0 अमेरिका के न्यूयार्क का मेयर चुने जाने पर 34 साल के ज़ोहराम ममदानी आजकल चर्चा का विषय बने हुए हैं। आखि़र ऐसा क्या था कि एक देश के एक शहर का मेयर चुना जाना ममदानी के लिये पूरी दुनिया में दो वर्गों के लिये नाक का सवाल बन गया। ममदानी मुस्लिम हैं लेकिन उनकी जीत में इस्लाम का कोई रोल नहीं था इसलिये मुसलमानों का उनकी जीत का जश्न मनाना समझ से बाहर है। उनकी पत्नी सीरियाई है। वे प्रवासी हैं। उनका जन्म युगांडा में हुआ। वे 8 साल की उम्र में अमेरिका के न्यूयार्क आये। जिस तरह से उनके चाहने वाले डेमोक्रेट लिबरल सेकुलर और मानवतावादी समाजवादी पूरे विश्व में फैले हुए हैं वैसे ही उनको उग्रवादी रेडिकल कम्युनिस्ट बताने वाले कंज़रवेटिव और अंधभक्त भी बहुत हैं।
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
सवाल यह है कि 9 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले न्यूयार्क में कैसे एक मुसलमान ममदानी ईसाई हिस्पैनिक हिंदू और यहूदियों तक के वोट लेकर वहां के राष्ट्रपति टंªप के ज़बरदस्त विरोध और अंतिम समय में अपनी ही रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी को छोड़कर ममदानी की डेमोक्रेट पार्टी के विद्रोही निर्दलीय प्रत्याशी को सपोर्ट करने के बावजूद वे जीत गये? ट्रंप ने न्यूयार्कवासियों को बेशर्मी से यहां तक धमकाया कि अगर ममदानी को मेयर चुना जाता है तो वे सरकार से न्यूयार्क को मिलने वाला विकास का धन रोक देंगे। लेकिन ममदानी ने जनहित के ऐसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा कि किसी का कोई विरोध कोई धमकी कोई चाल उनकी जीत का रास्ता नहीं रोक सकी। दरअसल ममदानी दो विचारधाराओं के बीच का संघर्ष बन गये। एक तरफ खुलेआम आवारा पूंजी कारपोरेट और अमीर वर्ग के हित में काम करने वाली पूंजीवादी नीतियों के समर्थक थे तो दूसरी तरफ ममदानी का समाजवाद गरीब समर्थन कमजोर वर्ग का साथ और मकानों का किराया कम करना मेट्रो तक पहुंच पुलिस की इंसाफ वाली छवि बुजुर्गो व मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के साथ जनता व ज़मीन से जुड़े दिल में उतर जाने वाले मुद्दे थे। ममदानी विरोधियों के तमाम हमलों के बावजूद अपनी सादी पोशाक मुस्कुराता हुआ चेहरा कंध्ेा पर छोटा सा बैग हाथ में मामूली माइक लेकर सड़कों पर आम न्यूयार्कवासी के बीच अपनी बात कहते घूमते रहे। उन्होंने भारत की तरह धर्म जाति और क्षेत्रवाद का कार्ड नहीं खेला। आज नतीजा आपके सामने है।
हालांकि भारत के राजनीतिक पेटर्न से अमेरिकी सियासत की तुलना करना पूरी तरह सही नहीं होगा लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अगर ममदानी ने अपनी मुस्लिम पहचान के सहारे चुनाव को इस्लामी रंग देने का कुटिल प्रयास किया होता तो उनका हश्र भी भारत के ओवैसी और बदरूद्दीन अजमल जैसा हुआ होता। हम यहां यह दावा नहीं कर रहे कि अगर कोई भारतीय मुस्लिम सेकुलर पार्टी से या सर्वसमाज का नेता सबको साथ लेकर ममदानी की तरह चुनाव लड़ेगा तो वह पहले ही प्रयास में न्यूयार्क की तरह कामयाब हो जायेगा। लेकिन असम की मिसाल हमारे सामने नाकामी के तौर पर मौजूद है। असम में मुसलमानों के लिये लगभग सब ठीक चल रहा था लेकिन एक दिन मसुलमानों की 34 प्रतिशत आबादी की दुहाई देकर इत्र व्यापारी और जमीयत उलेमा ए हिंद के प्रदेश मुखिया बदरूद्दीन अजमल ने एक मुस्लिम पार्टी बनाकर मुस्लिम सरकार मुस्लिम मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बनाने का सपना देखा। उन्होंने चुनाव में मुस्लिम कार्ड खुलकर खेला और पहली बार में ही 18 विधायक कांग्रेस को मुस्लिम झटका देकर जिता लाये लेकिन यहीं से सेकुलर कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हो गये और बीजेपी ने जवाबी हिंदू ध््राुवीकरण करके असम पर कब्ज़ा कर लिया। आज तमाम नाकामी एनआरसी घुसपैठ और क्षेत्रीय अस्मिता पर खतरे के भावनात्मक मुद्दे पर जीत कर बीजेपी राज कर रही है।
अजमल खुद लोकसभा चुनाव दस लाख के भारी अंतर से हार चुके हैं। उनकी पार्टी का भी सफाया हो चुका है। उधर सेकुलर हिंदू वोट का साथ छूटने और मुस्लिम अजमल की तरफ जाने से कांग्रेस राजनीतिक रूप से कंगाल हो चुकी है। ऐसे ही हैदराबाद के ओवैसी ने अपनी मुस्लिम पहचान मुस्लिम पार्टी और मुस्लिम मुद्दों पर जमकर साम्प्रदायिक राजनीति करनी चाही लेकिन तेलंगाना के अलावा उनको कहीं कुछ खास फायदा नहीं हुआ लेकिन उनकी कट्टर धार्मिक राजनीति ने प्रतिक्रिया के रूप में बीजेपी को हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करने का गोल्डन चांस दे दिया है। वे जहां भी मुस्लिम बहुल सीटों पर चुनाव लड़ते हैं उन पर जवाबी हिंदू वोटों का ध््रुावीकरण होने से बीजेपी को जबरदस्त सियासी लाभ होता है। ओवैसी ने अपने बेरिस्टर होने सियासत घुट्टी में मिलने उच्च शिक्षित होने संविधान और कानून की अच्छी जानकारी होने से धर्म की अफीम के ज़रिये जोशीले भाषण दे देकर मुसलमानों में एक कट्टरपंथी सांप्रदायिक भावुक अंधभक्त खासतौर पर युवाओं का एक वर्ग अपने पक्ष में खड़ा कर लिया है। जो बात बात पर बचकाना तर्क यह कहकर देता रहता है कि एक पार्टी एक नेता और चंद विधायक सांसद तो हांे जो मुसलमानों के पक्ष में बोलते रहें। उनको यह पता नहीं अगर आज के दौर में मुसलमानों को धर्म के नाम पर जोड़कर कोई चुनाव लड़ेगा तो वह 15 प्रतिशत आबादी में से दो चार प्रतिशत के वोट लेकर दो चार जनप्रतिनिधि ही चुन सकता है।
जिनकी संसद या किसी राज्य विधानसभा में तब भी कोई औकात नहीं होगी जबकि वे कुल सदन की संख्या का 49 प्रतिशत ही क्यों न हों? कहने का मतलब यह है कि जब तक किसी की सरकार नहीं बनती आप विपक्ष में बैठकर चाहे कितना ही शोर मचा लें आपकी बात कोई सुनने वाला नहीं है। आज ज़रूरत इस बात की पहले है कि आप उस पार्टी उस नेता और उन मुद्दों पर जुड़ें जिनपर जीतकर ममदानी अल्पसंख्यक होकर भी भारी विरोध के बावजूद जीतकर आता है। दूसरे जब तक कोई अल्पसंख्यक मुसलमानों के मुद्दों पर चुनाव लड़ेगा बयान देगा और एकतरफा भाषण देगा तो उसके जवाब मंे बीजेपी जैसी हिंदूवादी पार्टियां हिंदू आबादी 80 प्रतिशत होने से 30 से 35 प्रतिशत वोट मिलने से ही बहुमत लाकर सरकार बना लेगी। उसके बाद मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलकर नफरत फैलाकर और उनका झूठा डर दिखाकर बार बार हिंदू कार्ड खेलकर चुनाव जीतती रहेंगी। इसलिये ममदानी से मुस्लिम नेताओं को यह सीखने की ज़रूरत है कि चाहे जीत मिले या ना मिले या कई साल और दशक बाद जीतें लेकिन सबको साथ लेकर चलने यानी सेकुलर पार्टी से जुड़ने और सर्वसमाज के मुद्दे उठाकर ही भारत में भी केवल मुसलमानों नहीं सभी भारतीयों सभी नागरिकों और सबको जोड़ने वाले सवाल लेकर आगे बढ़ा जा सकता है। एक शायर ने कहा है-
0 मैं वो साफ ही न कह दूं जो है फर्क तुझमें मुझमें,
तेरा दर्द दर्द ए तन्हा मेरा ग़म ग़म ए ज़माना।।
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*
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