देशप्रेम के लिये राष्ट्रवादी होना ज़रूरी नहीं
इक़बाल हिन्दुस्तानी
0साम्प्रदायिक व हिंसक सोच से कभी भी देश का भला नहीं हुआ!
न तो वामपंथी होना अपराध है और न ही दक्षिणपंथी। अगर देश के कुछ कम्युनिस्ट ग्रुप अतिवादी बनकर नक्सलवादी और माओवादी बन जाते हैं तो उनका खुद वामपंथी सरकारें ही सफाया करने में संकोच नहीं करती। वामपंथी दल अगर भारत की बजाये रूस या चीन का कम्युनिस्ट होने की वजह से पक्ष लेते हैं तो उनका भी विरोध होना चाहिये। वैसे मुझे याद नहीं कभी उन्होंने ऐसा वास्तव मंे किया हो लेकिन आरोप ऐसे ज़रूर लगते रहे हैं। बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट अकसर आरएसएस के साथ वैचारिक टकराव में संघ की तरह हिंसक होते रहे हैं जो गलत है। ऐसे ही जेएनयू में अगर किसी ने चाहे वो कम्युनिस्ट ही क्यों न हो देश विरोधी कुछ किया है तो उसकी निष्पक्ष जांच कराकर कानून के हिसाब से सज़ा बेशक दी जानी चाहिये।
जहां तक दक्षिणपंथ का सवाल है यह ज़रूरी नहीं कि जो वामपंथी न हो वो दक्षिणपंथी हो तभी वो देशभक्त होगा। संघ परिवार और मोदी सरकार को यह गलतफहमी है कि जो उनकी तरह राष्ट्रवादी नहीं है वो देशद्रोही है। यही वजह है कि जेएनयू मामले में भाजपा को बैकफुट पर आना पड़ा है। दरअसल यह सोच ही अपने आप में जनविरोधी और अन्यायपूर्ण है कि जो हमारी सोच से सहमत नहीं वो देश विरोधी है। लोकतंत्र में इस तरह की सोच के लिये कोई जगह नहीं हो सकती। यह वही तालिबानी सोच है जो कहते हैं कि जो हमारी बात नहीं मानेगा उसको हम मार डालेंगे। उनके अनुसार वह पक्का सच्चा मुसलमान नहीं है। सच तो यह है कि किसी ने ठीक ही कहा है कि पावर मेक्स करप्ट एंड एब्स्लूट पॉवर मेक्स एब्स्लूट करप्ट।
संघ परिवार को यह लग रहा है कि वे केंद्र की सत्ता में आकर जो चाहें कर सकते हैं और लोगों को जो चाहें मनवा सकते हैं। यह उनकी मात्र खुशफहमी है। वे इतिहास से नहीं सीखते। वे तानोशाह हिटलर का हश्र भूल गये। वे अफगानिस्तान में अवैध घुसपैठ के बाद मुंह की खाने वाले उस समय के सुपर पॉवर रूस का का हाल याद नहीं रख पाये। वे वियतनाम, अफगानिस्तान और ईराक में ताकत के बल पर अमेरिका की बुरी तरह असफलता को भी नहीं देख पाये। उनको यह भी नहीं पता कि देश की जनता नहीं केवल मतदाता जिसने उनको 31 प्रतिशत वोट दिया था उनमें आधे से अधिक राष्ट्रवाद हिंदूवाद और राम मंदिर के पक्ष में नहीं बल्कि विपक्ष में कोई दमदार नेतृत्व न होने से मोदी को एक मौका विकास के लिये देने को उनके साथ आये थे।
जब विकास होता नज़र नहीं आया तो उनकी एक साल बाद ही वापसी भी शुरू हो गयी। संघ जनता पार्टी की सरकार का हश्र भूल गया। संघ आज इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा वाली भाषा बोल रहा है। जेएनयू में विवादित नारेबाज़ी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा आतंकी ठहराये गये अफ़ज़ल गुरू पर हुए प्रोग्राम को लेकर जो कुछ हुआ वह देशद्रोह की परिभाषा में आता है या नहीं यह तो निष्पक्ष जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन कोर्ट के निर्णय से असहमति देशद्रोह होती है या नहीं यह बहस का विषय है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोर्ट वही फैसला करता है जो जानकारी, दस्तावेज़ और गवाह सरकार उसके सामने पेश करती है।
अगर सरकार विचारधारा धर्म पद जाति और दलगत आधार पर पक्षपात करके केवल चुनिंदा मामलों को पुलिस से केस दर्ज कराकर अदालत के सामने सुनवाई के लिये ले जायेगी तो फिर कोर्ट के फैसलों का विरोध भी सरकार का ही विरोध माना जाना चााहिये। खुद सुप्रीम कोर्ट कई बार अपने फैसले बदलता है पुनर्विचार करता है और वापस तक ले लेता है। सही भी है। कोर्ट में भी इंसान ही जज हैं। वे भी भूल और गलती कर सकते हैं। देश में वामपंथी सोच के समर्थक भी बड़ी तादाद में हैं। अल्पसंख्यक मुसलमान भी राष्ट्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं। इन लोगों को राष्ट्रवाद और वंदेमातरम से परहेज़ रहा है। आप इसके बावजूद उनकी देशप्रेम की भावना पर उंगली नहीं उठा सकते।
इतिहास गवाह है संघ परिवार की देश की आज़ादी में कोई खास भूमिका नहीं रही। आरोप यहां तक है कि वे अंग्रेज़ों की चापलूसी करते थे। अटल जी की तो क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही बाकायदा रिकॉर्ड पर मौजूद है। संघ ने आज़ादी का जश्न भी नहीं मनाया था। संघ ने 50 सााल से अधिक समय तक अपने मुख्यालय पर तिरंगा भी नहीं फहराया। संघ पर साम्प्रदायिक होने, गांधी जी की हत्या की सोच पैदा करने, देश में दंगे कराने, अपने विरोधियों के प्रति हिंसक होने, अफवाह फैलाने, अल्पसंख्यकों व दलितों के खिलाफ सोच रखने, पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ देश में हिंसक आंदोलन चलाने, हिंदू आतंकवाद को शह देने , सुप्रीम कोर्ट को धेखा देकर बाबरी मस्जिद शहीद कराने, ब्रहम्णवादी होने और पूंजीवादियों के एजेंट होने के आरोप भी लगते रहे हैं।
ऐसे में वो किस मंुह से देशभक्ति का दावा कर सकता है? सही मायने में तो देशद्रोह की धारा 124 पर भी सरकार को फिर से विचार करना चाहिये क्योंकि सुप्रीम कोर्ट कई बार अपने फैसलों से इसके दायरे को सीमित कर चुका है। सरकारें अपने विरोध पर इसको देश का विरोध बताकर अकसर दुरूपयोग करती हैं। सुप्रीम कोर्ट का दो टूक कहना है कि जब तक किसी के किसी काम से देश के खिलाफ हिंसक विरोध का ठोस सबूत न हो तब तक देशद्रोह का केस नहीं बनता। देश के संविधान देश की व्यवस्था देश के प्रतीकों लॉ एंड ऑर्डर जनहित और सेना व कोर्ट के खिलाफ अगर कोई सशस्त्र विद्रोह के लिये पहल करता है तो देशद्रोह का मामला बन सकता है।
संघ परिवार यह दोगलापन कैसे चला सकता है कि जो पीडीपी अफ़ज़ल को शहीद मानती है उसके साथ बीजेपी सरकार बनाती है। जो अकाली आतंकी भिंडरावाला और प्रधनमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारों को शहीद मानते हैं उनके साथ भाजपा सरकार चलाती है। जो गोडसे गांधी जी का हत्यारा था उसका जश्न संघ परिवार के कुछ लोग मनाते है। वामपंथी होना और संघ से असहमत होना कोई अपराध नहीं है। माकपाई भाकपाई नहीं हकीकत तो यह है कि जो इंसान सही मायने मंे वामपंथी होगा वह समाजवादी सेकुलर और मानवतावादी होगा और वह राष्ट्रवादी साम्प्रदायिक और दोगला हो ही नहीं सकता हां वो देशप्रेमी ज़रूर होता है।
Tuesday, 23 February 2016
राष्ट्रवाद नहीं देशप्रेम
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