरकार साइबर ठगी को रोकने को 5000 साइबर कामांडो नियुक्त करने जा रही है। इसके साथ ही समय समय पर अखबारों टीवी और सोशल मीडिया पर आरबीआई बड़े बड़े विज्ञापन देकर लोगों को साइबर ठगी से सावधान करता रहता है। सरकार ने माइक्रोसाॅफ्ट से मिलकर पिछले दिनों ऐसी नकली फ्राॅड और बोगस 1000 वैबसाइट्स को बंद किया है। 2023 में सरकार ने 70 लाख फर्जी नंबर भी ब्लाॅक किये हैं। साथ ही नया सिम लेने की प्रक्रिया को काफी सख्त बनाया गया है। लेकिन साइबर ठग हैं कि अपना जाल दिन ब दिन और बड़ा करते जा रहे हैं। 
        आम और कम शिक्षित आदमी की तो बात ही क्या करें जब बड़े बड़े पदों पर बैठे पुलिस और बैंक के अफसर ही साइबर ठगों के झांसे में आ रहे हैं तो हमारी कानून व्यवस्था का क्या हाल होगा आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। कारण चाहे राजनीतिक हो लेकिन देश में ईडी और सीबीआई का डर अपराधियों से अधिक जनता में घर कर चुका है। जब किसी के पास कोई साइबर ठग इन एजंसियों का अफसर बताकर काॅल करता है तो उसके होश उड़ जाते हैं। उसको बताया जाता है कि आपके नाम से एक पार्सल कस्टम विभाग ने पकड़ा है। उसकी हम जांच कर रहे हैं। उसमें ड्रग या हथियार बरामद होने की बात कही जाती है। कई बार किसी के परिवार के युवा को रेप के आरोप में पकड़े जाने का झूठ बोला जाता है। वीडियो काॅल करके एक ठग पुलिस या कस्टम वालों की वर्दी मंे आकर पीड़ित को डिजिटल अरेस्ट करने की बात बताकर डरा देता है। उसको धमकी दी जाती है कि जब तक हम इजाज़त न दें तब तक आप काॅल बंद नहीं करेंगे। लोगों को डराने धमकाने और पैसा एंठने का सिलसिला कई कई घंटे नहीं कई कई दिन तक चलता रहता है। उनको बैंक जाने और अपना पैसा उनके बताये एकाउंट में ट्रांस्फर करने के दौरान व्हाट्सएप चैट पर रहने को मजबूर किया जाता है।
         पैसा जिस खाते में जाता है उससे हाथो हाथ दूसरे तीसरे और दर्जनों यहां तक कि सैंकड़ों खातों में होता हुआ ऐसे लोगों तक पहंुच जाता है जहां से उसकी पुलिस भी वापसी नहीं करा पाती। उसका नाम ही नहीं आधार नंबर पैन कार्ड नंबर पता पिता का नाम और मोबाइल नंबर जब सब कुछ ठीक ठीक बताया जाता है तो वह इंसान सकते में आ जाता है। सवाल यह भी है कि यह सब डाटा उन साइबर अपराधियों को कौन उपलब्ध कराता है? कई बार तो ये ठग परिवार के सभी सदस्यों के नाम उनकी आयु उनके निवास का पता उनकी नौकरी उनकी कंपनी और उनके बैंक खातों की डिटेल भी खुद ही बता देते हैं। इससे डिजिटल अरेस्ट में आने वाला आदमी काॅल सही मानकर सदमें में आ जाता है। इतनी बड़ी बड़ी रकम साइबर ठगों के हवाले कर पुलिस के पास ना जाने वालों का शायद कानून व्यवस्था से विश्वास खत्म होता जा रहा है। 
        सवाल यह है कि इन ठगों से बचा कैसे जाये? हम आपको बताना चाहते हैं कि डिजिटल अरेस्ट का कानून में कोई प्रावधान नहीं है। काॅल आने पर आप इनसे बिल्कुल मत डरिये। बेहतर तो यह होगा कि आप इस तरह के अंजान वीडियो काॅल अपने मोबाइल की सेटिंग में जाकर बंद कर दीजिये। वे आयेंगे ही नहीं। केवल उन लोगों से ही वीडियो काॅल पर बात कीजिये जिनके नाम और नंबर आपके पास पहले से सेव हैं। कई बार खूबसूरत युवती आपको वीडियो काॅल करती है। आप बहककर जल्दी में उससे बात का मज़ा लेने के लिये बिना जान पहचान के उसका काॅल अटैंड कर लेते हैं। यह फाहिशा औरत काॅल अटैंड होने के 5 से 10 सेकंड बाद ही अपने कपड़े उतारने लगती है। आप अभी समझ भी नहीं पाते कि यह क्या हो रहा है? उधर स्क्रीन रिकाॅर्डिंग चलती रहती है। इसके बाद किसी और के फोटो पर आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस या डीप फेक की मदद से आपका चेहरा लगाकर एक फर्जी पोर्न वीडियो तैयार कर आपको ब्लैकमेल करने को आपके पास भेज दिया जाता है। आपको धमकी दी जाती है कि या तो इस एकाउंट में इतनी रकम फौरन भेज दो नहीं तो आपका यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया जायेगा। 
          अधिकांश लोग इससे बेहद घबरा जाते हैं। वे पोर्न वीडियो की बात सुनकर अपने परिवार और पुलिस से भी यह शेयर करने से शर्माते हैं। लेकिन अगर आपने एक बार ब्लैकमेल होकर इन ठगों को पैसा दे दिया तो यह समझ लीजिये फिर यह सिलसिला खत्म नहीं यहां से शुरू होता है। इसके बाद आपका बैंक खाता खाली होने के बाद ये जेवर घर का सामान ज़मीन जायदाद और दोस्तों से उधार लेने को मजबूर कर लगातार पैसे की वसूली करते रहते हैं। जब तक आप जागरूक नहीं होंगे निडर नहीं बनेंगे और इनके झांसे में आने से इनकार नहीं करेंगे तब तक साइबर ठगी रूकने वाली नहीं है। भूलकर भी अपना ओटीपी डेबिट क्रेडिट कार्ड का सीवी नंबर पास वर्ड गूगल पे पेटीएम और अन्य पास वर्ड इनको लाख पूछने डराने ध्मकाने और गुमराह करने पर भी नहीं दें। इनके कहने से कोई एप डाउन लोड नहीं करना है। 2019 में साइबर क्राइम के 26000 केस दर्ज हुए थे लेकिन 2023 में ये बढ़कर 15 लाख हो चुके हैं। जब भी कभी भूल या धोखे से ठगे भी जायें तो बैंक और पुलिस के साथ ही 1930 नंबर पर तत्काल शिकायत ज़रूर कीजिये। ऐसा करने से हो सकता है आपका पैसा वापस मिल जाये।
0 मुश्किल कोई आन पड़े तो घबराने से क्या होगा,
 जीने की तरकीब निकालो मर जाने से क्या होगा।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Tuesday, 3 September 2024

बुलडोजर का अन्याय

*बुलडोज़र की सियासत जस्टिस नहीं अन्याय ही कर सकती है!* 
0 भाजपा की कुछ राज्य सरकारें किसी पर किसी गंभीर अपराध का आरोप लगने मात्र पर ही उसके घर दुकान या दूसरी इमारत पर बुलडोज़र कई साल से चलाती आ रही हैं। अगर आरोपी मुसलमान या विपक्षी दल से जुड़ा हो तो बुल्डोज़र की स्पीड और तबाही और तेज़ हो जाती है। कांग्रेस की तेलंगाना सरकार पर भी ऐसे ही आरोप हैं। ‘बुलडोज़र जस्टिस’ के नाम पर तबाही, बरबादी, अन्याय, मनमानी और अत्याचार का यह सिलसिला यूपी से शुरू हुआ था। देखते ही देखते यह कानून विरोधी अभियान भाजपा शासित दूसरे राज्यों में भी पहुंच गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में यूपी सरकार ने सुनवाई के दौरान अपना पक्ष रखते हुए दावा किया कि ‘बुलडोज़र जस्टिस’ का अपराध से कभी कोई रिश्ता नहीं होता है। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में बुलडोज़र की कार्यवाही के खिलाफ एक याचिका सुनते हुए कई सख्त टिप्पणियां की है। जस्टिस विश्वनाथन और जस्टिस गवई ने यहां तक कहा कि अगर आरोप साबित भी हो जाये तो भी किसी अपराधी के घर दुकान पर बुलडोज़र नहीं चलाया जा सकता। जुर्म साबित होने पर अपराध की जो सज़ा कानून में पहले से तय है वही दी जा सकती है। मतलब अगर किसी ने हत्या या रेप किया है तो उसको भारतीय न्याय संहिता मंें दर्ज जेल या फांसी का दंड ही दिया जा सकता है। उसके किसी भवन पर बुलडोज़र चलाने का का अधिकार किसी को नहीं है। फिलहाल तो अदालत ने इस मामले पर सुझाव आमंत्रित किये हैं। लेकिन सुनवाई की अगली तारीख पर कोर्ट इस मामले में व्यापक दिशा निर्देश केंद्र व सभी राज्यों के लिये जारी कर सकता है। ऐसा लगता है कि सबसे बड़ी अदालत ने बुलडोज़र जस्टिस के नाम पर देश में हो रही नाइंसाफी को रोकने का मन बना लिया है। बुलडोज़र इतना लोकप्रिय होने लगा था कि किसी सीएम को बुलडोज़र बाबा तो किसी मुख्यमंत्री को बुलडोज़र मामा कहा जाने लगा। इतना ही नहीं बुलडोज़र चुनाव रैली में प्रदर्शित किया जाना लगा और यह प्रतिशोध और विरोधियों को सबक सिखाने का एक भयानक प्रतीक बनकर उभर आया। 
       कुछ लोग बुलडोज़र पर सवार होकर चुनावी सभाओं में जाते देखे जाने लगे। इतना ही नहीं कुछ लोग दूसरों के घर बुलडोज़र से नेस्तो नाबूद होने पर जश्न मनाने लगे। कुछ लोग यह समझ रहे थे कि बुलडोज़र केवल अल्पसंख्यकों और विपक्षी दल के नेताओं के घर पर ही चलेगा। लेकिन धीरे धीरे इसका दायरा बढ़ता गया और यह उन लोगों को भी अपने लपेटे में लेने लगा जो यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि जिस दल के वे समर्थक हैं उसकी सत्ता उन पर बुलडोज़र का कहर बरपा सकती है। दरअसल जब सत्ता शक्ति के नशे में चूर होकर बुलडोज़र का इस्तेमाल न्याय के नाम पर अन्याय करने लगती है तो वह अपने पराये का अंतर करना भी भूल जाती है। यही वजह थी कि एक दिन ऐसा आया जब गोमती रिवर फरंट के सौंदर्यकरण के नाम पर यूपी की राजधानी में थोक मंे सैंकड़ो मकान तोड़े जाने लगे जिनमें हिंदू मुसलमान और दूसरे सभी वर्गों दलों व जातियों के लोग शामिल थे। अब जो लोग पहले दूसरों के घरों को टूटता देख खुश होकर तालियां बजा रहे थे अब अपनी बारी आने पर सरकार को कोसकर आंसू बहा रहे थे। इस दौरान यह भी हुआ कि जुर्म किसी ने किया और मकान किसी और का तोड़ दिया गया। पति की गल्ती की सज़ा पत्नी और बेटे की खता का दंड पिता को दिया जाने लगा। हद तो तब हो गयी जब एक किरायेदार ने जुर्म किया और उसके मालिक का मकान ज़मींदोज़ कर दिया गया। 
         विडंबना यह है कि शासन के प्रधनमंत्री आवास योजना में बने कई मकान भी इस दौरान तोड़ दिये गये। भाजपा सरकारों से प्रेरणा लेकर तेलंगाना की कांगे्रस सरकार ने भी डेढ़ सौ से अधिक इमारतें पिछले बुलडोज़र चलाकर तोड़ डालीं हैं। आरोप है कि इसके लिये कानूनी प्रावधान का पूरी तरह से पालन नहीं किया गया है। कानून के जानकारों का कहना है कि एक तो किसी आरोपी नहीं अपराधी का भी मकान तोड़ने का कानून में प्रावधान ही नहीं है। दूसरी बात कानून का काम न्याय करना और अपराधी को जेल भेजकर सुधारना होता है ना कि बुलडोज़र से किसी का मकान तोड़कर बदला लेना। यह भी समझने की बात है कि न्याय करने का काम सरकार या पुलिस व प्रशासन का है ही नहीं। यह काम तो केवल कोर्ट का है। जहां तक सरकारी ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा कर भवन निर्माण का मामला है। उसके लिये हर राज्य सरकार के अलग अलग कानून हैं। इन कानूनों के तहत पहले एक सप्ताह से लेकर एक माह तक का आरोपी को नोटिस दिया जायेगा। इस दौरान आरोपी अपना पक्ष रखने स्थानीय निकाय प्रशासन या कोर्ट जा सकता है। जब तक कोर्ट उसका मामला सुनकर अपना निर्णय नहीं देता तब तक उसका भवन बुलडोज़र से गिराया नहीं जा सकता। 
          इंस्टैंट जस्टिस ही बुलडोज़र जस्टिस यानी हाथो हाथ बदले का भीड़ या किसी राजा महाराजा का अन्याय कहलाता है। जहां तक नोटिस का मामला है। यह शिकायतें आम हैं कि सरकार के इशारे पर अधिकारी नोटिस बैक डेट में बनाकर अपने पास दबाये रखकर या बुलडोज़र चलाने के दौरान उस मकान की दीवार पर चस्पा कर दो गवाह या अन्य तस्वीर व वीडियो से कानूनी औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। नोटिस के दो बड़े मकसद होते हैं। एक तो यह कि आप विवादित जगह को छोड़कर सुरक्षित कहीं और चले जायें और अपना जीवन यापन का सामान टूटने से बचाने के लिये वहां से समय रहते निकाल लें। दूसरा मकसद यह होता है कि अगर कोई छोटा या मामूली कानूनी उल्लंघन हुआ है तो उसको मानचित्र के हिसाब से सही कर के भूल सुधार कर लें। रोटी कपड़ा और मकान तो संविधान ने भी मौलिक अधिकार माने हैं। साथ ही यूपी आवास विकास के एक मामले में फैसला देते हुए काफी पहले सुप्रीम कोर्ट आवास के अधिकार को बुनियादी अधिकार बताकर तब तक किसी का आवास ना तोड़ने का आदेश दे चुका है। जब तक कि उसको वैकल्पिक आवास उलब्ध ना करा दिया जाये। सुनवाई पूरी होने पर सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला दे देखना यह होगा कि जो सरकारें वोटबैंक की राजनीति की खातिर बुलडोज़र का जानबूझकर मनमाना दुरूपयोग कर रही हैं वे इससे तौब करती हैं या नहीं ? या कोई चोर दरवाज़ा निकाल लेती हैं। 
 *0 लगेगी आग तो आयेंगे कई घर ज़द में,*
*यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ा ही है।*
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 29 August 2024

कोलकाता रेप

*कोलकाता रेप: कानून नहीं व्यवस्था बदलने की जरूरत है!* 
0 12 साल पहले देश की जानी मानी हिंदी वेबसाइट प्रवक्ता डाॅटकाम पर हमने पूरे देश को हिला देने वाले चर्चित और दर्दनाक निर्भया दिल्ली गैंगरेप पर एक लेख लिखा था। उसमें यह आशंका भी व्यक्त की थी कि केवल कानून सख्त कर देने से न केवल बलात्कार नहीं रूकेंगे बल्कि समाज की सोच बदले बिना रेप पीड़ित की जान लेकर सबूत मिटा देने का ख़तरा और अधिक बढ़ जायेगा। दुर्भाग्य से आज नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि रोज देश में 86 रेप होते हैं। ये हालत तब है जबकि लोकलाज के डर से रेप के वास्तविक 63 प्रतिशत मामले दर्ज ही नहीं होते। 10 प्रतिशत रेप नाबालिग लड़कियों के साथ होते हैं। 89 फीसदी मामलों में बलात्कारी जान पहचान के होते हैं। दुख और चिंता की बात यह है कि फिर भी रेप पर सियासत होती है।
  *-इकबाल हिंदुस्तानी*
      व्यंग्य लेखक हरिशंकर ने कहा है ‘‘बलात्कार को पाश्विक कहा जाता है पर यह पशु की तौहीन है, पशु बलात्कार नहीं करते। सूअर तक नहीं करता। मगर आदमी करता है।’’ कोलकाता में हुए रेप की चैतरफा निंदा के साथ यह सवाल भी उठना चाहिये कि देश के विभिन्न राज्यों के दूरदराज के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में रोज होने वाले सैकड़ों बलात्कार के मामलों को मीडिया कभी इतनी जोर शोर से क्यों नहीं उठाता? और हर बलात्कार को लेकर सरकार इतनी संवेदनशील क्यों नहीं नजर आती? सारे नेता बलात्कारी को फांसी देने से लेकर चैराहे पर खुलेआम गोली मारने की मांग अब क्यों कर रहे हैं? जब जब वे सत्ता में आते हैं तो ऐसा कानून क्यों नहीं बनाते? सच तो यह है कि कुछ दिन इस मामले की चर्चा होने के बाद सब भूल जायेंगे कि इस मामले के दोषियों का क्या हुआ और वह पीड़िता या उसका परिवार किस हाल में जी रही है? दरअसल मीडिया को औरतों के अधिकारों और सुरक्षा की याद ही तब आती है जब किसी के साथ कोई बड़ा मामला हो जाता है। किसी महिला के साथ बलात्कार या छेड़छाड़ की वीभत्स घटना घटने के बाद मीडिया और सरकार शांत होकर मानो अगली ऐसी ही घटना का इंतजार करते रहते हैं। हकीकत यह है कि बलात्कार, हत्या और दंगे जैसे मामले होते ही इसलिये हैं कि हमारी पूरी व्यवस्था अपराधियों के सामने बेबस नजर आती है। बलात्कार पीड़ित तो क्या आम आदमी भी थाने जाने से डरता है जबकि अपराधी, माफिया या दलाल अकसर पुलिस के साथ मौज मस्ती करते देखे जाते हैं। 
        केस अगर दर्ज हो भी जाये तो अब आगे की जांच और भी मुश्किल है क्योंकि हमारी पुलिस सर्वे में ना केवल समाज के अन्य वर्गा से अधिक करप्ट है बल्कि वह राजनीतिक, धार्मिक, जातिवादी और दूसरे कारणों में भी खूब सबूत दबाती और घड़ती है। छोटे मामलों को तो पुलिस मीडिया में चर्चा ना होने या कम होेने से भाव ही नहीं देती और बड़े अपराधों को हर हाल में दबाना चाहती है क्योंकि जिस थाने में ज्यादा केस दर्ज होते हैं उसके थानेदार को ना केवल एसपी डीएम की डांट खानी पड़ती है बल्कि उसका प्रमोशन तक इस आधार पर रोक दिया जाता है। बलात्कार के मामले में फांसी की सजा कर देने का मतलब है कि रेप पीड़ित की जान का खतरा भी बढ़ जाना। हमारा कहना है कि बलात्कारी को सज़ा हर हाल में मिले सख्त मिले और जल्दी मिले यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है। राजनेताओं धन्नासेठों और प्रभावशाली लोगों के मामलें में पुलिस कानून के अनुसार काम नहीं करती है। जब लोगों का विश्वास ही कानून व्यवस्था से उठ चुका हो तो न्याय कैसे होगा? इसके बाद मेडिकल करने वाले डाक्टर की जेब गर्म कर चाहे जो लिखाया जा सकता है और सरकारी वकील तो शायद होते ही आरोपी से हमसाज़ के आरोप लगे होने के लिये हैं? फांसी या चैराहे पर गोली मारने की बात करने वालों से पूछा जाये कि जिन देशों मे सजा ए मौत है ही नहीं वहां अपराध ना के बराबर क्यों हैं? कई देश हैं जहां आयेदिन अपराधियों को फांसी पर लटकाया जा रहा है वहां आज भी अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे? 
      जिस देश में आतंकवादी कानून, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और देशद्रोह एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा हो वहां सजा कड़ी करने से नहीं पूरा सिस्टम ईमानदार और जिम्मेदार बनाने से ही सुधार हो सकता है। समाज को भी नैतिकता और चरित्र का पाठ सिखाना होगा। हमारे नेता खुद बाहुबल, कालाधन, सत्ता और पुलिस का खुलकर गलत इस्तेमाल करते हैं। आज लगभग सारे नेता ही नहीं अधिकांश अधिकारी, पत्रकार, वकील, उद्योगपति, शिक्षक, व्यापारी, इंजीनियर, डॉक्टर, जज, साहित्यकार और कलाकार से लेकर समाज की बुनियाद समझे जाने वाला हर वर्ग तक आरोपों के घेरे में आ चुके हैं, ऐसे में कानून ही नहीं हमें अपनी सोच और व्यवस्था बदलकर ही ऐसी घटनाओं को रोकने का रास्ता मिल सकेगा क्योंकि इस तरह की घिनौनी वारदात तो मात्र लक्षण हैं उस रोग का जो हमारे सारे सिस्टम और समाज को घुन की तरह खा रहा है। बलात्कारियों को फांसी की सजा, सुनवाई के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने और नये नये कानूनी प्रावधानों पर अमल होता नज़र नहीं आ रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बलात्कार के मामले बढ़ने के साथ ही इसके अपराधियों को पहले से कम मामलों में दंड मिल रहा है। चार में से केवल एक ही केस में बलात्कार के आरोपी को सजा मिल पाती है। 
        यह हालत तो तब है जबकि बड़ी तादाद में लोग लोकलाज और वकीलों और पुलिस के असुविधाजनक सवालों से बचने के लिये कानूनी कार्यवाही के लिये घर से निकलते ही नहीं। आज बलात्कार के 83 प्रतिशत मामले कोर्ट में लंबे समय से लंबित पड़े हैं जबकि पहले यह आंकड़ा 78 प्रतिशत ही था। 1990 में जहां 41 प्रतिशत रेप केस में अपराधियों को सजा मिल जाती थी वहीं 2000 में यह अनुपात 29.8 प्रतिशत हुआ और 2011 में घटकर 26.6 प्रतिशत रह गया है। एक तर्क और दिया जाता है कि लड़कियां चूंकि भड़काऊ कपड़े पहनकर और आकर्षक मेकअप करके सड़कों पर निकलती हैं। जिससे उनके साथ रेप की अधिकांश घटनाएं उनकी इन हरकतों की वजह से ही होती हैं, जबकि भारत सरकार के आंकड़ें बताते हैं कि गांव में ऐसे मामले अधिक होते हैं और अकसर यह देखने में आया है कि जो लड़कियां अधिक पढ़ी लिखी और आधुनिक होती हैं। उनके साथ बलात्कार का प्रयास करने वाले दस बार उसके बुरे नतीजों के बारे में सोचते हैं। इसके साथ यह भी देखने में आया है कि आधुनिक और प्रगतिशील सोच के लोग ही ऐसी घटनायें होने पर कानूनी कार्यवाही करने में सक्षम होते हैं और साहस भी दिखाते हैं। कहने का मतलब यह है कि पहले बलात्कार जैसे मामलों को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक स्तर पर जांचा परखा जाना चाहिये तब ही इनका कोई सही हल निकाला जा सकता है।

0 लड़ें तो कैसे लड़ें मुकदमा उससे उसकी बेवफाई का,

 ये दिल भी वकील उसका ये जां भी गवाह उसकी।।
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Saturday, 17 August 2024

वक्फ बिल

वक़्फ़ बिल: बेशक हो सुधार लेकिन सरकार नहीं है ईमानदार ?

0 मोदी सरकार भले ही सबका साथ सबका विश्वास का दावा करे लेकिन इस सरकार को कभी भी अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानों का विश्वास हासिल नहीं रहा है। यही वजह है कि भाजपा मुसलमानों और मुसलमान भाजपा का विरोध करते हैं। सीएए और तीन तलाक़ पर विवादित रोक के बाद वक़्फ़ क़ानून में संशोधन का मामला भी इसलिये ही चर्चा मंे है क्योंकि रेलवे और सेना के बाद सबसे अधिक ज़मीनें भारत में वक़्फ़ बोर्ड के पास हैं। देश में वक़्फ़ की 8 लाख एकड़ की कुल 872292 प्रोपर्टी हैं जिनसे मात्र 200 करोड़ रूपये आय सालाना होती हैं। वक़्फ़ एक्ट 1954 में बना और 1995 में इसमें संशोधन किया गया। वक़्फ़ के पास जो सम्पत्तियां हैं लगभग सभी मुसलमानों ने दान की हैं। लेकिन इनकी देखरेख में बड़ी गड़बड़ी है यह सच है।        
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      2022 में संसद में हरनाथ सिंह यादव ने एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया था। जिसमें दावा किया गया था कि 2009 से वक़्फ़ की ज़मीनें दोगुनी हो चुकी हैं। कम लोगों को पता होगा कि दूसरे सभी कानूनों की तरह ही वक़्फ़ कानून भी संसद से ही पास होकर बना है। यह मुस्लिम पर्सनल लाॅ के तहत इस्लाम का समाजसेवा का एक अहम हिस्सा है। यह सही है कि वक़्फ़ बोर्ड में बदइंतज़ामी बेईमानी और मनमानी होती है लेकिन यह झूठ है कि वक़्फ़ बोर्ड की शक्तियांे का गलत इस्तेमाल कर किसी भी ज़मीन को वक़्फ़ का बताकर कब्ज़ा लिया जाता है और उसको कोर्ट में चुनौती भी नहीं दी जा सकती। बाबरी मस्जिद का विवाद इसकी ताज़ा मिसाल है कि बोर्ड इस मस्जिद को रिकाॅर्ड दुरस्त ना रखने से कोर्ट में वक़्फ़ की साबित नहीं कर पाया जिससे यह आस्था के आधार पर लगातार वहां पूजा होते रहने के कारण फैसले में मंदिर के लिये दे दी गयी। प्रोपर्टी दो तरह से वक़्फ़ होती है। एक अल्लाह की राह में और दूसरी वक़्फ़ उल औलाद। किसी पीढ़ी में आगे जाकर ऐसी मिल्कियत का अगर कोई भी वारिस नहीं बचता है तो वह प्रोपर्टी भी वक़्फ़ बोर्ड को अल्लाह के नाम पर जनसेवा करने को चली जाती है। 
1921 के एक निर्णय में कोर्ट ने कहा था कि कोई हिंदू भी समाजसेवा के लिये वक़्फ़ को अपनी सम्पत्ति दान कर सकता है लेकिन यह सुनिश्चित करना ज़रूरी होगा कि उस गैर मुस्लिम के ऐसा करने से किसी हिंदू कानून का उल्लंघन नहीं हो। वक़्फ़ बोर्ड के अधिकार में तब तक कोई सम्पत्ति किसी के दान करने के बावजूद नहीं आ सकती जब तक कि उसका सर्वे न हो। सर्वे कमीशन राज्य सरकार नियुक्त करती है। सरकार वक़्फ़ की सम्पत्ति की अधिकृत सूची जारी करती है। इस सूची को जारी करने से पहले सरकार यह सुनिश्चित करती है कि वक़्फ़ की गयी प्रोपर्टी निर्विवाद हो। वक़्फ़ होने से पहले उस सम्पत्ति की स्थिति का सरकारी सर्वेयर द्वारा मौका मुआयना और उससे होने वाली आय का विस्तृत विवरण जुटाना अनिवार्य होता है। गवाहों प्रमाणों और अन्य कई तरह से यह जांच की जाती है कि वास्तव में दान की गयी प्रोपर्टी वक़्फ़ की ही है। अगर एक बार सर्वे से सर्वेयर या सरकार सर्वेयर की रिपोर्ट से सहमत व संतुष्ट नहीं होती तो वह दूसरा व तीसरा सर्वेयर नियुक्त करती है। जब राज्य द्वारा तैनात सर्वे कमिश्नर हर तरह से सम्पत्ति की नेचर वैल्यू और दान की प्रक्रिया से सहमत होकर लिखित रिपोर्ट देगा बोर्ड 6 माह के भीतर वह रिपोर्ट सरकार को भेजेगा और सरकार उसको गज़ट मंे प्रकाशित करेगी, राजस्व विभाग उस सम्पत्ति को अपने रिकाॅर्ड में वक़्फ़ के तौर पर दर्ज करेगा, उसके बाद ही वह सम्पत्ति कानूनन वक़्फ़ की मानी जायेगी। 
अगर किसी सम्पत्ति पर विवाद होगा तो उसको पहले वक़्फ़ ट्रिब्यूनल तय करेगा उससे सहमत न होने पर हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। देश में ऐसे 70 ट्रिब्यूनल हैं। वक़्फ़ बोर्ड में नियुक्ति भी सरकार ही करती है इसलिये यह दावा पूरी तरह झूठा है कि वक़्फ़ पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। इसके विपरीत सच यह है कि कुछ करप्ट सरकारी कारिंदे बोर्ड के बेईमान पदाधिकारी और वक़्फ़ सम्पत्यिों के बदनीयत मुतावल्ली मिलीभगत से इन सम्पत्यिों पर अवैध कब्जे़ बेचकर या किराये के बहाने करोड़ों रूपयों के वारे न्यारे कर रहे हैं। केवल वक़्फ़ बोर्ड के ट्रिब्यूनल को लेकर  सवाल उठाये जाते हैं। लेकिन इसमें राज्य न्यायिक क्षेत्र का चेयरमैन और सदस्यों में राज्य सरकार का प्रतिनिधि अधिकारी और तीसरा मुस्लिम लाॅ का जानकार शामिल होता है। देश में कुल 32 वक़्फ़ बोर्ड हैं। नये वक़्फ़ बिल के हिसाब से बोर्ड में भविष्य में नेशनल लेवल के केंद्र के चार सदस्य तीन सांसद सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के दो पूर्व जज एक वकील मुतावल्ली का एक प्रतिनिधि मुस्लिम लाॅ के तीन जानकार और दो गैर मुस्लिम व दो मुस्लिम महिलायें  अनिवार्य रूप से शामिल होंगी। जबकि चारधाम हिंदू तीर्थ धर्म संस्थान में केवल हिंदू ही सदस्य ही बन सकते हैं। 
       यही वो पक्षपात अन्याय और भेदभाव है जो भाजपा मुसलमानों के साथ बार बार करती रहती है। ज़िलाधिकारियों को वक़्फ़ मामलों में निर्णायक शक्ति दी जा रही है। वक़्फ़ के ट्रिब्यूनल को ज़मीनें हड़पने वाला राक्षस बनाकर केवल उसकी पाॅवर छीनी जा रही है। सौ प्रतिशत मुसलमानों का मज़हबी निजी मामला होने के बावजूद मुतावल्ली भी गैर मुस्लिम बनाया जाना प्रस्तावित है जोकि सरकार की दुर्भावना दिखाता है। नये बिल के अनुसार लैंड रिकाॅर्ड आफिसर सभी प्रभावित पक्षों को नोटिस देगा और दो बड़े अख़बारों में भी नोटिस पब्लिश करेगा जिससे किसी को भी अपनी आपत्ति दर्ज करने का मौका मिलेगा। आॅडिट पहले भी होता था लेकिन अब केंद्र अपने स्तर से सीएजी से आॅडिट करा सकता है। वक़्फ़ बोर्ड में भ्रष्टाचार के नाम पर सरकार ऐसे सुधार के बहाने दखल और मनमानी करना चाहती है जैसे उसके अधिकारी और कर्मचारी दूध के धुले हों? भविष्य में मुतावल्ली उसी को बनाया जायेगा जिसकी उम्र 21 साल  दो साल की सज़ा नहीं हुयी हो मानसिक रूप से परिपक्व और साफ सुथरी छवि का हो और उस पर वक़्फ़ की ज़मीन पर पहले कभी अवैध कब्ज़े वसूली या मिलीभगत का आरोप ना हो। सरकार का यह कदम अच्छा है लेकिन नीयत अच्छी साबित करना भी ज़रूरी है। 
अजीब बात यह है कि डीएम के कई फ़ैसलों को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकेगी और पहले वक़्फ़ ज़मीन को लेकर अपराध में जो गैर ज़मानतीय और संज्ञेय धारायें लगती थीं और सश्रम कारावास तक की सज़ा दी जा सकती थी वह सरकार ने उल्टा कम करके अपनी मुस्लिम विरोधी मंशा और वक़्फ़ की सम्पत्यिों पर रेलवे व डिफेंस की तरह अपनी नज़रें गड़ाकर अपने चहतों को देने का शक बढ़ा दिया है? 

 0 कितना चाहा छिपाना और छिपा कुछ भी नहीं,

  उसने सब कुछ सुन लिया मैंने कहा कुछ भी नहीं।

 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 8 August 2024

बांग्लादेश की हसीना

बंगलादेश: हसीना ने तानाशाही से बना दिया था विपक्षमुक्त देश!
0 जिस बंगलादेश को बनाने में शेख हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान और उनके पूरे परिवार ने अपनी जान दे दी। जिस शेख हसीना ने बंगलादेश को एशिया में न केवल अपने मूल देश पाकिस्तान से मज़बूत बना दिया बल्कि अर्थव्यवस्था के मामले में वह उसको भारत से भी आगे ले गयीं। आखि़र क्या हुआ कि एकाएक उनको न केवल पीएम पद बल्कि देश भी छोड़कर भागना पड़ा ? ज़ाहिर तौर पर छात्रों का आंदोलन इसकी मुख्य वजह माना जा रहा है लेकिन अमेरिका चीन से लेकर शेख हसीना का भारत के करीब होना भी इसका कारण हो सकता है। सबसे बड़ी गल्ती हसीना की अपने देश में चुनाव धांधली विपक्ष को लगभग खत्म कर देना और विरोध का स्पेस न देना था।        
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
जिस तरह से गैस पास न होने से प्रेशर कूकर फट जाता है। उसी तरह से किसी देश में विरोध करने वाले विकल्प स्वायत्त संस्थाओं और पीएम सत्ताधारी दल व शासन का विपक्ष के लिये स्पेस खत्म कर देने से वही होता है जो बंगलादेश की पीएम शेख हसीना के साथ हुआ है। आरक्षण के विरोध में स्टूडंेट आंदोलन तो एक बहाना है। उसके पीछे विश्व की महाशक्तियां बंगलादेश के विरोधी दल और बंगलादेश के निर्माण का विरोध करने वाली कट्टरपंथी जमाते इस्लामी शामिल रही है। सवाल यह है कि जो 30 प्रतिशत आरक्षण हाईकोर्ट के आदेश से शुरू हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने उसको लगभग खत्म कर 7 प्रतिशत कर दिया। ऐसे में अवामी लीग सरकार के खिलाफ इसके बाद भी लगातार आंदोलन तेज़ करते जाने के पीछे क्या साज़िश थी? दूसरी बात यह है कि पहले तो पुलिस पैरा मिलिट्री और सेना ने आंदोलन कुचलने को खुलेआम गोली चलाकर सैकड़ों लोगांें को बेदर्दी से मार डाला और जब आंदोलन का असली मुद्दा खत्म हो गया उसके बावजूद लांग मार्च कर पीएम हसीना का इस्तीफा मांगने और उनके निवास पर धावा बोलने आ रही भीड़ को रोकने से फौज ने साफ इनकार कर दिया, आखिर क्यों? किसके इशारे पर? 
     पीएम हसीना को 45 मिनट का समय दिया गया या तो वह अपना पद छोड़कर अपनी जान बचाने को देश छोड़कर भाग जायें नहीं तो उनको भीड़ के हवाले कर मौत के घाट उतारने को ब्लैकमेल किया गया? सवाल यह है कि किसी देश की पुलिस और सेना लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी अपनी सरकार के मुखिया की सुरक्षा नहीं कर सकती या नहीं करना चाहती तो इसमें साज़िश तो है ही? यह माना बंगलादेश में स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर सरकारी नौकरियों में सत्ताधारी अवामी लीग के लोगांे को भरने का खेल लंबे समय से चल रहा था। वहां आम चुनाव में इतनी बेईमानी धोखा और धांधली बार बार हो रही थी कि विपक्ष ने चुनाव का बहिष्कार कर रखा था। यानी जनता अगर चाहती भी तो लोकतांत्रिक तरीके से सरकार बदलने के रास्ते हसीना ने बंद कर दिये थे। आज हालत यह है कि हसीना को ब्रिटेन सहित यूरूप का कोई देश शरण तक देने को तैयार नहीं है। अमेरिका ने उनका वीज़ा पहले ही रद्द कर दिया है। अब उनकी नार्वे और फिनलैंड जाने की बात चल रही है। हसीना का जो होगा सो होगा लेकिन यह भारत के लिये भी बहुत बड़ा राजनीतिक झटका है। फिलहाल वहां अंतरिम सरकार बनेगी। उसके बाद आम चुनाव होगा जिसमें बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमाते इस्लामी के सत्ता में आने के पूरे आसार हैं। 
    जमात के रज़ाकारों ने वहां बंगलादेश बनने का विरोध करते हुए 28 लाख बंगलादेशियों को काटने और दस लाख औरतों के बलात्कार में पाक सेना का खुलेआम साथ दिया था। जिसके आरोप में उसके दर्जनों नेताओं को हसीना ने जेल भेजकर उम्रकैद से फांसी तक दी थी। यह अंदेशा गलत नहीं है कि अब जमाते इस्लामी खुलकर सत्ता का सहारा लेकर आतंकवाद अल्पसंख्यक उत्पीड़न और भारत विरोध के लिये पूर्वोत्तर के राज्यों में उग्रवादियों को हर तरह की सहायता कर हमारे 4096 किलोमीटर लंबे बाॅर्डर पर पाकिस्तान जैसा एक और मोर्चा खोलेगी? उधर अडानी के जो प्रोजेक्ट बंगलादेश के साथ शुरू हो चुके हैं या जल्दी ही चालू होने वाले थे उनका भविष्य खतरे में लग रहा है। हालांकि इससे बंगलादेश को भी नुकसान होगा लेकिन नफरत में इंसान व देश अंधा हो जाता है। यह सच है कि हसीना ने बंगलादेश को प्रगतिशील बनाया लेकिन तानाशाह बनकर लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों को कुचल दिया। भारत में इंदिरा गांधी ने यही गल्ती इमरजैंसी लगाकर की थी लेकिन उन्होंने भूल सुधार कर चुनाव हारा और फिर लोकतंत्र में विश्वास जताकर जीत भी लिया। हसीना ने वहां के मीडिया को भी गुलाम बना लिया था यही वजह है कि आज सत्ता के चमचे पत्रकार सड़कों पर घसीट कर पीटे जा रहे हैं। 
       मोदी सरकार हसीना को कभी तख्ता पलट के ख़तरे से आगाह इसलिये भी नहीं कर सकी क्योंकि वह खुद इस तरह के कई तौर तरीके आंशिक रूप से अपनाकर विपक्ष को दुश्मन की तरह खत्म करने की मंशा रखती है। मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद इंदिरा गांधी ने शेख हसीना को भारत में लंबे समय के लिये शरण दी थी। हसीना और उनकी बहन उस समय अपने परिवार के सामूहिक हत्याकांड से इसलिये बच गयी थीं क्योंकि वह विदेश में पढ़ रही थीं। इतिहास बताता है कि कई देशों में जिन लोगों संस्थाओं और पार्टियों का सहयोग देश को आज़ाद कराने वालों के साथ नहीं रहा वही एक दिन साज़िश तिगड़म और विदेशी शक्तियों का खिलौना बनकर सत्ता में आ गयीं। आज हसीना घर की ना घाट की। उनके पिता और परिवार को 50 साल पहले सामूहिक रूप से मौत के घाट के उतारा जा चुका है। आज जिस बंग बंध्ुा को बंगलादेश का संस्थापक माना जाता था उसकी मूर्ति सबसे पहले तोड़ी जा रही है। हसीना की पार्टी अवामी लीग के दर्जनों नेताओं को मौत की नींद सुला दिया गया है। उनके आॅफिसों और समर्थकों पर लगातार हिंसक हमले किये जा रहे हैं। 
    हसीना के हश्र से यह सबक दुनिया के दूसरे तानाशाह बन रहे शासकों को सीखना चाहिये कि सत्ता के लिये लोकतंत्र को खत्म करने और नागरिक अधिकार छीनने वालों को  कभी ना कभी यह दिन भी देखना पड़ सकता है। बंगलादेश मंे हसीना के अंजाम से यह भी सीखा जा सकता है कि सरकार कोर्ट मीडिया पुलिस सेना और सारी शासकीय संस्थायें मिलकर भी सड़क पर विरोध में उतरी विपक्ष या विकल्प विहीन आक्रोषित और बेकाबू हिंसक जनता का मुकाबला नहीं कर सकती।
0 समंदर उल्टा सीधा बोलता है,
 सलीके से तो प्यासा बोलता है।
 यहां उसका पैसा बोलता है,
 वहां देखेंगे वो क्या बोलता है।।
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*