Friday 2 August 2024

कांवड़िया रूट

*कांवड़ियों का खूब करो सम्मान, पर बाक़ी का भी न हो नुकसान!* 
0 एक कहावत है जिसके पांव ना पड़ी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। कांवड़ यात्रा को लेकर एक पक्ष सरकार के भेदभाव के साथ खड़ा है तो दूसरा पक्ष सुप्रीम कोर्ट के पहचान बताने को लेकर दिये गये स्टे को ठीक बता रहा है। उधर पता चला है कि पुलिस अभी भी कांवड़ रूट के कई दुकानदारों ढाबे वालों और ठेले वालों को पहले से लगी उनके धर्म की पहचान को हटाने से मना कर रही है। जिससे वे पुलिस यानी सरकार से टकराव का रिस्क ना लेकर चुप हैं। जहां सरकार अपने इस पक्षपाती कदम को पहले से मौजूद कानून की आड़ में लागू करने के लिये उतावली है वहीं अलीगढ़ में हिंदू संगठनों ने हिंदू समाज के लोगों की दुकानों पर उनकी पहचान लगवाने की नई कवायद शुरू कर दी है।        
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कांवड़ यात्रा लंबे समय से शांतिपूर्वक होती आ रही है। पिछले कुछ साल से कांवड़ लाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसकी वजह बढ़ती आबादी धर्म का पुनर्जागरण और भाजपा सरकार की हिंदू तुष्टिकरण की नीति भी हो सकती है। सरकार कांवड़ वालों पर फूल बरसाती है। उनकी सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करती है। उनकी सुविधा के लिये बाकी लोगों के लिये कई रोड कई दिन के लिये बंद कर देती है। भोलों के लिये कांवड़ रूट पर सेवा शिविर लगते हैं। उनका मान सम्मान किया जाता है। मुस्लिम भी कई स्थानों पर उनकी सेवा करते हैं। बिजनौर जिले के नजीबाबाद में मुस्लिम फंड भी उनकी कई दशकों से सेवा करता आ रहा है। भोलों को कभी इस बात पर आपत्ति नहीं हुयी कि उनकी सेवा मुसलमान क्यों कर रहे हैं? खुद भोले हिंदू मुस्लिम सभी दुकानों से सामान खरीदते रहे हैं। लेकिन कुछ समय से यह विवाद शुरू हुआ कि कुछ मुस्लिम अपनी पहचान छिपाकर हिंदू देवी देवता के नाम से या काॅमन नामों से अपनी दुकान चला रहे हैं। जिससे भोले भ्रमित हो जाते हैं। कहा गया कि इससे कई बार हंगामा हुआ कि जिस दुकान को भोले शाकाहारी समझकर गये थे वहां मांसाहारी भोजन भी परोसा जा रहा था। हालत यहां तक आ गयी कि भोले हिंदू दुकान पर भी गल्ती या भूल से दाल सब्ज़ी में लहसुन प्याज का तड़का लगा देने से नाराज़ हो गये। कई ढाबों पर हिंसा भी हुयी। ऐसे ही रास्ते में जाने अंजाने में भोलों से किसी यात्री या उनके वाहन टकराने या केवल गलतफहमी हो जाने पर भी कांवड़ वाले उग्र हो गये। इस मामले में अगर आरोपी पक्ष मुसलमान हुआ तो हालात और अधिक खराब हुए। 
पुलिस प्रशासन ऐसे में खुद को असहाय महसूस करता नज़र आया। हालांकि बाद में अज्ञात में हल्की धाराओं में केस भी कई जगह दर्ज हुए लेकिन लगता नहीं कि सरकार आरोपी कांवड़ वालों के खिलाफ कोई सख्त कानूनी कदम उठायेगी या सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के मामालों में हर जगह वसूली को पहुंच जाने वाला बुल्डोज़र यहां भी काम करेगा? दरअसल कांवड़ रूट पर पहचान बताने या छिपाने का मामला उतना ही नहीं है जितना नज़र आ रहा है। इसके पीछे उन संगठनों दलों और सोच की बड़ी भूमिका है जो मुसलमानों से नफरत करते हैं। वे रोज़ ऐसा कोई ना कोई मुद्दा तलाश लेते हैं जिसके बल पर अल्पसंख्यकों को निशाने पर लिया जा सके। इस मामले में भी आप नोट कर लीजिये संविधान कानून और कोर्ट कुछ भी कहे ज़मीन पर वे अपनी सत्ता पुलिस और संगठन की शक्ति के बल पर वो सब करके ही दम लेंगे जो उनका एजेंडा है। इससे उनको मुसलमानों का बोल्ट टाइट करने से लेकर हिंदू समाज के उस कट्टर वर्ग को खुश करने का राजनीतिक लाभ मिलता है जो उनको तमाम नुकसान उठाकर भी वोट देता है। जनप्रतिनिधि और सरकार चुनाव जीतने के बाद सबकी होती है लेकिन काफी समय से देखने में आ रहा है कि सरकार कांवड़ यात्रा के नाम पर मांस की सभी दुकानें बंद करा देती है। क्या ये मांस खाने वाले लोगों के संवैधनिक अधिकार का हनन नहीं है? क्या ये मांस कारोबार से जुड़े लोगों के रोज़ी रोटी के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? कांवड़ रूट बंद होने से जो लोग यात्रा नहीं कर पाते उनकी चिंता करना भी सरकार का काम है कि नहीं? रूट बदलने से बसों या अन्य निजी वाहनों में जो अधिक तेल खर्च होता है उसकी भरपाई कौन करेगा? जो और नुकसान होता है उसका क्या होगा? 
     भाजपा का नारा रहा है सबका साथ सबका विकास, सबका विश्वास और न्याय सबको तुष्टिकरण किसी का नहीं। लेकिन व्यवहार में ऐसा कुछ नज़र नहीं आता। यह अजीब बात है कि जो भाजपा विपक्ष पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है वह आज खुद बहुसंख्यकों का तुष्टिकरण कर उनके वोट बैंक की राजनीति कर रही है। कांवड़ वालों और सरकार दोनों को यह बात समझने की ज़रूरत है कि अगर आप धार्मिक भावनाओं के नाम पर किसी भी वर्ग को असीमित छूट देंगे तो इससे अराजकता की स्थिति पैदा हो सकती है। अगर जाने अंजाने किसी से कांवड़ खंडित हो गयी या किसी कांवड़ वाले को नुकसान पहुंच गया तो इसका यह मतलब नहीं है कि किसी को कानून हाथ में लेने का अधिकार मिल जाता है? लेकिन देखने में आ रहा है कि कांवड़ रूट पर ऐसी अनेक घटनायें उन चंद शरारती लोगों द्वारा हो रही हैं जबकि लाखों कांवड़िये शांतिपूर्ण प्रेमपूर्ण और सौहार्दपूर्ण वातावरण में पूरी गरिमा श्रध्दा और भक्ति के साथ दशकों से हरिद्वार से पवित्र जल लाकर शिव मंदिरों में चढ़ाते रहे हैं। 
      हालात इतने गंभीर और असहनीय हो गये कि खुद सीएम को कांवड़ वालों को शिव से सीख लेने की अपील करनी पड़ी है। हमारा मानना है कि बेशक कांवड़ वालों को दुकानों ढाबों और ठेलों पर बिकने वाले खाने पीने के सामान में मांसाहार और शाकाहार का अंतर जानने का अधिकार है लेकिन उसका मालिक कौन है उसके कर्मचारी कौन हैं यानी उनका धर्म जाति जानना एक तरह से छुआछूत को को बढ़ावा देने वाला होगा। आज अगर आप धर्म के नाम पर एक वर्ग को अलग थलग करेंगे तो कल जाति के नाम पर दलित पिछड़ा और अन्य हिंदू जाति के लोगों के सामने ही पक्षपात और बहिष्कार का संकट खड़ा हो जायेगा। हम यह भी जानते हैं कि अगर सरकार सत्ताधारी दल और पुलिस प्रशासन एक वर्ग विशेष का सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक बहिष्कार करने की ठान लें तो उनको रोकना मुश्किल होता है। लेकिन समाज को यह बात समझने की ज़रूरत है कि संविधान कानून और नियम सबके लिये समान होने चाहिये नहीं तो सत्ता शक्ति और समय बदलता रहता है जो आज आप दूसरों के साथ कर रहे हैं कल आपके साथ भी वही दोहराया जायेगा। मशहूर शायर वसीम बरेलवी का शेर याद आ रहा है-

 *0 फ़ैसला लिक्खा हुआ रखा है पहले से खिलाफ़,*
*आप क्या ख़ाक अदालत में सफाई देंगे।*                  
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

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