Wednesday, 23 October 2024

परिवार बढ़ाओ ?

नायडू की ‘परिवार बढ़ाओ’ अपील पर अब भाजपा चुप क्यों है ?
0 आंध््रा प्रदेश के सीएम चन्द्रबाबू नायडू ने कहा है कि ‘‘राज्य के परिवारों को कम से कम दो या अधिक बच्चे पैदा करने का लक्ष्य रखना चाहिये। अतीत में मैंने जनसंख्या नियंत्रण की वकालत की थी, लेकिन अब हमें भविष्य के लिये जन्म दर बढ़ाने की ज़रूरत है। राज्य सरकार एक कानून बनाने की योजना बना रही है।’’ अगर यही बात कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्लाह ने कही होती तो संघ परिवार से लेकर मीडिया तक उनको आबादी बढ़ाओ जेहादी, देशविरोधी और हिंदुओं के खिलाफ साज़िश करने वाला बता रहा होता। खुद हमारे पीएम पिछले लोकसभा चुनाव में मुसलमानों को अधिक बच्चे पैदा करने वाला बताकर कांग्रेस पर हिंदुओं से सम्पत्ति छीनकर उनको देने का आरोप लगा चुके हैं।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
आंध्रा के मुख्यमंत्री नायडू के परिवार नियोजन के खिलाफ बोलने के बाद तमिलनाडू के सीएम स्टालिन ने भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए अपने प्रदेश के लोगों से कुछ ऐसी ही अपील कर दी है। हो सकता है कि आगे दक्षिण के अन्य राज्यों के मुखिया भी इस बयानबाज़ी में नायडू के साथ खड़े नज़र आयें। दरअसल यह सारा विवाद उत्तर बनाम दक्षिण या दक्षिण बनाम देश के बाकी राज्य होने वाला है। इसकी वजह यह है कि 2026 में लोकसभा क्षेत्रों का एक बार फिर नया परिसीमन होना है। चूंकि संसदीय सीटों का सीमांकन जनसंख्या के आधार पर होता है। उसी के आधार पर बाद में राज्यसभा और विधानसभा व विधान परिषद सीटों का चुनाव होता है। ऐसे में परिवार नियोजन में सक्रिय भागीदारी कर जिन दक्षिण के राज्यों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनको नये परिसीमन में सीटें कम होेने का डर सता रहा है। इसके उलट उत्तर के यूपी बिहार जैसे राज्यों की आबादी तेज़ी से बढ़ने के कारण एमपी की सीटें बढ़ने के पूरे आसार हैं। हालांकि परिवार नियोजन अपनाने से राज्यों के लोगों को बेहतर शिक्षा स्वास्थय और रोज़गार मिलने से अच्छा जीवन जीने का लाभ मिलता हैै, लेकिन राजनीतिक रूप से यह घाटे का सौदा लगता है। दक्षिण के राज्यों में यह सम्पन्नता समृध्दि और प्रगति साफ नज़र भी आती है। 
दक्षिणी राज्य जब जब लोकसभा के परिसीमन की बात आई यह मांग करते रहे हैं कि उनकी संसद में भागीदारी कम ना हो इसके लिये सीटों के सीमांकन का आधार आबादी न रखकर क्षेत्रफल या राज्य के पहले से चले आ रहे प्रतिनिधित्व को बनाया जाये। इसके लिये वे देश के उन तीन लोकसभा क्षेत्रों का उदाहरण भी देते हैं जिनमें बहुत कम आबादी होने के बावजूद उनको एक संसदीय क्षेत्र माना गया है। मिसाल के तौर पर लक्षदीप संसदीय क्षेत्र के मतदाता केवल 64,473 लद्दाख के 2,74,000 और दादरा नागर हवेली एवं दमन दीव के 2,92,882 वोटर्स हैं। उधर इसके विपरीत तेलंगाना के मलकाजगिरी  में 31,50,313 कर्नाटक के बंगलुरू उत्तर में 28,49,250 और यूपी के गाज़ियाबाद में 27,28,978 रिकाॅर्ड अधिकतम मतदाता भी हैं। कहने का मतलब यह है कि इतने कम और इतने अधिक मतदाता किन्हीं अपरिहार्य और तकीनीकी कारणों से भी हो सकते हैं। मामला केवल आबादी और संसदीय सीट घटने का नहीं है। दक्षिण के राज्यों को यह भी नाराज़गी है कि उत्तर के राज्य अर्थव्यवस्था में उतना योगदान नहीं दे रहे हैं जितना उनको बढ़ती आबादी के कारण कोटा दिया जा रहा है। 
आंकड़े बताते हैं कि 2021 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय जहां मात्र 49,407 रूपये थी वहीं यूपी में यह आंकड़ा मात्र 70,792 रू. था। इसके विपरीत तमिलनाडू में यही पर कैपिटा इनकम रिकाॅर्ड 2,41,131 तो कर्नाटक में 2,65,623 रूपये थी। नायडू की चिंता यह भी है कि उनके राज्य में प्रजनन दर रिकाॅर्ड स्तर पर गिरकर मात्र 1.5 रह गयी है। जबकि वर्तमान आबादी को स्थिर बनाये रखने के लिये टोटल फर्टिलिटी रेट 2.1 होना ज़रूरी है। उनको आशंका है कि अगर आबादी में गिरावट का यह सिलसिला जारी रहा तो उनके राज्य को भविष्य में चीन और जापान जैसी आबादी घटने के बाद पैदा होने वाली समस्याओं का सामना करना होगा जिसमें परिवार पर आश्रित बुज़र्गों की संख्या बढ़ती जाती है जबकि रोज़गार करने वाले युवा सदस्य लगातार कम होते जाते हैं। तमिलनाडू के सीएम इस मामले में नायडू से भी आगे निकलकर बयान दे रहे हैं कि ‘‘राज्य में बुजुर्ग विवाहित जोड़ों को 16 प्रकार की सम्पत्ति का आशीर्वाद देते हैं। इस आशीर्वाद का मतलब यह नहीं कि आपके 16 बच्चे होने चाहिये, पर अब ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है, जहां लोग सोचते हैं कि उन्हें सचमुच 16 बच्चो का पालन पोषण करना होगा।’’ 
आपको याद होगा कि कुछ धार्मिक गुरू काफी समय से बढ़ती आबादी को ना रोककर और बढ़ाने की विवादित अपील करते हुए यही दलील देते आये हैं कि अगर ऐसा ना किया गया तो उनका समुदाय दूसरे समुदाय से संख्या में कम हो जायेगा। वे बच्चो को अल्लाह की देन भी बताते रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि अल्लाह के मामले में इंसान को दख़ल नहीं देना चाहिये। इसके विपरीत प्रगतिशील और उदारवादी लोगों का एक समूह भी आबादी कम करने के विचार का विरोध करता रहा है। हालांकि इस समूह के अपने तर्क धार्मिक कट्टरपंथी और सांप्रदायिक लोगों से बिल्कुल अलग हैं। उनका दावा है कि आज हमारा देश सबसे युवा है। अगर हम अपने नौजवानों को चीन की तरह शत प्रति शत रोज़गार देने में सफल हो जायें तो हम दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। ऐसे ही हमारे पीएम मोदी जी खुद इस बात पर बड़ा गर्व करते हंैं कि उनके राज में हमारी अर्थव्यवस्था विश्व में पांचवे स्थान पर आ गयी है। आगे वे इसको तीसरे स्थान पर लाने का सपना भी दिखाते हैं। 
ज़ाहिर बात है कि अनेक कारणों में एक कारण अगर जनसंख्या बड़ी होगी और बढ़ती रहेगी तभी अर्थव्यवस्था बड़ी बनेगी। जहां तक नायडू और स्टालिन का आबादी बढ़ाने का ताज़ा आव्हान है तो उसके पीछे व्यक्ति नहीं उनके सियासी लाभ छिपे हैं। देखना यह है कि जो भाजपा जनसंख्या नियंत्रण का कानून लाने का बार बार दावा करती है वह अपने एनडीए सहयोगी नायडू को आबादी बढ़ाने के प्रोग्राम से कैसे रोकती है? अगर संघ परिवार वास्तव में बढ़ती आबादी को देश के विकास के लिये बाधा मानता है तो अब उसकी परीक्षा का समय आ गया है। भाजपा को चाहिये कि नायडू से कहे कि आबादी बढ़ाने की विवादित अपील तत्काल वापस लें माफी मांगे और ऐसा कोई कानून बनाने का इरादा छोड़ दें नहीं तो हम आपको एनडीए से निकालकर देशहित में अपनी सरकार तक गिरा सकते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और माने जायेंगे।
 0 शेख़ अपनी रग को क्या करेें, रेशे को क्या करें
  मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें।  
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 17 October 2024

शेयर बाजार

शेयर बाज़ार: 93 प्रतिशत लोगों के नुकसान का कौन ज़िम्मेदार?
0 हाल ही में सेबी ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया है कि स्टाॅक मार्केट में फयूचर एंड आॅपशन ट्रेडिंग में 2022 से 2024 के दौरान जिन स्माॅल ट्रेडर्स ने काम किया है। उनमें से 93 प्रतिशत को घाटा हुआ है। 91 प्रतिशत अभी भी नुकसान में चल रहे हैं। आंकड़ें बताते हैं कि नुकसान उठाने वालों की तादाद 73 लाख है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि 2024 में ऐसे व्यक्तिगत ट्रेडर्स में प्रत्येक को 1,30,000 की हानि हुयी है। आमतौर पर 75 प्रतिशत लोग इस कारोबार में किसी न किसी तरह से घाटे में रहकर भी काम कर रहे हैं। ऐसे लोगों की सालाना आमदनी 5 लाख या उससे कम है। आपको याद दिला दें कि जून 2020 में नेशनल स्टाॅक एक्सचेंज ने डेरिवेटिव में काम करने का शेयरहोल्डर्स को पहली बार विकल्प दिया था।      
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
शेयर मार्केट यानी स्टाॅक एक्सचेंज में कई तरह से कारोबार करने का विकल्प होता है। मिसाल के तौर पर कुछ लोग किसी कंपनी का शेयर एक बार खरीदकर लंबे समय के लिये खामोश हो जाते हैं। जब उस कंपनी का शेयर बढ़े हुए दाम पर आता है तो वे उसको बेचकर मुनाफा कमा लेते हैं। शेयर खरीदने के भी कई विकल्प होते हैं। जैसे कंपनी जब अपना इश्यू लाती है तो कुछ लोग तब उसके लिये आवेदन करते हैं। अगर कंपनी का इश्यू ओवर सब्सक्राइब यानी जितने शेयर बिकने के लिये निकाले गये हैं उससे कई गुना अधिक लेने वाले एप्लाई कर देते हैं तो जब यह इश्यू खुलता है उसी दिन इस शेयर के दाम कई गुना बढ़कर खुलते हैं। ऐसे में कुछ लोग अधिक लाभ के चक्कर में ना आकर उसी दिन अपना कोटा बेचकर लाभ कमा लेते हैं। इसके अलावा कुछ लोग शेयर बाज़ार में एक दिन में ही कुछ शेयर खरीदकर उनका पूरा भुगतान करने की बजाये उसी दिन किसी टाइम या शाम होते होते जब तक शेयर मार्केट बंद होता है उसको बेच देते हैं। ऐेसे में नुकसान फायदा कुछ भी हो सकता है। लेकिन इसके लिये बहुत बड़ी पूंजी की ज़रूरत नहीं होती है। सेबी ने जो रिपोर्ट जारी की है वह स्टाॅक एक्सचेंज के फयूचर एंड आॅप्शन के बारे मंे है। यह रिपोर्ट उन लोगों की आंखें खोल देने वाली है जिनको आयेदिन सोशल मीडिया पर यह कहकर भ्रमित किया जाता है कि शेयर मार्केट में कोई भी पैसा लगाकर रातो रात लखपति या करोड़पति बन सकता है? दरअसल फयूचर एंड आॅप्शन का यह कारोबार शेयर मार्केट में पैसा कमाने जल्दी पैसा कमाने और बहुत अधिक पैसा कमाने का सपना दिखाता है। इसके लिये आपको शेयर मार्केट मंे जाने की भी ज़रूरत नहीं है। इसके लिये अपने मोबाइल या लैपटाॅप में आप एक एप डाउनलोड करके भी स्टाॅक मार्केट में घर बैठे काम शुरू कर सकते हैं। अलबत्ता आपको बैंक खाते की तरह शेयर बाज़ार में काम करने के लिये अपना डीमैट एकाउंट ज़रूर खोलना होगा। फयूचर एंड आॅप्शन में आप एक कंपनी का शेयर मान लो जो आज 200 रूपये का चल रहा है। तो उसको भविष्य के लिये 300 के रेट पर बुक कर सकते हैं। आपको लगता है कि वह शेयर अमुक टाइम तक 500 रूपये तक का हो जायेगा। 
   इस तरह आपको उसकी कीमत का अंतर 100 रूपये प्रति शेयर एक तरह से आज ही उस व्यक्ति या कंपनी को देना होगा जिसके पास यह आज मौजूद है। कल अगर इसका रेट आपके अनुमान के हिसाब से बढ़ जाता है तो आपको 200 रूपये प्रति शेयर का लाभ होगा नहीं तो घटने पर उसकी दर से हानि हो सकती है। इसी तरह आप इसका उल्टा यानी आज जो शेयर 100 रूपये का बिक रहा है उसको किसी खास समय के लिये 80 रूपये के दाम पर बुक कर सकते हैं। अगर उसका रेट आपके अनुमान के हिसाब से वास्तव में इतना ही नीचे चला गया तो आपको उसके आज के और आने वाले आपके तय किये कम दाम के बीच का अंतर का पैसा मिल जायेगा। लेकिन रेट आपके हिसाब से नीचे न आने पर आपको उसी अंतर का घाटा भी हो सकता है। कुछ नादान लोग बिना किसी जानकारी के ऐसे लेनदेन की बड़ी डील लालच मंे कर लेते हैं। लेकिन जब उनका अनुमान गलत निकलता है तो उनको एक बार में ही लाखों या करोड़ तक का नुकसान होता है जो उनको जीवनभर फिर संभलने नहीं देता है। यहां आपके दिमाग यह सवाल आ सकता है कि लोग इतना भारी जोखिम क्यों लेते हैं? आप यह भी सोच रहे होंगे कि 91 से 93 प्रतिशत लोग लगातार भारी नुकसान उठाकर भी शेयर मार्केट में क्यों बने हुए हैं? यह अजीब बात किसी की समझ मंे नहीं आयेगी कि केवल 1 से 7 प्रतिशत लोगों को जिस मार्केट में लाभ हो रहा है वहां बाकी के लाखों लोग किस आशा और भरोसे की वजह से अपनी खून पसीने की जमा पूंजी लुटा रहे हैं और फिर भी उसी शेयर मार्केट में बने हुए हैं? दरअसल इसके पीछे एक तो पढ़े लिखे लोगों की सट्टेबाज़ी मानी जा सकती है। दूसरी बात इतना अधिक नुकसान उठाकर भी यह सपना लोग छोड़ने को किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं कि एक ना एक दिन उनकी किस्मत खुल जायेगी और वे चाहे जितना भी तबाह और बरबाद हो जायें लेकिन शेयर मार्केट ही एकमात्र शाॅर्टकट है जिससे वे अमीर बन सकते हैं। कम लोगों को पता है कि शेयर मार्केट में घपले घोटाले भी कम नहीं हैं। 
हिंडन बर्ग ने जिस गड़बड़ी का अडानी की कंपनियों पर आरोप लगाया था। वह इसी तरह के कारनामों की बानगी थी। होता यह है कि कंपनियां इनसाइड ट्रेडिंग कराकर अपनी कंपनी के शेयर के दाम फर्जी तरीके से बढ़ा लेती हैं। कुछ लोगों को कंपनी के उतार चढ़ाव सरकार के बड़े फैसलों और दुनिया में हो रही बड़ी घटनाओं से शेयर मार्केट मंे आने वाले बड़े तूफानों का पहले ही अपने सूत्रों से पता चल जाता है। जिससे वे कुछ खास कंपनी कुछ खास शेयर या डेरिवेटिव में बड़ा दांव चल कर अकूत दौलत एक झटके मेें कमा लेते हैं। कुछ बड़ी कंपनी बड़े लोग और विदेशी निवेशक जानबूझकर किसी बेकार छोटी और डिफाल्टर कंपनी के बिल्कुल नीचे दाम पर पड़े शेयर किसी दिन अचानक बड़े दाम पर खरीदना शुरू कर देते हैं। होता यह है कि बिना वजह जाने जब छोटे निवेशक इस कंपनी का शेयर मामूली दाम से अचानक छलांग लगाता देखते हैं तो वे भी उसके पीछे भागने लगते हैं। यही से धोखे का असली खेल शुरू होता है। बड़े मगरमच्छ मिसाल के तौर पर 10 से 15 रूपये की कीमत का शेयर जब 20 से 40 रूपये तक मंे खरीदते हैं तो बाकी लोग उनकी चाल ना समझकर उनके झांसे में आकर खुद भी बढ़ते दामों पर यह शेयर खरीदना शुरू कर देते हैं। अंत में बड़े निवेशक छोटे निवेशकों को उसी दिन अपनी खरीद बीच में ही रोककर अपना सस्ते में खरीदा सब माल बढ़े हुए दाम पर बेचकर निकल जाते हैं। इसके बाद यह शेयर गिरकर फिर से वहीं आ जाता है जहां से यह बढ़ना शुरू हुआ था।
0 सौ में से 99 लोग जब नाशाद हैं,
  कैसे कह दूं देश अब आज़ाद है।।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 10 October 2024

हरियाणा में कांग्रेस की हार

*हरियाणा हार: कांग्रेस भाजपा से नहीं पहले इवीएम से ही लड़ ले...*  
0 कांग्रस नेतृत्व में विपक्ष का इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में भाजपा को 400 पार की जगह 240 पर रोकने में सफल रहा तो इवीएम सही था। हिमाचल कर्नाटक व तेलंगाना में कांग्रेस और अन्य कई राज्यों में विपक्ष भाजपा को हराकर सरकार बना ले तो इवीएम से कोई शिकायत नहीं लेकिन जब अपनी ही गल्तियों से विपक्ष हार जाये तो इवीएम पर हार का ठीकरा फोड़ दो। अगर कांग्रेस को इवीएम पर इतना ही शक है तो वह भाजपा से लड़ने की बजाये पहले इवीएम के ही खिलाफ आरपार की लड़ाई क्यों नहीं लड़ती? हम यह दावा नहीं कर रहे कि मोदी सरकार इतनी ईमानदार है कि इवीएम में सेटिंग कर नहीं सकती या तकनीकी तौर पर ऐसा हो नहीं हो सकता। कांग्रेस के भ्रमित होने पर सवाल उठता है।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कांग्रेस को ऐसा लग रहा था कि वह अपने बल पर हरियाणा में अकेले लड़कर बहुमत की सरकार बना लेगी। संसदीय चुनाव में उसने 10 में से 5 लोकसभा सीट जीतकर ऐसा मान लिया था। सारे एग्ज़िट पोल भी यही बता रहे थे। पहलवान किसान और जवान जिस तरह से हरियाणा में भाजपा सरकार से नाराज़ थे। उससे भी कांग्रेस को यह अहसास हो चला था कि वह आराम से चुनाव जीतने जा रही है। महंगाई बेराज़गारी और भ्रष्टाचार का ग्राफ भाजपा राज में जिस तेज़ी से उूपर जा रहा था उससे कांग्रेस को पूरा भरोसा हो चुका था कि इस बार सत्ता उसके पास आना तय है। चुनाव से पहले जो सर्वे हो रहे थे उनमें भी कांग्रेस का पलड़ा साफ भारी नज़र आ रहा था। सोशल मीडिया के साथ ही भाजपा समर्थक माने जाने वाला गोदी मीडिया तक दबी ज़बान में कांग्रेस की भाजपा पर बढ़त को छिपा नहीं पा रहा था। यही वजह थी कि कांग्रेस गलतफहमी खुशफहमी अति आत्मविश्वास और हरियाणा के प्रदेश नेतृत्व की ज़िद के सामने जाटों के जातिवाद का शिकार हो गयी। 
कांग्रेस प्रदेश मुखिया भूपंेद्र हुड्डा उनके विरोधी गुट के सुरजेवाला और दलित नेत्री शैलजा आपस में ही लड़ते रह गये और भाजपा व संघ ने अपने 36 सहयोगी संगठनों घर घर पहुंच मैदान मैदान शाखाओं राज्य व केंद्र की सत्ता पुलिस सीबीआई ईडी मीडिया कोर्ट चुनाव आयोग और काॅरपोरेट के अकूत धन के साथ साम दाम दंड भेद के बल पर हारी हुयी बाज़ी जीत में बदल दी। भाजपा ने जिस शातिर ढंग से चुनाव से 6 माह पहले मनोहर खट्टर को हटाकर पिछड़ी जाति से आने वाले नायाब सिंह सैनी को सीएम बनाकर राज्य के 40 प्रतिशत से अधिक पिछड़ों को खुश किया उसको कांग्रेस समझ ही नहीं पायी। इसके साथ ही कांग्रेस ने जनहित की 7 गारंटी देकर राज्य की जनता को लुभाना चाहा तो भाजपा ने उसके जवाब में 20 संकल्प लाकर कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। इतना ही नहीं भाजपा ने कई आकर्षक योजनायें वो भी लागू कर दीं जिनको मुफ्त की रेवड़ी बताकर कभी पीएम मोदी विपक्ष पर सरकारी ख़ज़ाना लुटाने का आरोप लगाया करते थे। भाजपा ने मौका देख बलात्कारी बाबा राम रहीम को चुनाव से ठीक पहले पैरोल दिलाकर उससे अपने पक्ष में पूरी बेशर्मी से वोट देने की अपील भी करा दी। बाबा के अधिकांश भक्त दलित माने जाते हैं। 
इससे भाजपा को जाटव वोट 35 प्रतिशत तो अन्य दलित वोट 46 प्रतिशत तक मिल गया। जबकि कांग्रेस लोकसभा की तरह इस वोट को एकतरफा अपना मानकर चल रही थी। इतना ही नहीं भाजपा ने कांग्रेस के राज्य नेतृत्व के जाट होने की वजह से उसको मात्र 22 प्रतिशत जोटों की पार्टी का तमगा बखूबी लगा दिया। जिस तरह से भाजपा यूपी में सपा को यादव व मुसलमानों की पार्टी होने का लेबल लगाकर दो बार से चुनाव जीत रही है। उसी तरह से उसने हरियाणा में कांग्रेस के जाटों के खिलाफ अन्य 36 जातियां जिनमें अगड़े पिछड़े और दलित शामिल थे उन सबको अपने साथ एक प्लेटपफाॅर्म पर जमा कर लिया। हद तो यह हो गयी कि जिस जाट बिरादरी के बल पर कांग्रेस हरियाणा चुनाव जीतने का सपना देख रही थी उसमें भी भाजपा ने 29 प्रतिशत की सेंध लगा दी और कई जाट बहुल सीटें अन्य जातियों के ध्रुवीकरण से जीत लीं। जिस मुसलमान को कांग्रेस के साथ एकतरफा होने का दावा किया जाता है वह भी उसके साथ केवल 59 प्रतिशत गया और बाकी भाजपा सहित अन्य दलों में बंट गया। इसके साथ ही भाजपा का हिंदुत्व का कार्ड तो अन्य सब मुद्दों पर भारी था ही जिसका कोई तोड़ कांग्रेस के पास नहीं था। 
अब बात करते हैं कि कांग्रेस जीत के प्रबल आसार के बावजूद चुनाव हार गयी तो इसके लिये इवीएम को कसूरवार क्यों बताया जा रहा है? सच तो यह है कि कांग्रेस आज भाजपा के मुकाबले बेहद कमज़ोर पार्टी है वह क्षेत्रीय दलों से भी काफी पीछे है। उसके साथ 70 साल के राज के आरोपों के साथ ही सत्ता का घमंड जुड़ा हुआ है। उसके साथ परिवारवाद अल्पसंख्यकवाद और करप्शन का दाग लगा हुआ है। वह पार्टी के वफादार ईमानदार और जनाधार वाले नेताओं की बजाये चापलूसी चमचागिरी और परिवार पूजा करने वालों को अधिक वेट आज भी देती है। कांग्रेस हाईकमान राज्य के अपने ही बड़े नेताओं के सामने बार बार झुक जाता है। जिसका खुमियाज़ा उसको राजस्थान छत्तीसगढ़ एमपी और अब हरियाणा में भुगतना पड़ा है। कांग्रेस के कुछ नेता उदार हिंदूवाद के समर्थन में खुलेआम बोलते रहते हैं जबकि इसका लाभ भाजपा को होता है। जिस तरह से हिमाचल में उसके नेता विक्रमादित्य ने कई बार भाजपा की भाषा बोली उससे उसके परंपरागत समर्थक मुसलमान ही नहीं सेकुलर हिंदू भी नाराज़ होते हैं। 
    कांग्रेस शुरू से ही गठबंधन बचती रही है। लेकिन 2004 से उसने गठबंधन केंद्र में मजबूरी में किया लेकिन राज्यों में जहां वह कमज़ोर थी वहां तो गठबंधन को तैयार हुयी लेकिन जहां मज़बूत थी वहां उसने क्षेत्रीय दलों को भाव नहीं दिया। हरियाणा में उसको भाजपा से मात्र 0.85 प्रतिशत वोट कम मिले हैं। जबकि संसदीय चुनाव मंे उसकी सहयोगी आम आदमी पार्टी ने 1.79 वोट लिये हैं। ऐसे ही कुल मिलाकर अन्य छोटे दलों ने लगभग 20 प्रतिशत वोट लिये हैं। इनमें से कुछ दल प्रयास करने पर कांग्रेस के साथ आ सकते थे लेकिन सत्ताधारी होने और उसके साथ गठबंधन में धोखा खाने और हवा उसके खिलाफ होने से वे भाजपा के साथ जाने को किसी कीमत पर तैयार नहीं थे। अगर कांग्रेस इन छोटे दलों को 5 से 10 सीट दे देती तो वे तो दो चार ही जीत पाते लेकिन कांगे्रस जो 15 से 20 सीट मात्र 2 से 5 हज़ार वोटों के मामूली अंतर से हारी है उनको जीतकर बाज़ी पलटी जा सकती थी। यही वजह है कि कांग्रेस की इस अकड़ नासमझी और ज़िद की उसके सहयोगी सपा शिवसेना और नेशनल कांफ्रेस ने आलोचना भी की है। अभी भी समय है कि कांग्रेस इवीएम पर सारा ज़ोर न देकर अपनी सोच रण्नीति और विचारधारा पर फिर से विचार करे। कांग्रेस के लिये ग़ालिब का एक शेर कितना सटीक है-
0 उम्रभर ग़ालिब यही भूल करता रहा,
 ध्ूाल चेहरे पे थी आईना साफ़ करता रहा।  
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं*।

Thursday, 3 October 2024

फर्जी मुठभेड़

लाॅ एंड आॅर्डर बनाम रूल आॅफ़ लाॅ, क्यों बढ़ रहे हैं एनकाउंटर?
0 पिछले दिनों तीन अलग अलग राज्यों में विभिन्न अपराधों के आरोपियों के विवादित एनकाउंटर हुए हैं। इन मुठभेड़ों को वहां की सरकारों ने वास्तविक बताकर लाॅ एंड आॅर्डर बनाये रखने के लिये ज़रूरी बताया तो विपक्ष ने रूल आॅफ़ लाॅ की दुहाई देकर इनको फ़र्ज़ी बताते हुए संविधान लोकतंत्र और सरकार की असफलता बताया है। पहले ऐसे विवादित एनकाउंटर माओवादी और आतंकवादी हिंसा से ग्रस्त राज्यों में या माफियाआंे के अंडरवल्र्ड शूटर के नाम पर अकसर होते थे। अन्य राज्यों में ऐसी मुठभेड़ अपवाद के तौर पर होती थी। लेकिन हैदराबाद में वेटनरी डाॅक्टर की रेप के बाद हत्या होने पर उसके सभी आरोपियों को एनकाउंटर में जब मारा गया तो काफी विरोध और दूसरी तरफ स्वागत भी हुआ। इसके बाद यूपी सहित अनेक भाजपा शासित व कुछ विपक्षी सरकारों के राज्यों में यह आम बात हो गयी।       

 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     महाराष्ट्र के बदलापुर कांड के आरोपी को जब पुलिस ने यह कहकर मुठभेड़ में मारा कि वह पुलिस की पिस्टल छीनकर हमला कर रहा था तो हाईकोर्ट ने भारी नाराज़गी दर्ज करते हुए सरकार से कई चुभते हुए सवाल किये। तमिलनाडु में एक हिस्ट्रीशीटर को इसी तरह के विवादित एनकाउंटर में मारा गया। ऐसे ही यूपी में भाजपा सरकार के बनने के बाद लगभग 200 एनकाउंटर और 6000 से अधिक हाफ एनकाउंटर हो चुके हैं। हाफ एनकाउंटर में आरोपी के पैर पर गोली मार दी जाती है। सुल्तानपुर डकैती कांड के यादव जाति के मुख्य अभियुक्त को जब पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया तो सपा नेता अखिलेश यादव ने इस पर ज़बरदस्त विरोध दर्ज कराया। इसके बाद मामले को संतुलित करते हुए पुलिस ने ख़बर दी कि ठाकुर जाति से जुड़ा इसी मामले का एक अन्य अभियुक्त भी मुठभेड़ में मारा गया। पहले राज्य में इस तरह के विवादित एनकाउंटर की शुरूआत मुसलमान आरोपियों से हुयी थी। बाद में इसका दायरा बढ़कर दलित पिछड़े ब्रहम्ण गरीब कमज़ोर और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने तक पहुंच गया। 
यही हाल किसी अपराध के आरोपियों के घर दुकान या उनसे जुड़ी इमारत पर बुल्डोज़र चलाने को लेकर हुआ है। कहने का मतलब यह है कि किसी भी गलत काम की शुरूआत या अधिकता भले ही किसी धर्म विशेष या जाति के साथ शुरू हो लेकिन बाद में समाज के दूसरे लोग भी उस अन्याय अत्याचार और पक्षपात का शिकार हुए बिना नहीं बच सकते। वन नेशन वन इलैक्शन से अब चर्चा वन नेशन वन पुलिस स्टेशन तक आ गयी है। इसमें कहा जाता है कि राज्य चाहे जो हो वहां पुलिस स्टेशन का एनकाउंटर का तरीका लगभग एक जैसा ही क्यों होता है? हर एनकाउंटर के बाद पुलिस एक ही कहानी दोहराती नज़र आती है जिसमें एक अपराध का आरोपी होता है। पुलिस उसको पता नहीं क्यों हर बार रात के अंध्ेारे में ही क्राइम सीन क्रिएट करने या अपराध में प्रयोग हुए हथियार बरामद करने या फिर चोरी डकैती का सामान बरामद करने को सुनसान इलाके में ले जाती है। उस आरोपी पर कई संगीन जुर्म के केस पहले से दर्ज होते हैं। इसके बाद वह आरोपी पुलिस का हथियार छीन लेता है। जबकि बिना प्रशिक्षण के कोई अपराधी पुलिस का हथियार न तो अनलाॅक कर सकता है और ना ही उसको चला सकता है। 
        कई बार पुलिस यह भी दावा करती है कि उसने आरोपी को आत्मसमर्पण करने के लिये कहा लेकिन वह पुलिस पर अपने तमंचे से गोली चलाने लगा। मजबूरन पुलिस ने आरोपी पर जवाबी गोली चलाई और आरोपी मारा गया। बाॅम्बे हाईकोर्ट ने इन जैसी समानताओं को लेकर ही पुलिस से बार बार सवाल पूछे हैं। हैरत की बात यह है कि इस तरह की मुठभेड़ों में हमेशा आरोपी मारा जाता है जबकि पुलिस या तो साफ बच जाती है या हल्की व मामूली चोट खाती है। सुप्रीम कोर्ट भी इस तरह के विवादित एनकाउंटर्स को लेकर कई बार राज्य सरकारों पुलिस और जांच एजंसियों को फटकार लगा चुका है। कोर्ट ऐसे मामलों में अनिवार्य रूप से रिपोर्ट दर्ज कर जांच करने और कोर्ट की गाइड लाइंस को हर हाल में लागू करने को भी कई बार कह चुका है। लेकिन जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के मना करने के बावजूद बुल्डोज़र चल रहा है उसी तरह से एनकाउंटर भी रूक नहीं रहे हैं। एनकाउंटर की गहराई में जाकर देखेंगे तो आप पायेंगे कि इनके पीछे भी राजनीति हो रही है।
     फर्जी मुठभेड़ों के नाम पर कुछ सरकारें यह धारणा बनाने में सफल हैं कि इससे अपराधियों में भय पैदा होगा और आगे दूसरे अपराधी अपराध करने से डरेंगे। उनका यह भी दावा है कि कुछ खास वर्ग धर्म या जाति के लोग ही अपराध करते हैं। वे जनता के एक भ्रमित वर्ग की इस सोच को भी न्यायोचित साबित करने में लगी हैं कि इससे हाथो हाथ न्याय हो रहा है। तथाकथित गैर कानूनी बुल्डोज़र जस्टिस भी इसी धारणा का विस्तार है। इससे सरकारों को वोट ना मिलने का डर भी नहीं रहा है। उल्टा उनके इस गैर कानूनी पक्षपाती और संविधान विरोधी काम से उनका कट्टर समर्थक उनको पहले से अधिक बढ़चढ़कर वोट दे रहा है। लेकिन वह यह भूल गया है कि जब समाज से संविधान कानून और निष्पक्षता का राज खत्म होगा तो आज नहीं तो कल वह भी उसका शिकार बनेगा। कई सरकारें यह दावा भी करती है कि ऐसा करने से लाॅ एंड आॅर्डर सुधर रहा है और अपराध पहले से कम हो रहे हैं। जबकि केंद्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्योरो के आंकड़े इस दावे को झुठला रहे हैं। 
       सच तो यह है कि हमारी पुलिस कोर्ट और जांच एजंसियां जिस कछुवा गति से काम करती हैं उससे लोगों का उनसे भरोसा उठता जा रहा है। वे गैर कानूनी होने के बावजूद ऐसे एनकाउंटर और आरोपियों के घरों पर बुल्डोज़र चलाये जाने को ही न्याय और समस्या का सही हल मान रही हैं। केंद्रीय जांच एजसियां मेन स्ट्रीम मीडिया और भाजपा विपक्ष शासित राज्यों में जिन अपराधों के होने पर एक्टिव हो जाती हैं। वहीं भाजपा शासित राज्यों में वह रेप के अपराधियों को लेकर सज़ा पूरी होने से पहले जेल से छोड़ने उनका ज़मानत पर बाहर आने पर माला पहनाकर मिठाई खिलाकर और तिलक लगाकर स्वागत करने में कोई बुराई नहीं समझती। बाबा राम रहीम को वह बार बार चुनाव के समय पर ही पैरोल दिलाती रहती है। करप्शन के आरोप में पकड़े गये लगभग सभी आरोपी विपक्ष के ही होते हैं। उड़ीसा में एक सेना अफसर और उसकी मंगेतर के साथ पुलिस ने जो कुछ किया उस पर मीडिया में इतनी कवरेज नहीं हुयी जबकि कोलकाता रेप मामले में राष्ट्रपति तक ने अपना डर जताया था। याद रखिये पूरा सिस्टम सुधारे बिना एनकाउंटर हल नहीं खुद प्राॅब्लम बन जायेंगे।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*