अयोध्या विवाद: आगे रास्ता बंद है!
यहां से ही ‘राइट टर्न’ ले सकते हैं दोनों वर्ग!
बाबरी मस्जिद बनाम रामजन्मभूमि विवाद अगर आपसी समझौते से हल हो जाये तो इससे दोनों पक्षों को जीत का अहसास होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस आधा दशक से ज़्यादा पुराने विवाद पर सुनवाई करके कानूनी फैसला देने से पहले दोनों पक्षों को जो सुलह का मौका दिया है। हमको लगता है यह भावुक और संवेदनशील मुद्दा होने से इसका कानूनी हल तलाशना तो अंतिम विकल्प है। लेकिन इसके किसी एक पक्ष में आने से फैसला लागू करना सरकार के लिये बड़ा मुश्किल हो जायेगा। हो सकता है कानूनी और उपलब्ध दस्तावेज़ों के हिसाब से बाबरी मस्जिद एक्शन कमैटी यह मानकर चल रही हो कि सुप्रीम कोर्ट से फैसला उनके पक्ष में ही आयेगा।
शायद इसीलिये सबसे पहले कमैटी की तरफ से उसके वकील जीलानी ने बातचीत से इस विवाद के हल होने से दो टूक मना कर दिया। हालांकि समझौता कराने के लिये मध्यस्थ बनने का प्रस्ताव भी सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। लेकिन जिस तरह से राम मंदिर की तरफ से पैरवी कर रहे चर्चित वकील और भाजपा नेता सुब्रहमण्यम स्वामी ने सुलह के लिये कोई बात शुरू होने से पहले ही यह शर्त लगाई कि मुसलमानों को मस्जिद सरयू नदी के उस पार बनानी होगी। उससे यह लगता है कि उनकी दिलचस्पी भी समझौते में ना होकर अदालत से ही अपने पक्ष में निर्णय आने का अति विश्वास है।
उन्होंने साथ ही यह चेतावनी भी दी कि अगर मुसलमान विवादित ज़मीन से अपना दावा नहीं छोड़ते तो मोदी सरकार अप्रैल 2018 में राज्यसभा में बहुमत में आने पर इसके लिये कानून बनाकर मंदिर बनाने का रास्ता साफ करेगी। ज़ाहिर है इससे दूसरा पक्ष दबाव या धमकी के आगे झुककर कभी भी समझौते की बात शुरू नहीं करेगा। इसके बाद एक और बड़ी समस्या यह है कि जो विवाद अब करोड़ों लोगों की भावना से जुड़ गया हो। उसको हल करने के लिये अगर कुछ लोग या कोई संस्था उदारता से आगे भी आती है तो दोनों तरफ से कट्टरपंथी उस समझौते को मानने से मना करेंगे। इसका नतीजा यह होगा कि हर हाल में अंत में फैसला सुप्रीम कोर्ट से ही कराना होगा।
फैसला अगर राममंदिर के पक्ष मंे आ गया तो चाहे देश में अल्पसंख्यक खुद को ठगा सा महसूस करें। लेकिन वर्तमान केंद्र और राज्य की सरकारें तत्काल राम मंदिर का निर्माण शुरू करा देंगी। अल्पसंख्यकों के लिये इस मामले में फैसला चुपचाप मानने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होगा क्योंकि वे लगातार यह कहते रहे हैं कि कोर्ट का जो भी अंतिम फैसला आयेगा वह उनको हर हाल में मान्य होगा। लेकिन इस बात की संभावना अधिक है कि बड़ी अदालत का निर्णय बाबरी मस्जिद के पक्ष में आ सकता है। इसकी वजह कानून के जानकार यह बताते हैं कि गवाही से लेकर उपलब्ध दस्तावेज़ मस्जिद के पक्ष में ही मौजूद हैं। जबकि मंदिर पक्ष का दावा अपनी धार्मिक मान्यता आस्था और भावना के आधार पर काफी मज़बूत है।
साथ ही उनके पक्ष मंे भूगर्भ वैज्ञानिकों की वह जांच रपट भी है। जिसमें विवादित स्थान के नीचे मंदिरों के ढांचे मौजूद होने का दावा किया गया है। लेकिन कोर्ट कानून के अलावा बाकी इस तरह की बातों का अपने फैसले में अब तक संज्ञान लेता नहीं रहा है। हालांकि इलाहबाद हाईकोर्ट ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करते हुए मंदिर पक्ष की भावनाओं का सम्मान भी अपने फैसले मंे किया था। लेकिन यह कानून के एतबार से सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पायेगा। आपको याद होगा 1994 में कांग्रेस सरकार ने संविधान की धारा 143 एक के तहत इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी थी। पांच जजों की पूर्ण पीठ ने सरकार का प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया था कि वह अगर उनकी सलाह को अनिवार्य रूप से लागू करे तो वह सलाह दे सकते हैं।
लेकिन अब यह मामला निचली अदालत से उच्च नयायालय होता हुआ सर्वोच्च न्यायालय में अपील के तौर पर कानूनी हिसाब से गया है। अब अगर दोनों पक्षों में इस पर बाहर कोई सर्वमान्य समझौता नहीं होता है तो सब से बड़ी अदालत को इसका निर्णय हर हाल में करना ही होगा। चूंकि यह एक टाइटिल केस है तो इसका फैसला किसी एक के पक्ष मंे ही जाना है। कोर्ट पर इस मामले मंे प्रतिदिन सुनवाई करके जल्दी फैसला देने का दबाव भी लगातार बढ़ता जा रहा है। 23 दिसंबर 1949 को जब यह विवाद मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने से शुरू हुआ था। उस समय तो यह केवल स्थानीय मामला था। अयोध्या निवासी इसको आपसी प्यार और भाईचारे से शांति के साथ निबटा सकते थे।
बाद में जब विवादित मस्जिद का ताला खोलकर उसमें राजीव सरकार ने पूजा और दर्शन की सुविधा उपलब्ध करा दी तो मस्जिद पक्ष भी वहां नमाज़ पढ़ने की मांग करने के लिये सड़कों पर उतर आया। शायद उसी भूल का पश्चाताप करने को मुसलमानों को राजीव सरकार ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर गैर कानूनी तलाक के बावजूद आईपीसी की धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ता देने से आज़ाद कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने राम मंदिर मुद्दे को पूरे देश के हिंदुओं की आस्था का मुद्दा बना दिया। भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के ज़रिये न केवल इस मामले को चुनाव में भुनाकर अपनी लोकसभा की सीट 2 से सीध्ेा 88 कर लीं।
बल्कि बाद में यूपी में अपनी सरकार आने पर सुप्रीम कोर्ट के स्टे के बावजूद कारसेवकों को न रोककर विवादित बाबरी मस्जिद शहीद करा दी। इसके बाद सियासत में बीजेपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसी विवाद का नतीजा है कि आज भाजपा केंद्र सहित कई राज्यों में सरकार चला रही है। आज कट्टर हिंदुओं का वही वर्ग शाहबानों केस की तरह कोर्ट का फैसला मंदिर के पक्ष मंे ना आने पर अभी से सरकार से कानून बनाने की मांग कर रहा है। हमें लगता है कि चाहे जैसे हो विवादित स्थान पर आज नहीं तो कल मंदिर बन ही जायेगा। अगर फैसला सुप्रीम कोर्ट से मस्जिद के पक्ष में भी आता है तो हिंदू बहुसंख्यकों की नाराज़गी के डर से कोई भी सरकार वहां फिर से मस्जिद बनाने का जोखिम नहीं उठा पायेगी।
इस लिये मुसलमानों की समझदारी और कुर्बानी देश की एकता और भाईचारे के लिये यही हो सकती है कि वे खुद ही विवादित जगह हिंदू भाइयों को मंदिर बनाने के लिये उपहार के तौर पर दे दें। साथ ही हिंदू भाई वहीं पास में अपनी तरफ से एक बड़ी आलीशान मस्जिद मुसलमानों को खुद बनाकर भेंट कर दें। नहीं तो देश में एक बार फिर से तनाव खूनख़राबा और दंगों का दौर शुरू हो सकता है। हमें शक नहीं पूरा यकीन है कि इसके बावजूद अब वहां फिर से बाबरी मस्जिद बनना मुश्किल नहीं नामुमकिन है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आगे का रास्ता बंद हो जायेगा। इसलिये बेहतर यही है कि दोनों पक्ष यहीं से राइट टर्न ले लें तो दोनों का मान सम्मान और आपसी भाईचारा भी बचा रहेगा और देश की एकता अखंता भी सुरक्षित बनी रहेगी।
मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है
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