Friday, 4 September 2015

Dushyant kumar

नज़र-नवाज़ नजारा बदल न जाए कही
जरा-सी बात है मुह से निकल न जाए कही

वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है
मेरे बयान को बंदिश न लग जाये कही

यो मुझको खुद पे बहुत एतबार है लेकिन
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कही

चले हवा तो किवाडो की बंद कर लेना
ये गर्म राख शरारो में ढल न जाए कही

तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कही

कभी मचान पे चढ़ने की आरजू उभरी
कभी ये डर की सीढ़ी फिसल न जाए कही

ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है
चलो, यहाँ से चले, हाथ जल न जाए कही
~ दुष्यंत कुमार

मायने
नज़र-नवाज=आँखों को आनंद देने वाली चीज,
बंदिश=रोक,
शरारे=चिंगारिया

धर्म

तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,

छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,

मुझको सन्तोष हुआ
और लगा –
हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है ।

दुष्यंत कुमार

इन रास्तों के नाम लिखो एक शाम और।
या इनमें करो रौशनी का इंतज़ाम और। ।
आंधी में सिर्फ हम ही उखड़कर नहीँ गिरे।
हम से जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और।।

दुष्यन्त कुमार जी।

ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए

चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते
सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए

यों पहले भी अपना—सा यहाँ कुछ तो नहीं था
अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए.
~दुष्यंत कुमार
संग्रह: साये में धूप

: होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए ,
इस परकटे परिन्दे की कोशिश तो तो देखिए ।

गूँगे निकल पड़े हैं जुबाँ की तलाश में ,
सरकार के ख़िलाफ़ ये साजिश तो देखिए ।

बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन ,
सूखा मचा रही ये बारिश तो देखिए ।

उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें ,
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए ।

जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ ,
इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिए ।

~ दुष्यंत कुमार

मत कहो आकाश में कोहरा घना है।
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है।
हर किसी का पाँव घुटनो तक सना है।।

दुष्यंत जी

: अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार

दुष्यंत कुमार

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं।
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो।
ये कमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।।

दुष्यंत जी।

हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीँ।
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।

दुष्यंत जी।

: एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए,
यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है

मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

: चीथड़ों में वो मिला था कल मुझे फूटपाथ पर।
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।।
दुष्यंत जी।

: खण्डहर बचे हुए हैं इमारत नहीं रही।
अच्छा हुआ के सर पे कोई छत नहीं रही।
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया।
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही।

दुष्यंत कुमार

: जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए

चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते
सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए

यों पहले भी अपना—सा यहाँ कुछ तो नहीं था
अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए.
~दुष्यंत कुमार
संग्रह: साये में धूप

बगीचा......

कहाँ तो तय था चरागाँ हर घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं सहर के लिए

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हंसी नजारा तो है नजर के लिए

वो मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए

तेरी निजाम है , सिल दे जबाने़ शायर को
ये ऐहतियात जरूरी है इस बहर के लिए

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए.....
               दुष्यंत

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