आम बजट: बेरोज़गारी की समस्या का कोई ठोस हल निकलेगा ?
0 सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण बता रहा है कि वह तमाम दावों के बावजूद मांग के अनुसार रोज़गार उपलब्ध नहीं करा पा रही है। सर्वे में पाया गया कि 51.25 प्रतिशत युवाओं में काम करने की वांछित क्षमता ही नहीं है। इसके लिये केंद्र सरकार निजी क्षेत्र और राज्य सरकारों को भी दोषी बता रही है। सरकार जीडीपी जीएसटी और अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ने का कितना ही दावा कर ले लेकिन आंकड़े गवाह है कि देश की कुल आय का 57 प्रतिशत 10 प्रतिशत लोगों के पास है। उसमें भी 22 प्रतिशत आय अकेले 1 प्रतिशत के पास है। ऐसे ही केवल 7 करोड़ भारतीय ऐसे हैं जिनकी सालाना आमदनी 8 लाख के आसपास है। 81.5 करोड़ लोग सरकार द्वारा दिये जा रहे निशुल्क अनाज पर निर्भर हैं।
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
पीएलएफएस के ग्रामीण क्षेत्र के रोज़गार के तीन माह बाद और शहरी क्षेत्र के आंकड़े अर्धवार्षिक आते हैं। आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस को भी सर्वे में रोज़गार घटने का मुख्य कारण बताया गया है लेकिन इसके हल के बारे मंे रिपोर्ट में चुप्पी है। 2017 में नीति आयोग के अरविंद पनगढ़िया ने सरकार को रोज़गार के व्यापक आंकड़े दिये थे लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को अपने दावों के अनुकूल ना होने की वजह से ठंडे बस्ते में डाल दिया था। रोज़गार का सालाना सर्वे नहीं होता। केवल दस साल में जनगणना और पांच साल में अनिगमित क्षेत्र की रोज़गार की स्थिति की जांच करने पर ही आंकड़े सामने आते हैं। आम बजट पर जब विपक्ष ने सरकार पर बेरोज़गारी और महंगाई का कोई ठोस हल पेश ना करने का आरोप लगाया तो वित्त मंत्री ने पलटकर दावा किया गया कि विपक्ष के पास बेरोज़गारी का कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है। लेकिन सरकार के पास भी ऐसा कोई डाटा नहीं है। अगर होता तो वे संसद में ज़रूर रखतीं। अलबत्ता सरकार को यह ज़रूर पता है कि काॅरपोरेट का टैक्स कम करने के बाद से उसका लाभ 2020 से 2023 तक बढ़कर चार गुना हो गया है।
2024 में काॅरपोरेट का लाभ 15 सालों का उच्चतम होकर 2023 के 11.88 लाख करोड़ से बढ़कर 14.11 लाख करोड़ तक पहुंच गया है। 2019 में सरकार ने काॅरपोरेट टैक्स में कमी करते हुए यह दावा किया था कि इससे निजी क्षेत्र में निवेश और नौकरियां बढ़ेंगी। लेकिन ऐसा कुछ आज तक नहीं हुआ है। अरविंद सुब्रमण्यन के अनुसार इसकी वजह दो बड़े औद्योगिक घरानों को सरकार का खुला संरक्षण है। सरकार इनके हिसाब से नीतियां बना रही है और बदल रही है। जिससे इनकी मोनोपोली टेलिकाॅम सीमेंट बंदरगाह हवाई अड्डों और मीडिया पर बढ़ती जा रही है। इसका परिणाम यह हुआ कि अन्य उद्योगपतियों ने निवेश से हाथ खींच लिया है। सर्वे यह भी बताता है कि भविष्य में भी भारत में निवेश बढ़ने के आसार नहीं हैं। आज के हालात यह है कि निजी कर 60 प्रतिशत तक पहुंच गये हैं जबकि काॅरपोरेट की कर भागीदारी 2014 के 35 के मुकाबले 26 प्रतिशत रह गयी है। इसके साथ ही काॅरपोरेट स्थायी की जगह संविदा यानी ठेके पर नौकरी अधिक देने लगा है।
बेरोज़गारी की हालत यह है कि यूपी में सिपाही के लिये निकली 60,000 नौकरी के लिये 50 लाख तो रेलवे की 35000 जाॅब के लिये 1.25 करोड़ आवेदन आये। लेकिन मोदी सरकार युवाओं के कौशल विकास के लिये 500 कंपनियों में प्रशिक्षण के नाम पर अपना पल्ला झाड़ रही है। महंगाई शिक्षा और चिकित्सा के लिये बजट में कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गयी है। किसानों के लिये हर बार की तरह दावों की बौछार ही अधिक दिखाई देती है। नौकरी पेशा को टैक्स में मामूली छूट दी गयी है। जिससे यह बजट भी निराश करने वाला लग रहा है।
भारत में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 1,70,000 लगभग 70 करोड़ भारतीयों की औसत आय 3,87,000 जबकि सम्पन्न वर्ग की आमदनी 8,40,000 है। आर्थिक असमानता की हालत यह है कि नीचे के 10 से 20 प्रतिशत लोगों की मासिक आमदनी जहां 12000 है वहीं सबसे नीचे जीवन जी रहे 10 प्रतिशत भारतीयों की आय मात्र 6000 तक मानी जाती है। बाकी के 20 से 50 प्रतिशत लोग नीचे के 10 से 20 प्रतिशत वाले कम आय वाले लोगों से मामूली ही बेहतर हालत मेें हैं।
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों से हिसाब से 22 करोड़ तो नीति आयोग के अनुसार लगभग 16 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुज़ार रहे हैं। इस आंकड़े को मनरेगा के तहत रोज़गार की तलाश कर रहे 15 करोड़ लोगों के रजिस्ट्रेशन से भी समझा जा सकता है। जिनको सरकार ने साल में कम से कम 100 दिन का रोज़गार देने का वादा करने के बावजूद मात्र 50 दिन का औसत काम ही दिया है। जिनको रसोई गैस का निशुल्क कनेक्शन दिया गया था। वे साल में चार रिफिल भी नहीं भरवा पा रहे हैं। एक से दो एकड़ भूमि वाले किसान जो 10 करोड़ से अधिक थे, और पीएम किसान योजना में सम्मान निधि पा रहे थे, नवंबर 2023 घटकर 8 करोड़ के आसपास रह गये हैं। हमारे देश में 35 करोड़ लोगों को पूरा पौष्टिक भोजन भी उपलब्ध नहीं है। 81.5 करोड़ नागरिकों को सरकार 5 किलो अनाज देकर जीवन जीने में सहायता करने को मजबूर है। देश की निचली 50 प्रतिशत आबादी की सालाना आमदनी 50 हज़ार रूपये होने के बावजूद वो कुल जीएसटी का 64 प्रतिशत चुका रही है। जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत इसमें मात्र 3 प्रतिशत भागीदारी कर रहे हैं।
अगर क्रय मूल्य समता यानी पीपीपी के आधार पर देखा जाये तो हमारी यह 2100 अमेरिकी डाॅलर है। जबकि यूके की 49,200 और अमेरिका की 70,000 है। अगर देश के लोग गरीब हैं तो दुनिया में जीडीपी पांचवे तीसरे नंबर पर ही नहीं नंबर एक हो जाने पर भी क्या हासिल होगा? यह एक तरह से भोली सीधी जनता को गुमराह करने का एक राजनीतिक झांसा ही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार की नोटबंदी देशबंदी और जीएसटी बिना विशेषज्ञों की सलाह लिये बिना सोचे समझे और जल्दबाज़ी में लागू करने से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहंुचा है जिससे यह वर्तमान में जहां खुद पहंुचने वाली थी उससे भी पीछे रह गयी है। इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि जिस देश में शांति भाईचारा समानता निष्पक्षता धर्मनिर्पेक्षता न्याय नहीं होगा वहां शांति नहीं रह सकती और जब शांति नहीं होगी तो ना विदेशी निवेश आयेगा और ना ही स्थानीय स्वदेशी कारोबार से अर्थव्यवस्था बढे़गी।
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*
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