Tuesday 3 September 2024

बुलडोजर का अन्याय

*बुलडोज़र की सियासत जस्टिस नहीं अन्याय ही कर सकती है!* 
0 भाजपा की कुछ राज्य सरकारें किसी पर किसी गंभीर अपराध का आरोप लगने मात्र पर ही उसके घर दुकान या दूसरी इमारत पर बुलडोज़र कई साल से चलाती आ रही हैं। अगर आरोपी मुसलमान या विपक्षी दल से जुड़ा हो तो बुल्डोज़र की स्पीड और तबाही और तेज़ हो जाती है। कांग्रेस की तेलंगाना सरकार पर भी ऐसे ही आरोप हैं। ‘बुलडोज़र जस्टिस’ के नाम पर तबाही, बरबादी, अन्याय, मनमानी और अत्याचार का यह सिलसिला यूपी से शुरू हुआ था। देखते ही देखते यह कानून विरोधी अभियान भाजपा शासित दूसरे राज्यों में भी पहुंच गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में यूपी सरकार ने सुनवाई के दौरान अपना पक्ष रखते हुए दावा किया कि ‘बुलडोज़र जस्टिस’ का अपराध से कभी कोई रिश्ता नहीं होता है। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में बुलडोज़र की कार्यवाही के खिलाफ एक याचिका सुनते हुए कई सख्त टिप्पणियां की है। जस्टिस विश्वनाथन और जस्टिस गवई ने यहां तक कहा कि अगर आरोप साबित भी हो जाये तो भी किसी अपराधी के घर दुकान पर बुलडोज़र नहीं चलाया जा सकता। जुर्म साबित होने पर अपराध की जो सज़ा कानून में पहले से तय है वही दी जा सकती है। मतलब अगर किसी ने हत्या या रेप किया है तो उसको भारतीय न्याय संहिता मंें दर्ज जेल या फांसी का दंड ही दिया जा सकता है। उसके किसी भवन पर बुलडोज़र चलाने का का अधिकार किसी को नहीं है। फिलहाल तो अदालत ने इस मामले पर सुझाव आमंत्रित किये हैं। लेकिन सुनवाई की अगली तारीख पर कोर्ट इस मामले में व्यापक दिशा निर्देश केंद्र व सभी राज्यों के लिये जारी कर सकता है। ऐसा लगता है कि सबसे बड़ी अदालत ने बुलडोज़र जस्टिस के नाम पर देश में हो रही नाइंसाफी को रोकने का मन बना लिया है। बुलडोज़र इतना लोकप्रिय होने लगा था कि किसी सीएम को बुलडोज़र बाबा तो किसी मुख्यमंत्री को बुलडोज़र मामा कहा जाने लगा। इतना ही नहीं बुलडोज़र चुनाव रैली में प्रदर्शित किया जाना लगा और यह प्रतिशोध और विरोधियों को सबक सिखाने का एक भयानक प्रतीक बनकर उभर आया। 
       कुछ लोग बुलडोज़र पर सवार होकर चुनावी सभाओं में जाते देखे जाने लगे। इतना ही नहीं कुछ लोग दूसरों के घर बुलडोज़र से नेस्तो नाबूद होने पर जश्न मनाने लगे। कुछ लोग यह समझ रहे थे कि बुलडोज़र केवल अल्पसंख्यकों और विपक्षी दल के नेताओं के घर पर ही चलेगा। लेकिन धीरे धीरे इसका दायरा बढ़ता गया और यह उन लोगों को भी अपने लपेटे में लेने लगा जो यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि जिस दल के वे समर्थक हैं उसकी सत्ता उन पर बुलडोज़र का कहर बरपा सकती है। दरअसल जब सत्ता शक्ति के नशे में चूर होकर बुलडोज़र का इस्तेमाल न्याय के नाम पर अन्याय करने लगती है तो वह अपने पराये का अंतर करना भी भूल जाती है। यही वजह थी कि एक दिन ऐसा आया जब गोमती रिवर फरंट के सौंदर्यकरण के नाम पर यूपी की राजधानी में थोक मंे सैंकड़ो मकान तोड़े जाने लगे जिनमें हिंदू मुसलमान और दूसरे सभी वर्गों दलों व जातियों के लोग शामिल थे। अब जो लोग पहले दूसरों के घरों को टूटता देख खुश होकर तालियां बजा रहे थे अब अपनी बारी आने पर सरकार को कोसकर आंसू बहा रहे थे। इस दौरान यह भी हुआ कि जुर्म किसी ने किया और मकान किसी और का तोड़ दिया गया। पति की गल्ती की सज़ा पत्नी और बेटे की खता का दंड पिता को दिया जाने लगा। हद तो तब हो गयी जब एक किरायेदार ने जुर्म किया और उसके मालिक का मकान ज़मींदोज़ कर दिया गया। 
         विडंबना यह है कि शासन के प्रधनमंत्री आवास योजना में बने कई मकान भी इस दौरान तोड़ दिये गये। भाजपा सरकारों से प्रेरणा लेकर तेलंगाना की कांगे्रस सरकार ने भी डेढ़ सौ से अधिक इमारतें पिछले बुलडोज़र चलाकर तोड़ डालीं हैं। आरोप है कि इसके लिये कानूनी प्रावधान का पूरी तरह से पालन नहीं किया गया है। कानून के जानकारों का कहना है कि एक तो किसी आरोपी नहीं अपराधी का भी मकान तोड़ने का कानून में प्रावधान ही नहीं है। दूसरी बात कानून का काम न्याय करना और अपराधी को जेल भेजकर सुधारना होता है ना कि बुलडोज़र से किसी का मकान तोड़कर बदला लेना। यह भी समझने की बात है कि न्याय करने का काम सरकार या पुलिस व प्रशासन का है ही नहीं। यह काम तो केवल कोर्ट का है। जहां तक सरकारी ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा कर भवन निर्माण का मामला है। उसके लिये हर राज्य सरकार के अलग अलग कानून हैं। इन कानूनों के तहत पहले एक सप्ताह से लेकर एक माह तक का आरोपी को नोटिस दिया जायेगा। इस दौरान आरोपी अपना पक्ष रखने स्थानीय निकाय प्रशासन या कोर्ट जा सकता है। जब तक कोर्ट उसका मामला सुनकर अपना निर्णय नहीं देता तब तक उसका भवन बुलडोज़र से गिराया नहीं जा सकता। 
          इंस्टैंट जस्टिस ही बुलडोज़र जस्टिस यानी हाथो हाथ बदले का भीड़ या किसी राजा महाराजा का अन्याय कहलाता है। जहां तक नोटिस का मामला है। यह शिकायतें आम हैं कि सरकार के इशारे पर अधिकारी नोटिस बैक डेट में बनाकर अपने पास दबाये रखकर या बुलडोज़र चलाने के दौरान उस मकान की दीवार पर चस्पा कर दो गवाह या अन्य तस्वीर व वीडियो से कानूनी औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। नोटिस के दो बड़े मकसद होते हैं। एक तो यह कि आप विवादित जगह को छोड़कर सुरक्षित कहीं और चले जायें और अपना जीवन यापन का सामान टूटने से बचाने के लिये वहां से समय रहते निकाल लें। दूसरा मकसद यह होता है कि अगर कोई छोटा या मामूली कानूनी उल्लंघन हुआ है तो उसको मानचित्र के हिसाब से सही कर के भूल सुधार कर लें। रोटी कपड़ा और मकान तो संविधान ने भी मौलिक अधिकार माने हैं। साथ ही यूपी आवास विकास के एक मामले में फैसला देते हुए काफी पहले सुप्रीम कोर्ट आवास के अधिकार को बुनियादी अधिकार बताकर तब तक किसी का आवास ना तोड़ने का आदेश दे चुका है। जब तक कि उसको वैकल्पिक आवास उलब्ध ना करा दिया जाये। सुनवाई पूरी होने पर सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला दे देखना यह होगा कि जो सरकारें वोटबैंक की राजनीति की खातिर बुलडोज़र का जानबूझकर मनमाना दुरूपयोग कर रही हैं वे इससे तौब करती हैं या नहीं ? या कोई चोर दरवाज़ा निकाल लेती हैं। 
 *0 लगेगी आग तो आयेंगे कई घर ज़द में,*
*यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ा ही है।*
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

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