मोदी लहर को भाजपा की बताने
का मतलब?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0 सेकुलरिज़्म पर भारी पड़ेगा विकास और सुशासन का मुद्दा!
नरेंद्र मोदी का जितना विरोध सारे
धर्मनिर्पेक्ष दल मिलकर नहीं कर पा रहे शायद उससे कहीं ज़्यादा उनका विरोध खुद
उनकी पार्टी भाजपा में अभी भी मौजूद है। पहले आडवाणी ने पीएम पद की दावेदारी छोड़ने
को तैयार ना होकर उनको नाको चने चबवाये और अब बनारस सीट मोदी के लिये छोड़ने का ग़म
शायद भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी को अभी तक सता रहा है जिससे उनकी
ईर्ष्या इस बयान के रूप में बाहर आई है कि
देश में मोदी की नहीं भाजपा की लहर है। उनसे पूछा जा सकता है कि यह लहर 10 साल से कहां छिपी हुयी थी जब भाजपा 2004 और 2009 में एड़ी चोटी का ज़ोर लगाकर ना केवल सत्ता में नहीं
आ सकी थी बल्कि उसकी लोकसभा की सीटें भी घट गयीं थीं।
6 माह पहले तक वरिष्ठ नेता
आडवाणी तक खुद मान रहे थे कि लोग कांग्रेस और यूपीए के कुशासन से भले ही नाराज़ हों
लेकिन भाजपा या एनडीए कांग्रेस या यूपीए का विकल्प बनती नज़र नहीं आ रही हैं बल्कि
क्षेत्रीय दल एन्टी इन्कम्बैसी का लाभ उठाते नज़र आ रहे हैं। धीरे धीरे अन्ना हज़ारे
आर टी आई से एक के बाद एक खुले घोटाले और बढ़ती महंगाई के बाद केजरीवाल की आम आदमी
पार्टी ने कांग्रेस के खिलाफ सीधा मोर्चा खोलकर कांग्रेस को इतना नंगा और गंदा कर
दिया कि लोग उसको सबक सिखाने के लिये उतावले होने लगे।
दिल्ली में कांग्रेस की जो गत बनी और उसकी
तीन बार सीएम रही शीला दीक्षित को जो शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा और पार्टी
मात्र 8 सीटों तक सिमट गयी उसका
श्रेय भाजपा से कहीं अधिक ‘‘आप’’ को ही देना होगा यही वजह थी
कि भाजपा बहुमत के नज़दीक पहंुचकर भी सत्ता से बाहर रह गयी और आप उससे पीछे होकर भी
कम समय के लिये ही सही सत्ता में आने में कामयाब रही। इसी दौरान चार राज्यों के
चुनाव में सध्ेा हुए नेटवर्क, पर्याप्त तैयारी, अनुशासित कैडर, विपुल आर्थिक संसाधन, सटीक चुनाव प्रचार और सुव्यवस्थित संगठन के बल पर आरएसएस के
मार्गदर्शन में भाजपा ने इकलौते मज़बूत विपक्ष के रूप में कांग्रेस का सूपड़ा तीन
राज्यों में जो साफ किया उसमें मोदी को पीएम बनाने का ऐलान भी काम कर रहा था।
यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि 2002 के दंगों के दाग को छोड़ दिया जाये तो गुजरात का
विकास मॉडल आज मोदी के लिये सबसे बड़ा तुरप का पत्ता बन गया है जबकि राहुल गांधी ने
इन दस सालों में शासन का कोई बड़ा पद ना संभाल कर जनता को निराश किया जिससे उल्टे
मनमोहन सिंह और यूपीए सरकार की बदनामी के लिये हाईकमान सोनिया के होने से राहुल की
अच्छी और बेहतर बात पर भी आज कोई विश्वास करने को तैयार नहीं है।
इसे संसदीय व्यवस्था के लिये आप ख़तरा माने
या व्यक्तिवाद की तानाशाही को बढ़ावा लेकिन सच यही है कि संघ परिवार ने महंगाई और
भ्रष्टाचार के लिये विलेन बन चुकी कांग्रेस के खिलाफ सौ सवालो का एक जवाब या सब
मर्जों की एक दवा की तरह मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी पेश कर क्षेत्रवादी और
जातिवादी राजनीति के अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के साथ बने कोकटेल को बहुसंख्यक
हिंदू ध्रुवीकरण से तोड़ने की जोरदार कोशिश की है जो मीडिया को कारपोरेट सैक्टर के
द्वारा अपने हिसाब से मेनेज कर मोदी को विकास पुरूष पेश करने से और प्रभावशाली साबित हो रही है।
भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी और गुजरात के
मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी से कोई सहमत हो या असहमत, प्रेम करे या घृणा और समर्थन करे या विरोध लेकिन उनके 2014 के चुनाव को विकास के एजेंडे पर लाकर सत्ताधरी
यूपीए गठबंधन के लिये बड़ी चुनौती बन जाने को अब कांग्रेस और सेकुलर दलों के नेता
भी स्वीकार करने को मजबूर हो रहे हैं। यह बहस का विषय हो सकता है कि गुजरात पहले
से ही और राज्यों के मुकाबले विकसित था या मोदी के शासनकाल में ही उसने विकसित
राज्य का दर्जा हासिल किया है लेकिन इस सच से मोदी के विरोधी भी इन्कार नहीं कर
सकते कि आज मोदी को भाजपा ने अगर पीएम पद का प्रत्याशी प्रोजेक्ट किया है तो इसके
पीछे उनकी कट्टर हिंदूवादी छवि कम उनका ‘विकासपुरूष’ वाला चेहरा ज्यादा उजागर किया
जा रहा है।
सेकुलर माने जाने वाले नेता चाहे जितने दावे
करंे लेकिन लोग यह बात मानने को तैयार नहीं हैं कि गुजरात में मोदी केवल 2002 के दंगों और साम्प्रदायिकता की वजह से लगातार जीत
रहे हैं। देश की जनता भ्र्रष्टाचार से भी तंग आ चुकी है वह हर कीमत पर इससे
छुटकारा चाहती है,ऐसा माना जा रहा है कि अगर
भाजपा 200 तक लोकसभा सीटें जीत जाती है
तो चुनाव के बाद जयललिता, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और मायावती को राजग के साथ आने में ज्यादा परेशानी नहीं
होगी। लोजपा के पासवान, तेलगूदेशम के चन्द्रबाबू
नायडू और इंडियन जस्टिस पार्टी के उदितराज जैसे नेता पहले ही भाजपा के साथ आ चुके
हैं। इन सबके आने के अपने अपने क्षेत्रीय समीकरण और विशेष राजनीतिक कारण है। कोई
भाजपा या मोदी प्रेम के कारण नहीं आयेगा। इन सबके साथ एक कारण सामान्य है कि
कांग्रेस के बजाये भाजपा के साथ काम करना इनको सहज और लाभ का सौदा लगता है।
इस बार जनता का मूड कांग्रेस के साथ ही
क्षेत्रीय और धर्मनिर्पेक्ष दलों से भी उखड़ा नज़र आ रहा है और वह सेकुलरिज्म के नाम
पर खासतौर पर हिंदू मतदाता को मोदी के पक्ष में जाने से रोक पाने मंे ज्यादा सफल
नहीं होने वाले क्योंकि मोदी से उनको सुशासन, विकास और आतंकवाद को काबू करने की उम्मीद जाग चुकी है, अब यह तो समय ही बतायेगा कि वह सपनों के सौदागर साबित होते हैं या
जादू की छड़ी से सरकार अगर बनी तो सब फटाफट ठीक करते जायेंगे।
फिलहाल जो लोग यह खुशफहमी पाले बैठें हैं कि
भाजपा का देश की 35 में से आधी से ज्यादा स्टेट
में अस्तित्व ही नहीं है उनको एक बार फिर यह देखना चाहिये कि जिन 16 राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगी दल चुनाव जोरदार तरीके से लड़ रहे
हैं उनमें यूपी-80 महाराष्ट-48 आन्ध्रा-42 बिहार-40 तमिलनाडु39मध्यप्रदेश29 कर्नाटक-28 गुजरात-26 राजस्थान-25 पंजाब-13 छत्तीसगढ़-11 हरियाणा-10 दिल्ली-7 उत्तराखंड-6 हिमाचल-4 गोआ-2 में ही कुल 390 सीटें मौजूद हैं जिससे विधानसभा के तीन राज्यों की तरह ही अगर भाजपा
और उसके घटकों ने क्लीनस्वीप किया तो एनडीए की 200 से अधिक सीटें आने पर किसी को हैरत नहीं होनी चाहिये। यह सच दीवार
पर लिखी इबारत की तरह साफ है कि आज देश के मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस का
विकल्प तीसरे मोर्चे के नेताओं या केजरीवाल में ना देखकर मोदी की बहुमत की मज़बूत
सरकार बनने में ज्यादा देख रहा है यह अलग बात है कि व्यक्तिपूजा और चमत्कार में
विश्वास रखने वाला यह बड़ा तबका कितना साबित होता है???
0 ये लोग पांव नहीं ज़ेहन से अपाहिज हैं,
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है।।
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