भूमि अधिग्रहण क़ानूनः विपक्ष का विरोध के लिये विरोध?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0विकास और किसान दोनों का ख़याल रखना होगा सरकार को।
‘सबका साथ सबका विकास’ जिस नारे को लेकर मोदी जीते आज भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन को लेकर विपक्ष ने उनकी ऐसी छवि बना दी है जिससे यह लग रहा है कि वे किसान विरोधी और कारपोरेट समर्थक हैं। इस छवि को नुकसान भाजपा को दिल्ली के चुनाव में भी पहुंच चुका है। यह भी अनुमान है कि आगे भी जो चुनाव राज्यों में होंगे अब भाजपा को मोदी लहर का उतना लाभ नहीं होगा जितना हरियाणा झारखंड कशमीर और महाराष्ट्र में हो चुका है। इससे पहले मोदी सरकार के पहले आम बजट को लेकर भी ऐसा संदेश गया कि वे पूंजीपति समर्थक और आम आदमी के विरोधी हैं। साथ ही आयकर की सीमा न बढ़ने से मीडियम क्लास भी उनसे ख़फ़ा होता नज़र आया।
अगर थोड़ा पीछे चलें तो हम पायेंगे भूमि अधिग्रहण का मुद्दा हमारे समाज में इतना महत्वपूर्ण और संवेदनशील है कि पश्चिम बंगाल में 34 साल पुरानी वाम मोर्चा सरकार को सिंगूर और नंदीग्राम में टाटा की नैनो के लिये जबरन ज़मीन छीनने के अकेले कदम ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हुए सत्ता से बेदखल कर दिया। इससे पहले यूपी में भट्टा पारसोल की ज़मीन किसानों से जबरन छीनने में मायावती सरकार का भ्रष्टाचार के और मुद्दों के साथ साथ बड़ा हाथ रहा है। महाराष्ट्र में कांग्रेस एनसीपी सरकार का उद्योगपतियों की तरफ झुकना और सिंचाई घोटालों के बावजूद कर्ज में डूबे किसानोें की आत्महत्या पर कान न देना भी वहां से उनकी सरकार की विदाई का बड़ा कारण माना जाता है। इससे पहले यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में किसानों की बड़े पैमाने पर कर्ज माफी उसकी दोबारा जीत की बड़ी वजह बनी थी।
2010 में ही 15964 किसान राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार आत्महत्या कर चुके हैं। एक महीने में आन्ध्रा में 90 किसान और एक सप्ताह मंे ही विदर्भ मंे 17 किसान अपनी जान दे चुके हैं। पंजाब के 89 फीसदी किसान कर्ज में डूबे हैं। प्रति कृषि परिवार पर पौने दो लाख रूपये का कर्ज यानी प्रति हेक्टेयर भूमि पर 50,140 रूपये का कर्ज है। 1995 से 2010 के बीच कर्ज़ में फंसे ढाई लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश का हर दूसरा किसान कर्ज़दार है। अधिकतर कृषि अनुसंधान केंद्र बंद पड़े हैं। कृषि अनुसंधान के लिये अमेरिका के साथ 1000 करोड़ का समझौता किया गया है। इसके लिये हमें 400 करोड़ रू. देकर अपने कृषि वैज्ञानिकों को अमेरिका से ज्ञान दिलाना है जिससे मोनसेंटो और वॉलमार्ट जैसी मल्टीनेशनल कम्पनियां अपने स्वार्थ साध सके।
कृषि क्षेत्र में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में लगातार सब्सिडी कम करती जा रही सरकार यह सोचने का तैयार नहीं है कि अमेरिका, चीन और यूरूप के देश खेती में उल्टे सब्सिडी बढ़ा क्यों रहे हैं। लुधियान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा जनवरी 2010 में जारी शोध के अनुसार पंजाब के 40 फीसदी छोटे किसान या तो ख़त्म हो गये या फिर खेत मज़दूर बन चुके हैं। वहां सिंचाई के परंपरागत तरीकों से मंुह मोड़कर 15 लाख नलकूप लगाने का नतीजा यह हुआ कि भूजल स्तर 20 फुट नीचे चला गया। मल्टीनेशनल कम्पनियों के दबाव में लगातार उर्वरक कारखाने बंद किये जा रहे हैं। आज हालत यह है कि डाय ऑफ पोटाश यानी डीएपी की कुल मांग का 90 फीसदी और म्यूरेट ऑफ पोटाश की डिमांड का 100 प्रतिशत आयात किया जा रहा है। इसके साथ ही इंपोर्टेड पोटाश की कीमत में दोगुने से अधिक और डीएपी के मूल्य में 83 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुयी है।
उधर सरकार उर्वरक सब्सिडी घटाती जा रही है और जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान घटकर 14.4 प्रतिशत ही रह गया है। महाराष्ट्र के यवतमाल के कोठवाडा के 45 वर्षीय किसान गजानन ने आत्महत्या से पहले अपने सुसाइड नोट में कांग्रेस को वोट ना देने की अपील की थी। भारत में 52 फीसदी लोग आज भी कृषि से जुड़े हैं लेकिन पहले जीडीपी में 50 फीसदी योगदान करने वाली खेती का प्रतिशत लगातार घट रहा है। 2004/05 में जहां यह 19 फीसदी था वहीं 2008/09 में 15.7 और अब 14.6 फीसदी रह गया है। इसी का नतीजा है कि 2002 में प्रति व्यक्ति खाद्यान उपलब्धता 495 ग्राम थी वही 2008 में 436 ग्राम रह गयी। एक अनुमान के अनुसार 2020 तक हमारी आबादी 130 करोड़ और खाद्यान आवश्यकता 3400 लाख टन होगी लेकिन 1990 से 2007 के बीच कृषि उत्पादन वृध्दि दर 1.2 रह गयी जबकि जनसंख्या वृध्दि दर 1.7 से कुछ ही कम है।
हालत यह है कि 40 फीसदी किसान रोज़गार का विकल्प मिलने पर खेती छोड़ने को तैयार बैठे हैं। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य्य नीति शोध संस्थान की वर्ल्ड हंगर रिपोर्ट 2011 के मुताबिक 81 देशों की सूची में नेपाल, पाकिस्तान, रवांडा व सूडान जैसे देश भी हम से ऊपर हैं। दुनिया में भुखमरी का शिकार हर पांचवा आदमी भारतीय है। यह हो भी क्यों न? हमारे देश में आज भी 60 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी गांवों और खेती किसानी पर निर्भर करती है। किसान के लिये उसकी ज़मीन कोई मज़दूर की नौकरी नहीं है जो यहां से छिनी तो वहां मिल गयी। मज़दूर को तो उसके रोज़गार से मतलब होता है। अगर पगार पहले से भी अधिक है तो उसको नौकरी छिनने का दुख नहीं बल्कि खुशी होती है।
अच्छी दिहाड़ी और बढ़िया काम करके अधिक कमाई के लिये अपने परिवार को छोड़कर वह गांव कस्बे ज़िले राज्य से न केवल महानगरों में चला जाता है बल्कि कई बार उसको विदेश जाने में भी दिक्कत नहीं होती लेकिन किसान का अपनी पुश्तैनी ज़मीन से एक अलग तरह का रिश्ता होता है। उसका उस ज़मीन से लगाव और अपनापन होता है। उसको वह कम या अधिक ज़मीन आत्निर्भरता सम्मान और स्वाभिमान का अहसास कराती है। यह ठीक है कि सरकार को देश और जनता का विकास करना है तो उसको कारखानों स्कूलों अस्पतालों रक्षा रेलवे बिजली घर और दूसरे सार्वजनिक कामों के लिये ज़मीन तो लेनी होगी। सवाल यह है कि ज़मीन का असली मालिक तो किसान ही है तो सरकार ज़बरदस्ती कैसे कर सकती है? केवल अच्छी कीमत देने से किसान खुश नहीं हो सकता।
अव्वल तो किसान को पर्याप्त और समय पर मुआवज़ा मिलता नहीं और अगर मिल भी जाये तो किसान को मुआवज़े में मिले करोड़ों रूपये भी कुछ ही समय में ख़त्म हो जाते हैं क्योंकि रूपयों से कारोबार करना किसान ही नहीं हर किसी को आता ही नहीं। दूसरे इस भारी भरकम रकम से कई बार परिवार के युवा गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। वह रूपये बैंक में रखकर उसके ब्याज से भी जीवनभर गुज़ारा नहीं कर सकता। उसको उसकी ज़मीन अधिग्रहण कर उसमें लगने वाले प्रोजैक्ट में नौकरी दी जाये तो भी उसका काम चलना मुश्किल है।इसकी वजह यह होती है कि खेती करने वाले का स्वभाव नौकरी करना होता ही नहीं।
सरकार भी किसानोें के वोट से चुनी गयी है इसलिये उसकी ज़िम्मेदारी किसानों के प्रति अधिक है। यह ठीक है कि जो भूमि अधिग्रहण कानून यूपीए सरकार ने बनाया था उसमें कुछ खामियां हो सकती हैं जिसके चलते दो लाख करोड़ से अधिक की कई परियोजनायें सामाजिक प्रभाव और पर्यावरण कारणों के साथ ही किसानों की सहमति अनिवार्य होने से अटकी पड़ी हैं। चुनाव के दौरान जयंती टैक्स और पॉलिसी पैरालेसिज़ को लेकर मोदी ने कांग्रेस की मनमोहन सरकार पर करारे हमले भी किये थे जिससे उनपर उद्योगों के लिये बिना बाधा ज़मीन उपलब्ध कराना और उसके विरोध में ज़मीन मालिक किसानों का कोर्ट जाने का रास्ता बंद करना भी समझ में आता है लेकिन यहां विपक्ष और खासतौर पर कांग्रेस विरोध के लिये विरोध पर उतर आये तो रास्ता बीच से होकर ही निकाला जा सकता है।
मोदी सरकार को अब सत्ता में आकर यह बात बेहतर तरीके से समझ में आ रही होगी कि विपक्ष में रहकर थोक में आरोप दावे और वादे करना और बात है और सत्ता में आने के बाद काम करना कितना मुश्किल है। कोई माने या न माने मोदी सरकार की इमेज भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर किसान विरोधी तो बन ही रही है।
0सिर्फ़ एक क़दम उठा था ग़लत राहे शौक़ में,
मंज़िल थी कि तमाम उम्र मुझे ढंूढती रही ।।
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