हाशिमपुरा कांडः 28 साल बाद भी न्याय न मिलने पर सन्नाटा?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0‘न्याय सबको, तुष्टिकरण किसी का नहीं’ नारा देने वाले भी चुप।
हर समाज और देश में कट्टर और उदार सभी तरह के कम और ज्यादा लोग सदा से रहते रहे हैं। हम जैसे उदार मानवीय और निष्पक्ष सोच के लोग उस दिन से कट्टर और आतंकवाद समर्थक सोच के लोगों को जवाब देते देते परेशान हैं जिस दिन से मेरठ के हाशिमपुरा हत्याकांड पर कोर्ट का पीएसी के सभी 19 आरोपियोें को बरी करने का विवादित फैसला आया है। 22 मई 1987 को यूपी के मेरठ ज़िले के हाशिमपुरा में 42 मुस्लिम युवकों को मारने का आरोप पीएसी पर लगा था। इस मामले को लेकर मुस्लिमों के दो वर्ग रहे हैं। एक का कहना था कि कानून देर से ही सही इस हत्याकांड में आज नहीं तो कल इंसाफ हर हाल में करेगा इसलिये किसी को भी कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिये।
दूसरा वर्ग जो तादाद में भले ही बहुत कम हो लेकिन वह आतंकवाद और कट्टर सोच का समर्थक माना जाता है उसका शुरू से ही यह दावा रहा है कि यह हत्याकांड अचानक या अंजाने में नहीं हुआ बल्कि सोची समझी साज़िश के तहत दंगों में भारी पड़ने वाले मुस्लिम समाज को आतंकित करने के लिये बाकायदा अंजाम दिया गया था लिहाज़ा इसमें कानून का सहारा न लेकर आत्मघाती तरीके से बदला लेकर हत्यारोें और उनके आकाओं को सबक सिखाया जाना चाहिये जिससे भविष्य में कोई इस तरह की जुर्रत फिर से करने का दुस्साहस न करे लेकिन आज 28 साल बाद जो फैसला अदालत से आया उसमें कानून का सम्मान करने वाला उदार और सेकुलर पक्ष एक तरह से बुरी तरह मात खा गया।
आज कानून हाथ में लेकर आतंकवाद का खुला समर्थन और अपने बल पर सज़ा देने को ही न्याय और दुश्मनों को कड़ा संदेश देने की मांग करने वाला कट्टरपंथी वर्ग इस बात की दुहाई दे रहा है कि देश का कानून अंधा और हमारी सरकारी व्यवस्था अमीर ताक़तवर और तिगड़मी बेईमान लोगों के हाथ का खिलौना बन चुकी है। अब हम जैसे उदार मानवीय सोच व कानून का सम्मान करने वाले और देश की न्यायिक प्रणाली पर पूरा भरोसा करने वाले निष्पक्ष लोग मुस्लिम समाज को बात बात पर हिंसा और बदले की कार्यवाही के लिये गैर कानूनी तरीके से भड़काने वालों के सामने ला जवाब हैं।
और तो और इस निर्णय को आये दो सप्ताह बीतने वाले हैं लेकिन दुख और हैरत इस बात की है कि जिन सेकुलर दलों की सरकार के रहते यह वीभत्स हत्याकांड हुआ वे तो आरोपियों को बचाने में पहले दिन से लगी ही रहीं, जिनका नारा रहा है ‘न्याय सबको, तुष्किरण किसी का नहीं’ वे भाजपा वाले भी ऐसी रहस्यमयी चुप्पी साध्ेा हैं जैसे मुसलमान इस देश के नागरिक न हों या ये नारा केवल वे हिंदुओं के लिये ही लगाते रहे हों। यह माना कि कोर्ट ने जो फैसला दिया वह उपलब्ध तथ्यों, तर्कों, गवाह और सबूत के आधार पर कानून जो कर सकता था वही किया लेकिन समय पर आती जाती रही विभिन्न दलों की सरकारों की नालायकी, आरोपियों को बचाने को की गयी लापरवाही और जानबूझकर की गयी देरी यह सच्चाई और हकीकत चीख़ चीख़कर बयान कर रही है कि राजनेताओं प्रशासनिक मशीनरी और पुलिस व सुरक्षा बलों को लेकर उन सब दलों की नीति लगभग एक सी है चाहे वे विपक्ष में रहकर जो भी दावे करती हों।
रात के अंध्ेारे मेें हेलमेट पहने पीएसी के जवानों को कत्लेआम करते पहचानना जो मरने से बच गये उनके लिये तो कठिन हो सकता है लेकिन किस क्षेत्र में उस दिन पीएसी की कौन सी बटालियन ड्यूटी पर गयी थी। किसके आदेश पर गयी थी और किसके कहने पर उसने ट्रक में चुन चुनकर मुस्लिम नौजवानों को भरा, फिर जंगल में दूर ले गयी, फिर वाहन से उतारकर गोलियों से भून डाला, फिर गंग नहर और हिंडन नदी में उनकी लाशों को बहा दिया गया? यह सरकार न जानती हो ऐसा नहीं माना जा सकता। ऐसे ही ढेर साले सवाल उस समय के गाज़ियाबाद के एसपी वी एन राय सहित अनेक निष्पक्ष हिंदू समाज के बुध्दिजीवियों ने भी उठाये हैं जिन पर तत्कालीन सत्ताधारी दल कांग्रेस से लेकर आज की मुसलमानों की कथित हमदर्द समाजवादी पार्टी की सरकार भी अपराधिक चुप्पी साधे बैठी है।
मरने वाले मुस्लिम नौजवानों में से संयोग से कुछ गोली लगने के बाद भी ज़िंदा बच गये जिससे यह मामला खुला लेकिन तीन दशक बाद भी इंसाफ इसलिये नहीं मिला क्योंकि इसमें तत्कालीन सत्ता में बैठे राजनेताओं की शह होने की बू आ रही है। हालांकि यह दावा नहीं किया जा सकता कि जो मुस्लिम नौजवाद मारे गये सब बेकसूर हों लेकिन उनके दोषी होने पर भी उनको सज़ा देने का यह गैर कानूनी तरीका किसी भी तर्क से ठीक नहीं ठहराया जा सकता बल्कि सच और आशंका तो यह है कि ऐसे हत्याकांडों के बाद इतने लंबे समय तक न्याय न होने पर देश की दुश्मन ताक़तें मुसलमानों के एक वर्ग को आतंकवाद के रास्ते पर भटकाकर ले जाने में कामयाब भी हो सकती हैं जो बड़ा ख़तरा बन सकता है।
यह अजीब विडंबना है कि एक तरफ दीमापुर में न्यायिक हिरासत में बलात्कार के आरोप में जेल में बंद एक मुस्लिम युवक को पुलिस हज़ारों लोगों की उग्र भीड़ के हवाले कर देती है जिससे उसको नंगा करके कई किलोमीटर घसीटकर जानवर से भी बदतर मौत मार दिया जाता है और दूसरी तरफ किसी मुस्लिम पर पुलिस द्वारा आतंकवाद का आरोप मात्र लगने से ही कुछ वकील साहेबान अपने ही साथी वकीलों को आरोपी की पैरवी करने से भी जबरन रोकते हैं। इसका मतलब यह है कि किसी को मुजरिम साबित करने के लिये हमारे ही संविधान द्वारा बनाई गयी अदालतों में मुकदमा चलाने की कोई ज़रूरत नहीं है? अगर वास्तव में ऐसा ही है तो और मामलों में आरोपी को अपने कानूनी बचाव का अवसर और वकील रखने की सुविधा क्यों दी जाती है?
क्या केवल मुसलमानों और आतंकवाद के मामले में ही यह दोहरा रूख़ अपनाया जा सकता है क्योेंकि जब साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित पर आतंकी घटनाओं का आरोप लगता है तो हिंदू संगठन अदालत के बाहर उनके निर्दाेष होने का दावा करते हुए उन पर केस चलाये बिना उनकी बाइज़्ज़त रिहाई की मांग करते हैं। उनको वकील भी उपलब्ध कराने पर किसी को कोई एतराज़ नहीं होता? इसका मतलब आतंकवादी सिर्फ मुसलमान ही होे सकता है? कुछ लोग ऐसा कैसे मान सकते हैं? तर्क और तथ्य तो यह प्रमाणित करते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। समझ में नहीं आता यह कौन सा समानता न्याय और निष्पक्षता का संवेदनशील मानवीय गरिमा का रास्ता है?
0हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता ।।
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