*यह इंसानों का समाज है?*
"इस लिखे को मुसलमान भी अपने को रख कर, सिर्फ त्योहारों, मौकों, लोगों के नाम हिंदूफाई कर के पढ़ सकते हैं...इस पोस्ट में मुस्लिमों की जगह 84 और सिखों को रख कर भी पढ़ा जा सकता है...
लेकिन इस पोस्ट को मत पढ़िएगा...आप पागल हो सकते हैं...या फिर अंधे...या फिर इतने पागल कि आप आगे और बुरे इंसान और समाज बन जाएं...मेरा या मेरे जैसे किसी का क्या है...हम सब अभिशप्त हैं, क्योंकि हम देख और महसूस कर पाते हैं..."
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"आप वो समाज हैं, जो बाबरी गिरने के बाद घरों की छतों पर खड़े हो कर थालियां पीट रहे थे..घंटे-घड़ियाल बजा रहे थे...रात को मशाल ले कर विजय जुलूस निकाल रहे थे...दीए जला रहे थे...
आप वह समाज हैं, जो गुजरात के निर्मम जनसंहार में हज़ार लोगों के बेरहम क़त्ल को गोधरा को लेकर तर्कसंगत बताने में लगे थे...बिल्कीस के बलात्कार, उसकी तीन साल की बच्ची की हत्या...और न जाने...
बिना यह सोचे कि आपके घर के पड़ोस में एक जावेद है, जो हर रोज़ बिना नागा आपके घर इस्त्री के कपड़े देने आता है, तो आपके बच्चे के लिए टॉफी ले कर आता है...
बिना यह सोचे कि एक अज़्मा है, जो आपके पूरे परिवार के जूठे बर्तन साफ करती है...एक कप टूट जाने पर सिहर जाती है और डांट ही नहीं खाती उसके पैसे भी वेतन से कटवा लेती है...
बिना यह सोचे कि आप के घर जुम्मन दूध ले कर आएगा और आप उससे कहेंगे कि कम तौल रहे हो, तो वह सही तौल के बावजूद 200 एमएल दूध और आपकी बाल्टी में डाल देगा...
बिना यह सोचे कि आपके साथ दफ्तर में काम करने वाली समीना ने आपके बेटे के लिए घर के काम और नौकरी के बीच वक़्त निकाल कर एक सुंदर स्वेटर बिन कर दिया है...
बिना यह सोचे कि आपके दोस्त अकरम ने आपको उस वक़्त पैसे उधार दिए थे, जब आपको अपनी प्रेमिका के साथ अपना कस्बा छोड़ कर भागना था...
बिना यह सोचे कि आपके प्रोफेसर ने जो कि सिद्दीकी उपनाम लगाते थे, आपको अलग से बिठा कर, कॉलेज के बाद मुफ़्त पढ़ाया था...जबकि उनको अपनी 5 बेटियों की शादी करनी थी..
बिना यह सोचे कि आपकी शादी में आपके गांव के बैंड मास्टर ने, जिसका नाम शकील था...यह कह कर, बारात में बैंड के पैसे लेने से इनकार कर दिया था कि भतीजे की शादी है...ये पैसा हराम है...
बिना यह सोचे कि हर तीसरे दिन, आपके स्कूटर का पंचर बनाने वाला नसीम आपको चाय पिए बिना दुकान से नहीं जाने देता...जबकि उस वक्त चाय 50 पैसे की थी और पंचर 1 रुपए का...
बिना यह सोचे कि आपके गांव के मंदिर के लिए, जागरण के लिए, होली की लकड़ी के लिए...सबसे ज़्यादा चंदा करीमुद्दीन इकट्ठा कर के लाता था...
बिना यह सोचे कि आपके दोस्त अकरम की छोटी बहन नज़्मा, आपको राखी बांधती रही...जबकि उसके रिश्तेदार कहते रहे कि राखी बांधना इस्लाम में हराम है...वो आपके माथे पर टीका भी लगाती रही, आरती भी उतारती रही और मिठाई भी..........
बिना यह याद रखे कि गांव की रामलीला में रसूलन का बेटा ही हमेशा हनुमान बनता था, जय-जय सियाराम चिल्लाता था...राम के पैरों में बैठ जाता था...और रामलीला के अंत में आरती की थाली, पूरी भीड़ में फिराता था...
बिना यह सोचे कि आपका एक दोस्त था...जिसकी मां, हर ईद...सिर्फ और सिर्फ आपके लिए शाकाहारी पकवान बनाती थी...जिसके लिए आप हमेशा अपनी मां से कहते रहे कि आपकी मां, वैसी सेंवई और छोले नहीं बना पाती...और जिसका आपने नाम भी कभी पता करने की ज़हमत न उठाई...चची में जो प्रेम था, वह किसी नाम में हो भी नहीं सकता...
और आपका वह दोस्त, जिसने पहली बार आपको छुप कर मांसाहार खिलाया?
वह दोस्त, जो मौलाना की डांट खा कर भी, जुमे की नमाज़ की जगह आपके साथ पगडंडी पर टहलना ज़्यादा पसंद करता था...
आपकी वह माशूका, जो मुस्लिम थी...लेकिन...
आपका वह दर्ज़ी, जिसने आपकी सबसे अच्छी कमीज़ें और अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर के जैसी पतलूनें सिल कर दी थी...
इस लिखे को मुसलमान भी अपने को रख कर, सिर्फ त्योहारों, मौकों, लोगों के नाम हिंदूफाई कर के पढ़ सकते हैं...
इस पोस्ट में मुस्लिमों की जगह 84 और सिखों को रख कर भी पढ़ा जा सकता है...
लेकिन इस पोस्ट को मत पढ़िएगा...आप पागल हो सकते हैं...या फिर अंधे...या फिर इतने पागल कि आप आगे और बुरे इंसान और समाज बन जाएं...मेरा या मेरे जैसे किसी का क्या है...हम सब अभिशप्त हैं, क्योंकि हम देख और महसूस कर पाते हैं...
मेरे कानों में आज भी 6 दिसम्बर, 1992 की वो घंटियां...थालियां...शंख...उनका शोर सीसा पिघलाता है...और मैं बचपन में जा कर कान बंद कर के, एक कुएं में कूद जाना चाहता हूं...
वो मशालों और दीए मुझे अंधा कर देते हैं...आंखें चला जाना और उनका जल जाना...दोनों में बहुत अंतर है...ठीक वैसे ही जैसे समाज के मर जाने और उसके सड़ जाने में...
आपसे सड़ांध आती है...एक दिन आप पूरी तरह बायोडीग्रेड हो जाएंगे...फिर कहीं कोई सड़ांध नहीं आएगी...कोई अवशेष नहीं होगा...
प्रकृति के यौवन का श्रृंगार, करेंगे कभी न बासी फूल
मिलेंगे जा कर वह अतिशीघ्र, आह उत्सुक है उनको धूल..."
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@ Mayank Saxena
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