Thursday 10 October 2024

हरियाणा में कांग्रेस की हार

*हरियाणा हार: कांग्रेस भाजपा से नहीं पहले इवीएम से ही लड़ ले...*  
0 कांग्रस नेतृत्व में विपक्ष का इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में भाजपा को 400 पार की जगह 240 पर रोकने में सफल रहा तो इवीएम सही था। हिमाचल कर्नाटक व तेलंगाना में कांग्रेस और अन्य कई राज्यों में विपक्ष भाजपा को हराकर सरकार बना ले तो इवीएम से कोई शिकायत नहीं लेकिन जब अपनी ही गल्तियों से विपक्ष हार जाये तो इवीएम पर हार का ठीकरा फोड़ दो। अगर कांग्रेस को इवीएम पर इतना ही शक है तो वह भाजपा से लड़ने की बजाये पहले इवीएम के ही खिलाफ आरपार की लड़ाई क्यों नहीं लड़ती? हम यह दावा नहीं कर रहे कि मोदी सरकार इतनी ईमानदार है कि इवीएम में सेटिंग कर नहीं सकती या तकनीकी तौर पर ऐसा हो नहीं हो सकता। कांग्रेस के भ्रमित होने पर सवाल उठता है।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कांग्रेस को ऐसा लग रहा था कि वह अपने बल पर हरियाणा में अकेले लड़कर बहुमत की सरकार बना लेगी। संसदीय चुनाव में उसने 10 में से 5 लोकसभा सीट जीतकर ऐसा मान लिया था। सारे एग्ज़िट पोल भी यही बता रहे थे। पहलवान किसान और जवान जिस तरह से हरियाणा में भाजपा सरकार से नाराज़ थे। उससे भी कांग्रेस को यह अहसास हो चला था कि वह आराम से चुनाव जीतने जा रही है। महंगाई बेराज़गारी और भ्रष्टाचार का ग्राफ भाजपा राज में जिस तेज़ी से उूपर जा रहा था उससे कांग्रेस को पूरा भरोसा हो चुका था कि इस बार सत्ता उसके पास आना तय है। चुनाव से पहले जो सर्वे हो रहे थे उनमें भी कांग्रेस का पलड़ा साफ भारी नज़र आ रहा था। सोशल मीडिया के साथ ही भाजपा समर्थक माने जाने वाला गोदी मीडिया तक दबी ज़बान में कांग्रेस की भाजपा पर बढ़त को छिपा नहीं पा रहा था। यही वजह थी कि कांग्रेस गलतफहमी खुशफहमी अति आत्मविश्वास और हरियाणा के प्रदेश नेतृत्व की ज़िद के सामने जाटों के जातिवाद का शिकार हो गयी। 
कांग्रेस प्रदेश मुखिया भूपंेद्र हुड्डा उनके विरोधी गुट के सुरजेवाला और दलित नेत्री शैलजा आपस में ही लड़ते रह गये और भाजपा व संघ ने अपने 36 सहयोगी संगठनों घर घर पहुंच मैदान मैदान शाखाओं राज्य व केंद्र की सत्ता पुलिस सीबीआई ईडी मीडिया कोर्ट चुनाव आयोग और काॅरपोरेट के अकूत धन के साथ साम दाम दंड भेद के बल पर हारी हुयी बाज़ी जीत में बदल दी। भाजपा ने जिस शातिर ढंग से चुनाव से 6 माह पहले मनोहर खट्टर को हटाकर पिछड़ी जाति से आने वाले नायाब सिंह सैनी को सीएम बनाकर राज्य के 40 प्रतिशत से अधिक पिछड़ों को खुश किया उसको कांग्रेस समझ ही नहीं पायी। इसके साथ ही कांग्रेस ने जनहित की 7 गारंटी देकर राज्य की जनता को लुभाना चाहा तो भाजपा ने उसके जवाब में 20 संकल्प लाकर कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। इतना ही नहीं भाजपा ने कई आकर्षक योजनायें वो भी लागू कर दीं जिनको मुफ्त की रेवड़ी बताकर कभी पीएम मोदी विपक्ष पर सरकारी ख़ज़ाना लुटाने का आरोप लगाया करते थे। भाजपा ने मौका देख बलात्कारी बाबा राम रहीम को चुनाव से ठीक पहले पैरोल दिलाकर उससे अपने पक्ष में पूरी बेशर्मी से वोट देने की अपील भी करा दी। बाबा के अधिकांश भक्त दलित माने जाते हैं। 
इससे भाजपा को जाटव वोट 35 प्रतिशत तो अन्य दलित वोट 46 प्रतिशत तक मिल गया। जबकि कांग्रेस लोकसभा की तरह इस वोट को एकतरफा अपना मानकर चल रही थी। इतना ही नहीं भाजपा ने कांग्रेस के राज्य नेतृत्व के जाट होने की वजह से उसको मात्र 22 प्रतिशत जोटों की पार्टी का तमगा बखूबी लगा दिया। जिस तरह से भाजपा यूपी में सपा को यादव व मुसलमानों की पार्टी होने का लेबल लगाकर दो बार से चुनाव जीत रही है। उसी तरह से उसने हरियाणा में कांग्रेस के जाटों के खिलाफ अन्य 36 जातियां जिनमें अगड़े पिछड़े और दलित शामिल थे उन सबको अपने साथ एक प्लेटपफाॅर्म पर जमा कर लिया। हद तो यह हो गयी कि जिस जाट बिरादरी के बल पर कांग्रेस हरियाणा चुनाव जीतने का सपना देख रही थी उसमें भी भाजपा ने 29 प्रतिशत की सेंध लगा दी और कई जाट बहुल सीटें अन्य जातियों के ध्रुवीकरण से जीत लीं। जिस मुसलमान को कांग्रेस के साथ एकतरफा होने का दावा किया जाता है वह भी उसके साथ केवल 59 प्रतिशत गया और बाकी भाजपा सहित अन्य दलों में बंट गया। इसके साथ ही भाजपा का हिंदुत्व का कार्ड तो अन्य सब मुद्दों पर भारी था ही जिसका कोई तोड़ कांग्रेस के पास नहीं था। 
अब बात करते हैं कि कांग्रेस जीत के प्रबल आसार के बावजूद चुनाव हार गयी तो इसके लिये इवीएम को कसूरवार क्यों बताया जा रहा है? सच तो यह है कि कांग्रेस आज भाजपा के मुकाबले बेहद कमज़ोर पार्टी है वह क्षेत्रीय दलों से भी काफी पीछे है। उसके साथ 70 साल के राज के आरोपों के साथ ही सत्ता का घमंड जुड़ा हुआ है। उसके साथ परिवारवाद अल्पसंख्यकवाद और करप्शन का दाग लगा हुआ है। वह पार्टी के वफादार ईमानदार और जनाधार वाले नेताओं की बजाये चापलूसी चमचागिरी और परिवार पूजा करने वालों को अधिक वेट आज भी देती है। कांग्रेस हाईकमान राज्य के अपने ही बड़े नेताओं के सामने बार बार झुक जाता है। जिसका खुमियाज़ा उसको राजस्थान छत्तीसगढ़ एमपी और अब हरियाणा में भुगतना पड़ा है। कांग्रेस के कुछ नेता उदार हिंदूवाद के समर्थन में खुलेआम बोलते रहते हैं जबकि इसका लाभ भाजपा को होता है। जिस तरह से हिमाचल में उसके नेता विक्रमादित्य ने कई बार भाजपा की भाषा बोली उससे उसके परंपरागत समर्थक मुसलमान ही नहीं सेकुलर हिंदू भी नाराज़ होते हैं। 
    कांग्रेस शुरू से ही गठबंधन बचती रही है। लेकिन 2004 से उसने गठबंधन केंद्र में मजबूरी में किया लेकिन राज्यों में जहां वह कमज़ोर थी वहां तो गठबंधन को तैयार हुयी लेकिन जहां मज़बूत थी वहां उसने क्षेत्रीय दलों को भाव नहीं दिया। हरियाणा में उसको भाजपा से मात्र 0.85 प्रतिशत वोट कम मिले हैं। जबकि संसदीय चुनाव मंे उसकी सहयोगी आम आदमी पार्टी ने 1.79 वोट लिये हैं। ऐसे ही कुल मिलाकर अन्य छोटे दलों ने लगभग 20 प्रतिशत वोट लिये हैं। इनमें से कुछ दल प्रयास करने पर कांग्रेस के साथ आ सकते थे लेकिन सत्ताधारी होने और उसके साथ गठबंधन में धोखा खाने और हवा उसके खिलाफ होने से वे भाजपा के साथ जाने को किसी कीमत पर तैयार नहीं थे। अगर कांग्रेस इन छोटे दलों को 5 से 10 सीट दे देती तो वे तो दो चार ही जीत पाते लेकिन कांगे्रस जो 15 से 20 सीट मात्र 2 से 5 हज़ार वोटों के मामूली अंतर से हारी है उनको जीतकर बाज़ी पलटी जा सकती थी। यही वजह है कि कांग्रेस की इस अकड़ नासमझी और ज़िद की उसके सहयोगी सपा शिवसेना और नेशनल कांफ्रेस ने आलोचना भी की है। अभी भी समय है कि कांग्रेस इवीएम पर सारा ज़ोर न देकर अपनी सोच रण्नीति और विचारधारा पर फिर से विचार करे। कांग्रेस के लिये ग़ालिब का एक शेर कितना सटीक है-
0 उम्रभर ग़ालिब यही भूल करता रहा,
 ध्ूाल चेहरे पे थी आईना साफ़ करता रहा।  
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं*।

Thursday 3 October 2024

फर्जी मुठभेड़

लाॅ एंड आॅर्डर बनाम रूल आॅफ़ लाॅ, क्यों बढ़ रहे हैं एनकाउंटर?
0 पिछले दिनों तीन अलग अलग राज्यों में विभिन्न अपराधों के आरोपियों के विवादित एनकाउंटर हुए हैं। इन मुठभेड़ों को वहां की सरकारों ने वास्तविक बताकर लाॅ एंड आॅर्डर बनाये रखने के लिये ज़रूरी बताया तो विपक्ष ने रूल आॅफ़ लाॅ की दुहाई देकर इनको फ़र्ज़ी बताते हुए संविधान लोकतंत्र और सरकार की असफलता बताया है। पहले ऐसे विवादित एनकाउंटर माओवादी और आतंकवादी हिंसा से ग्रस्त राज्यों में या माफियाआंे के अंडरवल्र्ड शूटर के नाम पर अकसर होते थे। अन्य राज्यों में ऐसी मुठभेड़ अपवाद के तौर पर होती थी। लेकिन हैदराबाद में वेटनरी डाॅक्टर की रेप के बाद हत्या होने पर उसके सभी आरोपियों को एनकाउंटर में जब मारा गया तो काफी विरोध और दूसरी तरफ स्वागत भी हुआ। इसके बाद यूपी सहित अनेक भाजपा शासित व कुछ विपक्षी सरकारों के राज्यों में यह आम बात हो गयी।       

 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     महाराष्ट्र के बदलापुर कांड के आरोपी को जब पुलिस ने यह कहकर मुठभेड़ में मारा कि वह पुलिस की पिस्टल छीनकर हमला कर रहा था तो हाईकोर्ट ने भारी नाराज़गी दर्ज करते हुए सरकार से कई चुभते हुए सवाल किये। तमिलनाडु में एक हिस्ट्रीशीटर को इसी तरह के विवादित एनकाउंटर में मारा गया। ऐसे ही यूपी में भाजपा सरकार के बनने के बाद लगभग 200 एनकाउंटर और 6000 से अधिक हाफ एनकाउंटर हो चुके हैं। हाफ एनकाउंटर में आरोपी के पैर पर गोली मार दी जाती है। सुल्तानपुर डकैती कांड के यादव जाति के मुख्य अभियुक्त को जब पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया तो सपा नेता अखिलेश यादव ने इस पर ज़बरदस्त विरोध दर्ज कराया। इसके बाद मामले को संतुलित करते हुए पुलिस ने ख़बर दी कि ठाकुर जाति से जुड़ा इसी मामले का एक अन्य अभियुक्त भी मुठभेड़ में मारा गया। पहले राज्य में इस तरह के विवादित एनकाउंटर की शुरूआत मुसलमान आरोपियों से हुयी थी। बाद में इसका दायरा बढ़कर दलित पिछड़े ब्रहम्ण गरीब कमज़ोर और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने तक पहुंच गया। 
यही हाल किसी अपराध के आरोपियों के घर दुकान या उनसे जुड़ी इमारत पर बुल्डोज़र चलाने को लेकर हुआ है। कहने का मतलब यह है कि किसी भी गलत काम की शुरूआत या अधिकता भले ही किसी धर्म विशेष या जाति के साथ शुरू हो लेकिन बाद में समाज के दूसरे लोग भी उस अन्याय अत्याचार और पक्षपात का शिकार हुए बिना नहीं बच सकते। वन नेशन वन इलैक्शन से अब चर्चा वन नेशन वन पुलिस स्टेशन तक आ गयी है। इसमें कहा जाता है कि राज्य चाहे जो हो वहां पुलिस स्टेशन का एनकाउंटर का तरीका लगभग एक जैसा ही क्यों होता है? हर एनकाउंटर के बाद पुलिस एक ही कहानी दोहराती नज़र आती है जिसमें एक अपराध का आरोपी होता है। पुलिस उसको पता नहीं क्यों हर बार रात के अंध्ेारे में ही क्राइम सीन क्रिएट करने या अपराध में प्रयोग हुए हथियार बरामद करने या फिर चोरी डकैती का सामान बरामद करने को सुनसान इलाके में ले जाती है। उस आरोपी पर कई संगीन जुर्म के केस पहले से दर्ज होते हैं। इसके बाद वह आरोपी पुलिस का हथियार छीन लेता है। जबकि बिना प्रशिक्षण के कोई अपराधी पुलिस का हथियार न तो अनलाॅक कर सकता है और ना ही उसको चला सकता है। 
        कई बार पुलिस यह भी दावा करती है कि उसने आरोपी को आत्मसमर्पण करने के लिये कहा लेकिन वह पुलिस पर अपने तमंचे से गोली चलाने लगा। मजबूरन पुलिस ने आरोपी पर जवाबी गोली चलाई और आरोपी मारा गया। बाॅम्बे हाईकोर्ट ने इन जैसी समानताओं को लेकर ही पुलिस से बार बार सवाल पूछे हैं। हैरत की बात यह है कि इस तरह की मुठभेड़ों में हमेशा आरोपी मारा जाता है जबकि पुलिस या तो साफ बच जाती है या हल्की व मामूली चोट खाती है। सुप्रीम कोर्ट भी इस तरह के विवादित एनकाउंटर्स को लेकर कई बार राज्य सरकारों पुलिस और जांच एजंसियों को फटकार लगा चुका है। कोर्ट ऐसे मामलों में अनिवार्य रूप से रिपोर्ट दर्ज कर जांच करने और कोर्ट की गाइड लाइंस को हर हाल में लागू करने को भी कई बार कह चुका है। लेकिन जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के मना करने के बावजूद बुल्डोज़र चल रहा है उसी तरह से एनकाउंटर भी रूक नहीं रहे हैं। एनकाउंटर की गहराई में जाकर देखेंगे तो आप पायेंगे कि इनके पीछे भी राजनीति हो रही है।
     फर्जी मुठभेड़ों के नाम पर कुछ सरकारें यह धारणा बनाने में सफल हैं कि इससे अपराधियों में भय पैदा होगा और आगे दूसरे अपराधी अपराध करने से डरेंगे। उनका यह भी दावा है कि कुछ खास वर्ग धर्म या जाति के लोग ही अपराध करते हैं। वे जनता के एक भ्रमित वर्ग की इस सोच को भी न्यायोचित साबित करने में लगी हैं कि इससे हाथो हाथ न्याय हो रहा है। तथाकथित गैर कानूनी बुल्डोज़र जस्टिस भी इसी धारणा का विस्तार है। इससे सरकारों को वोट ना मिलने का डर भी नहीं रहा है। उल्टा उनके इस गैर कानूनी पक्षपाती और संविधान विरोधी काम से उनका कट्टर समर्थक उनको पहले से अधिक बढ़चढ़कर वोट दे रहा है। लेकिन वह यह भूल गया है कि जब समाज से संविधान कानून और निष्पक्षता का राज खत्म होगा तो आज नहीं तो कल वह भी उसका शिकार बनेगा। कई सरकारें यह दावा भी करती है कि ऐसा करने से लाॅ एंड आॅर्डर सुधर रहा है और अपराध पहले से कम हो रहे हैं। जबकि केंद्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्योरो के आंकड़े इस दावे को झुठला रहे हैं। 
       सच तो यह है कि हमारी पुलिस कोर्ट और जांच एजंसियां जिस कछुवा गति से काम करती हैं उससे लोगों का उनसे भरोसा उठता जा रहा है। वे गैर कानूनी होने के बावजूद ऐसे एनकाउंटर और आरोपियों के घरों पर बुल्डोज़र चलाये जाने को ही न्याय और समस्या का सही हल मान रही हैं। केंद्रीय जांच एजसियां मेन स्ट्रीम मीडिया और भाजपा विपक्ष शासित राज्यों में जिन अपराधों के होने पर एक्टिव हो जाती हैं। वहीं भाजपा शासित राज्यों में वह रेप के अपराधियों को लेकर सज़ा पूरी होने से पहले जेल से छोड़ने उनका ज़मानत पर बाहर आने पर माला पहनाकर मिठाई खिलाकर और तिलक लगाकर स्वागत करने में कोई बुराई नहीं समझती। बाबा राम रहीम को वह बार बार चुनाव के समय पर ही पैरोल दिलाती रहती है। करप्शन के आरोप में पकड़े गये लगभग सभी आरोपी विपक्ष के ही होते हैं। उड़ीसा में एक सेना अफसर और उसकी मंगेतर के साथ पुलिस ने जो कुछ किया उस पर मीडिया में इतनी कवरेज नहीं हुयी जबकि कोलकाता रेप मामले में राष्ट्रपति तक ने अपना डर जताया था। याद रखिये पूरा सिस्टम सुधारे बिना एनकाउंटर हल नहीं खुद प्राॅब्लम बन जायेंगे।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*