Thursday 27 June 2024

बीजेपी से वास्ता, बाहर का रास्ता

*छिपकर रखते थे भाजपा से वास्ता, जनता ने दिखाया बाहर का रास्ता!* 
0 कभी मोदी सरकार की विवादित बिल पास कराने में चोर दरवाजे़ से मदद करने वाले बीजू जनता दल की आंखे खुल गयी हैं। बीजद ने चुनाव में मिली शर्मनाक हार के बाद ऐलान कर दिया है कि वह भविष्य में विपक्ष का खुलकर साथ देगी। जो दल पिछली लोकसभा में एनडीए और इंडिया से समान दूरी बनाने के बहाने चोरी छिपे मोदी सरकार की जनविरोधी कानून बनवाने में मदद कर रहे थे। उनको जनता ने इस बार बाहर का रास्ता दिखा दिया है। दोनों गठबंधन के अलावा केवल 16 सीट पर अन्य जीत सके हैं। वाईएसआर कांग्रेस के 4 सांसद छोड़ दें तो बीजद अकाली दल आरएलटीपी एसकेएम एआईएमआईएम और केरल कांगेस का मात्र एक एक एमपी जीत सका है। बाकी सीट पर आज़ाद उम्मीदवार जीते हैं। बीजेडी बीआरएस और वाईएसआर सीपी के पास 2019 मंे 43 सीट थी जो अब घटकर केवल 5 रह गयी हैं।
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
   2014 और 2019 के चुनाव के बाद जब एनडीए की मुख्य घटक भाजपा को अपने बल पर बहुमत मिला तो देश को लगा कि 25 साल से चल रहा गठबंधन सरकारों का दौर अब सदा के लिये विदा हो गया है। लेकिन इस बार जब भाजपा लाख हथकंडे अपनाकर भी 240 सीट पर सिमट गयी तो एक बार फिर लगा कि गठबंधन सरकारों का दौर फिर से वापस आ गया है। लेकिन यूपीए और एनडीए की सरकारांे मंे एक बुनियादी अंतर अभी से साफ नज़र आने लगा है कि अल्पमत में होने के बावजूद भाजपा अपने घटक दलों के दबाव में काम करने को तैयार नहीं है। उसने मलाईदार सब बड़े मंत्रालय हथियाने के बाद अब स्पीकर का अहम पद भी हासिल कर लिया है। एनडीए के दो बड़े घटक टीडीपी और जेडीयू उल्टा भाजपा के दबाव में काम करते लग रहे हैं। इसकी वजह भाजपा का बहुमत से थोड़ा ही दूर होना या मोदी का मनमाने तरीके से बिना किसी से सलाह लिये दो दशक से अधिक से सरकार चलाना भी हो सकता है। भाजपा का अब तक का गठबंधन के घटकों का इतिहास देखा जाये तो आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में वह नीतीश कुमार की पार्टी का भी बचा खुचा काम तमाम कर देगी। इसके बाद जिस दिन उसके पास कुछ छोटे दल या निर्दलीय सांसद दल बदल करके भाजपा में आ जायेंगे वह नायडू की कठिन मांगे मानना भी बंद कर देगी और उनको एनडीए से जाने या बने रहने का खुला विकल्प दे देगी।
हैरत और अफसोस की बात यह है कि जनता द्वारा इतना बड़ा झटका दिये जाने के बाद भी भाजपा आरएसएस और मोदी अपने पुराने एजेंडे पर चलने में ज़रा भी संकोच करते नज़र नहीं आ रहे हैं। हालांकि इनकी यही अकड़ ज़िद और अहंकार ही आने वाले समय में इनके लिये और बड़ी हार का कारण बनने वाला है अभी इनको यह अहसास नहीं है। 2019 के चुनाव में तो कांग्रेस भाजपा से समान दूरी बनाने के बावजूद टीएमसी वाईएसआर सीपी बीआरएस बीजू जनतादल समाजवादी पार्टी और बसपा ने अच्छी संख्या में संसदीय सीटें जीत ली थीं। लेकिन 2024 के चुनाव में यह सीन पूरी तरह से बदल गया है। जहां सत्ताधारी राजग 293 सीट जीतकर सरकार बनाने मंे सफल हो गया है। वहीं कांग्रेस के नेतृत्व वाला इंडिया 235 एमपी के साथ मज़बूत विपक्ष बनकर उभरा है। इसका मतलब यह है कि अब देश की राजनीति दो ध्रुवीय हो गयी है। जिन छोटे क्षेत्रीय दलों ने इन दोनों गठबंधनों से अलग रहकर अपने बल पर अपनी सियासी ज़मीन तलाशने की इस एतिहासिक चुनाव में जुर्रत की वे सब औंधे मुुंह गिर पड़े हैं। इनमें से अधिकांश दलों को तटस्थ रहने के दावों के बाद भी पर्दे के पीछे से पूर्व मोदी सरकार को चोरी चोरी चुपके चुपके अनेक बार विवादित बिलों को पास कराने में खासतौर पर राज्यसभा में भाजपा का बहुमत न होने पर सरकार के साथ खड़े होने की जनता ने सज़ा दी है। 
इन दोगले क्षेत्रीय दलों के मतदाताओं को लगा होगा कि अगर हमारे नेता ही भाजपा को सदन में समर्थन देने में कोई बुराई नहीं समझ रहे तो हमें सीधे एनडीए या इंडिया को वोट देने में क्या बुराई है? क्षेत्रीय दलों के नेताओं को जो अच्छा लगा उन्होंने अपने निजी लाभ अपनी राज्य की सरकार और अपने नेताओं के खिलाफ ईडी सीबीआई या इनकम टैक्स के झमेले से बचाने को मोदी सरकार का साम्प्रदायिक तानाशाही और गरीब विरोधी एजेंडे का समर्थन किया और अब उनके परंपरागत मतदाताओं ने इन दलों व इनके नेताओं व राज्य की इनकी सरकारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। जनता ने भाजपा की बीटीम समझे जाने वाले मायावती नवीन पटनायक केसीआर और एआईएडीएमके को तो पूरी तरह से सफाया करके इनकी औकात बता दी है। इनका आज लोकसभा में नाम लेने वाला एक भी सदस्य मौजूद नहीं है। जगन रेड्डी की वाईएसआर सीपी को 22 सीट से मात्र 4 तक लाकर पटख दिया है। भाजपा का पुराना साथी अकाली दल जिसको 2014 के चुनाव में 26 प्रतिशत वोट मिले थे इस बार आधा होकर 13 प्रतिशत वोट के साथ बड़ी मुश्किल से एक एमपी संसद में भेज पाया है जबकि वह किसानों के मुद्दे पर 2020 में एनडीए का साथ छोड़ चुका था लेकिन जनता ने अकाली दल को माफ नहीं किया। 
आम आदमी पार्टी की मुस्लिम मुद्दों पर चुप्पी साधने और उदार हिंदूवादी नीतियों को भी जनता ने ठुकरा दिया है। आंकड़े बताते हैं कि जनता दल सेकुलर आरएलडी व जेडीयू एनडीए से जुड़कर तो सपा शिवसेना व एनसीपी कांग्रेस से जुड़कर अपना अस्तित्व बचाने में ही नहीं बल्कि उल्लेखनीय सीटें जीतने में सफल रहे हैं। समाजवादी पार्टी तो अखिलेश यादव की सोशल इंजीनियरिंग और राहुल गांधी व प्रियंका गांधी के साथ से पहली बार यूपी से सबसे अधिक सीटें जीतने का का रिकाॅड बनाकर भाजपा की कई दशक की राजनीति का गढ़ रहे अयोध्या का किला ध्वस्त करके देश की तीसरी बड़ी पार्टी संसद में बन गयी है। स्पीकर के चुनाव वाले दिन अखिलेश ने जो ज़बरदस्त भाषण संसद में दिया वह उस दिन का विपक्ष का मैन आॅफ डे कहा जाये तो गलत नहीं होगा। कहने का मतलब यह है कि जनता अब या तो एनडीए के साथ है या फिर इंडिया के साथ। वह तीसरे किसी बीच वाले विकल्प के साथ जाने को तैयार नहीं है। जनादेश यह है कि कभी इधर कभी उधर का खेल अब नहीं चलेगा या तो सत्ता के साथ खुलकर चले जाओ या फिर विपक्ष के साथ ईमानदारी से बने रहो वर्ना जनता चुनाव में मौका मिलते ही ऐसे दोगले दलों नेताओं और सांसदों को सबक सिखा देगी।
0 कहां क़तरे की ग़मख़्वारी करे है, समंदर है अदाकारी करे है।
बड़े आदर्श हैं बातों में लेकिन, वो सारे काम बाज़ारी करे है।।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 20 June 2024

पानी की प्रॉब्लम

*पानी की प्राॅब्लम आपके दरवाजे़ पर दस्तक देगी तभी संभलोगे ?*
0 बंगलुरू में 50 करोड़ लीटर पानी की कमी है। जो टंैकर वहां जलसंकट से पहले 1200 रू. में आराम से मिल जाता था अब उसके रेट बढ़ाकर पानी माफिया ने 2850 कर दिये हैं। 6 लोगों के एक परिवार को महीने में 12000 लीटर पानी की ज़रूरत होती है। इसके लिये एक परिवार को पानी पर ही अपनी कुल आय का 75 प्रतिशत तक यानी 10,000 रू. खर्च करना पड़ रहा है। ख़बर है कि झीलों की नगरी माने जाने वाले महानगर बंगलुरू के बाद देहरादून में पानी का संकट सर उठाने लगा है। वहां सौ से अधिक मुहल्लों में अब तक पानी कम आने या कुछ स्थानों पर बिल्कुल ना आने की शिकायतें मिल रही हैं। चिंता की बात यह है कि जिन लोगों को अभी पानी भरपूर और निशुल्क मिल रहा है वे भी संभलने को तैयार नहीं हैं।     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
एक सर्वे के मुताबिक कुल पानी का 80 से 90 प्रतिशत खेती में इस्तेमाल होता है। आंकड़ों के अनुसार 2050 तक प्रति व्यक्ति पानी की मांग में 30 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होेेेगी। जबकि इसके विपरीत पानी की उपलब्ध्ता में तब तक प्रति व्यक्ति 15 प्रतिशत की कमी आयेगी। जल प्रबंधन की व्यवस्था और शोध करने वालों का कहना है कि देश के 50 प्रतिशत ज़िलों में पानी का संकट 25 साल के भीतर खड़ा होने जा रहा है। उद्योगों के बाद कृषि में कुल जल खपत का 90 प्रतिशत अकेले तीन प्रमुख फसलों गेहंू धान और गन्ने में लगता है। इसमें जल उपयोग की दक्षता 35 प्रतिशत होती है जबकि इसे विशेष दक्षता और आधुनिक तकनीक से प्रयोग करके 20 प्रतिशत तक पानी बचाया जा सकता है। जानकारों का कहना है कि हर साल बढ़ती गर्मी और बदलते मौसम चक्र की वजह से भी जलसंकट दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। अगर इंटरनेशनल स्तर पर देखें तो दुनिया के कुल पानी का भारत के पास मात्र 4 प्रतिशत पानी है लेकिन विश्व की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत हिस्सा यहां रहता है। एडवांस वाटर एफिशियेंसी इन इंडियन एग्रीकल्चर की हाल की रिपोर्ट के अनुसार 1700 क्यूबिक मीटर से कम पानी वाले क्षेत्रों को जलसंकट वाला इलाका माना जाता है। 
आंकड़े बताते हैं कि हमारी संसद की 100 सीटें शहरी क्षेत्रों में हैं। नीति आयोग ने 2018 में एक सर्वे के बाद चेतावनी दी थी कि इनमंे से 21 नगरों में जल स्तर शून्य की ओर बढ़ रहा है। जिस दिन ऐसा होगा इससे 10 करोड़ से अधिक लोग प्रभावित होंगे। इन शहरों में बंगलुरू से लेकर हैदराबाद दिल्ली लखनउू थाणे रायगढ़ पनवेल व त्रिअनंतपुरम जैसे शहरों की एक लंबी सूची है जहां साल दर साल पानी का संकट बढ़ता ही जा रहा है लकिन हैरत और दुख की बात यह है कि धर्म जाति और भावनाओं की राजनीति में फंसे अधिकांश लोगों के लिये यह इतना बड़ा जीवन की बुनियादी आवश्यकता का संकट कहीं भी चुनावी मुद्दा तक नहीं है। राजनीतिक दलों और नेताओं को तो इसकी क्या चिंता होगी जब जल संकट भुगतने वाले नागरिकों को ही इसकी कोई परवाह नहीं है। समझने और विचार करने की बात यह है कि पानी का संकट जैसे जैसे बढ़ रहा है। वैसे वैसे आपदा में अवसर तलाश करने वाले पानी माफिया टैंकर सप्लायर और बोतलबंद पानी सप्लाई करने वाली कंपनियों की चांदी हो रही है। शासन प्रशासन को भी पानी का संकट कोई खास परेशान नहीं करता क्योंकि वे जानते हैं कि जनता के एजेंडे में ये मुद्दा नहीं है। 
सरकार इस मामले में किसी दूरगामी योजना पर भी काम करती नज़र नहीं आती है। जानकार बताते हैं कि देश का शहरीकरण बिना किसी ठोस और दूरगामी सुनियोजित योजना के ही चल रहा है। वास्तकिता यह है कि जिन नगरों में पानी का हाल फिलहाल में संकट गहरा रहा है। वहां पानी अब तक आसपास के 50 से 100 कि.मी. दूर गांव स्थित जलाश्यों से आता रहा है। मिसाल के तौर पर बंगलुरू जल संकट को गहराई से देखें तो पता चलेगा कि वहां 100 कि.मी. दूर स्थित कावेरी नदी से पानी आता है। ऐसे ही महानगर चैन्नई चोलावरम व वीरन्नम झील के पानी पर निर्भर है। दिल्ली यमुना और गंगा के पानी से अपना काम चलाता है। मंुबई 150 कि.मी. दूर वेतरणा सहित आध दर्जन झीलों के पानी से नागरिकों को सुविधा उपलब्ध कराता है। यह भी तथ्य है कि भारत में हर साल 3880 अरब घन मीटर वर्षा होती है जिसमेें से देश 1999 अरब घन मीटर पानी का लाभ उठा पाता है। देश में हर साल 249 अरब घन मीटर ज़मीन के अंदर का पानी निकाला जाता है। जल विशेषज्ञों का सुझाव है कि पानी की कमी वाले क्षेत्रों में अधिक पानी सोखने वाली धान व गन्ने की खेती तत्काल रोकनी चाहिये। लेकिन ऐसा होने के कोई आसार नज़र नहीं आते क्योंकि इससे राजनीतिक हलचल बढ़ जायेगी। 
     राजनेता किसानों को वोट ना मिलने से नाराज़ नहीं करेंगे। खुद लोगों में इतनी जागरूकता है नहीं कि वे स्वयं ही कोई पहल करके इस तरह का सकारात्मक कदम उठा सकें। इसके लिये सरकार चाहे तो पहले बड़ पैमाने पर लोगों का ब्रेनवाश कर बाद में कडे़ कानूनी कदम उठा सकती है। लेकिन इसके लिये जिस दृढ़ इच्छा शक्ति की ज़रूरत होगी वह हमारे राजनीतिक दलों जनप्रतिनिधियों और सरकारों में कम ही देखने को मिलती है। रसायनिक ख़तरनाक इंडस्ट्रियल कचरा लगातार साफ पानी के श्रोतों में बहाया जा रहा है। पेड़ लगातार काटे जा रहे हैं जिससे भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम से ना केवल भूजल को रिचार्ज किया जा सकता है बल्कि बाढ़ से काफी सीमा तक बचा जा सकता है। ऐसे ही सीवेज प्लांट को बढ़ावा देकर उससे फिर से प्रयोग करने योग्य पानी निकाला जा सकता है। आंकड़े बताते हैं कि 78 प्रतिशत नगरों में स्थानीय निकाय पानी का ठीक से प्रबंध्न नहीं कर पा रहे हैं। पानी अधिकांश स्थानों पर निशुल्क या ना के बराबर कीमत पर मिलने से भी खूब खराब हो रहा है। बंगलुरू जिस पानी को 7 से 45 रू. 1000 लीटर देता है उसी को टैंकर 150 से 250 रू. में दे रहे हैं। 
      निकायों की जल कीमत लागत से 20 से 30 प्रतिशत वापस मिल रही है। जब तक लोग बिना वजह टूटी खुली छोड़ना कार बाइक स्कूटर पीने के पानी से घंटों धोना स्विमिंग पूल, गर्मी में सैंकड़ों लीटर पानी का छिड़काव करना नहीं छोड़ेंगे जल संकट एक दिन हर घर तक पहुंच जायेगा। बेहतर हो कि हम समय रहते संभल जायें।
 *0 प्यास लगती है चलो रेत निचोड़ा जाये,* 
 *अपने हिस्से में समंदर नहीं आने वाला।।* 
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

मोदी नहीं करेंगे बदलाव

*संघ परिवार में नहीं है कोई टकराव, एनडीए सरकार नहीं करेगी बदलाव!* 
  -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 देश में दो वर्ग हैं। एक चाहता था कि मोदी फिर से पीएम बनें और वैसे ही काम करते रहें जैसे कि वे अब तक करते रहे हैं। दूसरा वर्ग बदलाव चाहता था। उसने भाजपा को बहुमत न मिलने विपक्ष के मज़बूत होने और राहुल गांधी के रूप में एक नये राष्ट्रीय नेता के उभरने को ही कुछ हद तक बदलाव मानकर फिलहाल सब्र कर लिया है। उसने एनडीए के बड़े घटक टीडीपी और जेडीयू से भी कई बड़ी आशायें लगा रखी हैं। इस वर्ग ने आरएसएस द्वारा बिना नाम लिये कुछ नई बातें कहे जाने को भी मोदी के खिलाफ बड़ा कदम मानते हुए मोदी सरकार में बदलाव की उम्मीदें पाल रखी हैं। सच कड़वा होता है लेकिन हकीकत यही है कि न तो एनडीए के बड़े घटक मोदी सरकार को बदल सकते हैं और ना ही संघ मोदी सरकार को गिराकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार सकता है। यह सब नूराकुश्ती है।
सीएसडीएस लोकनीति के चुनाव बाद सर्वे में यूपी में राहुल की लोकप्रियता 36 तो मोदी की 32 प्रतिशत है। बनारस से मोदी की जीत का अंतर भी घटकर एक तिहाई रह गया है। यहां तक कि भाजपा को फर्श से अर्श तक पहुंचाने वाली अयोध्या ने भी उसको नकार दिया है। राजस्थान के जिस बांसवाड़ा से मोदी ने अपने भाषण में जमकर हिंदू मुस्लिम शुरू किया था। वह सीट भी भाजपा हार गयी। जिस इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज किया था। वह सीट भी फैज़ाबाद को अयोध्या की तरह करके भाजपा हार गयी। भाजपा ने इस बात पर मंथन शुरू कर दिया है कि वह यूपी राजस्थान और हरियाणा में बुरी तरह क्यों हारी? इसकी वजह वह अपनी सांप्रदायिक विचारधारा जनविरोधी कार्यशैली और पंूजीवादी नीतियांे को नहीं मुसलमानों के साथ दलितों व जाटों के एक वर्ग का एक साथ आ जाना मानती है। इसके साथ ही प्रत्याशियों का गलत चुनाव बेरोज़गारी व महंगाई भी एक बड़ी वजह मानी जा रही है। अकेले इन तीन राज्यों में बीजेपी ने 45 सीट खो दी हैं। उसका यह तो मानना है कि अबकि बार 400 पार का नारा उल्टा पड़ गया लेकिन वह इसके लिये विपक्ष को संविधान आरक्षण व लोकतंत्र खत्म करने का भाजपा के खिलाफ प्रचार करने का दोषी मानती है। भाजपा को लगता है कि उसका परिवारवाद और करप्शन विरोधी अभियान भी जनता दल सेकुलर तेलगु देशम पार्टी व अजित पवार जैसे लोगों को अपने एनडीए में जोड़ने से कमजोर पड़ गया। शहरी क्षेत्रों में भाजपा का 18 प्रतिशत तक मतदाता कम निकला और कस्बों व गांवों में वह विपक्ष को वोट कर उससे काफी हद तक छिटक गया। 
  यूपी में प्रशासन द्वारा भाजपा को अपेक्षित सहयोग न मिलना चुनाव बाद सीएम योगी को हटाने की लगातार चल रही चर्चा से ठाकुर व राजपूत वोटों का भाजपा को पहले की तरह समर्थन ना करना और महाराष्ट्र में मूल शिवसेना व एनसीपी को तोड़कर जोड़तोड़ की सरकार बनाना जनता को रास नहीं आया। संघ ने चुनाव बाद जो कुछ कहा वह भाजपा के उन हिंदू वोटों को मनाने का प्रयास है जो भाजपा के हिंदू मुस्लिम राम मंदिर और विदेशों में भारत का डंका बजने के लगातार चलाये जा रहे भावनात्मक अभियान से बेरोज़गारी महंगाई भ्रष्टाचार परीक्षा पेपर लीक किसानों की बदहाली और जीवन के बुनियादी मुद्दों से दूर करने की चाल को समझकर नाराज़ होने लगे हैं। संघ को मोदी के सत्ता में आने से वो सब कुछ मिला है जो पिछले 70 साल में नहीं मिला था। इसलिये चुनाव में मर्यादा रखना अहंकार ना होना विपक्ष को शत्रु ना मानना मुस्लिमों को साथ लेकर चलना मणिपुर की चिंता करना और सर्वसम्मति की सीख संघ की दिखावटी बनावटी और रणनीतिक लीपापोती ही अधिक लगती है। संघ इन मामलों मंे गंभीर होता तो पहले ही इन चीजों को होने से रोकता। लेकिन संघ परिवार में सबकी भूमिका पहले से ही तय होती है कि किसको किस समय क्या कहना है और क्या करते रहना है? मोदी से बेहतर आज्ञाकारी प्रचारक पीएम और हुक्म बजाने वाला संघ को कोई दूसरा भाजपा नेता मिल नहीं पाया है। जहां तक यूपी के सीएम योगी को बार बार हटाने की चलने वाली चर्चा का सवाल है। वे भावी पीएम के रूप में देखे जाते हैं। उनके चयन के पीछे भी संघ है। लिहाज़ा चाहकर भी उनको दिल्ली की सत्ता हटा नहीं सकती। 
   हालांकि हर दल की तरह भाजपा में भी गुटबंदी से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इनकी आपसी लड़ाई अन्य दलों की तरह कभी भी संघ परिवार का कोई बड़ा नुकसान नहीं करती है। यूपी के पूर्व सीएम कल्याण सिंह कर्नाटक के पूर्व सीएम येदियुरप्पा और विहिप के प्रमुख रहे प्रवीण तोगड़िया का हाल संघ परिवार छोड़ने के बाद क्या हुआ यह सबको याद रखना चाहिये। खुद आडवाणी भाजपा में रहते हुए पाकिस्तान जाकर जिन्ना की मज़ार पर थोड़ा सा भटककर उनको सेकुलर होने का तमगा देकर किस तरह से अज्ञातवास में चले गये यह दुनिया ने देखा है। रहा सवाल नायडू व नीतीश का तो वे मोदी को उनकी कार्यशैली बदलने के मजबूर नहीं कर सकते। पहले दावा किया गया कि वे दोनों अमित शाह को मंत्री नहीं बनने देंगे। जब शाह ने शपथ ले ली तो कहा गया कि उनको गृहमंत्री पद नहीं दिया जायेगा। जब यह भी हो गया तो कयास लगाये गये कि स्पीकर पद भाजपा को नहीं मिलेगा। लेकिन मोदी ने आज तक किसी से दबकर काम नहीं किया। उन्होंने सब बड़े मंत्रालय भाजपा के पास रखे हैं। नीतीश बिहार में सीएम बने रहने के लिये अपने 49 विधायकों के साथ भाजपा के रहमो करम पर हैं। उधर नायडू ने अपने राज्य की नई राजधानी अमरावती को बनाने और अपने मेनिफेस्टो के वादों को पूरा करने के लिये साढ़े तीन लाख करोड़ के पैकेज को लेकर केंद्र से अपनी डील कर ली है। इसके बाद नीतीश और नायडू के मोदी के किसी भी बड़े फैसले का विरोध करने का साहस वे कहां से लायेंगे? 
आप जल्द ही देखेंगे एनडीए गठबंधन टूटना तो दूर उल्टा इंडिया गठबंधन के कुछ कमज़ोर लालची व करप्ट सांसदों छोटे दलों व निर्दलीयों को तोड़कर भाजपा या एनडीए गठबंधन में लाकर मोदी नायडू व नीतीश पर अपनी निर्भरता कम करने को भाजपा के स्पीकर का पहले की तरह एकतरफा इस्तेमाल करेंगे। वे विपक्ष का डिप्टी स्पीकर भी नहीं बनने देंगे, न ही कोई प्रेस वार्ता कर किसी सवाल का जवाब देने का कष्ट करेंगे। इसके साथ अलीगढ़ में एक मुसलमान की माॅब लिंचिंग लेखिका और समाजसेवी अरूंधति राय के खिलाफ 14 साल पुरान मामले में यूएपीए कारवां से जुड़े पत्रकार परमजीत के खिलाफ चार साल पुराने मामले में केस दर्ज करना आईटी रूल के बहाने फेक न्यूज का भंडाफोड़ करने वाले जुबैर के खिलाफ एक्स से उनका एकाउंट ब्लाॅक करने को कहकर सरकार ने अपनी कार्यशैली के संकेत दे दिये हैं कि वह पहले की तरह ही चलेगी।
 *0 यहां सब ख़ामोश हैं कोई आवाज़ नहीं करता,* 
 *सच बोलकर कोई किसी को नाराज़ नहीं करता।* 
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 13 June 2024

बीजेपी की बी टीम

*मायावती, प्रकाश अंबेडकर, ओवैसी: भाजपा की बी टीम जैसी ?* 
0 2024 का चुनाव कोई आम चुनाव नहीं था। यह चुनाव लोकतंत्र संविधान और आरक्षण बचाने का एतिहासिक चुनाव माना जा रहा था। इसके बावजूद दलित और मुस्लिम समाज के मसीहा माने जाने वाले बहन मायावती संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर और एमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी के साथ ही कुछ मुस्लिमों ने बसपा का टिकट लेकर और उस टिकट पर मुसलमानों के एक साम्प्रदायिक हिस्से ने वोट देकर भाजपा को हराने के चक्कर में इंडिया गठबंधन के एक दर्जन से अधिक उम्मीदवारों को हराने की जाने अनजाने भूल की है। जब तक खुद किसी भी कीमत पर सांसद विधायक बनने और बसपा उम्मीदावार को धर्म देखकर वोट देने वाले साम्प्रदायिक मुसलमान मौजूद हैं तब तक भाजपा का बांटो और राज करो का फंडा चलता रहेगा।  
    *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
बसपा सुप्रीमो मायावती चाहे दावे कुछ भी करें लेकिन यह बात अब साफ हो गयी है कि वे मोदी सरकार के दबाव में अपने खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति मामले में जांच को दबाये रखने के लिये भाजपा के इशारे पर बहुजन समाज के हितों के खिलाफ राजनीति कर रही हैं। यही वजह है कि आम चुनाव शुरू होने के दौरान उनको जब इंडिया गठबंधन ने भावी पीएम का चेहरा बनाकर पेश करने के लिये विपक्षी गठबंधन में आने का न्यौता दिया तो वे इतना घबरा गयी कि बिना इस प्रस्ताव पर चर्चा किये ही उल्टा यह आरोप लगा दिया कि कुछ दल बसपा के बारे में विपक्षी गठबंधन में जाने की अफवाहें फैला रहे हैं। इससे पहले उन्होंने अपने भतीजे आकाश को चुनाव की कमान सौंप दी थी। जब आकाश जोरदार चुनाव प्रचार करके जल्दी ही मीडिया में चर्चित होने लगे तो उनके खिलाफ कुछ भाषण में अपशब्द कहने की भाजपा सरकार ने रिपोर्ट दर्ज कर दी। इसके बाद मायावती ने उनको उनके पद से हटाकर चुनाव प्रचार से भी रोक दिया। ऐसे ही मायावती ने जितने उम्मीदवार खड़े किये उनमें से जीता तो एक भी नहीं लेकिन चर्चा है कि गैर दलितों से चुनाव चंदे के रूप में मोटी रकम लेकर टिकट इस हिसाब से दिये गये जिससे अकेले यूपी में अकबरपुर अलीगढ़ अमरोहा बांसगांव भदोही बिजनौर देवरिया डुमरियागंज फरूखाबाद फतेहपुरसीकरी हरदोई मिर्जापुरा मिश्रिख फूलपुर शाहजहांपुर और उन्नाव आदि 16 सीट पर बसपा के प्रयाशियों ने इतने मुस्लिम दलित वोट काट लिये कि इंडिया गठबंधन का उम्मीदवार उससे कम वोटों के अंतर से भाजपा केंडीडेट से हार गया। 
हो सकता है कि कुछ सीट पर सवर्ण या पिछड़ी जाति का बसपा उम्मीदवार होने से ऐसा ही भाजपा प्रत्याशी के साथ भी हुआ हो। इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। लेकिन यहां सवाल बसपा सुप्रीमो की नीयत का है। वे लगातार ऐसे बयान देती रही हंै जिससे भाजपा को लाभ और सेकुलर दलों को नुकसान हुआ है। 2019 में सपा से गठबंधन करके जब उन्होंने यूपी में संसदीय चुनाव लड़ा था तो उनको शून्य से 10 सीट पर पहुंचने का भारी एकतरफा लाभ हुआ था। जबकि दलित वोट सपा को ना जाने से सपा की सीट पहले की तरह 5 ही रह गयी थीं। फिर भी पूरी बेशर्मी से बहनजी ने झूठ बोलते हुए गठबंधन से बसपा को लाभ ना होने का आरोप लगा कर भाजपा के दबाव में अलग होने का एलान कर दिया था। 
यह अजीब बात है कि आज जब उनकी पोल खुल चुकी है कि वे भाजपा की बी टीम वैसे ही नहीं कही जाती बल्कि इसके कई प्रमाण और उदाहरण लोगों के सामने आते जा रहे हैं। फिर भी वे हर बार मुसलमानों पर बसपा को वोट ना देने का आरोप लगाकर उनको भविष्य में टिकट ना देने की धमकी देती हैं। उनसे पूछा जाना चाहिये कि उनको उनका दलित समाज भी वोट नहीं दे रहा तो उस पर आरापे क्यों नहीं लगाती? साथ ही उन्होंने इस बार 10 ब्रहम्णों को भी टिकट दिये थे उनमें से एक भी नहीं जीता। साथ ही कई स्थानों पर बसपा के प्रत्याशियों की तीसरे चैथे और पांचवे स्थान पर पहुंचने से ज़मानत तक ज़ब्त हो गयी। उनका वोट इस बार सिमटकर सिंगिल डिजिट में 9 फीसदी रह गया है। मिसाल के तौर पर नगीना सीट पर जहां जुमा जुमा आठ दिन की चंद्रशेखर की असपा साढ़े पांच लाख वोट लेकर भाजपा से डेढ़ लाख के अंतर से जीती वहीं तीसरे नंबर पर रहने वाली सपा एक लाख वोट लेने में सफल रही जबकि बहनजी का हाथी 13000 वोट लेकर ही हांफने लगा। हम तो चाहते हैं कि मायावती क़सम खा लंे कि चाहे कोई मुसलमान कितनी ही बड़ी रकम चंदे मंे दे वे उसको किसी कीमत पर टिकट नहीं देंगी क्योंकि इससे मुसलमानों पर उनका एहसान होगा नुकसान नहीं। सच तो यह है कि करोड़ों रूपये देकर जो बसपा का टिकट लाता है। उसके पास अपवाद छोड़ दें तो नंबर दो यानी हराम का पैसा ही अधिक होता है। इससे मुसलमानों का आर्थिक नुकसान तो होता ही है। साथ साथ वोट काटकर बसपा भाजपा को हर बार कई सीट जिताकर राजनीतिक नुकसान भी करती है। मुसलमानों का एक वर्ग जो साम्प्रदायिक है और बसपा प्रत्याशी को अपने ही धर्म का देखकर केवल इस चक्कर में वोट कर देता है कि इससे संसद में मुसलमानों की संख्या कुछ बढ़ सकती है। जबकि सेकुलर दल और उनके हिंदू नेता आज के दौर में मुसलमानों के अधिकार की लड़ाई बसपा के मुस्लिम से बेहतर लड़ रहे हैं। 
 ऐसे ही महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर की बहुजन अघाड़ी ने लाख कोशिशों के बाद भी दलित अधिकारों उनका अपना नेतृत्व और उनकी स्वतंत्र पहचान के नाम पर इंडिया गठबंधन का साथ नहीं दिया। जिससे चार सीट पर एनडीए की जीत का अंतर अघाड़ी को मिले वोट से कम था। इसी तरह मजलिसे इत्तेहाद उल मुस्लिमीन के असदुद्दीन ओवैसी ने औरंगाबाद सीट पर इंडिया गठबंधन से तालमेल ना कर अपना उम्मीदवार उतारा। जिससे एनडीए ने यह सीट जीत ली। ओवैसी से पूछा जाना चाहिये कि इस दौर में भाजपा को हराने के लिये सेकुलर दलों की पहले ज़रूरत है या फिर उनके दल और मुस्लिम सांसद चुने जाने की? उनको भाजपा की बी टीम वैसे ही नहीं कहा जाता जितनी सीट के अंतर से बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव में एनडीए ने सरकार बनाई थी लगभग उतनी ही एमआईएम का उम्मीदवार खड़ा करके ओवैसी ने सेकुलर दलों को मुस्लिम वोट काटकर हरा दी थीं। उनकी नीयत का खोट और भाजपा से मिलीभगत इस बात से भी पता चलती है कि वे खुद जिस तेलंगाना से आते हैं। उसमें केवल हैदराबाद सीट से खुद तो लड़ते हैं लेकिन राज्य की बाकी किसी भी लोकसभा सीट पर अपना उम्मीदवार क्यों नहीं खड़ा करते ? बहनजी अंबेडकर जी और ओवैसी साहब जैसे डबल गेम खेलने वाले सभी नेता यह समझ लें कि ये पब्लिक है सब जानती है।
 *0 एक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,*
 *जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।* 
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

मोदी की लोकप्रियता

*मोदी की लोकप्रियता बरक़रार, भाजपा के वोट 23 करोड़ के पार !*
0 2024 के चुनाव का जनादेश आये अभी कुछ ही दिन हुए हैं। पक्ष विपक्ष मीडिया और सिविल सोसायटी इसके अपने अपने मतलब निकाल रहे हैं। यह ठीक है कि एकजुट होने से इस चुनाव में विपक्ष की ताक़त बढ़ गयी है लेकिन केवल सीट घटने से यह मानना कि भाजपा कमज़ोर हो गयी है शायद ठीक नहीं होगा। 2019 के मुकाबले भाजपा के वोट 22.90 करोड़ से बढ़कर 23.26 करोड़ हो गये हैं। हालांकि उसका वोट प्रतिशत 37.4 से मामूली घटकर 36.6 हो गया है। सवाल यह उठ सकता है कि जब वोट प्रतिशत गिरा तो कुल वोट कैसे बढ़ गये? जवाब यह है कि 2019 में कुल वोट 91 करोड़ तो 2024 में 97 करोड़ थे। यह अंतर भी तब है जबकि 2019 में मतदान 67.40 तो 2024 में 65.79 प्रतिशत रहा है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि भाजपा ने 92 सीट खोकर 32 नई सीट जीत ली हैं।
     -इक़बाल हिंदुस्तानी 
मोदी ने पूर्व पीएम जवाहर लाल नेहरू की बराबरी करते हुए तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली है। हालांकि इस बार न तो यह मोदी सरकार है और ना ही भाजपा सरकार बल्कि यह एनडीए सरकार है। एनसीपी को कैबिनेट पद ना मिलने से उसके एमपी प्रफुल्ल पटेल द्वारा शपथ ना लेने से नई सरकार में खटपट भी शुरू हो गयी है। यह चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़ा गया था। एक तरह से देखा जाये तो उनकी लोकप्रियता देश के कुछ हिस्से में घटी है तो कुछ नये क्षेत्रों में बढ़ी भी है। इस तरह से कह सकते हैं कि उनका पुराना ग्राफ लगभग जैसा का तैसा अभी भी बरक़रार है। जो भाजपा 370 और एनडीए के 400 पार के दावे कर रही थी उसको 272 और 300 पार टच करने का मौका भी मतदाताओं ने नहीं दिया है। लेकिन उत्तर के नुकसान की कुछ हद तक भरपाई उसने दक्षिण में कर वोट और सीट बढ़ाकर कर ली है। 
मिसाल के तौर पर तेलंगाना में 8 सीट जीतकर वह 20 से 35 प्रतिशत पर आंध्रा में 3 सीट जीतकर 9 से 11 प्रतिशत पर और केरल मेें एक सीट जीतकर 13 से 17 प्रतिशत पर एवं तमिलनाडू में बिना खाता खोले 4 से 11 प्रतिशत तक वोट पर पहुंच गयी है। आमतौर पर पार्टियों का ग्राफ उनकी सीटों से आंका जाता है। जिसकी वजह से विपक्षी इंडिया गठबंधन कांग्रेस की सीट दोगुनी और सपा टीएमसी व शिवसेना उध्दव ठाकरे गुट आदि की सीटें काफी बढ़कर 230 तक पहुंच जाने से सरकार ना बनने के बावजूद जश्न मनाता नज़र आ रहा है। उसकी खुशी की एक बड़ी वजह यह भी है कि जिस गैर बराबरी के पक्षपातपूर्ण माहौल में उसने संविधान आरक्षण और देश बचाने के नारे के साथ यह मुश्किल चुनाव लड़ा उसके बावजूद भाजपा की सीटें कम होने और विपक्ष की सीटें अच्छी खासी बढ़ना उसका संख्या बल ही नहीं नैतिक बल भी बढ़ाने को काफी है। 
यह अच्छा हुआ कि अपने पास पूरे नंबर ना होने से इंडिया ने फिलहाल जनादेश का सम्मान करते हुए चुपचाप विपक्ष में बैठने का फैसला किया है। लेेकिन यह देखना रोचक होगा कि जो मोदी अब तक गुजरात के सीएम से लेकर केंद्र में पीएम बनकर अपने दल के बहुमत पर दो दशक तक एकक्षत्र राज करते रहे वे पहली बार गठबंधन सराकर बनने पर पुराने अवसरवादी बात बात पर दबाव बनाकर अपना राजनीतिक स्वार्थ पूरा कराने के अभ्यस्त अनुभवी व घाघ राजनीतिज्ञ नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू जैसे बड़े एनडीए घटकों से कैसे पांच साल तक तालमेल बनाते हैं? अभी से नायडू और नीतीश ने अपने अपने राज्यों को विशेष दर्जा बड़ा आर्थिक पैकेज और अपने राज्यों के घोषणा पत्रों पर अमल करने को पर्याप्त सहायता की मांग करनी शुरू कर दी है। 
नायडू तो गृहमंत्री और लोकसभा का स्पीकर भी अपना बनाना चाहते थे लेकिन फिलहाल भाजपा ने उनके सामने झुकने से यह सोचकर मना कर दिया है कि नायडू अगर इंडिया गठबंधन के साथ जाने की धमकी भी देंगे तो वहां उनके जाने से सरकार बनाने लायक समीकरण नहीं बनेगा। फिलहाल अमित शाह के होम मिनिस्टर ना बनने की चर्चा है। हालांकि नायडू और नीतीश के अलावा भी कई छोटे दलों के भविष्य में इंडिया गठबंधन में जाने की चर्चा चलती रहेगी लेकिन मोदी के अब तक के तौर तरीकों को देखकर लगता है कि वे बहुमत साबित करने से पहले ही उल्टा इंडिया गठबंधन व कुछ निर्दलीयों को एनडीए में शामिल करके घटक दलों के नाजायज़ दबाव को कम करने का प्रयास ज़रूर करेंगे। सबको पता है कि संघ भाजपा और मोदी का मिज़ाज लोकतांत्रिक उदार और सर्वसम्मति का नहीं रहा है। उन्होंने अब तक देश के प्रेसिडेंट की तरह मनमाना काम किया है। बताया जाता है कि सारे मंत्रियों के फैसले बजट और मीडिया प्रचार का काम मोदी के पीएमओ से होता रहा है। 
अब जब घटक दलों के मंत्री बनेंगे तो वे अपने काम में संघ और मोदी का दख़ल क्यों सहन करेंगे? यही वजह है कि भाजपा ने अपनी राजनीतिक हिंदुत्ववादी सोच को आगे भी लागू करने के लिये शिक्षा संस्कृति गृह विदेश और रक्षा मंत्रालय जैसे अहम विभाग अपने पास रखने का मन बनाया है। यह अलग बात है कि घटक दल इस शर्त पर कितना तैयार हो पाते हैं? मोदी जी का अब तक का इतिहास देखते हुए ही शायद नायडू स्पीकर का पद चाहते हैं जिससे किसी समय अगर उनकी या किसी अन्य घटक पार्टी के सांसदों को मोदी जी तोड़कर अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने का प्रयास करें तो स्पीकर उसको नाकाम कर दे। 
मोदी जी को अब तक आदेश देने हिंदू देश के राजा की तरह अकेले सारे फैसले करने और अहंकार में अपने ही कैबिनेट मंत्रियों व सांसदों की ना सुनने की आदत है। देखना यह है कि जिस तरह से उन्होंने पिछले कार्यकाल में अचानक नोटबंदी देशबंदी और जीएसटी का रात 8 बजे टीवी पर आकर बिना किसी एक्सपर्ट मुख्यमंत्रियों और अपने ही सहयोगी मंत्रियों से सलाह लिया बिना तानाशाह की तरह आदेश जारी किया क्या वे इस बार भी ऐसा कर पायेंगे? टीडीपी ने अभी से पैगासस की जांच कराने अग्निवीर योजना वापस लेने कॉमन सिविल कोड पर सब पक्षों से चर्चा करने की मांग मोदी के सामने रख दी है। हमें लगता है कि एनडीए सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं पायेगी। मोदी के लिये आज के बदले हालात में एक शेर याद आ रहा है-
0 बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है,
  बहुत उूंची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है।।
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डॉटकाम के ब्लॉगर और पब्लिक ऑब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

Thursday 6 June 2024

एग्जिट पोल तेरा मुंह काला

चुनाव घोटाला: एग्ज़िट पोल तेरा मंुह काला, 31 लाख करोड़ का दिवाला!
0 एक कहावत है कि आप कुछ लोगों को सदा मूर्ख बना सकते हैं और सब लोगों को कुछ टाइम मूर्ख बना सकते हैं लेकिन सब लोगों को सदा बेवकूफ़ नहीं बना सकते। इस बार आम चुनाव में जहां अहंकार और मनमानी में डूबी मोदी सरकार झूठ हिंदू मुस्लिम और हिंदुत्व के बल पर 400 पार का नारा लगा रही थी वहीं उल्टा उसकी 60 से अधिक सीटें घट जाने से अपने बल पर बहुमत भी नहीं मिला है। मुसलमानों को सताओ हिंदुओं को डराओ और पूंजीतियों के सहयोग से सत्ता में आओ का फार्मूला जनता ने नकार दिया है। राहुल गांधी के आक्रामक प्रचार व दलित नेता खड़गे के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी सीटें डबल और इंडिया गठबंधन का वोट 42 प्रतिशत तक पहंुचाकर 235 सीटों के साथ सरकार के सामने कड़ी चुनौती पेश कर लोकतंत्र संविधान और कानून के राज को बल दिया है।    
  -इक़बाल हिंदुस्तानी
अगर यह कहा जाये तो गलत नहीं होगा इस चुनाव से जहां मोदी की नैतिक हार हुयी है वहीं गोदी मीडिया स्पॉंसर्ड एग्ज़िट पोल और कथित स्वायत्त संस्थाओं के सरकार के सामने नतमस्तक हो जाने से शेयर मार्केट मंे छोटे निवेशकों का 4 जून को 31 लाख करोड़ का भारी नुकसान हुआ है। इससे पहले फर्जी नक़ली और पेड एग्ज़िट पोल के झूठे दावों की वजह से 3 जून को भाजपा और एनडीए के 350 से 400 पार होने की हवाई ख़बरों से संसेक्स 1200 अंक चढ़कर अडानी अंबानी जैसे मोदी जी के दोस्तों सहित कई कंपनी के शेयर आसमान छूकर 12 लाख करोड़ का माल कूटने में सफल हुए थे। खुद मोदी और अमित शाह ने वोटों की गिनती वाले दिन 4 जून को शेयर मार्केट चढ़ने का दावा किया था जिससे लाखों छोटे निवेशक अपने हाथ जलाकर 31 लाख करोड़ की पूंजी लुटा बैठे। यह पता नहीं मोदी की कैसी गारंटी थी? इस चुनाव में भाजपा के घटक पहले की तरह लगभग 50 सीट के आसपास जीते हैं। उधर एनडीए के नये घटक टीडीपी ने आंध्रा में भी जीत हासिल की है। अब देखना यह है कि जो मोदी पूरे चुनाव में दलितों पिछड़ों का हिस्सा छीनकर मुसलमानों को देने का विपक्ष पर झूठा आरोप लगाते रहे अब चन्दरबाबू नायडू द्वारा राज्य में सरकार बनने पर मुसलमानों को 4 प्रतिशत आरक्षण और मदरसों को हर माह 10,000 रूपये देने से कैसे रोकते हैं? उधर बिहार में नीतीश कुमार पहले ही मुसलमानों का वोट भी मिलने से उनको खुश करने के लिये समय समय पर विभिन्न योजनाओं का एलान करते रहे हैं। ऐसे में मोदी उनको मुसलमानों का तथाकथित तुष्टिकरण करने से रोकते हैं या खुद उनका समर्थन ठुकराकर अपनी सरकार गिराना पसंद करते हैं? अगर वे इनमें से कोई भी एक कदम नहीं उठाते हैं तो उनका जो कथित मैजिक इस बार उनके अंघभक्तों के सर से उतरना शुरू हुआ है वह आगे और तेजी से खत्म होता जायेगा। मोदी को यह भी नज़र आ रहा होगा कि उनकी बनारस की जीत इस बार आधी से अधिक घटकर डेढ़ लाख तक सीमित हो गयी है। साथ ही वे जिस राम मंदिर को गेम चेंजर समझ रहे थे वहां की अयोध्या वाली फैजाबाद संसदीय सीट भाजपा बुरी तरह से हार गयी है। 
 सारे चुनाव में मोदी अपनी उपलब्धि और आगे की योजनायें न बताकर विपक्ष कांग्रेस राहुल गांधी और हर बात पर मुसलमानों को कोसते रहे लेकिन उनके कोर हिंदू बैंक ने इसे पसंद नहीं किया और बढ़ती महंगाई व बेरोज़गारी और करप्शन पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है। मोदी सरकार के 50 में से 19 मंत्री चुनाव हार गये हैं। हालांकि भाजपा का वोट बैंक केवल एक प्रतिशत ही घटा है लेकिन उसकी सीटें 63 घट गयीं हैं। इसकी वजह यह है कि उसके खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन ने लगभग 450 सीटों पर वन टू वन मुकाबला बनाकर 2019 में विपक्ष के बिखरे वोटों को एकजुट कर दिया है। यही वजह है कि खुद कांग्रेस का वोट मात्र 19 से 21 फीसदी होने से मात्र दो प्रतिशत बढ़ने से उसकी सीटें 52 से दोगुनी यानी लगभग 100 हो गयीं हैं। यूपी में तो भाजपा की हालत पतली हो गयी है। यहां पहले विपक्ष उससे 11 फीसदी वोट से पीछे था लेकिन अब वह मात्र एक परसेंट कम रह गया है। यहां मुसलमानों के साथ दलितों और पिछड़ों के एक बड़े वर्ग का आना भाजपा की लुटिया डुबोने में सफल रहा है। यह सोशल इंजीनियरिंग सपा के अखिलश की कामयाब रही है। इसमें चुनाव बाद सीएम पद से मोदी द्वारा योगी को हटाने की चर्चा भी तड़का लगा गयी जिससे बड़ी संख्या में राजपूत ठाकुर और कई सवर्ण जातियों ने या तो वोट ही नहीं किया या फिर इंडिया गठबंधन के साथ चले गये। कांग्रेस ने इस चुनाव मंे अपना वोट पिछले चुनाव के 12 करोड़ से बढ़ाकर 13.55 करोड़ करने और राहुल गांधी को मोदी से अधिक समझदार ईमानदार और काबिल नेता साबित करने में भी किसी हद तक सफलता प्राप्त की है। जबकि भाजपा कुल मतदान में अपना हिस्सा इस बार थोड़ा सा कम होने के बावजूद 2019 के अपने कुल वोट 22.90 करोड़ से बढ़ाकर 23.26 करोड़ कर सकी है। मोदी सरकार से शिक्षित बेरोज़गार बार बार परीक्षा का पेपर लीक होने से भी बुरी तरह खफा नज़र आया। किसान एमएसपी ना मिलने और उनकी आय वादे के मुताबिक 2022 मंे डबल नहीं होने से पहले ही आक्रोषित चल रहा था। भाजपा को लोकदल से गठबंधन का भी खास लाभ नहीं हुआ। उल्टा लोकदल अपनी दोनों सीट जीतनेे में सफल हो गया। बसपा इस चुनाव में शून्य सीट व 9 फीसदी वोट पर सिमटकर खत्म हो गयी है। आगे उसकी जगह चन्द्रशेखर की आज़ाद समाज पार्टी भर सकती है क्यांेकि मुसलमान दलितों के साथ एकजुट होने को बेकरार हैं। यह नगीना सीट पर असपा की बंपर जीत से संकेत मिल गये हैं। 
इस चुनाव का एक पहलू यह भी है कि जिन दलों जैसे वाईएसआर कांग्रेस बीजू जनतादल टीआरएस बसपा और पीडीपी आदि ने किसी गठबंधन का साथ नहीं दिया वे सब निबट गये। ये सब भाजपा से चोरी छिपे गलबहियां करते रहे हैं। आगे देश में दो ध्रुवीय राजनीति भाजपा व कांगेस के नेतृत्व में चलने के प्रबल आसार नज़र आ रहे हैं। मोदी भाजपा संघ और एनडीए के घटक इस संदेश को जितना जल्दी समझ लें बेहतर होगा कि आगे उनको बढ़ती आर्थिक असमानता बेरोज़गारी भ्रष्टाचार पक्षपात ईडी सीबीआई इनकम टैक्स चुनाव आयोग मीडिया पुलिस प्रशासन कुछ जजों एनआरसी कॉमन सिविल कोड कट्टर हिंदुत्व और विपक्षी नेताओं व मुसलमानों को चुनचुनकर टारगेट करने से बचना होगा वर्ना एनडीए सरकार के घटक पांच साल पूरे होने से पहले ही उनको टाटा बॉय बॉय करके इंडिया गठबंधन में जाकर वैकल्पिक सरकार बना सकते हैं जिसके लिये विपक्ष हर टाइम ही उनके लिये पलक पांवड़े बिछाये तैयार मिलेगा।        
0 वो आफ़ताब लाने का देकर हमें फ़रेब,
 हमसे हमारी रात के जुगनू भी ले गया।
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डॉटकाम के ब्लॉगर और पब्लिक ऑब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।