Saturday, 16 May 2015

Manzar bhopali

बेअमल को दुन्या में राहतें नहीं मिलतीं
दोस्तों दुआओं से जन्नतें नहीं मिलतीं

इस नए ज़माने के आदमी अधूरे हैं
सूरतें तो मिलती हैं, सीरतें नहीं मिलतीं

अपने बल पे लड़ती है अपनी जंग हर पीढ़ी
नाम से बुजुर्गों के अज्मतें नहीं मिलतीं

जो परिंदे आंधी का सामना नहीं करते
उनको आसमानों की रफतें नहीं मिलतीं

इस चमन में गुल बूटे खून से नहाते हैं
सब को ही गुलाबों की किस्मतें नहीं मिलतीं

शोहरतों पे इतरा कर खुद को जो खुदा समझे
मंज़र ऐसे लोगों की तुर्बतें नहीं मिलतीं

मंज़र भोपाली

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