Saturday, 11 April 2015

रेप क्यों नहीं रुके ?


सख़्त कानून का नतीजा है बलात्कार के बाद महिलाओं की हत्या?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
बढ़ते रेपः कानून नहीं सिस्टम व समाज बदलने की ज़रूरत पहले!
    दिसंबर 2012 में जब दिल्ली में निर्भया के साथ गैंगरेप हुआ और पूरे देश में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन व हंगामा मचा तो सरकार ने जनता का गुस्सा भांपकर कानून सख्त करने का वादा किया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस जे एस वर्मा की अध्यक्षता में सुझाव देने के लिये एक आयोग बनाया गया जिसने बलात्कारियों को फांसी तो नहीं लेकिन पहले से सख़्त सज़ा देने का सुझाव दिया जिसको सरकार ने मान लिया। इसके बाद यह मामला रफा दफा हो गया। अगर आप हमारे लेखों का अध्ययन करें तो हमने उसी समय दो लेख लिखे थे जिनका शीर्षक था ‘‘बढ़ते रेप: कानून नहीं सिस्टम बदलने की ज़रूरत है’’ और दूसरा आर्टिकिल था- ‘‘कानून और सिस्टम ही नहीं समाज को भी बदलना होगा’’।
    इसे विडंबना ही कहिये कि उत्तरप्रदेश के एक पिछड़े ज़िले बिजनौर के एक मामूली कस्बे नजीबाबाद में बैठे एक अदना से अख़बार पब्लिक ऑब्ज़र्वर के संपादक की आवाज़ सत्ता के उूंचे मचान पर बैठे सत्ताधीश कहां सुनने वाले थे? आधुनिक तकनीक में भरोसा करने वाले आज के पीएम मोदी जी ने तो इस बारे में जनता के सुझाव नेट पर पीएमओ की वैबसाइट बनाकर सराहनीय पहले की है। हमने उसी समय यह आशंका व्यक्त की थी कि कानून को सख़्त करके बलात्कारों को नहीं रोका जा सकता क्योंकि इससे उल्टा परिणाम यह आ सकता है कि बलात्कार जैसे जघन्य और घिनौना अपराध करने वाले सख़्त सज़ा से बचने के लिये बलात्कार पीड़िताओें की कहीं हत्या न करने लगें? संयोग की बात देखिये हमारी यह आशंका आज अक्षरशः सही साबित हो रही है।
    कहीं यूपी के बदायूं में दो दलित बहनों को बलात्कार का शिकार बनाकर दबंग सबूत मिटाने को पेड़ से लटकाकर फांसी दे देते हैं तो लखनउू में एक विधवा के साथ गैंगरेप करके बलात्कारी इतनी बेदर्दी से उसकी पिटाई करते हैं कि कालेज का मैदान खून से लाल हो जाता है। दिल्ली में बलात्कार के बाद एक लड़की के गुप्तांग में कांच की बोतल डाल कर उसको मरने के लिये छोड़ दिया जाता है लेकिन एक भले और बहादुर मुसाफिर की वजह से उसको समय पर अस्पताल पहुंचाने से उसका इलाज शुरू हो जाता है लेकिन वह आज भी मौत और ज़िंदगी के बीच झूल रही है। बंगलूर में एक मासूम बच्ची के साथ सामूहिक वहशी हरकत होती है और पुलिस घटना के तीन सप्ताह बाद भी हवा में तीर चलाती रहती है। अस्पताल में सरकारी डाक्टरों के रूख़ से लेकर अदालतों की कछुवा चाल से चलने वाली कानूनी कार्यवाही पर कहीं भी कोई असर नहीं पड़ा है नये कानून का।
    हम ने यह सवाल पहले ही उठाया था कि सिस्टम को ठीक किये बिना और समाज की सोच बदलने बिना रेप के मामले में बलात्कारी के लिये फंासी की सज़ा का प्रावधान करना भी ठीक ऐसा ही होगा जैसे विदेश में छिपे किसी आतंकवादी के खिलाफ कोर्ट का सज़ा ए मौत का फरमान। जब कोई कानून या फैसला लागू ही नहीं होगा तो उसका सख्त या मुलायम होने का क्या महत्व रह जाता है? सच तो यह है कि कुछ दिन इस तरह के मामलों की चर्चा होने के बाद फिल्म अभिनेत्री और सांसद जया बच्चन के अनुसार सब भूल जायेंगे कि इस मामले के दोषियों का क्या हुआ और वह पीड़ित लड़की किस हाल में जी रही है? दरअसल सरकार और मीडिया को औरतों के अधिकारों और सुरक्षा की याद ही तब आती है जब किसी के साथ कोई बड़ा मामला हो जाता है।
    किसी महिला के साथ बलात्कार या छेड़छाड़ की वीभत्स घटना घटने के बाद अगली घटना घटने तक मीडिया और सरकार शांत होकर मानो अगली ऐसी ही घटना का इंतज़ार करते रहते हैं। हकीकत यह है कि बलात्कार, हत्या और दंगे जैसे मामले होते ही इसलिये हैं कि हमारी पूरी व्यवस्था अपराधियों का साथ देती नज़र आती है। सत्ताधीश अगर वास्तविकता जानना चाहते हैं तो आम आदमी बनकर थाने जायें वहां सबसे अधिक अपराध होते हैं। बलात्कार पीड़ित तो क्या आम आदमी थाने जाने से भी डरता है जबकि अपराधी, माफिया या दलाल अकसर पुलिस के साथ मौज मस्ती करते देखे जाते हैं। पुलिस रपट भी तभी दर्ज करती है जब मजबूरी आ जाये मिसाल के तौर पर जेब गर्म की जाये या कोई बड़ी असरदार सिफारिश आ जाये।
    रूचिका गिरहोत्रा, जेसिका लाल और प्रियदर्शिनी मटटू कांड इसके गवाह हैं कि जब तक मीडिया ने हल्ला नहीं काटा तब तक पुलिस ने इन मामलों में गंभीरता नहीं दिखाई। छोटे मामलों को तो पुलिस मीडिया में चर्चा ना होने या कम होेने से भाव ही नहीं देती और बड़े अपराधों को हर हाल में दबाना चाहती है क्योंकि जिस थाने में ज़्यादा केस दर्ज होते हैं उसके थानेदार को ना केवल एसपी डीएम की डांट खानी पड़ती है बल्कि उसका प्रमोशन तक इस आधार पर रोक दिया जाता है। बलात्कार के मामले में फांसी की सज़ा देने का मतलब है जो केस पुलिस पहले एक लाख रू0 में आरोपी को बचाने में तय कर लेती थी उसकी कीमत बढ़ाकर दो लाख कर देना।
    प्रियदर्शिनी मट्टू के मामले में आरोपी एक बडे़ पुलिस अधिकारी का बेटा होने से पुलिस ने आखि़री दम तक सबूतों को या तो बदल दिया या फिर जमकर छेड़छाड़ कर जज को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि वह जानते हैं कि आरोपी ने ही रेप किया है लेकिन पुलिस के जानबूझकर सबूत मिटाने या छिपाने से वह मजबूर हैं कि आरोपी को सज़ा ना दें। राजनेताओं और प्रभावशाली लोगों के मामलें में भी पुलिस ऐसा ही करती है। जब लोगों का विश्वास ही कानून व्यवस्था से उठ चुका हो तो न्याय कैसे होगा? इसके बाद मेडिकल करने वाले डाक्टर की जेब गर्म कर चाहे जो लिखाया जा सकता है और सरकारी वकील तो शायद होते ही आरोपी से हमसाज़ होने के लिये हैं? गवाहों को खुद पुलिस डराती धमकाती है, ऐसे में अपराधी तो निडर होकर ज़मानत के बाद घूमते हैं।
     फांसी या चौराहे पर गोली मारने की बात करने वालों से पूछा जाये कि जिन देशों मे सज़ा ए मौत है ही नहीं वहां अपराध ना के बराबर क्यों हैं? कई देश हैं जहां आयेदिन अपराधियों को फांसी पर लटकाया जा रहा है वहां आज भी अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे। खूद हमारे देष में हत्या के लिये फांसी की सज़ा है लेकिन क्या हत्यायें रूक गयीं? नहीं बिल्कुल नहीं । जिस देश में आतंकवादी कानून, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और दहेज़ एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा हो वहां सज़ा कड़ी करने से नहीं पूरा सिस्टम ईमानदार और ज़िम्मेदार बनाने से ही सुधार हो सकता है।
     हमारे नेता खुद बाहुबल, कालाधन, सत्ता और पुलिस का खुलकर गलत इस्तेमाल करते हैं। आज लगभग सारे नेता ही नहीं अधिकांश अधिकारी, पत्रकार, वकील, उद्योगपति, शिक्षक, व्यापारी, इंजीनियर, डॉक्टर, जज, साहित्यकार और कलाकार से लेकर समाज की बुनियाद समझे जाने वाला वर्ग तक आरोपों के घेरे में आ चुके हैं, ऐसे में कानून ही नहीं समाज को अपनी सोच और व्यवस्था बदलकर ही ऐसी घटनाओं को रोकने का रास्ता मिल सकेगा क्योंकि इस तरह की घिनौनी वारदात तो मात्र लक्षण हैं उस रोग का जो हमारे सारे सिस्टम और समाज को घुन की तरह खा रहा है। इसलिये सुधार भी वहीं करना होगा।
0 लड़ें तो कैसे लड़ें मुक़दमा उससे उसकी बेवपफाई का,
  ये दिल भी वकील उसका ये जां भी गवाह उसकी।















l[+r dkuwu dk urhtk gS cykRdkj ds ckn efgykvksa dh gR;k\
          &bd+cky fganqLrkuh
c<+rs jsi% dkuwu ugha flLVe o lekt cnyus dh t+:jr igys!
    fnlacj 2012 esa tc fnYyh esa fuHkZ;k ds lkFk xSaxjsi gqvk vkSj iwjs ns'k esa blds f[kykQ fojks/k izn'kZu o gaxkek epk rks ljdkj us turk dk xqLlk Hkkaidj dkuwu l[r djus dk oknk fd;kA blds ckn lqizhe dksVZ ds fjVk;MZ tt tfLVl ts ,l oekZ dh vè;{krk esa lq>ko nsus ds fy;s ,d vk;ksx cuk;k x;k ftlus cykRdkfj;ksa dks Qkalh rks ugha ysfdu igys ls l[+r lt+k nsus dk lq>ko fn;k ftldks ljdkj us eku fy;kA blds ckn ;g ekeyk jQk nQk gks x;kA vxj vki gekjs ys[kksa dk vè;;u djsa rks geus mlh le; nks ys[k fy[ks Fks ftudk 'kh"kZd Fkk ^^c<+rs jsi % dkuwu ugha flLVe cnyus dh t+:jr gS** vkSj nwljk vkfVZfdy Fkk& ^^dkuwu vkSj flLVe gh ugha lekt dks Hkh cnyuk gksxk**A bls foMacuk gh dfg;s fd mRrjizns'k ds ,d fiNM+s ft+ys fctukSj ds ,d ekewyh dLcs uthckckn esa cSBs ,d vnuk ls v[k+ckj ifCyd vkWCt+oZj ds laiknd dh vkokt+ lRrk ds mwaps epku ij cSBs lRrk/kh'k dgka lquus okys Fks\ vk/kqfud rduhd esa Hkjkslk djus okys vkt ds ih,e eksnh th us rks bl ckjs esa turk ds lq>ko usV ij ih,evks dh oSclkbV cukdj ljkguh; igys dh gSA geus mlh le; ;g vk'kadk O;Dr dh Fkh fd dkuwu dks l[+r djds cykRdkjksa dks ugha jksdk tk ldrk D;ksafd blls mYVk ifj.kke ;g vk ldrk gS fd cykRdkj tSls t?kU; vkSj f?kukSuk vijk/k djus okys l[+r lt+k ls cpus ds fy;s cykRdkj ihfM+rkvkssa dh dgha gR;k u djus yxsa\ la;ksx dh ckr nsf[k;s gekjh ;g vk'kadk vkt v{kj'k% lgh lkfcr gks jgh gSA dgha ;wih ds cnk;wa esa nks nfyr cguksa dks cykRdkj dk f'kdkj cukdj ncax lcwr feVkus dks isM+ ls yVdkdj Qkalh ns nsrs gSa rks y[kumw esa ,d fo/kok ds lkFk xSaxjsi djds cykRdkjh bruh csnnhZ ls mldh fiVkbZ djrs gSa fd dkyst dk eSnku [kwu ls yky gks tkrk gSA fnYyh esa cykRdkj ds ckn ,d yM+dh ds xqIrkax esa dkap dh cksry Mky dj mldks ejus ds fy;s NksM+ fn;k tkrk gS ysfdu ,d Hkys vkSj cgknqj eqlkfQj dh otg ls mldks le; ij vLirky igqapkus ls mldk bykt 'kq: gks tkrk gS ysfdu og vkt Hkh ekSr vkSj ft+anxh ds chp >wy jgh gSA caxywj esa ,d eklwe cPph ds lkFk lkewfgd og'kh gjdr gksrh gS vkSj iqfyl ?kVuk ds rhu lIrkg ckn Hkh gok esa rhj pykrh jgrh gSA vLirky esa ljdkjh MkDVjksa ds :[k+ ls ysdj vnkyrksa dh dNqok pky ls pyus okyh dkuwuh dk;Zokgh ij dgha Hkh dksbZ vlj ugha iM+k gS u;s dkuwu dkA ge us ;g loky igys gh mBk;k Fkk fd flLVe dks Bhd fd;s fcuk vkSj lekt dh lksp cnyus fcuk jsi ds ekeys esa cykRdkjh ds fy;s Qaklh dh lt+k dk izko/kku djuk Hkh Bhd ,slk gh gksxk tSls fons'k esa fNis fdlh vkradoknh ds f[kykQ dksVZ dk lt+k , ekSr dk QjekuA tc dksbZ dkuwu ;k QSlyk ykxw gh ugha gksxk rks mldk l[r ;k eqyk;e gksus dk D;k egRo jg tkrk gS\ lp rks ;g gS fd dqN fnu bl rjg ds ekeyksa dh ppkZ gksus ds ckn fQYe vfHkus=h vkSj lkaln t;k cPpu ds vuqlkj lc Hkwy tk;saxs fd bl ekeys ds nksf"k;ksa dk D;k gqvk vkSj og ihfM+r yM+dh fdl gky esa th jgh gS\ njvly ljdkj vkSj ehfM;k dks vkSjrksa ds vf/kdkjksa vkSj lqj{kk dh ;kn gh rc vkrh gS tc fdlh ds lkFk dksbZ cM+k ekeyk gks tkrk gSA fdlh efgyk ds lkFk cykRdkj ;k NsM+NkM+ dh ohHkRl ?kVuk ?kVus ds ckn vxyh ?kVuk ?kVus rd ehfM;k vkSj ljdkj 'kkar gksdj ekuks vxyh ,slh gh ?kVuk dk bart+kj djrs jgrs gSaA gdhdr ;g gS fd cykRdkj] gR;k vkSj naxs tSls ekeys gksrs gh blfy;s gSa fd gekjh iwjh O;oLFkk vijkf/k;ksa dk lkFk nsrh ut+j vkrh gSA lRrk/kh'k vxj okLrfodrk tkuuk pkgrs gSa rks vke vkneh cudj Fkkus tk;sa ogka lcls vf/kd vijk/k gksrs gSaA cykRdkj ihfM+r rks D;k vke vkneh Fkkus tkus ls Hkh Mjrk gS tcfd vijk/kh] ekfQ;k ;k nyky vdlj iqfyl ds lkFk ekSt eLrh djrs ns[ks tkrs gSaA iqfyl jiV Hkh rHkh ntZ djrh gS tc etcwjh vk tk;s felky ds rkSj ij tsc xeZ dh tk;s ;k dksbZ cM+h vljnkj flQkfj'k vk tk;sA :fpdk fxjgks=k] tsfldk yky vkSj fiz;nf'kZuh eVVw dkaM blds xokg gSa fd tc rd ehfM;k us gYyk ugha dkVk rc rd iqfyl us bu ekeyksa esa xaHkhjrk ugha fn[kkbZA NksVs ekeyksa dks rks iqfyl ehfM;k esa ppkZ uk gksus ;k de gkssus ls Hkko gh ugha nsrh vkSj cM+s vijk/kksa dks gj gky esa nckuk pkgrh gS D;ksasfd ftl Fkkus esa T+;knk dsl ntZ gksrs gSa mlds Fkkusnkj dks uk dsoy ,lih Mh,e dh MkaV [kkuh iM+rh gS cfYd mldk izeks'ku rd bl vk/kkj ij jksd fn;k tkrk gSA cykRdkj ds ekeys esa Qkalh dh lt+k nsus dk eryc gS tks dsl iqfyl igys ,d yk[k :0 esa vkjksih dks cpkus esa r; dj ysrh Fkh mldh dher c<+kdj nks yk[k dj nsukA fiz;nf'kZuh eV~Vw ds ekeys esa vkjksih ,d cMs+ iqfyl vf/kdkjh dk csVk gksus ls iqfyl us vkf[k+jh ne rd lcwrksa dks ;k rks cny fn;k ;k fQj tedj NsM+NkM+ dj tt dks ;g dgus ij etcwj dj fn;k fd og tkurs gSa fd vkjksih us gh jsi fd;k gS ysfdu iqfyl ds tkucw>dj lcwr feVkus ;k fNikus ls og etcwj gSa fd vkjksih dks lt+k uk nsaA jktusrkvksa vkSj izHkko'kkyh yksxksa ds ekeysa esa Hkh iqfyl ,slk gh djrh gSA tc yksxksa dk fo'okl gh dkuwu O;oLFkk ls mB pqdk gks rks U;k; dSls gksxk\ blds ckn esfMdy djus okys MkDVj dh tsc xeZ dj pkgs tks fy[kk;k tk ldrk gS vkSj ljdkjh odhy rks 'kk;n gksrs gh vkjksih ls gelkt+ gksus ds fy;s gSa\ xokgksa dks [kqn iqfyl Mjkrh /kedkrh gS] ,sls esa vijk/kh rks fuMj gksdj t+ekur ds ckn ?kwers gSaA Qkalh ;k pkSjkgs ij xksyh ekjus dh ckr djus okyksa ls iwNk tk;s fd ftu ns'kksa es lt+k , ekSr gS gh ugha ogka vijk/k uk ds cjkcj D;ksa gSa\ dbZ ns'k gSa tgka vk;sfnu vijkf/k;ksa dks Qkalh ij yVdk;k tk jgk gS ogka vkt Hkh vijk/k de gksus dk uke ugha ys jgsA [kwn gekjs ns’k esa gR;k ds fy;s Qkalh dh lt+k gS ysfdu D;k gR;k;sa :d x;ha\ ugha fcYdqy ugha A ftl ns'k esa vkradoknh dkuwu] l'kL= cy fo'ks"kkf/kdkj vf/kfu;e vkSj ngst+ ,DV dk [kqydj nq:i;ksx gks jgk gks ogka lt+k dM+h djus ls ugha iwjk flLVe bZekunkj vkSj ft+Eesnkj cukus ls gh lq/kkj gks ldrk gSA gekjs usrk [kqn ckgqcy] dkyk/ku] lRrk vkSj iqfyl dk [kqydj xyr bLrseky djrs gSaA vkt yxHkx lkjs usrk gh ugha vf/kdka'k vf/kdkjh] i=dkj] odhy] m|ksxifr] f'k{kd] O;kikjh] bathfu;j] MkWDVj] tt] lkfgR;dkj vkSj dykdkj ls ysdj lekt dh cqfu;kn le>s tkus okyk oxZ rd vkjksiksa ds ?ksjs esa vk pqds gSa] ,sls esa dkuwu gh ugha lekt dks viuh lksp vkSj O;oLFkk cnydj gh ,slh ?kVukvksa dks jksdus dk jkLrk fey ldsxk D;ksafd bl rjg dh f?kukSuh okjnkr rks ek= y{k.k gSa ml jksx dk tks gekjs lkjs flLVe vkSj lekt dks ?kqu dh rjg [kk jgk gSA blfy;s lq/kkj Hkh ogha djuk gksxkA
0 yM+sa rks dSls yM+sa eqd+nek mlls mldh csoiQkbZ dk]
  ;s fny Hkh odhy mldk ;s tka Hkh xokg mldhA

No comments:

Post a Comment