*वोटों का बंटवारा ही तो लोकतंत्र है !*
-इक़बाल हिंदुस्तानी
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आजकल 5 राज्यों के चुनाव क्षेत्रीय दलों सहित कांग्रेस और भाजपा के लिये जीने मरने का सवाल बन गये हैं। इनमें भी सबसे बड़े स्टेट यूपी के चुनाव को सब दलोें ने नाक का सवाल बना लिया है। कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी होकर ही जाता है। शुरू में भाजपा ने केंद्र की तरह यहां भी अपने चुनाव का फोकस विकास पर रखने का दावा किया था। लेकिन धीरे धीरे जब उससे इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सका कि उसने केंद्र में रहकर अब तक कौन कौन से विकास के काम किये हैं तो वह फिर से अपने सांप्रदायिक एजेंडे यानी उग्र हिंदुत्व पर लौट आई है। उधर समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अभी तक अपना सारा ज़ोर अब तक किये यूपी के विकास पर लगा रखा है।
अजीब बात यह है कि यूपी आज भी धर्म और जाति की राजनीति से बाहर आता नज़र नहीं आ रहा है। एक तरफ सवर्ण दलित और मुस्लिम व यावद समाज के अधिकांश मतदाताओं ने भाजपा बसपा व सपा का वोटबैंक का तमग़ा लगवाकर अपनी हैसियत एक तरह से चुनाव में ख़त्म कर ली है। वहीं इन चारों वर्गों के वोटों के अलावा पिछड़े वर्ग के मतदाताओं ने खुद को सही मायने में फ्लोटिंग वोट बना रखा है। अब हालत यह है कि सभी प्रमुख दलों की नज़र इस बात पर लगी है कि इस फ्लोटिंग वोट को कैसे अपनी तरफ खींचा जाये? बहुत कम लोगों को पता होगा कि जिन धर्म जाति और वर्ग के लोगों को हम किसी खास दल का समर्थक मानकर चलते हैं।
उनमें से कभी कभी तो यह देखने में आता है कि उनकी कुल संख्या का आधा हिस्सा भी उस कथित दल के साथ नहीं जाता है। *मिसाल के तौर पर मेरे सामने चुनावी सर्वे करने वाली प्रतिष्ठित एजेंसी सीएसडीएस का एक चार्ट मौजूद है। एजेंसी के अनुसार 2012 के चुनाव में सपा को मुसलमानों के 39 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि यादव वोट उसको 66 प्रतिशत ही मिले थे। ऐसे ही बसपा का वोटबैंक समझे जाने वाले जाटव उसको इस चुनाव में 62 प्रतिशत ही मिले थे। जबकि 2007 के चुनाव में यह फीसद 86 था। इसी तरह जो ब्रहम्ण राजपूत और वैश्य भाजपा का पक्का वोटबैंक समझे जाते हैं। वे 2012 के चुनाव में उसको क्रमशः 38, 29 और 42 प्रतिशत ही मिल सके थे।*
कहने का मतलब यह है कि न केवल पिछड़ों का बल्कि इन वोटबैंक माने जाने वाले वर्गों का भी अच्छा खासा हिस्सा उन दलों में बंटता है। जिनको इनके खिलाफ माना जाता रहा है। हमारी यह बात समझ से बाहर है कि अगर लोग विकास बिजली और कानून व्यवस्था के मुद््दे पर अपनी परंपरागत पार्टियों से हटकर सकारात्मक वोट करते हैं तो इसमें वोटोें के ठेकेदारों को क्या परेशानी है? आजकल अपनी बैठकों में सवर्ण हिंदुओं के ठेकेदार इस बात को लेकर बहुत दुबले हुए जा रहे हैं कि ‘‘मुल्ले’’ तो एक हो रहे हैं। लेकिन हिंदू जाति के नाम पर बंट रहा है। उनसे कोई पूछे कि क्या मुसलमान वोट सपा बसपा कांग्रेस एमआईएम आज़ाद उम्मीदवार और यहां तक कि एक मामूली हिस्सा ही सही भाजपा तक को नहीं मिलते?
ऐसे ही दलित वाटों खासतौर पर गैर जाटव वोटों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा कांग्रेस और सपा की तरफ जाता रहा है। इसी तरह प्रत्याशी की वजह से ही सही सवर्णों का का गैर भाजपा समर्थक आधे से कुछ कम वोट सपा बसपा और अन्य दलों में जाता ही रहा है। हमारा कहना तो यह है कि यह अपने आप में सकारात्मक और लोकतांत्रिक बदलाव है कि अब लोग जाति धर्म के नाम पर नहीं विकास के एजेंडे पर भी वोट देने लगे हैं।
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