Sunday, 7 January 2018

Today muslim-zameeruddeen shaah

पिछले दिनों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति जमीरूद्दीन शाह ने बहुत पते की बात कही कि मुसलमान अपने सामाजिक हालातों के लिए खुद ही दोषी हैं। वे नमाज और रमजान महीने के कर्मकांडों पर बहुत समय बर्बाद करते हैं। इसके अलावा वे अपनी आधी आबादी मानें औरतों का कोई इस्तेमाल ही नहीं करते हैं, उनको उन्होंने घरों में गुलाम बनाकर रखा है। अपना सऊदी अरब का अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि वहां भी यही हालात हैं, औरतों को घरों में कैद रखा जाता है। यही हालात सभी मुस्लिम देशों के हैं। इसी कारण मुस्लिम देश पिछड़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि मुसलमान रमजान को तो छुट्टी का महीना मानते हुए उन दिनों में कोई काम नहीं करते है। सामान्य दिनों में वे ढाई घंटे काम नहीं करते हैं। शुक्रवार के दिन तो बहुत सारा समय नमाज पर खर्च कर देते हैं। इसके बाद साप्तिाहिक अवकाश आ जाता है। शिक्षा को तो उन्होंने छोड़ दिया है। हालांकि देश में कोई धार्मिक भेदभाव नहीं है, लेकिन इसके बावजूद मुसलमान अवसर न मिलने का रोना रोते रहते हैं। मुस्लिम समुदाय उस भेदभाव का रोना रोता है जो असल में है ही नहीं।

देश के मुस्लिमों की दशा पर विचार करने के लिए बनी सच्चर कमेटी जमीरूद्दीन शाह जैसे लोगों से कभी मिली ही नहीं। यदि मिलती तो मुस्लिम पिछड़ेपन के बारे में उसका नजरिया ही बदल जाता। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद हर तरफ एक ही हो हल्ला था कि मुसलमान देश का सबसे पिछड़ा तबका है। वह दलितों से भी ज्यादा पिछड़ा है। यह माहौल बना कि इस पिछड़ेपन के लिए भारत सरकार और भारतीय समाज का मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण नजरिया ही जिम्मेदार है। इस कलंक को मिटाने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने अपना सारा खजाना खोल दिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है।

मुसलमानों के लिए विशेष योजना, बैंक कर्जों में 15 प्रतिशत कर्ज मुसलमानों को देने का प्रावधान, मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप, आदि न जाने कितने विशेष उपाय किए गए, लेकिन ये उपाय बेकार साबित हुए। मुसलमानों की स्थिति पर तब से लगातार बहस होती रही है। केंद्र में मुस्लिमों की हमदर्द होने का दावा करने वाली कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन मुसलमानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। साफ-साफ बातें करने वाले कुछ लोगों का कहना है कि मुसलमान पिछड़ी मानसिकता के हैं। यही वजह है की दुनियाभर के मुसलमान पिछड़े हैं।

इसी मानसिकता से भारत के मुसलमान भी प्रभावित हैं। मध्य-पूर्व के देशों में मुस्लिम ब्रदरहुड नामक इस्लामवादी संस्था यह नारा लगाती है कि इस्लाम इज सोल्यूशन। लेकिन, पश्चिमी देशों में बैठे इस्लामी देशों के विशेषज्ञों को लगता है कि मामला इसके उलट है मानें इस्लाम इज प्रॉब्लम। कई मुस्लिम नेता कहते हैं कि इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद पैगंबर ज्ञान-विज्ञान के बहुत पक्ष में थे। उन्होंने कहा था कि ज्ञान पाने के लिए चीन जाना पड़े तो जाओ। पता नहीं कि मुसलमान ज्ञान प्राप्त करने के लिए कभी चीन गये या नहीं, लेकिन लडऩे के लिए भारत जरूर पहुंच गए, क्योंकि इस्लाम का भरोसा कलम पर कम तलवार पर कुछ ज्यादा ही रहा है। लेकिन, आज का युग ज्ञान-विज्ञान का युग है, सूचना का युग है। आज सिकंदर वही है जो ज्ञान-विज्ञान में अव्वल है। जो उसमें पिछड़ गया वह पिछड़ ही जाता है।

कुछ वर्षों पहले पाकिस्तान के स्वतंत्र पत्रकार डॉ. फारूख सईद के कुछ लेखों ने मुस्लिम जगत को चौंका दिया। इस लेख के आंकड़े कुछ साल पुराने हैं, लेकिन आज भी प्रासंगिक हैं। वे कहते हैं कि हालांकि, दुनिया में कई मुस्लिम देश काफी अमीर हैं। लेकिन, मुसलमान दुनिया के गरीबों में भी सबसे गरीब हैं। उनके मुताबिक 57 मुस्लिम देशों का सकल घरेलू उत्पाद 2 ट्रिलियन डॉलर से कम है। जबकि, अकेला अमेरिका 11 ट्रिलियन डॉलर उत्पादों और सेवाओं का उत्पादन करता है। चीन 5.7 ट्रिलियन डॉलर का, जापान जैसा छोटे से देश का सकल घरेलू उत्पाद 3.5 ट्रिलियन है और जर्मनी का 2.1 ट्रिलियन है। अर्थ ये कि कई देश हैं जो अकेले इतना उत्पादन करते हैं, जितना 57 मुस्लिम देश भी मिलकर नहीं कर पाते है। तेल के बूते अमीर बनने वाले कई देशों सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर को मिलाकर देखें तो इनका सकल घरेलू उत्पाद 430 बिलियन डॉलर ही है। नीदरलैंड जैसे छोटे देश और बौद्ध धर्मांवलंबी थाईलैंड का सकल घरेलू उत्पाद इससे कहीं ज्यादा है। दुनिया की आबादी में मुसलमानों की आबादी 22 प्रतिशत है, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में उनका योगदान मात्र पांच प्रतिशत का है। चिंता की बात यह है कि यह प्रतिशत भी लगातार गिरता जा रहा है। दुनिया के जो 9 सबसे ज्यादा गरीब देश हैं, उनमें से छह मुस्लिम देश हैं।

आज का युग ज्ञान-विज्ञान का युग है, मगर शिक्षा साक्षरता के मामले में मुस्लिम देशों की हालत बहुत ही खस्ता है। डॉ. फारूख सईद कहते हैं कि 57 मुस्लिम देशों की एक अरब 40 करोड़ आबादी के लिए सिर्फ छह सौ विश्वविद्यालय हैं। मतलब ये कि प्रति मुस्लिम देश में 10 विश्वविद्यालय हैं। जबकि, सिर्फ अमेरिका में इससे दस गुना यानी 5,758 विश्वविद्यालय हैं। मुस्लिम देशों में जो थोड़ी बहुत उच्च शिक्षा संस्थाएं हैं, उनका आलम यह है कि हाल ही में शंघाई जियाओ टॉग विश्वविद्यालय ने दुनिया के विश्वविद्यालयों की अकादमिक आधार पर जो रैंकिंग दी थी, उसके मुताबिक टॉप 500 विश्वविद्यालयों में मुस्लिम देशों का एक भी विश्वविद्यालय या उच्च शिक्षा संस्थान तक नहीं था।
डॉ. फारूख सईद ने संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूएनडीपी द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर ईसाई और मुस्लिम देशों की शिक्षा की स्थिति की तुलना की। 15 ईसाई बहुल देश ऐसे हैं, जहां साक्षरता 100 प्रतिशत है। लेकिन, एक भी मुस्लिम देश ऐसा नहीं है, जहां साक्षरता 100 प्रतिशत हो। मुस्लिम बहुल देशों में औसत साक्षरता 40 प्रतिशत के नजदीक है। ईसाई देशों में 40 प्रतिशत ने कॉलेज शिक्षा भी ली है। वहीं मुस्लिम देशों में यह आंकड़ा केवल 2 प्रतिशत का है। डॉ. फारूख सईद इसके आधार पर निष्कर्ष निकलते हैं कि मुस्लिम देशों में ज्ञान पैदा करने की क्षमता का ही अभाव है। ऐसे में ज्ञान-विज्ञान की प्रगति में कहीं शामिल हैं ही नहीं।

चूंकि मुस्लिम देशों की जनता साक्षरता में बहुत पीछे है, इसलिए ज्ञान और सूचनाओं का प्रचार करने वाले अखबारों और किताबों के मामले में भी बहुत पीछे हैं। पाकिस्तान के कायदे आजम विश्वविद्यालय में तीन मस्जिदें हैं, चौथी बनने वाली है। लेकिन, वहां किताबों की कोई दुकान नहीं है। यह इस बात का प्रतीक है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल कोर्स की किताबों को रटना भर है, ना कि आलोचनात्मक दृष्टि पैदा करना। सऊदी अरब की सरकारी स्कूलों में जो कुछ किताबें पढ़ाई जाती हैं, उनसे ये पता नहीं चलता कि धर्म की किताबें हैं या विज्ञान की। जैसे एक किताब का नाम है- ‘अन चैलेंजेबुल मिरेकल ऑफ द
कुरान’ या ‘द फैक्ट्स दैट कैन नॉट बी डिनाइड बाय साइंस।’

किसी देश द्वारा किये गये निर्यात में उच्च तकनीक उत्पादों का कितना हिस्सा है, यह पैमाना होता है कि कोई देश ज्ञान-विज्ञान का कितना इस्तेमाल कर पा रहा है। पाकिस्तान के निर्यात में उच्च तकनीक से निर्मित उत्पादों का हिस्सा एक प्रतिशत है। वहीं कुवैत, मोरक्को, अल्जीरिया और सऊदी अरब आदि मुस्लिम देशों में यह आंकड़ा 0.3 प्रतिशत है। दूसरी तरफ सिंगापुर में यह आंकड़ा 57 प्रतिशत का है। इससे स्पष्ट है कि मुस्लिम देश विज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग या तकनीकी क्षेत्र में प्रयोग में कहीं है ही नहीं। नोबेल पुरस्कार भी किसी देश या समाज की वैज्ञानिक प्रगति को नापने का पैमाना होता है। अब तक केवल दो मुस्लिम वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार मिले हैं, मगर दोनों ही ने अपनी उच्च शिक्षा पश्चिमी देशों में पाई है। दूसरी तरफ यहूदी जिनकी आबादी दुनिया में मात्र 1 करोड़ 40 लाख है अब तक 15 दर्जन नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं।

मुस्लिम देशों के पिछड़ेपन के बारे में ये चौंकाने वाले आंकड़े देखकर डॉ. फारूख सईद सवाल उठाते हैं कि मुस्लिम गरीब निरक्षर और कमजोर हैं। आखिर, क्या गलत हो गया? फिर वे खुद ही जवाब देते हैं कि हम पिछड़े इसलिए हैं, क्योंकि हम ज्ञान का निर्माण नहीं कर रहे। हम ज्ञान-विज्ञान को अमल में लाने में भी नाकाम रहे हैं। जबकि, आज का युग सूचना और ज्ञान का युग है, भविष्य केवल उन समाजों का है जो ज्ञान पर आधारित हैं। मानव विकास सूचकांक में भी यदि कुछ तेल का निर्यात करने वाले देशों को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी मुसलमान देश बहुत नीचे आते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में इस्लामी देशों में बस पांच सौ शोध-प्रबंध यानी पीएचडी जमा होते हैं। यह संख्या अकेले इंग्लैंड में तीन हजार है।

इन सारे कारणों से मुस्लिम देशों में ज्ञान पर आधारित समाज बनने की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती है, क्योंकि उसकी पहली शर्त है शिक्षा, ज्ञान के प्रति जिज्ञासा जिसका मुस्लिम समाज में घोर अभाव है। ये तथ्य और आंकड़े इस बात की ओर इंगित करते हैं कि मुसलमान केवल भारत में ही नहीं दुनियाभर में सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े हैं। भारत के बारे में आप कह सकते हैं कि यहां की सरकार मुसलमानों से भेदभाव करती है, लेकिन इन 57 मुस्लिम देशों का क्या? यहां तो मुस्लिम सरकारें हैं। फिर मुस्लिम शिक्षा में पिछड़े क्यों हैं? इसलिए भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए केवल भारतीय समाज और भारत सरकार को दोषी ठहराना बेकार है। दरअसल सच्चर कमेटी को भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों का भी पता लगाना चाहिए था। साथ ही साथ इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि क्यों मुसलमान दुनियाभर में पिछड़े हैं? कहीं उनकी विशेष धार्मिक सोच, धर्मांधता, रीति-रिवाजों का कट्टरपन, मुल्ला- मौलवियों का शिकंजा इस पिछड़ेपन की वजह तो नहीं?

इस्लाम के कुछ जानकारों का कहना है कि मुसलमानों में अपने हर सवाल के जवाब अपने धर्म ग्रंथों में खोजने की आदत पड़ी हुई है, ये उनकी जिज्ञासा को कुंठित कर देती है। उन्हें यह गलतफहमी है कि उनके हर सवाल का जवाब कुरान में मौजूद है, फिर पढऩे-लिखने की जरूरत ही क्या है? आम जिंदगी में मुसलमानों का ज्यादा भरोसा कलम में कम और तलवार में ज्यादा रहा है। इस्लामी धर्म ग्रंथों के मुताबिक इस्लाम पूर्व का युग अज्ञान और अंधकार का युग रहा है, इसलिए उससे कुछ लेने का सवाल ही नहीं उठता। इस्लाम खुद कोई ज्ञान-विज्ञान कभी पैदा नहीं कर सका। दूसरे धर्मों द्वारा पैदा किए गए ज्ञान विज्ञान को वह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाया। यही वजह है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने कई विश्वविद्यालयों को नेस्तनाबूद कर दिया। उनके ग्रंथालयों को जला डाला। मुसलमान तो इस देश में सात सदियों तक शासक रहे और काफी लूट-खसोट की, उससे महल बनावाए, मकबरे बनवाए। लेकिन, उच्च शिक्षा का कोई संस्थान कभी नहीं बनवाया। अगर, उनके नाम पर कुछ दर्ज हैं तो कुछ इस्लामी शिक्षा देने वाले ही संस्थान। ऐसे लोगों पर सरस्वती कैसे प्रसन्न हो सकती है?

कई विद्वान मानते हैं कि मुसलमानों में ज्ञान को पाने की घटती प्रवृत्ति ही उनके आर्थिक और राजनीतिक पतन का मुख्य कारण है। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने विश्व मुस्लिम संगठन की बैठक में मुस्लिमों को बहुत सही सलाह दी थी कि मुसलमानों को अपनी रूढि़वादिता छोड़कर नए समय में नई पहचान बनानी चाहिए, क्योंकि सामाजिक परिस्थितियां अब बदल चुकी हैं। मुसलमानों को यह याद रखने की जरूरत है कि आज के वैज्ञानिक विकास से परिभाषित विश्व में किसी भी देश की इज्जत और शक्ति उसकी जनसंख्या पर आधारित नहीं है। आज के विश्व में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास ही शक्ति, इज्जत और संसाधनों की गारंटी है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां अधिक जनसंख्या के साथ आर्थिक पिछड़ापन और कम सामरिक सामथ्र्य है।

यहूदी देश इजराइल को देखिए, इतना छोटा देश पूरे अरब के देशों पर हावी रहता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह आर्थिक, सामरिक और वैज्ञानिक रूप से बेहद समृद्ध देश है। जिसके सामने पिछड़ेपन के शिकार अरब देशों को झुकना पड़ता है, हार मान लेनी पड़ती है। एक तरफ वे मुसलमान हैं, जो आज पश्चिमी देशों में रहते हैं और अपनी समृद्धि से खुश हैं। जबकि, वहीं वे मुसलमान भी हैं, जो मुस्लिम बाहुल्य देशों के वाशिंदे हैं और आर्थिक रूप से पिछड़ेपन में डूबे हुए हैं। यूरोप में रहने वाले 20 मिलियन मुसलमानों का सकल घरेलू उत्पाद पूरे भारतीय महाद्वीप के 500 मिलियन मुसलमानों से अधिक है।

- सतीश पेडणेकर
वाया Nishat Imran, Arpit Kamlesh Dwivedi
एजय यादव जी की वाल से

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