मोदी सरकार की यूपी-बिहार के सामने करो या मरो की चुनौती?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0ममता, जयललिता और नवीन से सीख ले सकते हैं सपा-जद यू!
केंद्र में जब से मोदी की सरकार बनी है, विकास और कानून व्यवस्था को लेकर पूर देश और खासतौर पर यूपी बिहार में चर्चा तेज़ हो गयी है। सपा और जनतादल यू की राज्य सरकरों के सामने भाजपा ने कथित विकास की जोरदार चुनौती पेश कर दी है। हालांकि ऐसा नहीं है कि यूपी और बिहार में अचानक यह हालात पैदा हुए हों लेकिन जिस तरह से मोदी ने गुजरात का विकास मॉडल देश के सामने रखकर दिल्ली की सत्ता पर भाजपा के अपने बहुमत के दम पर कब्ज़ा किया है उससे इन दोनों प्रदेशोें में सत्ता में बैठे दलों पर भाजपा का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है। यूपी की 80 में से 73 संसदीय सीटें जीतकर भाजपा ने एक तरह से सपा सरकार की विदाई का इंतजाम कर दिया है। अब यह अलग बात है कि सपा का कार्यकाल पूरा होने पर उसकी नालायकी और नाकारापन से सत्ता में आने का बिना संघर्ष और बगैर आंदोलन के सपना देख रही बहनजी को इससे गहरा सदमा लगा है।
इतना ही नहीं पूरे प्रदेश में लोकसभा की एक भी सीट ना मिलने से उनकी रातों की नींद और दिन का चैन खत्म हो गया है। बसपा की सोशल इंजीनियरिंग इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा ने साम दाम दंड भेद के चौतरफा हमले से खत्म कर दी है। बसपा का अगर पिछले चार चुनाव का रिकार्ड देखें तो पता चलता है कि 2007 में उसे 30.43, 2009 में 27.42, 2012 में 25.91 और 2014 में 19.82 प्रतिशत वोट मिले हैं। इस से साबित होता है कि उसका जनसमर्थन लगातार कम होता जा रहा है। इसकी वजह यह है कि जब तक ब्रहम्णों के पास भाजपा का विकल्प उपलब्ध नहीं था तब तक वे सपा की जगह बसपा को सत्ता में लाने के लिये उसके साथ गये लेकिन जैसे ही उनको भाजपा प्रभावशाली विकल्प बनती नज़र आई वे उसके साथ हो लिये। ऐसा ही मुसलमानों के साथ हुआ।
वे मूलरूप से सपा का वोटबैंक रहे हैं लेकिन जब सपा से कुछ नाराज़ हुए तो आंशिक रूप से बसपा का दामन थामने लगे। खासतौर पर वहां जहां बसपा मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा करती थी। इसके अलावा मुसलमान बसपा को उन सीटों पर भी समर्थन दे देते थे जहां उनको भाजपा को हराने में वह सक्षम लगती थी। 2007 के बाद जब बसपा पूरे बहुमत से चुनाव जीतकर यूपी की सत्ता में आई तो उसने दलितों का एजेंडा सबसे उूपर रखा। कई स्थानों पर उसने गैर दलित हिंदू जातियों को भी यह अहसास कराया कि उसके लिये दलित प्राथमिकता में सबसे उूपर है। इसी का नतीजा था कि बसपा का दलित वोटबैंक तो कमोबेश उसके साथ चट्टान की तरह खड़ा रहा लेकिन अन्य हिंदू मुस्लिम वोट के साथ छोड़ जाने से उसको 2014 के चुनाव में उसे 0 0 मिला। इस पर भी बहनजी अपनी गल्ती और भूलसुधार की बजाये तानाशाही लहजे में दावा करती हैं कि ब्रहम्ण और मुसलमान ने हमारे साथ धोखा किया।
यह बात समझ से बाहर है कि आप किसी समाज या जाति का वोट लेकर सरकार तो बनालेंगी और बाद में उनको ठेंगा दिखाकर मनमानी करने लगेंगी तो वह वोट आगे आपके साथ क्यों रहेगा? बजाये भूल सुधार के अब बहनजी एक और आत्मघाती कदम उठाने जा रही हैं कि वे यूपी में जल्दी ही होने वाले 12 उपचुनाव में अपने बसपा प्रत्याशी नहीं खड़े करेंगी। इससे होगा यह कि बसपा का दलित वोटर सपा को जीतने से रोकने के लिये ना चाहते हुए भी भाजपा के पाले में चला जायेगा। इससे पहले संसदीय चुनाव में भाजपा नेता बड़ी कामयाबी से दलितों को यह समझाने में सफल रहे हैं कि यह लोकसभा का चुनाव है इसमें बहनजी पीएम पद की प्रत्याशी नहीं हैं लेकिन जब यूपी में विधानसभा का चुनाव आयेगा तो पहले की तरह बीजेपी बसपा की सीटें कम आने पर सपोर्ट करके बहनजी को सीएम बनवादेगी।
भाजपा ने गैर जाटव दलितों को भी यह समझाया कि बहनजी जब भी सत्ता में आती हैं, केवल जाटवों के लिये काम करती हैं। भाजपा का यह भी दावा था कि जब पूरे देश का विकास होगा तो तभी दलितों का भी विकास होगा और उनको रोज़गार मिलेगा। भाजपा ने दलितों को अपने पक्ष में करने के लिये यह भी चाल चली कि अगर मोदी पीएम नहीं बने तो बहनजी के ध्ुारविरोधी मुलायम सिंह अधिक सीटेें जीतकर कांग्रेेस के सपोर्ट से सरकार बना सकते हैं। मुलायम सिंह को रोकने के लिये एक ही रास्ता है-भाजपा। उधर बिहार में लालू, पासवान और कांग्रेस के गठबंध्न से केवल पासवान के भाजपा के साथ जाने से भाजपा का खेल बन गया और राजद का पूरी तरह से बिगड़ गया। यही वजह है कि नीतीश ने तत्काल इस्तीफा देकर लालू के सहयोग से फिलहाल सरकार बचाने में कामयाबी हासिल कर ली है।
सपा और जदयू को यह बात दीवार पर लिखी इबारत की तरह नज़र आ रही है कि ममता, जयललिता और नवीन पटनायक की तरह विकास और सबके हित का काम करके ही अब मोदी और भाजपा की चुनौती से निबटा जा सकता है। साथ ही यह बात भी साफ है कि अगर जदयू की सरकार गिरी तो तुरंत चुनाव होने पर भाजपा वहां सत्ता में आ सकती है। ऐसे ही यूपी में सपा की अखिलेश सरकार को यह बात समझ में आ गयी है कि लैपटॉप और साड़ी की रेवड़िया बांटने से नहीं विकास और कानून व्यवस्था सही करने से वोट मिल सकते है। सपा सरकार का इस बार का बजट बता रहा है कि वह अब ढांचागत सुधार, बिजली, शिक्षा और चिकित्सा पर ज्यादा खर्च करने जा रही है। यह अलग बात है कि अब यूपी और बिहार की सरकारें अपने शेष बचे कार्यकाल में कितना विकास कर पाती हैं?
यह तो मानना ही होगा कि मोदी ने केंद्र में सरकार बनने पर जिस तरह से शुरूआती कदम उठाये हैं उनसे यह संदेश जा रहा है कि यह सरकार विकास का इरादा रखती है और भ्रष्टाचार व महंगाई पर सख़्ती से रोक लगाने की कोशिश करेगी। हालांकि मंत्रियों के निजी सचिवों की नियुक्ति, रेल किराया बढ़ोत्तरी और जमाखोरों पर लगाम ना लगा पाने से बढ़ती महंगाई मोदी सरकार को भी अभी से दाल आटे का भाव बता रही है लेकिन एनडीए सरकार को अभी काम करने को और समय देना होगा। मोदी को यह भी याद रखना होगा कि देश की जनता खासतौर पर युवाओं ने उनको बड़ी उम्मीदों से वोट दिया है।
0 मेरे बच्चे तुम्हारे लफ्ज़ को रोटी समझते हैं,
ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।।
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