Thursday, 21 May 2015

Manavvar raana

एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफिर हूॅ मैं.

हाॅ निगल जायेगा एक रोज़ समुन्दर मुझको..

इससे बढ़ कर मेरी तौहीने अना क्या होगी.

अब गदागर भी समझते हैं गदागर मुझको..

जख़्म चेहरे पे, लहू आॅखो में, सीना छलनी.

ज़िन्दगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको..

मेरी आॅखों में वो बीनाई अता कर मौला.

एक आॅसू भी नज़र आये समुन्दर मुझको..

कोई इस बात को माने कि न माने लेकिन.

चाॅद लगता है तेरे माथे का झूमर मुझको..

दुख तो यह है मेरा दुश्मन ही नही है कोई.

ये मेरे भाई हैं कहते हैं जो बाबर मुझको..

मुझसे आॅगन का अंधेरा भी नही मिट पाया.

और दुनियाॅ है कि कहती है "मुनव्वर" मुझको..

                               "मुनव्वर राना"
मुद्दतों पहले जो डूबी थी वो पूँजी मिल गयी,
जो कभी दरया मैं फेंकी थी वो नेकी मिल गयी,,

ख़ुदकुशी करने पर आमादा थी नाकामी मेरी,
फिर मुझे दीवार पर चढ़ती ये चींटी मिल गयी,,

मैं इसे इनाम समझूँ या सज़ा का नाम दूँ,
उंगलियां कटते ही तोहफे मैं अंगूठी मिल गयी,,

मैं इसी मिट्टी से उठा था बबूला की तरह,
और फिर एक दिन मिटटी मैं मिटटी मिल गयी,,

फिर किसी ने लक्ष्मी देवी को ठोकर मार दी,
आज कूड़ेदान से फिर एक बच्ची मिल गयी,,

                               "मुनव्वर राना"
अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा अभी बीमार ज़िन्दा है!
अभी इस शहर में उर्दू का इक अख़बार ज़िन्दा है!!

नदी की तरह होती हैं ये सरहद की लकीरें भी!
कोई इस पार ज़िन्दा है कोई उस पार ज़िन्दा है!!

ख़ुदा के वास्ते ऐ बेज़मीरी गाँव मत आना!
यहाँ भी लोग मरते हैँ मगर किरदार ज़िन्दा है!!

⭐⭐⭐मुनव्वर राना⭐⭐⭐
यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है!

जो तू ख़रीदे तो बिकना ज़रूर पड़ता है!!

बड़े सलीक़े से यह कह के ज़िन्दगी गुज़री!
हर एक शख़्स को मरना ज़रूर पड़ता है!!

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो!
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है!!

कभी जवानी से पहले कभी बुढ़ापे में!
ख़ुदा के सामने झुकना ज़रूर पड़ता है!!

हो चाहे जितनी पुरानी भी दुश्मनी लेकिन!
कोई पुकारे तो रुकना ज़रूर पड़ता है!!

वफ़ा की राह पे चलिए मगर ये ध्यान रहे!
की दरमियान में सहरा ज़रूर पड़ता है.!!

मुनव्वर राना.
जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है
हर एक पत्थर से मेरे सर का कुछ रिश्ता निकलता है
डरा-धमका के तुम हमसे वफ़ा करने को कहते हो
कहीं तलवार से भी पाँव का काँटा निकलता है?
ज़रा-सा झुटपुटा होते ही छुप जाता है सूरज भी
मगर इक चाँद है जो शब में भी तन्हा निकलता है
किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं
किसी की एड़ियों से रेत में चश्मा निकलता है
फ़ज़ा में घोल दीं हैं नफ़रतें अहले-सियासत ने
मगर पानी कुएँ से आज तक मीठा निकलता है
जिसे भी जुर्मे-ग़द्दारी में तुम सब क़त्ल करते हो
उसी की जेब से क्यों मुल्क का झण्डा निकलता है
दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों-मील आती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है

मुनव्वर राना
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।

किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी,
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं ।

पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से,
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं ।

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद,
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।

हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।

हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।
 
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी,
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं ।

वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं ।

अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं ।

भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं ।

ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं ।

हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं ।

महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं ।

वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं ।

यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं ।

हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं ।

वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं ।

उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं ।

जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं ।

उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं ।

हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं ।

कल एक अमरुद वाले से ये कहना पड़ गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं ।

वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।

अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं ।

मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं ।

जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।
 
महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं ।

तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं ।

सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं ।

हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं ।

गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं ।

तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं ।

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं ।

हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।

[1:01PM, 6/6/2015] iqbalhindustani: बेटी बहन बीबी के रिश्ते के समाजिक पहलू  पर एक शायर का नज़रिया

आने वाले दिन मसाइल ले के आएंगे ‘बशीर’
घर के आंगन में कई चेह्रे जवां हो जाएंगे

एक शायरा ने इस दर्द का इज़हार यूं किया-

दहेज़ की बदौलत मियां-बीवी के माबैन तलाक़ तक बात पहुंची तो एक शेर ने जन्म ले ही लिया-

तलाक़ दे तो रहे हो ग़ुरूरो-क़ह्र के साथ! !
मेरा शबाब भी लौटा दो मेरे मेह्र के साथ! !

जाने माने शायर जनाब मुनव्वर राना ने रिश्तों को लेकर हमेशा अतभुत काव्य रचा है. उनकी ग़ज़लों में रिश्तों की महक का रंग कुछ ख़ास ही रहा है.

घरों में यूँ सयानी लड़कियाँ बेचैन रहती है
कि जैसे साहिलों पर कश्तियाँ बेचैन रहती हैं

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है

रो रहे थे सब तो मै भी फ़ूटकर रोने लगा
वरना मुझको बेटियों की रूख़सती अच्छी लगी
[1:01PM, 6/6/2015] iqbalhindustani: अगली कड़ी
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
बेटियाँ धान के पौधों की तरह होती हैं

उड़के एक रोज़ बड़ी दूर चली जाती हैं
घर की शाख़ों पे ये चिड़ियों की तरह होती हैं

सहमी-सहमी हुई रहती हैं मकाने दिल में
आरज़ूएँ भी ग़रीबों की तरह होती हैं

टूटकर ये भी बिखर जाती हैं एक लम्हे में
कुछ उम्मीदें भी घरौंदों की तरह होती हैं

बाप का रुत्बा भी कुछ कम नहीं होता लेकिन
जितनी माँएँ हैं फ़रिश्तों की तरह होती हैं

मुनव्वर राना
[1:18PM, 6/16/2015] iqbalhindustani: ज़रूरत  से अना का भारी पत्थर टूट जाता है
मगर फिर आदमी भी अन्दर -अन्दर टूट जाता है

ख़ुदा के वास्ते इतना न मुझको टूटकर चाहो
ज़्यादा भीख मिलने से गदागर टूट जाता है

तुम्हारे शहर में रहने को तो रहते हैं हम लेकिन
कभी हम टूट जाते हैं कभी घर टूट जाता है

मुनव्वर राना
[1:18PM, 6/16/2015] iqbalhindustani: वो महफ़िल में नहीं खुलता है तनहाई में खुलता है
समुन्दर कितना गहरा है ये गहराई में खुलता है

जब उससे गुफ़्तगू कर ली तो फिर शजरा नहीं पूछा
हुनर बखियागरी का एक तुरपाई में खुलता है

फ़क़त ज़ख़्मों से तक़लीफ़ें कहाँ मालूम होती हैं
पुरानी कितनी चोटें हैं ये पुरवाई में खुलता है

मुनव्वर राना
[1:18PM, 6/16/2015] iqbalhindustani: जिसने भी इस खबर को सुना सर पकड़ लिया
कल इक दिए ने आँधी का कालर पकड़ लिया
जिसकी बहादुरी के वो किस्से लिखे गए
निकला शिकार पे तो कबूतर पकड़ लिया
इक उम्र तक तो मुझको तेरा इंतज़ार था
फिर मेरी आरजुओं ने बिस्तर पकड़ लिया
.........मुनव्वर .......
[10:03AM, 6/18/2015] iqbalhindustani: मुनव्वर राना:

बिछड़ेंगे तो मर जाएंगे हम दोनो हम दोनो बिछड़कर
इक डोर में हमको यही डर बांधे हुए है.

ठंडे मौसम में भी सड़ जाता है बासी खाना
बच गया है तो ग़रीबों के हवाले कर दे.

कोई दु:ख तो कभी कहना नहीं पड़ता उससे
वह ज़रूरत को तलबगार से पहचानता ह
[8:46AM, 6/27/2015] iqbalhindustani: कई घर हो गए बरबाद ख़ुद्दारी बचाने में
ज़मीनें बिक गईं सारी ज़मींदारी बचाने में

कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना
बहुत मैंने लहू थूका है घरदारी बचाने में

कली का ख़ून कर देते हैं क़ब्रों की सजावट में
मकानों को गिरा देते हैं फुलवारी बचाने में

कोई मुश्किल नहीं है ताज उठाना पहन लेना
मगर जानें चली जाती हैं सरदारी बचाने में

बुलावा जब बड़े दरबार से आता है ऐ 'राना'
तो फिर नाकाम हो जाते हैं दरबारी बचाने में
~मुनव्वर राना
[5:06PM, 7/2/2015] iqbalhindustani: समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया
इतने घुटने टेके हमने, आख़िर घुटना टूट गया

देख शिकारी तेरे कारण  एक परिन्दा टूट गया,
पत्थर का तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन शीशा टूट गया

घर का बोझ उठाने वाले बचपन की तक़दीर न पूछ
बच्चा घर से काम पे निकला और खिलौना टूट गया

किसको फ़ुर्सत इस दुनिया में ग़म की कहानी पढ़ने की
सूनी कलाई देखके लेकिन, चूड़ी वाला टूट गया

ये मंज़र भी देखे हमने इस दुनिया के मेले में
टूटा-फूटा नाच रहा है, अच्छा ख़ासा टूट गया

पेट की ख़ातिर फ़ुटपाथों पर बेच रहा हूँ तस्वीरें
मैं क्या जानूँ रोज़ा है या मेरा रोज़ा टूट गया

▪मुनव्वर राना

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