Thursday 29 August 2024

कोलकाता रेप

*कोलकाता रेप: कानून नहीं व्यवस्था बदलने की जरूरत है!* 
0 12 साल पहले देश की जानी मानी हिंदी वेबसाइट प्रवक्ता डाॅटकाम पर हमने पूरे देश को हिला देने वाले चर्चित और दर्दनाक निर्भया दिल्ली गैंगरेप पर एक लेख लिखा था। उसमें यह आशंका भी व्यक्त की थी कि केवल कानून सख्त कर देने से न केवल बलात्कार नहीं रूकेंगे बल्कि समाज की सोच बदले बिना रेप पीड़ित की जान लेकर सबूत मिटा देने का ख़तरा और अधिक बढ़ जायेगा। दुर्भाग्य से आज नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि रोज देश में 86 रेप होते हैं। ये हालत तब है जबकि लोकलाज के डर से रेप के वास्तविक 63 प्रतिशत मामले दर्ज ही नहीं होते। 10 प्रतिशत रेप नाबालिग लड़कियों के साथ होते हैं। 89 फीसदी मामलों में बलात्कारी जान पहचान के होते हैं। दुख और चिंता की बात यह है कि फिर भी रेप पर सियासत होती है।
  *-इकबाल हिंदुस्तानी*
      व्यंग्य लेखक हरिशंकर ने कहा है ‘‘बलात्कार को पाश्विक कहा जाता है पर यह पशु की तौहीन है, पशु बलात्कार नहीं करते। सूअर तक नहीं करता। मगर आदमी करता है।’’ कोलकाता में हुए रेप की चैतरफा निंदा के साथ यह सवाल भी उठना चाहिये कि देश के विभिन्न राज्यों के दूरदराज के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में रोज होने वाले सैकड़ों बलात्कार के मामलों को मीडिया कभी इतनी जोर शोर से क्यों नहीं उठाता? और हर बलात्कार को लेकर सरकार इतनी संवेदनशील क्यों नहीं नजर आती? सारे नेता बलात्कारी को फांसी देने से लेकर चैराहे पर खुलेआम गोली मारने की मांग अब क्यों कर रहे हैं? जब जब वे सत्ता में आते हैं तो ऐसा कानून क्यों नहीं बनाते? सच तो यह है कि कुछ दिन इस मामले की चर्चा होने के बाद सब भूल जायेंगे कि इस मामले के दोषियों का क्या हुआ और वह पीड़िता या उसका परिवार किस हाल में जी रही है? दरअसल मीडिया को औरतों के अधिकारों और सुरक्षा की याद ही तब आती है जब किसी के साथ कोई बड़ा मामला हो जाता है। किसी महिला के साथ बलात्कार या छेड़छाड़ की वीभत्स घटना घटने के बाद मीडिया और सरकार शांत होकर मानो अगली ऐसी ही घटना का इंतजार करते रहते हैं। हकीकत यह है कि बलात्कार, हत्या और दंगे जैसे मामले होते ही इसलिये हैं कि हमारी पूरी व्यवस्था अपराधियों के सामने बेबस नजर आती है। बलात्कार पीड़ित तो क्या आम आदमी भी थाने जाने से डरता है जबकि अपराधी, माफिया या दलाल अकसर पुलिस के साथ मौज मस्ती करते देखे जाते हैं। 
        केस अगर दर्ज हो भी जाये तो अब आगे की जांच और भी मुश्किल है क्योंकि हमारी पुलिस सर्वे में ना केवल समाज के अन्य वर्गा से अधिक करप्ट है बल्कि वह राजनीतिक, धार्मिक, जातिवादी और दूसरे कारणों में भी खूब सबूत दबाती और घड़ती है। छोटे मामलों को तो पुलिस मीडिया में चर्चा ना होने या कम होेने से भाव ही नहीं देती और बड़े अपराधों को हर हाल में दबाना चाहती है क्योंकि जिस थाने में ज्यादा केस दर्ज होते हैं उसके थानेदार को ना केवल एसपी डीएम की डांट खानी पड़ती है बल्कि उसका प्रमोशन तक इस आधार पर रोक दिया जाता है। बलात्कार के मामले में फांसी की सजा कर देने का मतलब है कि रेप पीड़ित की जान का खतरा भी बढ़ जाना। हमारा कहना है कि बलात्कारी को सज़ा हर हाल में मिले सख्त मिले और जल्दी मिले यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है। राजनेताओं धन्नासेठों और प्रभावशाली लोगों के मामलें में पुलिस कानून के अनुसार काम नहीं करती है। जब लोगों का विश्वास ही कानून व्यवस्था से उठ चुका हो तो न्याय कैसे होगा? इसके बाद मेडिकल करने वाले डाक्टर की जेब गर्म कर चाहे जो लिखाया जा सकता है और सरकारी वकील तो शायद होते ही आरोपी से हमसाज़ के आरोप लगे होने के लिये हैं? फांसी या चैराहे पर गोली मारने की बात करने वालों से पूछा जाये कि जिन देशों मे सजा ए मौत है ही नहीं वहां अपराध ना के बराबर क्यों हैं? कई देश हैं जहां आयेदिन अपराधियों को फांसी पर लटकाया जा रहा है वहां आज भी अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे? 
      जिस देश में आतंकवादी कानून, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और देशद्रोह एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा हो वहां सजा कड़ी करने से नहीं पूरा सिस्टम ईमानदार और जिम्मेदार बनाने से ही सुधार हो सकता है। समाज को भी नैतिकता और चरित्र का पाठ सिखाना होगा। हमारे नेता खुद बाहुबल, कालाधन, सत्ता और पुलिस का खुलकर गलत इस्तेमाल करते हैं। आज लगभग सारे नेता ही नहीं अधिकांश अधिकारी, पत्रकार, वकील, उद्योगपति, शिक्षक, व्यापारी, इंजीनियर, डॉक्टर, जज, साहित्यकार और कलाकार से लेकर समाज की बुनियाद समझे जाने वाला हर वर्ग तक आरोपों के घेरे में आ चुके हैं, ऐसे में कानून ही नहीं हमें अपनी सोच और व्यवस्था बदलकर ही ऐसी घटनाओं को रोकने का रास्ता मिल सकेगा क्योंकि इस तरह की घिनौनी वारदात तो मात्र लक्षण हैं उस रोग का जो हमारे सारे सिस्टम और समाज को घुन की तरह खा रहा है। बलात्कारियों को फांसी की सजा, सुनवाई के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने और नये नये कानूनी प्रावधानों पर अमल होता नज़र नहीं आ रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बलात्कार के मामले बढ़ने के साथ ही इसके अपराधियों को पहले से कम मामलों में दंड मिल रहा है। चार में से केवल एक ही केस में बलात्कार के आरोपी को सजा मिल पाती है। 
        यह हालत तो तब है जबकि बड़ी तादाद में लोग लोकलाज और वकीलों और पुलिस के असुविधाजनक सवालों से बचने के लिये कानूनी कार्यवाही के लिये घर से निकलते ही नहीं। आज बलात्कार के 83 प्रतिशत मामले कोर्ट में लंबे समय से लंबित पड़े हैं जबकि पहले यह आंकड़ा 78 प्रतिशत ही था। 1990 में जहां 41 प्रतिशत रेप केस में अपराधियों को सजा मिल जाती थी वहीं 2000 में यह अनुपात 29.8 प्रतिशत हुआ और 2011 में घटकर 26.6 प्रतिशत रह गया है। एक तर्क और दिया जाता है कि लड़कियां चूंकि भड़काऊ कपड़े पहनकर और आकर्षक मेकअप करके सड़कों पर निकलती हैं। जिससे उनके साथ रेप की अधिकांश घटनाएं उनकी इन हरकतों की वजह से ही होती हैं, जबकि भारत सरकार के आंकड़ें बताते हैं कि गांव में ऐसे मामले अधिक होते हैं और अकसर यह देखने में आया है कि जो लड़कियां अधिक पढ़ी लिखी और आधुनिक होती हैं। उनके साथ बलात्कार का प्रयास करने वाले दस बार उसके बुरे नतीजों के बारे में सोचते हैं। इसके साथ यह भी देखने में आया है कि आधुनिक और प्रगतिशील सोच के लोग ही ऐसी घटनायें होने पर कानूनी कार्यवाही करने में सक्षम होते हैं और साहस भी दिखाते हैं। कहने का मतलब यह है कि पहले बलात्कार जैसे मामलों को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक स्तर पर जांचा परखा जाना चाहिये तब ही इनका कोई सही हल निकाला जा सकता है।

0 लड़ें तो कैसे लड़ें मुकदमा उससे उसकी बेवफाई का,

 ये दिल भी वकील उसका ये जां भी गवाह उसकी।।
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

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