Thursday, 20 November 2025

ज़ोहराम ममदानी

*ज़ोहराम ममदानी की जीत से क्या सीख सकते हैं मुस्लिम नेता?*
0 अमेरिका के न्यूयार्क का मेयर चुने जाने पर 34 साल के ज़ोहराम ममदानी आजकल चर्चा का विषय बने हुए हैं। आखि़र ऐसा क्या था कि एक देश के एक शहर का मेयर चुना जाना ममदानी के लिये पूरी दुनिया में दो वर्गों के लिये नाक का सवाल बन गया। ममदानी मुस्लिम हैं लेकिन उनकी जीत में इस्लाम का कोई रोल नहीं था इसलिये मुसलमानों का उनकी जीत का जश्न मनाना समझ से बाहर है। उनकी पत्नी सीरियाई है। वे प्रवासी हैं। उनका जन्म युगांडा में हुआ। वे 8 साल की उम्र में अमेरिका के न्यूयार्क आये। जिस तरह से उनके चाहने वाले डेमोक्रेट लिबरल सेकुलर और मानवतावादी समाजवादी पूरे विश्व में फैले हुए हैं वैसे ही उनको उग्रवादी रेडिकल कम्युनिस्ट बताने वाले कंज़रवेटिव और अंधभक्त भी बहुत हैं।   
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      सवाल यह है कि 9 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले न्यूयार्क में कैसे एक मुसलमान ममदानी ईसाई हिस्पैनिक हिंदू और यहूदियों तक के वोट लेकर वहां के राष्ट्रपति टंªप के ज़बरदस्त विरोध और अंतिम समय में अपनी ही रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी को छोड़कर ममदानी की डेमोक्रेट पार्टी के विद्रोही निर्दलीय प्रत्याशी को सपोर्ट करने के बावजूद वे जीत गये? ट्रंप ने न्यूयार्कवासियों को बेशर्मी से यहां तक धमकाया कि अगर ममदानी को मेयर चुना जाता है तो वे सरकार से न्यूयार्क को मिलने वाला विकास का धन रोक देंगे। लेकिन ममदानी ने जनहित के ऐसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा कि किसी का कोई विरोध कोई धमकी कोई चाल उनकी जीत का रास्ता नहीं रोक सकी। दरअसल ममदानी दो विचारधाराओं के बीच का संघर्ष बन गये। एक तरफ खुलेआम आवारा पूंजी कारपोरेट और अमीर वर्ग के हित में काम करने वाली पूंजीवादी नीतियों के समर्थक थे तो दूसरी तरफ ममदानी का समाजवाद गरीब समर्थन कमजोर वर्ग का साथ और मकानों का किराया कम करना मेट्रो तक पहुंच पुलिस की इंसाफ वाली छवि बुजुर्गो व मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के साथ जनता व ज़मीन से जुड़े दिल में उतर जाने वाले मुद्दे थे। ममदानी विरोधियों के तमाम हमलों के बावजूद अपनी सादी पोशाक मुस्कुराता हुआ चेहरा कंध्ेा पर छोटा सा बैग हाथ में मामूली माइक लेकर सड़कों पर आम न्यूयार्कवासी के बीच अपनी बात कहते घूमते रहे। उन्होंने भारत की तरह धर्म जाति और क्षेत्रवाद का कार्ड नहीं खेला। आज नतीजा आपके सामने है।
      हालांकि भारत के राजनीतिक पेटर्न से अमेरिकी सियासत की तुलना करना पूरी तरह सही नहीं होगा लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अगर ममदानी ने अपनी मुस्लिम पहचान के सहारे चुनाव को इस्लामी रंग देने का कुटिल प्रयास किया होता तो उनका हश्र भी भारत के ओवैसी और बदरूद्दीन अजमल जैसा हुआ होता। हम यहां यह दावा नहीं कर रहे कि अगर कोई भारतीय मुस्लिम सेकुलर पार्टी से या सर्वसमाज का नेता सबको साथ लेकर ममदानी की तरह चुनाव लड़ेगा तो वह पहले ही प्रयास में न्यूयार्क की तरह कामयाब हो जायेगा। लेकिन असम की मिसाल हमारे सामने नाकामी के तौर पर मौजूद है। असम में मुसलमानों के लिये लगभग सब ठीक चल रहा था लेकिन एक दिन मसुलमानों की 34 प्रतिशत आबादी की दुहाई देकर इत्र व्यापारी और जमीयत उलेमा ए हिंद के प्रदेश मुखिया बदरूद्दीन अजमल ने एक मुस्लिम पार्टी बनाकर मुस्लिम सरकार मुस्लिम मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बनाने का सपना देखा। उन्होंने चुनाव में मुस्लिम कार्ड खुलकर खेला और पहली बार में ही 18 विधायक कांग्रेस को मुस्लिम झटका देकर जिता लाये लेकिन यहीं से सेकुलर कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हो गये और बीजेपी ने जवाबी हिंदू ध््राुवीकरण करके असम पर कब्ज़ा कर लिया। आज तमाम नाकामी एनआरसी घुसपैठ और क्षेत्रीय अस्मिता पर खतरे के भावनात्मक मुद्दे पर जीत कर बीजेपी राज कर रही है।
    अजमल खुद लोकसभा चुनाव दस लाख के भारी अंतर से हार चुके हैं। उनकी पार्टी का भी सफाया हो चुका है। उधर सेकुलर हिंदू वोट का साथ छूटने और मुस्लिम अजमल की तरफ जाने से कांग्रेस राजनीतिक रूप से कंगाल हो चुकी है। ऐसे ही हैदराबाद के ओवैसी ने अपनी मुस्लिम पहचान मुस्लिम पार्टी और मुस्लिम मुद्दों पर जमकर साम्प्रदायिक राजनीति करनी चाही लेकिन तेलंगाना के अलावा उनको कहीं कुछ खास फायदा नहीं हुआ लेकिन उनकी कट्टर धार्मिक राजनीति ने प्रतिक्रिया के रूप में बीजेपी को हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करने का गोल्डन चांस दे दिया है। वे जहां भी मुस्लिम बहुल सीटों पर चुनाव लड़ते हैं उन पर जवाबी हिंदू वोटों का ध््रुावीकरण होने से बीजेपी को जबरदस्त सियासी लाभ होता है। ओवैसी ने अपने बेरिस्टर होने सियासत घुट्टी में मिलने उच्च शिक्षित होने संविधान और कानून की अच्छी जानकारी होने से धर्म की अफीम के ज़रिये जोशीले भाषण दे देकर मुसलमानों में एक कट्टरपंथी सांप्रदायिक भावुक अंधभक्त खासतौर पर युवाओं का एक वर्ग अपने पक्ष में खड़ा कर लिया है। जो बात बात पर बचकाना तर्क यह कहकर देता रहता है कि एक पार्टी एक नेता और चंद विधायक सांसद तो हांे जो मुसलमानों के पक्ष में बोलते रहें। उनको यह पता नहीं अगर आज के दौर में मुसलमानों को धर्म के नाम पर जोड़कर कोई चुनाव लड़ेगा तो वह 15 प्रतिशत आबादी में से दो चार प्रतिशत के वोट लेकर दो चार जनप्रतिनिधि ही चुन सकता है।
      जिनकी संसद या किसी राज्य विधानसभा में तब भी कोई औकात नहीं होगी जबकि वे कुल सदन की संख्या का 49 प्रतिशत ही क्यों न हों? कहने का मतलब यह है कि जब तक किसी की सरकार नहीं बनती आप विपक्ष में बैठकर चाहे कितना ही शोर मचा लें आपकी बात कोई सुनने वाला नहीं है। आज ज़रूरत इस बात की पहले है कि आप उस पार्टी उस नेता और उन मुद्दों पर जुड़ें जिनपर जीतकर ममदानी अल्पसंख्यक होकर भी भारी विरोध के बावजूद जीतकर आता है। दूसरे जब तक कोई अल्पसंख्यक मुसलमानों के मुद्दों पर चुनाव लड़ेगा बयान देगा और एकतरफा भाषण देगा तो उसके जवाब मंे बीजेपी जैसी हिंदूवादी पार्टियां हिंदू आबादी 80 प्रतिशत होने से 30 से 35 प्रतिशत वोट मिलने से ही बहुमत लाकर सरकार बना लेगी। उसके बाद मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलकर नफरत फैलाकर और उनका झूठा डर दिखाकर बार बार हिंदू कार्ड खेलकर चुनाव जीतती रहेंगी। इसलिये ममदानी से मुस्लिम नेताओं को यह सीखने की ज़रूरत है कि चाहे जीत मिले या ना मिले या कई साल और दशक बाद जीतें लेकिन सबको साथ लेकर चलने यानी सेकुलर पार्टी से जुड़ने और सर्वसमाज के मुद्दे उठाकर ही भारत में भी केवल मुसलमानों नहीं सभी भारतीयों सभी नागरिकों और सबको जोड़ने वाले सवाल लेकर आगे बढ़ा जा सकता है। एक शायर ने कहा है-
0 मैं वो साफ ही न कह दूं जो है फर्क तुझमें मुझमें,
तेरा दर्द दर्द ए तन्हा मेरा ग़म ग़म ए ज़माना।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

रोड एक्सीडेंट

*हर मौत पर नहीं केवल अपनों की मौत पर उबलता है हमारा समाज?*
0 क्या हमारा समाज और हम निष्ठुर अमानवीय संवेदनहीन अंतरनिहित आत्मकेंद्रित और स्वार्थी होते जा रहे हैं? जो लोग अपने धर्म जाति और क्षेत्र का एक व्यक्ति मारे जाने पर आसमान सर पर उठा लेते हैं, जो समाज अपने वर्ग का कुख्यात अपराधी तक मारे जाने पर गम और गुस्से में डूब जाते हैं, जो समूह अपने पालतू श्रध्देय और आस्था के प्रतीक जानवर तक मारे जाने या पकड़कर निर्जन इलाकों में दूर छोड़े जाने पर भी सड़कों पर उतर आता है वही लोग एक्सीडेंट में मारे जाने वाले दर्जनों लोगों पर चुप्पी साधे रहते है? क्यों? इससे उनको कोई दुख क्रोध और आक्रोश नहीं होता? इससे उनका मज़हब संस्कृति और सभ्यता ज़रा भी ख़तरे में नहीं पड़ती? यहां तक कि कितना ही बड़ा आदमी दुर्घटना में मारा जाये सब शांत रहते हैं।   
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     ट्रक और बस की भयंकर आमने सामने की भिड़ंत में दो दर्जन मरे एक दर्जन से अधिक घायल। आपने ख़बर पढ़ी सुनी और देखी। लेकिन आप ज़रा भी विचलित दुखी या सदमे में नहीं आये। यहां तक कि अगर इस तरह के रोड एक्सीडेंट मंे आपका कोई अपना भी मारा जाये तो आप दुखी तो अवश्य होते हैं लेकिन खास गुस्सा या नाराज़गी आपको नहीं होती। आप भगवान खुदा का लिखा मानकर अपने काम धंधे में लग जाते हैं। लेकिन अगर आपके अपने परिवार के सदस्य ही नहीं धर्म के अनुयायी जाति के भाई और क्षेत्र के निवासी की हत्या हो जाये तो आप बुरी तरह उबल पड़ते हैं। आपका खून खौलने लगता है। आप कानून की बजाये खुद अपराधी या आरोपी को सज़ा देने पर उतर आते हैं। यहां तक कि कई बार लोग ऐसे संदिग्ध आरोपियों की बिना सबूत गवाह और ठोस तथ्यों के मोब लिंचिंग यानी हत्या तक कर देते हैं। दुख और चिंता की बात यह है कि हमारे देश में ऐसी हत्यायें आम होती जा रही हैं लेकिन सरकार पुलिस या अदालतों को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अब अपने मूल विषय पर आते हैं। सड़क दुर्घटनाओं में जो लोग बेमौत मारे जाते हैं। उनकी ख़बरों में किसी को विशेष रूचि नहीं है। पुलिस मौका मुआयना कर अज्ञात या अमुक के खिलाफ रपट दर्ज कर घायलों को चिकित्सालय और मृतकों को पोस्टमार्टम या पंचनामे के बाद उनके परिवारजनों को सौंप देती है। सरकार मरने वालों को और घायलों को कुछ लाख या कुछ हज़ार मुआवज़ा घोषित कर देती है।
     जो कई बार मिलता ही नहीं। आप ऐसी ख़बरों पर एक सरसरी निगाह डालते हुए अपनी रूचि की चुनाव राजनीति सांप्रदायिक धार्मिक या एग्ज़िट पोल अवैध सैक्स बलात्कार हत्या गबन आॅनलाइन ठगी अपहरण की ख़बरों पर नज़र गड़ाकर रूचि से पढ़ते हैं यह जानते हुए भी ऐसे हादसों का अगला शिकार आप खुद भी हो सकते हैं, तब आपकी भी ख़बर पढ़ने या उस पर अफसोस जताने में कोई दिलचस्पी नहीं लेगा। दि हिंदू अख़बार में ऐसी सड़क दुर्घटनाओं पर एक विस्तृत रिपोर्ट छापी है। रपट बताती है कि ऐसे हादसों के कितने कारण हो सकते हैं। कोरोना से जितने लोग मरे उससे कहीं अधिक हर साल रोड एक्सीडेंट में मर जाते हैं। इसका कारण हमेशा लापरवाही से वाहन चलाना नहीं होता। रिपोर्ट स्टडी करने पर पता चलता है कि जब खराब सड़कें और खराब फैसले आपस मिलते हैं तो डिजास्टर सा जन्म लेता है। तेलंगाना में एनएच 163 का एक भाग डेथ काॅरिडोर कहा जाने लगा है। यह रिपोर्ट विस्तार से दुर्घटनाओं की स्टडी करके बताती है कि डिज़ाइन की भयंकर कमियां रखरखाव का घोर अभाव हादसों का गंभीर समीकरण पैदा करता है। लंबी रोड उपेक्षा से बड़े भयंकर गड्ढे मिट्टी मिला हुआ बालू और फसल क्षेत्रों का फैलाव अंधेरा मीडियन की कमी गायब चेतावनी बोर्ड अधिकांश हादसों की वजह बन रहे हैं। एक ट्रफिक डीसीपी का कहना था कि ड्राइवर का व्यवहार ही नहीं बल्कि उसका नशा करना सड़कों पर तीखे मोड़ तीव्र ढाल और संरचनात्मक कमियां दुर्घटनाओं की बड़ी वजह बनती हैं। एक सड़क निर्माण करने वाले जाने माने ठेकेदार का दावा है कि गुणवत्ता का सवाल इसलिये नहीं उठाया जा सकता कि उनको टेंडर हासिल करने से लेकर कदम कदम पर जो दलाली देनी पड़ती है उसका प्रतिशत अब बढ़कर 55 तक जा पहंुचा है।
     कथित एक्सप्रेस वे हों या नेशनल हाईवे और स्टेट हाईवे सब की हालत खस्ता है, एनएचएआई कर्ज में डूबा है और उसके लिये ही जगह जगह टोल वसूली जारी है। रोड ही नहीं रेलवे से लेकर एयरवेज़ तक सब जगह सुरक्षा और यात्री सुविधओं का अभाव है। हालांकि राजनेता मंत्री और अफसर सड़कों व ट्रेनों का उदघाटन करते हुए उनके वल्र्ड क्लास होने और उनकी स्पीड बुलेट जैसी होने का दावा करते हैं लेकिन वे सुरक्षा को लेकर चुप्पी साधे रहते हैं क्योंकि उनको भी पता है कि उनकी प्राथमिकता में सुरक्षा का कोई खास स्थान होता ही नहीं। अगर हम अब भी अतीत के गौरव की बात सभ्यता और संस्कृति के नाम पर आपस में बांटो और राज करो की राजनीतिक दलों की चाल को नहीं समझेंगे तो हमें भारी भरकम टैक्स वसूली के बाद भी जिस तरह से खराब सड़कों पर हादसों का आयेदिन शिकार होने को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है, उसका अगला शिकार कोई भी हो सकता है और देश समाज ऐसे ही चलता रहेगा जैसे चल रहा है। इसलिये ज़रूरी है कि रोड एक्सीडेंट को नागरिक सुरक्षा का मुख्य मुद्दा बनाया जाये और चुनाव आने पर सवाल उठाये जायें, बाकी आपकी मर्जी अगर आपको इस तरह के हादसों से कोई परेशानी नहीं है। एक शायर ने कहा है-
 *0 ये लोग पांव नहीं जे़हन से अपाहिज हैं,*
*उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है।।* 
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Tuesday, 4 November 2025

बाहुबली में खलबली

*अच्छे बाहुबली? बुरे बाहुबली?* 
*माफियाओं को लेकर खलबली!*
0 कभी अफ़गानिस्तान के तालिबान यानी कट्टरपंथियों को लेकर पूरी दुनिया में बहस चली थी कि उग्रवादी अच्छे और बुरे भी होते हैं। जब तक वे अमेरिका के खिलाफ लड़ते रहे उनको आतंकवादी बताया जाता रहा लेकिन अब जब वे अफगानिस्तान की सत्ता में आ गये हैं तो अच्छे और भले हो गये। ऐसे ही बिहार में चुनाव के दौरान जंगल राज की बार बार चर्चा होती है। इसके लिये बाहुबलियों को टिकट देने चुनाव जीतने पर सत्ता का संरक्षण देने और विपक्ष में होकर भी उनको बचाने के आरोप सभी दलों पर लगते रहे हैं। अजीब बात यह है कि सत्ताधरी जदयू के बाहुबलि अनंत सिंह ने मोकामा सीट से सुराज पार्टी के बाहुबलि दुलारचंद यादव की हत्या कर दी लेकिन जंगलराज का आरोप राजद पर है।   
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     इस लेख के छपने तक बिहार में पहले चरण का चुनाव हो चुका होगा। लेकिन जिन बाहुबलियों को लेकर राजनीतिक दलों में भीषण घमासान छिड़ा है, वह शायद दूसरे और अंतिम चरण तक नहीं बल्कि चुनाव परिणाम आने के बाद भी चालू रहेगा। इस मामले में हालांकि सभी दलों का रिकाॅर्ड कमोबेश दागदार है लेकिन जब जंगलराज की बात चलती है तो राजद को लालूराज के लिये घेरा जाता है। हम इस लेख में एक गंभीर मुद्दे पर चर्चा करेंगे कि आखि़र बाहुबलि इतने ही बुरे होते हैं तो सभी दल उनको चुनाव में टिकट और संरक्षण क्यों देते हैं? दूसरा अहम सवाल है यह है कि अगर सियासी दल सत्ता के लोभ में इन माफियाओं को टिकट दे भी देते हैं तो जनता इनको क्यों नहीं हरा देती?
     तीसरा और अंतिम सवाल यह है कि जब सभी दल समय समय पर अलग अलग अपराधियों हिस्ट्रीशीटर्स और कुख्यात माफियाओं को संरक्षण और टिकट देते ही हैं तो वे किस मुंह से दूसरे दलों को बाहुबलियों को पालने पोसने का ज़िम्मेदार ठहराते हैं? क्या सत्ताधरी दल के बाहुबलि अच्छे और विपक्ष के बाहुबलि बुरे होते हैं? बिहार की तो बात ही क्या यूपी तक जहां छोटे छोटे अपराधिक मामलों में भी आरोपियों के पैर में गोली मारकर उनके घरों पर बुल्डोज़र तक चला दिया जाता है और कई कई केस वाले कम चर्चित अपराधी भी फर्जी मुठभेड़ में मार गिराये जाते हैं, वहां भी बड़े अपराधियों घोषित माफियाओं और कई जाति के सिरमौर बनेे बाहुबलियों को सत्ता का और विपक्ष का संरक्षण अकसर मिलता रहा है। सोशल मीडिया में जबरदस्त फजीहत के बाद अनंत सिंह को पकड़ा गया है। यह शर्म की बात है कि न तो सरकार न ही चुनाव आयोग और न ही छोटी छोटी बातों पर सूमोटो लेने वाले कोर्ट ने इस हत्या पर कोई गंभीर पहल की। हालांकि जहां सत्ता में आना और उसमें किसी कीमत पर भी चुनाव जीतकर बने रहना ही लोकतंत्र माना जाता हो वहां जातिवाद साम्प्रदायिकता बाहुबलि भ्रष्टाचार झूठे दावे बेबुनियाद वादे चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद भी जनता के खाते में लाखों करोड़ सरकार के द्वारा डालते रहना चुनाव आयोग को गलत नहीं लगता। अगर आप गौर से जांच से करें तो आपको पता लगेगा कि चुनाव से ठीक पहले अनंत सिंह और आनंद मोहन सिंह को जेल से बाहर निकाला गया।
     इतना ही नहीं जेल में बंद प्रभुनाथ सिंह के भाई और बेटे को भी टिकट दिया गया। सत्ताधारी एनडीए के घटक दलों ने कुल आठ बाहुबलियों को टिकट दिया है। मोकामा के ही बाहुबलि सूरजभान नामांकन की अंतिम तिथि से पहले टिकट नहीं मिलने पर एनडीए से महागठबंधन में आकर टिकट पा गये। यूपी में 2012 के चुनाव में अखिलेश यादव ने अपना दामन साफ रखने के चक्कर में बाहुबलि डीपी यादव रमाकांत यादव राजा भैया बृजभूषण शरण सिंह अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी को मुलायम सिंह के लाख कोशिश करने पर भी अंतिम समय पर टिकट पर वीटो लगाकर वह चुनाव तो जीत लिया लेकिन वे अगली बार 2017 में जब हारे तो पता लगा एक वजह बाहुबलियों से उनका टिकट काटकर पंगा लेना भी था। सच यह है कि सामान्य या सज्जन विधायकों सांसदों के मुकाबले बाहुबलियों का साम दाम दंड भेद के द्वारा छोटे छोटे अपराधियों भ्रष्ट अधिकारियों और असरदार लोगों के साथ एक बड़ा पुख्ता व सक्रिय नेटवर्क होता है जो उनको न केवल चुनाव जिताने बल्कि जनप्रतिनिधि बनकर जनता के काम तत्काल कराने के लिये भी मुफीद होता है। उनके नाम के डर से भी वोट मिलते हैं। पुलिस प्रशासन उनके बताये काम लोभ और भय से करने से अकसर मना नहीं करते। जो ऐसा करने की हिमाकत करते हैं उनको सबक ये बाहुबलि खुद ही सिखा देते हैं। जनता को इनका यह अंदाज़ अच्छा लगता है।
      यहां तक कि ये बाहुबलि बच्चो के स्कूल एडमिशन और छोटे बड़े ठेके रोज़गार नौकरी इंटरव्यू सड़क बिजली कनेक्शन थाने में रपट राशन कार्ड विभिन्न सरकारी प्रमाण पत्र अस्पताल आॅप्रेशन तक के काम एक काॅल करके करा देते हैं जबकि बड़े बड़े नेता और अधिकारी स्कूल के मैनेजर और प्राचार्य से कई बार कहते कहते थक जाते हैं लेकिन वे उनकी काॅल तक सुनते ही नहीं। बाहुबलि अपने क्षेत्र में ही नहीं अपने आसपास के दर्जनभर चुनाव क्षेत्रों में भी उस दल को राजनीतिक लाभ पहुंचाता है जिसमें वह शामिल है। इलाहाबाद की आधे से अधिक सीटें समाजवादी पार्टी अतीक अहमद के बल पर जीत जाती थी। ऐसे ही बिहार में लालू यादव की सत्ता को लाने से लेकर बनाये रखने में शहाबुद्दीन जैसे बाहुबलि बड़ी भूमिका निभाते थे लेकिन सत्ता बदलने पर अधिकांश बाहुबलि नीतीश के दल में चले गये। इससे दोनों को संरक्षण मिला। इस समय शहाबुद्दीन अतीक और मुख्तार जैसे अधिकांश मुस्लिम बाहुबलियों को तो बदली सत्ता का साथ न देने पर ठिकाने लगा दिया गया है लेकिन हिंदू बाहुबलि अभी भी बड़ी संख्या में राजनीति में कई दलों के साथ काम कर रहे हैं। जब तक सियासत में नैतिकता शुचिता और पवित्रता नहीं आती बाहुबलियों को किसी ना किसी दल में सहारा मिलता ही रहेगा।
मस्लहल आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*