Thursday 29 August 2024

कोलकाता रेप

*कोलकाता रेप: कानून नहीं व्यवस्था बदलने की जरूरत है!* 
0 12 साल पहले देश की जानी मानी हिंदी वेबसाइट प्रवक्ता डाॅटकाम पर हमने पूरे देश को हिला देने वाले चर्चित और दर्दनाक निर्भया दिल्ली गैंगरेप पर एक लेख लिखा था। उसमें यह आशंका भी व्यक्त की थी कि केवल कानून सख्त कर देने से न केवल बलात्कार नहीं रूकेंगे बल्कि समाज की सोच बदले बिना रेप पीड़ित की जान लेकर सबूत मिटा देने का ख़तरा और अधिक बढ़ जायेगा। दुर्भाग्य से आज नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि रोज देश में 86 रेप होते हैं। ये हालत तब है जबकि लोकलाज के डर से रेप के वास्तविक 63 प्रतिशत मामले दर्ज ही नहीं होते। 10 प्रतिशत रेप नाबालिग लड़कियों के साथ होते हैं। 89 फीसदी मामलों में बलात्कारी जान पहचान के होते हैं। दुख और चिंता की बात यह है कि फिर भी रेप पर सियासत होती है।
  *-इकबाल हिंदुस्तानी*
      व्यंग्य लेखक हरिशंकर ने कहा है ‘‘बलात्कार को पाश्विक कहा जाता है पर यह पशु की तौहीन है, पशु बलात्कार नहीं करते। सूअर तक नहीं करता। मगर आदमी करता है।’’ कोलकाता में हुए रेप की चैतरफा निंदा के साथ यह सवाल भी उठना चाहिये कि देश के विभिन्न राज्यों के दूरदराज के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में रोज होने वाले सैकड़ों बलात्कार के मामलों को मीडिया कभी इतनी जोर शोर से क्यों नहीं उठाता? और हर बलात्कार को लेकर सरकार इतनी संवेदनशील क्यों नहीं नजर आती? सारे नेता बलात्कारी को फांसी देने से लेकर चैराहे पर खुलेआम गोली मारने की मांग अब क्यों कर रहे हैं? जब जब वे सत्ता में आते हैं तो ऐसा कानून क्यों नहीं बनाते? सच तो यह है कि कुछ दिन इस मामले की चर्चा होने के बाद सब भूल जायेंगे कि इस मामले के दोषियों का क्या हुआ और वह पीड़िता या उसका परिवार किस हाल में जी रही है? दरअसल मीडिया को औरतों के अधिकारों और सुरक्षा की याद ही तब आती है जब किसी के साथ कोई बड़ा मामला हो जाता है। किसी महिला के साथ बलात्कार या छेड़छाड़ की वीभत्स घटना घटने के बाद मीडिया और सरकार शांत होकर मानो अगली ऐसी ही घटना का इंतजार करते रहते हैं। हकीकत यह है कि बलात्कार, हत्या और दंगे जैसे मामले होते ही इसलिये हैं कि हमारी पूरी व्यवस्था अपराधियों के सामने बेबस नजर आती है। बलात्कार पीड़ित तो क्या आम आदमी भी थाने जाने से डरता है जबकि अपराधी, माफिया या दलाल अकसर पुलिस के साथ मौज मस्ती करते देखे जाते हैं। 
        केस अगर दर्ज हो भी जाये तो अब आगे की जांच और भी मुश्किल है क्योंकि हमारी पुलिस सर्वे में ना केवल समाज के अन्य वर्गा से अधिक करप्ट है बल्कि वह राजनीतिक, धार्मिक, जातिवादी और दूसरे कारणों में भी खूब सबूत दबाती और घड़ती है। छोटे मामलों को तो पुलिस मीडिया में चर्चा ना होने या कम होेने से भाव ही नहीं देती और बड़े अपराधों को हर हाल में दबाना चाहती है क्योंकि जिस थाने में ज्यादा केस दर्ज होते हैं उसके थानेदार को ना केवल एसपी डीएम की डांट खानी पड़ती है बल्कि उसका प्रमोशन तक इस आधार पर रोक दिया जाता है। बलात्कार के मामले में फांसी की सजा कर देने का मतलब है कि रेप पीड़ित की जान का खतरा भी बढ़ जाना। हमारा कहना है कि बलात्कारी को सज़ा हर हाल में मिले सख्त मिले और जल्दी मिले यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है। राजनेताओं धन्नासेठों और प्रभावशाली लोगों के मामलें में पुलिस कानून के अनुसार काम नहीं करती है। जब लोगों का विश्वास ही कानून व्यवस्था से उठ चुका हो तो न्याय कैसे होगा? इसके बाद मेडिकल करने वाले डाक्टर की जेब गर्म कर चाहे जो लिखाया जा सकता है और सरकारी वकील तो शायद होते ही आरोपी से हमसाज़ के आरोप लगे होने के लिये हैं? फांसी या चैराहे पर गोली मारने की बात करने वालों से पूछा जाये कि जिन देशों मे सजा ए मौत है ही नहीं वहां अपराध ना के बराबर क्यों हैं? कई देश हैं जहां आयेदिन अपराधियों को फांसी पर लटकाया जा रहा है वहां आज भी अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे? 
      जिस देश में आतंकवादी कानून, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और देशद्रोह एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा हो वहां सजा कड़ी करने से नहीं पूरा सिस्टम ईमानदार और जिम्मेदार बनाने से ही सुधार हो सकता है। समाज को भी नैतिकता और चरित्र का पाठ सिखाना होगा। हमारे नेता खुद बाहुबल, कालाधन, सत्ता और पुलिस का खुलकर गलत इस्तेमाल करते हैं। आज लगभग सारे नेता ही नहीं अधिकांश अधिकारी, पत्रकार, वकील, उद्योगपति, शिक्षक, व्यापारी, इंजीनियर, डॉक्टर, जज, साहित्यकार और कलाकार से लेकर समाज की बुनियाद समझे जाने वाला हर वर्ग तक आरोपों के घेरे में आ चुके हैं, ऐसे में कानून ही नहीं हमें अपनी सोच और व्यवस्था बदलकर ही ऐसी घटनाओं को रोकने का रास्ता मिल सकेगा क्योंकि इस तरह की घिनौनी वारदात तो मात्र लक्षण हैं उस रोग का जो हमारे सारे सिस्टम और समाज को घुन की तरह खा रहा है। बलात्कारियों को फांसी की सजा, सुनवाई के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने और नये नये कानूनी प्रावधानों पर अमल होता नज़र नहीं आ रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बलात्कार के मामले बढ़ने के साथ ही इसके अपराधियों को पहले से कम मामलों में दंड मिल रहा है। चार में से केवल एक ही केस में बलात्कार के आरोपी को सजा मिल पाती है। 
        यह हालत तो तब है जबकि बड़ी तादाद में लोग लोकलाज और वकीलों और पुलिस के असुविधाजनक सवालों से बचने के लिये कानूनी कार्यवाही के लिये घर से निकलते ही नहीं। आज बलात्कार के 83 प्रतिशत मामले कोर्ट में लंबे समय से लंबित पड़े हैं जबकि पहले यह आंकड़ा 78 प्रतिशत ही था। 1990 में जहां 41 प्रतिशत रेप केस में अपराधियों को सजा मिल जाती थी वहीं 2000 में यह अनुपात 29.8 प्रतिशत हुआ और 2011 में घटकर 26.6 प्रतिशत रह गया है। एक तर्क और दिया जाता है कि लड़कियां चूंकि भड़काऊ कपड़े पहनकर और आकर्षक मेकअप करके सड़कों पर निकलती हैं। जिससे उनके साथ रेप की अधिकांश घटनाएं उनकी इन हरकतों की वजह से ही होती हैं, जबकि भारत सरकार के आंकड़ें बताते हैं कि गांव में ऐसे मामले अधिक होते हैं और अकसर यह देखने में आया है कि जो लड़कियां अधिक पढ़ी लिखी और आधुनिक होती हैं। उनके साथ बलात्कार का प्रयास करने वाले दस बार उसके बुरे नतीजों के बारे में सोचते हैं। इसके साथ यह भी देखने में आया है कि आधुनिक और प्रगतिशील सोच के लोग ही ऐसी घटनायें होने पर कानूनी कार्यवाही करने में सक्षम होते हैं और साहस भी दिखाते हैं। कहने का मतलब यह है कि पहले बलात्कार जैसे मामलों को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक स्तर पर जांचा परखा जाना चाहिये तब ही इनका कोई सही हल निकाला जा सकता है।

0 लड़ें तो कैसे लड़ें मुकदमा उससे उसकी बेवफाई का,

 ये दिल भी वकील उसका ये जां भी गवाह उसकी।।
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Saturday 17 August 2024

वक्फ बिल

वक़्फ़ बिल: बेशक हो सुधार लेकिन सरकार नहीं है ईमानदार ?

0 मोदी सरकार भले ही सबका साथ सबका विश्वास का दावा करे लेकिन इस सरकार को कभी भी अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानों का विश्वास हासिल नहीं रहा है। यही वजह है कि भाजपा मुसलमानों और मुसलमान भाजपा का विरोध करते हैं। सीएए और तीन तलाक़ पर विवादित रोक के बाद वक़्फ़ क़ानून में संशोधन का मामला भी इसलिये ही चर्चा मंे है क्योंकि रेलवे और सेना के बाद सबसे अधिक ज़मीनें भारत में वक़्फ़ बोर्ड के पास हैं। देश में वक़्फ़ की 8 लाख एकड़ की कुल 872292 प्रोपर्टी हैं जिनसे मात्र 200 करोड़ रूपये आय सालाना होती हैं। वक़्फ़ एक्ट 1954 में बना और 1995 में इसमें संशोधन किया गया। वक़्फ़ के पास जो सम्पत्तियां हैं लगभग सभी मुसलमानों ने दान की हैं। लेकिन इनकी देखरेख में बड़ी गड़बड़ी है यह सच है।        
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      2022 में संसद में हरनाथ सिंह यादव ने एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया था। जिसमें दावा किया गया था कि 2009 से वक़्फ़ की ज़मीनें दोगुनी हो चुकी हैं। कम लोगों को पता होगा कि दूसरे सभी कानूनों की तरह ही वक़्फ़ कानून भी संसद से ही पास होकर बना है। यह मुस्लिम पर्सनल लाॅ के तहत इस्लाम का समाजसेवा का एक अहम हिस्सा है। यह सही है कि वक़्फ़ बोर्ड में बदइंतज़ामी बेईमानी और मनमानी होती है लेकिन यह झूठ है कि वक़्फ़ बोर्ड की शक्तियांे का गलत इस्तेमाल कर किसी भी ज़मीन को वक़्फ़ का बताकर कब्ज़ा लिया जाता है और उसको कोर्ट में चुनौती भी नहीं दी जा सकती। बाबरी मस्जिद का विवाद इसकी ताज़ा मिसाल है कि बोर्ड इस मस्जिद को रिकाॅर्ड दुरस्त ना रखने से कोर्ट में वक़्फ़ की साबित नहीं कर पाया जिससे यह आस्था के आधार पर लगातार वहां पूजा होते रहने के कारण फैसले में मंदिर के लिये दे दी गयी। प्रोपर्टी दो तरह से वक़्फ़ होती है। एक अल्लाह की राह में और दूसरी वक़्फ़ उल औलाद। किसी पीढ़ी में आगे जाकर ऐसी मिल्कियत का अगर कोई भी वारिस नहीं बचता है तो वह प्रोपर्टी भी वक़्फ़ बोर्ड को अल्लाह के नाम पर जनसेवा करने को चली जाती है। 
1921 के एक निर्णय में कोर्ट ने कहा था कि कोई हिंदू भी समाजसेवा के लिये वक़्फ़ को अपनी सम्पत्ति दान कर सकता है लेकिन यह सुनिश्चित करना ज़रूरी होगा कि उस गैर मुस्लिम के ऐसा करने से किसी हिंदू कानून का उल्लंघन नहीं हो। वक़्फ़ बोर्ड के अधिकार में तब तक कोई सम्पत्ति किसी के दान करने के बावजूद नहीं आ सकती जब तक कि उसका सर्वे न हो। सर्वे कमीशन राज्य सरकार नियुक्त करती है। सरकार वक़्फ़ की सम्पत्ति की अधिकृत सूची जारी करती है। इस सूची को जारी करने से पहले सरकार यह सुनिश्चित करती है कि वक़्फ़ की गयी प्रोपर्टी निर्विवाद हो। वक़्फ़ होने से पहले उस सम्पत्ति की स्थिति का सरकारी सर्वेयर द्वारा मौका मुआयना और उससे होने वाली आय का विस्तृत विवरण जुटाना अनिवार्य होता है। गवाहों प्रमाणों और अन्य कई तरह से यह जांच की जाती है कि वास्तव में दान की गयी प्रोपर्टी वक़्फ़ की ही है। अगर एक बार सर्वे से सर्वेयर या सरकार सर्वेयर की रिपोर्ट से सहमत व संतुष्ट नहीं होती तो वह दूसरा व तीसरा सर्वेयर नियुक्त करती है। जब राज्य द्वारा तैनात सर्वे कमिश्नर हर तरह से सम्पत्ति की नेचर वैल्यू और दान की प्रक्रिया से सहमत होकर लिखित रिपोर्ट देगा बोर्ड 6 माह के भीतर वह रिपोर्ट सरकार को भेजेगा और सरकार उसको गज़ट मंे प्रकाशित करेगी, राजस्व विभाग उस सम्पत्ति को अपने रिकाॅर्ड में वक़्फ़ के तौर पर दर्ज करेगा, उसके बाद ही वह सम्पत्ति कानूनन वक़्फ़ की मानी जायेगी। 
अगर किसी सम्पत्ति पर विवाद होगा तो उसको पहले वक़्फ़ ट्रिब्यूनल तय करेगा उससे सहमत न होने पर हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। देश में ऐसे 70 ट्रिब्यूनल हैं। वक़्फ़ बोर्ड में नियुक्ति भी सरकार ही करती है इसलिये यह दावा पूरी तरह झूठा है कि वक़्फ़ पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। इसके विपरीत सच यह है कि कुछ करप्ट सरकारी कारिंदे बोर्ड के बेईमान पदाधिकारी और वक़्फ़ सम्पत्यिों के बदनीयत मुतावल्ली मिलीभगत से इन सम्पत्यिों पर अवैध कब्जे़ बेचकर या किराये के बहाने करोड़ों रूपयों के वारे न्यारे कर रहे हैं। केवल वक़्फ़ बोर्ड के ट्रिब्यूनल को लेकर  सवाल उठाये जाते हैं। लेकिन इसमें राज्य न्यायिक क्षेत्र का चेयरमैन और सदस्यों में राज्य सरकार का प्रतिनिधि अधिकारी और तीसरा मुस्लिम लाॅ का जानकार शामिल होता है। देश में कुल 32 वक़्फ़ बोर्ड हैं। नये वक़्फ़ बिल के हिसाब से बोर्ड में भविष्य में नेशनल लेवल के केंद्र के चार सदस्य तीन सांसद सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के दो पूर्व जज एक वकील मुतावल्ली का एक प्रतिनिधि मुस्लिम लाॅ के तीन जानकार और दो गैर मुस्लिम व दो मुस्लिम महिलायें  अनिवार्य रूप से शामिल होंगी। जबकि चारधाम हिंदू तीर्थ धर्म संस्थान में केवल हिंदू ही सदस्य ही बन सकते हैं। 
       यही वो पक्षपात अन्याय और भेदभाव है जो भाजपा मुसलमानों के साथ बार बार करती रहती है। ज़िलाधिकारियों को वक़्फ़ मामलों में निर्णायक शक्ति दी जा रही है। वक़्फ़ के ट्रिब्यूनल को ज़मीनें हड़पने वाला राक्षस बनाकर केवल उसकी पाॅवर छीनी जा रही है। सौ प्रतिशत मुसलमानों का मज़हबी निजी मामला होने के बावजूद मुतावल्ली भी गैर मुस्लिम बनाया जाना प्रस्तावित है जोकि सरकार की दुर्भावना दिखाता है। नये बिल के अनुसार लैंड रिकाॅर्ड आफिसर सभी प्रभावित पक्षों को नोटिस देगा और दो बड़े अख़बारों में भी नोटिस पब्लिश करेगा जिससे किसी को भी अपनी आपत्ति दर्ज करने का मौका मिलेगा। आॅडिट पहले भी होता था लेकिन अब केंद्र अपने स्तर से सीएजी से आॅडिट करा सकता है। वक़्फ़ बोर्ड में भ्रष्टाचार के नाम पर सरकार ऐसे सुधार के बहाने दखल और मनमानी करना चाहती है जैसे उसके अधिकारी और कर्मचारी दूध के धुले हों? भविष्य में मुतावल्ली उसी को बनाया जायेगा जिसकी उम्र 21 साल  दो साल की सज़ा नहीं हुयी हो मानसिक रूप से परिपक्व और साफ सुथरी छवि का हो और उस पर वक़्फ़ की ज़मीन पर पहले कभी अवैध कब्ज़े वसूली या मिलीभगत का आरोप ना हो। सरकार का यह कदम अच्छा है लेकिन नीयत अच्छी साबित करना भी ज़रूरी है। 
अजीब बात यह है कि डीएम के कई फ़ैसलों को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकेगी और पहले वक़्फ़ ज़मीन को लेकर अपराध में जो गैर ज़मानतीय और संज्ञेय धारायें लगती थीं और सश्रम कारावास तक की सज़ा दी जा सकती थी वह सरकार ने उल्टा कम करके अपनी मुस्लिम विरोधी मंशा और वक़्फ़ की सम्पत्यिों पर रेलवे व डिफेंस की तरह अपनी नज़रें गड़ाकर अपने चहतों को देने का शक बढ़ा दिया है? 

 0 कितना चाहा छिपाना और छिपा कुछ भी नहीं,

  उसने सब कुछ सुन लिया मैंने कहा कुछ भी नहीं।

 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday 8 August 2024

बांग्लादेश की हसीना

बंगलादेश: हसीना ने तानाशाही से बना दिया था विपक्षमुक्त देश!
0 जिस बंगलादेश को बनाने में शेख हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान और उनके पूरे परिवार ने अपनी जान दे दी। जिस शेख हसीना ने बंगलादेश को एशिया में न केवल अपने मूल देश पाकिस्तान से मज़बूत बना दिया बल्कि अर्थव्यवस्था के मामले में वह उसको भारत से भी आगे ले गयीं। आखि़र क्या हुआ कि एकाएक उनको न केवल पीएम पद बल्कि देश भी छोड़कर भागना पड़ा ? ज़ाहिर तौर पर छात्रों का आंदोलन इसकी मुख्य वजह माना जा रहा है लेकिन अमेरिका चीन से लेकर शेख हसीना का भारत के करीब होना भी इसका कारण हो सकता है। सबसे बड़ी गल्ती हसीना की अपने देश में चुनाव धांधली विपक्ष को लगभग खत्म कर देना और विरोध का स्पेस न देना था।        
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
जिस तरह से गैस पास न होने से प्रेशर कूकर फट जाता है। उसी तरह से किसी देश में विरोध करने वाले विकल्प स्वायत्त संस्थाओं और पीएम सत्ताधारी दल व शासन का विपक्ष के लिये स्पेस खत्म कर देने से वही होता है जो बंगलादेश की पीएम शेख हसीना के साथ हुआ है। आरक्षण के विरोध में स्टूडंेट आंदोलन तो एक बहाना है। उसके पीछे विश्व की महाशक्तियां बंगलादेश के विरोधी दल और बंगलादेश के निर्माण का विरोध करने वाली कट्टरपंथी जमाते इस्लामी शामिल रही है। सवाल यह है कि जो 30 प्रतिशत आरक्षण हाईकोर्ट के आदेश से शुरू हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने उसको लगभग खत्म कर 7 प्रतिशत कर दिया। ऐसे में अवामी लीग सरकार के खिलाफ इसके बाद भी लगातार आंदोलन तेज़ करते जाने के पीछे क्या साज़िश थी? दूसरी बात यह है कि पहले तो पुलिस पैरा मिलिट्री और सेना ने आंदोलन कुचलने को खुलेआम गोली चलाकर सैकड़ों लोगांें को बेदर्दी से मार डाला और जब आंदोलन का असली मुद्दा खत्म हो गया उसके बावजूद लांग मार्च कर पीएम हसीना का इस्तीफा मांगने और उनके निवास पर धावा बोलने आ रही भीड़ को रोकने से फौज ने साफ इनकार कर दिया, आखिर क्यों? किसके इशारे पर? 
     पीएम हसीना को 45 मिनट का समय दिया गया या तो वह अपना पद छोड़कर अपनी जान बचाने को देश छोड़कर भाग जायें नहीं तो उनको भीड़ के हवाले कर मौत के घाट उतारने को ब्लैकमेल किया गया? सवाल यह है कि किसी देश की पुलिस और सेना लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी अपनी सरकार के मुखिया की सुरक्षा नहीं कर सकती या नहीं करना चाहती तो इसमें साज़िश तो है ही? यह माना बंगलादेश में स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर सरकारी नौकरियों में सत्ताधारी अवामी लीग के लोगांे को भरने का खेल लंबे समय से चल रहा था। वहां आम चुनाव में इतनी बेईमानी धोखा और धांधली बार बार हो रही थी कि विपक्ष ने चुनाव का बहिष्कार कर रखा था। यानी जनता अगर चाहती भी तो लोकतांत्रिक तरीके से सरकार बदलने के रास्ते हसीना ने बंद कर दिये थे। आज हालत यह है कि हसीना को ब्रिटेन सहित यूरूप का कोई देश शरण तक देने को तैयार नहीं है। अमेरिका ने उनका वीज़ा पहले ही रद्द कर दिया है। अब उनकी नार्वे और फिनलैंड जाने की बात चल रही है। हसीना का जो होगा सो होगा लेकिन यह भारत के लिये भी बहुत बड़ा राजनीतिक झटका है। फिलहाल वहां अंतरिम सरकार बनेगी। उसके बाद आम चुनाव होगा जिसमें बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमाते इस्लामी के सत्ता में आने के पूरे आसार हैं। 
    जमात के रज़ाकारों ने वहां बंगलादेश बनने का विरोध करते हुए 28 लाख बंगलादेशियों को काटने और दस लाख औरतों के बलात्कार में पाक सेना का खुलेआम साथ दिया था। जिसके आरोप में उसके दर्जनों नेताओं को हसीना ने जेल भेजकर उम्रकैद से फांसी तक दी थी। यह अंदेशा गलत नहीं है कि अब जमाते इस्लामी खुलकर सत्ता का सहारा लेकर आतंकवाद अल्पसंख्यक उत्पीड़न और भारत विरोध के लिये पूर्वोत्तर के राज्यों में उग्रवादियों को हर तरह की सहायता कर हमारे 4096 किलोमीटर लंबे बाॅर्डर पर पाकिस्तान जैसा एक और मोर्चा खोलेगी? उधर अडानी के जो प्रोजेक्ट बंगलादेश के साथ शुरू हो चुके हैं या जल्दी ही चालू होने वाले थे उनका भविष्य खतरे में लग रहा है। हालांकि इससे बंगलादेश को भी नुकसान होगा लेकिन नफरत में इंसान व देश अंधा हो जाता है। यह सच है कि हसीना ने बंगलादेश को प्रगतिशील बनाया लेकिन तानाशाह बनकर लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों को कुचल दिया। भारत में इंदिरा गांधी ने यही गल्ती इमरजैंसी लगाकर की थी लेकिन उन्होंने भूल सुधार कर चुनाव हारा और फिर लोकतंत्र में विश्वास जताकर जीत भी लिया। हसीना ने वहां के मीडिया को भी गुलाम बना लिया था यही वजह है कि आज सत्ता के चमचे पत्रकार सड़कों पर घसीट कर पीटे जा रहे हैं। 
       मोदी सरकार हसीना को कभी तख्ता पलट के ख़तरे से आगाह इसलिये भी नहीं कर सकी क्योंकि वह खुद इस तरह के कई तौर तरीके आंशिक रूप से अपनाकर विपक्ष को दुश्मन की तरह खत्म करने की मंशा रखती है। मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद इंदिरा गांधी ने शेख हसीना को भारत में लंबे समय के लिये शरण दी थी। हसीना और उनकी बहन उस समय अपने परिवार के सामूहिक हत्याकांड से इसलिये बच गयी थीं क्योंकि वह विदेश में पढ़ रही थीं। इतिहास बताता है कि कई देशों में जिन लोगों संस्थाओं और पार्टियों का सहयोग देश को आज़ाद कराने वालों के साथ नहीं रहा वही एक दिन साज़िश तिगड़म और विदेशी शक्तियों का खिलौना बनकर सत्ता में आ गयीं। आज हसीना घर की ना घाट की। उनके पिता और परिवार को 50 साल पहले सामूहिक रूप से मौत के घाट के उतारा जा चुका है। आज जिस बंग बंध्ुा को बंगलादेश का संस्थापक माना जाता था उसकी मूर्ति सबसे पहले तोड़ी जा रही है। हसीना की पार्टी अवामी लीग के दर्जनों नेताओं को मौत की नींद सुला दिया गया है। उनके आॅफिसों और समर्थकों पर लगातार हिंसक हमले किये जा रहे हैं। 
    हसीना के हश्र से यह सबक दुनिया के दूसरे तानाशाह बन रहे शासकों को सीखना चाहिये कि सत्ता के लिये लोकतंत्र को खत्म करने और नागरिक अधिकार छीनने वालों को  कभी ना कभी यह दिन भी देखना पड़ सकता है। बंगलादेश मंे हसीना के अंजाम से यह भी सीखा जा सकता है कि सरकार कोर्ट मीडिया पुलिस सेना और सारी शासकीय संस्थायें मिलकर भी सड़क पर विरोध में उतरी विपक्ष या विकल्प विहीन आक्रोषित और बेकाबू हिंसक जनता का मुकाबला नहीं कर सकती।
0 समंदर उल्टा सीधा बोलता है,
 सलीके से तो प्यासा बोलता है।
 यहां उसका पैसा बोलता है,
 वहां देखेंगे वो क्या बोलता है।।
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Friday 2 August 2024

कांवड़िया रूट

*कांवड़ियों का खूब करो सम्मान, पर बाक़ी का भी न हो नुकसान!* 
0 एक कहावत है जिसके पांव ना पड़ी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। कांवड़ यात्रा को लेकर एक पक्ष सरकार के भेदभाव के साथ खड़ा है तो दूसरा पक्ष सुप्रीम कोर्ट के पहचान बताने को लेकर दिये गये स्टे को ठीक बता रहा है। उधर पता चला है कि पुलिस अभी भी कांवड़ रूट के कई दुकानदारों ढाबे वालों और ठेले वालों को पहले से लगी उनके धर्म की पहचान को हटाने से मना कर रही है। जिससे वे पुलिस यानी सरकार से टकराव का रिस्क ना लेकर चुप हैं। जहां सरकार अपने इस पक्षपाती कदम को पहले से मौजूद कानून की आड़ में लागू करने के लिये उतावली है वहीं अलीगढ़ में हिंदू संगठनों ने हिंदू समाज के लोगों की दुकानों पर उनकी पहचान लगवाने की नई कवायद शुरू कर दी है।        
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कांवड़ यात्रा लंबे समय से शांतिपूर्वक होती आ रही है। पिछले कुछ साल से कांवड़ लाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसकी वजह बढ़ती आबादी धर्म का पुनर्जागरण और भाजपा सरकार की हिंदू तुष्टिकरण की नीति भी हो सकती है। सरकार कांवड़ वालों पर फूल बरसाती है। उनकी सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करती है। उनकी सुविधा के लिये बाकी लोगों के लिये कई रोड कई दिन के लिये बंद कर देती है। भोलों के लिये कांवड़ रूट पर सेवा शिविर लगते हैं। उनका मान सम्मान किया जाता है। मुस्लिम भी कई स्थानों पर उनकी सेवा करते हैं। बिजनौर जिले के नजीबाबाद में मुस्लिम फंड भी उनकी कई दशकों से सेवा करता आ रहा है। भोलों को कभी इस बात पर आपत्ति नहीं हुयी कि उनकी सेवा मुसलमान क्यों कर रहे हैं? खुद भोले हिंदू मुस्लिम सभी दुकानों से सामान खरीदते रहे हैं। लेकिन कुछ समय से यह विवाद शुरू हुआ कि कुछ मुस्लिम अपनी पहचान छिपाकर हिंदू देवी देवता के नाम से या काॅमन नामों से अपनी दुकान चला रहे हैं। जिससे भोले भ्रमित हो जाते हैं। कहा गया कि इससे कई बार हंगामा हुआ कि जिस दुकान को भोले शाकाहारी समझकर गये थे वहां मांसाहारी भोजन भी परोसा जा रहा था। हालत यहां तक आ गयी कि भोले हिंदू दुकान पर भी गल्ती या भूल से दाल सब्ज़ी में लहसुन प्याज का तड़का लगा देने से नाराज़ हो गये। कई ढाबों पर हिंसा भी हुयी। ऐसे ही रास्ते में जाने अंजाने में भोलों से किसी यात्री या उनके वाहन टकराने या केवल गलतफहमी हो जाने पर भी कांवड़ वाले उग्र हो गये। इस मामले में अगर आरोपी पक्ष मुसलमान हुआ तो हालात और अधिक खराब हुए। 
पुलिस प्रशासन ऐसे में खुद को असहाय महसूस करता नज़र आया। हालांकि बाद में अज्ञात में हल्की धाराओं में केस भी कई जगह दर्ज हुए लेकिन लगता नहीं कि सरकार आरोपी कांवड़ वालों के खिलाफ कोई सख्त कानूनी कदम उठायेगी या सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के मामालों में हर जगह वसूली को पहुंच जाने वाला बुल्डोज़र यहां भी काम करेगा? दरअसल कांवड़ रूट पर पहचान बताने या छिपाने का मामला उतना ही नहीं है जितना नज़र आ रहा है। इसके पीछे उन संगठनों दलों और सोच की बड़ी भूमिका है जो मुसलमानों से नफरत करते हैं। वे रोज़ ऐसा कोई ना कोई मुद्दा तलाश लेते हैं जिसके बल पर अल्पसंख्यकों को निशाने पर लिया जा सके। इस मामले में भी आप नोट कर लीजिये संविधान कानून और कोर्ट कुछ भी कहे ज़मीन पर वे अपनी सत्ता पुलिस और संगठन की शक्ति के बल पर वो सब करके ही दम लेंगे जो उनका एजेंडा है। इससे उनको मुसलमानों का बोल्ट टाइट करने से लेकर हिंदू समाज के उस कट्टर वर्ग को खुश करने का राजनीतिक लाभ मिलता है जो उनको तमाम नुकसान उठाकर भी वोट देता है। जनप्रतिनिधि और सरकार चुनाव जीतने के बाद सबकी होती है लेकिन काफी समय से देखने में आ रहा है कि सरकार कांवड़ यात्रा के नाम पर मांस की सभी दुकानें बंद करा देती है। क्या ये मांस खाने वाले लोगों के संवैधनिक अधिकार का हनन नहीं है? क्या ये मांस कारोबार से जुड़े लोगों के रोज़ी रोटी के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? कांवड़ रूट बंद होने से जो लोग यात्रा नहीं कर पाते उनकी चिंता करना भी सरकार का काम है कि नहीं? रूट बदलने से बसों या अन्य निजी वाहनों में जो अधिक तेल खर्च होता है उसकी भरपाई कौन करेगा? जो और नुकसान होता है उसका क्या होगा? 
     भाजपा का नारा रहा है सबका साथ सबका विकास, सबका विश्वास और न्याय सबको तुष्टिकरण किसी का नहीं। लेकिन व्यवहार में ऐसा कुछ नज़र नहीं आता। यह अजीब बात है कि जो भाजपा विपक्ष पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है वह आज खुद बहुसंख्यकों का तुष्टिकरण कर उनके वोट बैंक की राजनीति कर रही है। कांवड़ वालों और सरकार दोनों को यह बात समझने की ज़रूरत है कि अगर आप धार्मिक भावनाओं के नाम पर किसी भी वर्ग को असीमित छूट देंगे तो इससे अराजकता की स्थिति पैदा हो सकती है। अगर जाने अंजाने किसी से कांवड़ खंडित हो गयी या किसी कांवड़ वाले को नुकसान पहुंच गया तो इसका यह मतलब नहीं है कि किसी को कानून हाथ में लेने का अधिकार मिल जाता है? लेकिन देखने में आ रहा है कि कांवड़ रूट पर ऐसी अनेक घटनायें उन चंद शरारती लोगों द्वारा हो रही हैं जबकि लाखों कांवड़िये शांतिपूर्ण प्रेमपूर्ण और सौहार्दपूर्ण वातावरण में पूरी गरिमा श्रध्दा और भक्ति के साथ दशकों से हरिद्वार से पवित्र जल लाकर शिव मंदिरों में चढ़ाते रहे हैं। 
      हालात इतने गंभीर और असहनीय हो गये कि खुद सीएम को कांवड़ वालों को शिव से सीख लेने की अपील करनी पड़ी है। हमारा मानना है कि बेशक कांवड़ वालों को दुकानों ढाबों और ठेलों पर बिकने वाले खाने पीने के सामान में मांसाहार और शाकाहार का अंतर जानने का अधिकार है लेकिन उसका मालिक कौन है उसके कर्मचारी कौन हैं यानी उनका धर्म जाति जानना एक तरह से छुआछूत को को बढ़ावा देने वाला होगा। आज अगर आप धर्म के नाम पर एक वर्ग को अलग थलग करेंगे तो कल जाति के नाम पर दलित पिछड़ा और अन्य हिंदू जाति के लोगों के सामने ही पक्षपात और बहिष्कार का संकट खड़ा हो जायेगा। हम यह भी जानते हैं कि अगर सरकार सत्ताधारी दल और पुलिस प्रशासन एक वर्ग विशेष का सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक बहिष्कार करने की ठान लें तो उनको रोकना मुश्किल होता है। लेकिन समाज को यह बात समझने की ज़रूरत है कि संविधान कानून और नियम सबके लिये समान होने चाहिये नहीं तो सत्ता शक्ति और समय बदलता रहता है जो आज आप दूसरों के साथ कर रहे हैं कल आपके साथ भी वही दोहराया जायेगा। मशहूर शायर वसीम बरेलवी का शेर याद आ रहा है-

 *0 फ़ैसला लिक्खा हुआ रखा है पहले से खिलाफ़,*
*आप क्या ख़ाक अदालत में सफाई देंगे।*                  
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।