Thursday, 18 September 2025

केंचुआ का दुस्साहस

*केंचुआ क्यों कर रहा है मनमानी,* 
*सुप्रीम कोर्ट की भी नाफ़रमानी?*
0 केंद्रीय चुनाव आयोग यानी केंचुआ सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को बार बार अनदेखा कर दावा कर रहा है कि सुप्रीम कोर्ट उसको पूरे देश मंे एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण करने से नहीं रोक सकता? केंचुआ ने यह चुनौती सबसे बड़ी अदालत को अपने लिखित शपथ पत्र में दी है। यह हैरत और चिंता की बात है कि जो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति गवर्नर और संसद तक को समय समय पर संविधान के खिलाफ काम करने पर चेतावनी पुनर्विचार या उनके बनाये नियम कानूनों तक को निरस्त कर चुका है, उस सर्वोच्च न्यायालय को चुनाव आयोग किसके बल बूते पर चुनौती देने का दुस्साहस कर रहा है? अगर 2014 से पहले का दौर होता तो अब तक सुप्रीम कोर्ट मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाकर जेल भेज चुका होता...।     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     केेंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग ने कहा है कि पूरे देश में होने वाले मतदाता सूचियों के एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण में अब अधिकतर राज्यों में आधे से अधिक मतदाताओं को कोई भी दस्तावेज़ देने की आवश्यकता नहीं होगी। आयोग का दावा है कि 1978 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई कागज़ नहीं देने की छूट दी गयी है। इसके साथ ही केंचुआ ने अपनी बात काटते हुए इसी प्रेस रिलीज़ में यह भी कहा है कि ऐसे लोगों को केवल एक हलफनामा देना होगा जिसके साथ एक ऐसा दस्तावेज़ देना ज़रूरी होगा जिससे उनके जन्मतिथि और जन्मस्थान की प्रमाणिकता की पुष्टि होती हो। ऐसा लगता है कि केंचुआ अपने दिमाग से काम न करते हुए किसी के मौखिक आदेश पर काम कर रहा है? उसको यह मामूली सी बात भी समझ में नहीं आ रही कि जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण पत्र भी दस्तावेज़ ही होता है। जब शपथ पत्र के साथ 1978 से पहले पैदा हुए मतदाताओं को यह दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो यह झूठ क्यों बोला जा रहा है कि ऐसे लोगों को कोई दस्तावेज़ नहीं देना है। सवाल यह भी उठता है कि जब आप किसी से अपने जन्म की तिथि और जन्म के स्थान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं तो एक तरह से नागरिकता का ही प्रमाण मांग रहे हैं। 
     जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि नागरिकता तय करने का काम केंचुआ नहीं गृह मंत्रालय का है। दूसरी बात जो लोग आज से 47 साल पहले यानी 50, 60, 70 या 80 साल पहले पैदा हुए थे वे अपना जन्म का प्रमाण पत्र कहां से लायेंगे? उन दिनों कौन बनवाता था जन्म का प्रमाण पत्र? और अगर किसी ने बनवाया भी होगा तो वह अधिक से अधिक जन्म तिथि का प्रमाण पत्र या हाईस्कूल की मार्कशीट हो सकती है। वो भी 5 से 10 प्रतिशत लोगों के पास ही मिलेगी। सरकारी नौकरी न मिलने या सब काम आजकल आधार से होने की वजह से अधिकांश लोगों ने वह जन्म का प्रमाण भी शायद ही संभाल कर रखा हो। आधार पर याद आया जब सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में एसआईआर शुरू करने के दौरान केंचुआ से कहा कि वह आधार को भी उन 11 दस्तावेज़ों में शामिल करे जो वह राज्य में मतदाताओं से उनके नाम मतदाता सूची में शामिल करने के लिये अनिवार्य तौर पर मांग रहा है। केंचुआ ने सबसे बड़ी अदालत के बार बार निर्देश देने के बावजूद आधार को तब तक उस सूची में शामिल नहीं किया जब तक कि याचिका कर्ताओं ने केंचुआ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से उसकी अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की शिकायत दर्ज नहीं करा दी। यह बात भी रहस्य बनी हुयी है कि सुप्रीम कोर्ट क्यों केंचुआ को इतनी मनमानी और नाफरमानी की खुलेआम छूट दे रहा है? 
      जिससे उसका दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि वह सबसे बड़ी अदालत को बाकायदा लिखित में यह चुनौती शपथ पत्र दााखिल करके दे रहा है कि उसके एसआईआर के काम में सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं दे सकता? यानी केंचुआ कुछ भी गैर कानूनी नियम के खिलाफ और संविधान को ताक पर रखकर मनमानी करने को आज़ाद है? वह भूल गया है कि केंचुआ जनता का नौकर है। नौकर अगर जनता के खिलाफ काम करेगा तो उसको जनता कोर्ट में चुनौती देगी और सुधार नहीं करेगा तो नौकरी से भी निकाला जा सकता है। अगर केंचुआ के पीछे मोदी सरकार नहीं खड़ी है तो उसकी इतनी हिम्मत और हिमाकत कैसे हो गयी कि वह चोरी और सीना ज़ोरी कर रहा है? जब संसद से बने कानून को सुप्रीम कोर्ट निरस्त या संशोधित कर स्टे कर सकता है तो केंचुआ की सुप्रीम कोर्ट के सामने औकात ही क्या है? 
      समाजसेवी और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव का दावा है कि बिहार में केंचुआ की कारस्तानी की पोल खुल चुकी है। वहां उसने 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया। जब 16 लाख लोगों ने अपना नाम शामिल करने और 4 लाख लोगों ने आपत्ति दर्ज की तो पता चला कि 40 प्रतिशत से अधिक वो लोग हैं जिनकी आयु 25 से 100 साल के बीच है। यानी ये लोग पहली बार वोटर बनने के लिये नहीं अपना फर्जी तरीके से कट गया नाम जुड़वाने के लिये आवेदन कर रहे हैं। इनको केंचुआ कह रहा है कि अपना पुराना इपिक भूल जाओ और नये सिरे से मतदाता बनने के लिये ज़रूरी कागजात जमा करो। केंचुआ के दावा है कि आॅब्जक्शन करने वाले 4 लाख लोगों में से 58 प्रतिशत कह रहे हैं कि उनका नाम लिस्ट से काट दीजिये क्योंकि वे मर चुके हैं, विदेशी हैं या कहीं राज्य से बाहर रहने लगे हैं। अब सोचिये क्या कोई मृतक या विदेशी ऐसा कह सकता है? यह सब फर्जीवाड़ा खुद चुनाव आयोग अपने बीएलओ के द्वारा करा रहा है जिससे चुनाव आयोग ने हमारे चुनाव वोटर लिस्ट और लोकतंत्र को तमाशा बना कर रख दिया है। एक शायर ने कहा है-
 *लश्कर भी तुम्हारा है सरदार भी तुम्हारा है,* 
 *तुम झूठ को सच लिख दो अख़बार भी तुम्हारा है।* 
 *इस दौर के फ़रियादी जाएं भी तो कहां जायें,* 
 *सरकार भी तुम्हारी है दरबार भी तुम्हारा है।।* 
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 11 September 2025

नेपाल और सोशल मीडिया

*सोशल मीडिया बैन से जला नेपाल,*
 *या इसके पीछे है विदेशी चाल?* 
0 ‘हामी नेेपाल’ यानी हामरे अधिकार मंच इनिशिटिव पेशेवर इवेंट मैनेजर सुदन गुरूंग ने 2015 में बनाया था। इसका मुख्य काम आपदा के समय लोगों की मदद करना और जनता में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करना बताया जाता है। इस संगठन का संबंध विदेशी दूतावासों से रहा है। इसको विदेशी पैसा भी मिलता रहा है। हामी नेपाल के आव्हान पर ही पिछले दिनों नेपाल में ज़बरदस्त हिंसा व आगज़नी हुयी है। कहने को 26 सोशल मीडिया एप पर लगायी गयी रोक इस हंगामे का तत्काल कारण मानी जा रही है लेकिन इससे केवल चिंगारी भड़की है, वहां विरोध आक्रोष और तनाव का बारूद पहले ही मौजूद था। जेन जे़ड यानी 1997 से 2012 के बीच पैदा हुयी पीढ़ी के आंदोलन के पीछे कहीं अमेरिका तो नहीं?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    काठमांडू के 17 साल के छात्र विलोचन पौडेल का कहना है कि ‘‘तीन बड़ी पार्टियांे को बार बार मौका मिलता है, वे कुछ नहीं करती। न अच्छा शासन लाती हैं न विकास। वे दूसरों को भी काम नहीं करने देतीं। हालात ऐसे हो गये हैं कि आम लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवायें तक नहीं मिल पा रहीं। हमें इस कुप्रशासन के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी...तभी देश आगे बढ़ेगा।’’ 23 साल की लाॅ ग्रेज्युएट सादिक्षा का कहना है कि ‘‘यह सिर्फ फेसबुक या टिकटाॅक पर रोक की बात नहीं है। यह उन नेताओं की बात है जो हमारे टैक्स लूटते हैं। जो अमीर बनते जाते हैं जबकि युवाओं के पास नौकरियां नहीं हैं। अब बस बहुत हो गया।’’ इसमें कोई दो राय नहीं नेपाल में जनता में असंतोष है। वहां 12 प्रतिशत से अधिक बेरोज़गारी है। गरीबी है। भुखमरी है। हर साल चार लाख युवा देश छोड़कर काम की तलाश में भारत सहित विदेश जाने को मजबूर हैं। राजनीतिक अस्थायित्व भी है। कोई सरकार कोई पीएम पूरे पांच साल नहीं टिक पाता है। शासन प्रशासन में जमकर भ्रष्टाचार भी चल रहा है। नेताओं के बच्चे आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं। विदेशों में पढ़ रहे हैं। मौज मस्ती कर रहे हैं। बड़े बड़े नेता बड़े बड़े सरकारी बंगलों में ऐश कर रहे हैं। खूब कमीशन खा रहे हैं। ऐसा तो और भी कई देशों में हो रहा है लेकिन वहां तो ऐसा खूनखराबा नहीं हो रहा है। 
    दरअसल जो दिख रहा है वह इतना सामान्य नहीं है। नेपाल में जैसे अचानक सरकार की सोशल मीडिया पर खिंचाई शुरू हुयी। सरकार ने सोशल मीडिया के 26 एप पर रोक लगा दी। बहाना भले ही उनके रजिस्ट्रेशन न कराने का लिया गया हो। यह सब इतना स्वतः स्फूर्त नहीं है कि दस बीस हज़ार की भीड़ सड़कों पर निकली और उसने संसद सुप्रीम कोर्ट और पक्ष विपक्ष के नेताओं के घरों में आग लगा दी। सेना और पुलिस बजाये शासकों की रक्षा करने के पीएम से कहती है कि आप पद से इस्तीफा देकर देश छोड़कर निकल भागिये। पद छोड़ते ही सेना उसको अपने हेलिकाॅप्टर से सुरक्षित स्थान पर पहंुचा देती है। कुछ लोग इसको बगावत और क्रांति का नाम दे रहे हैं लेकिन यह स्वाभाविक तख्तापलट नहीं है। दक्षिण एशिया में यह एक पेटर्न है। इससे पहले श्रीलंका बंगलादेश पाकिस्तान अफगानिस्तान के साथ ही यूक्रेन म्यांमार टयूनीशिया मिस्र सूडान माली नाइज़र जाॅर्जिया किर्गिस्तान बोलिविया और थाईलैंड में ठीक इसी तरह से सत्ता औंधे मुंह गिराई जा चुकी हैं। इनमें से कुछ सरकारें चीन के बहुत करीब जा रही थीं। यह बात अमेरिका को पसंद नहीं थी। इसके बाद जो नई कठपुतली सरकारें बनीं उनको अमेरिका ने खुलकर आर्थिक पैकेज भी दिये। मिसाल के तौर पर श्रीलंका में तख्तापलट के बाद अमेरिका ने 5.75 मिलियन डाॅलर की मानवीय सहायता दी थी। 
       बंगलादेश में तख्तापलट के समय अमेरिका ने सेना के तटस्थ हो जाने और वहां की पीएम शेख हसीना को देश छोड़कर भागने को मजबूर करने लिये सेना की सराहना की और अंतरिम सरकार बनाने से लेकर चलाने तक समर्थन व सहयोग का वादा किया। अमेरिका ने 2011 में टयूनीशिया मेें 2013 में मिस्र में 2014 में यूक्रेन में 2019 में सूडान में 2003 में जाॅर्जिया में 2010 में किर्गिस्तान में और 2019 में बोलीविया में भी यही खेल किया था। अब नेपाल में भी यही कहानी दोहराने की कवायद चल रही है। जिन देशों में तख्तापलट हुआ वे रूस या चीन के निकट जाते दिख रहे थे। दरअसल इतने बड़े आंदोलन तोड़फोड़ आगज़नी और बड़े नेताओं के घरों पर हमले अचानक नहीं होते। इनके लिये बहुत पहले से विस्तृत जानकारी सुनियोजित रोडमैप बड़ी मात्रा में धन और विशाल संसाध्न जुटाने होते हैं जो कि युवाओं का कोई समूह रातो रात नहीं कर सकता है। इसके पीछे विपक्ष विदेशी शक्तियां और ठेके पर काम करने वाले एनजीओ होते हैं। जो इन सारी व्यवस्थाओं को काफी समय पहले संभालते हैं। इसके बाद नेपाल की तरह सोशल मीडिया एप पर पाबंदी की आड़ में पहले से पैदा हो रहे विरोध नाराज़गी और क्रोध के विस्फोटक में चिंगारी लगाने का बहाना तलाशा जाता है। 
       नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार अमेरिका को खफा करके लगातार चीन से नज़दीकी बढ़ा रही थी। अमेरिकी मीडिया काफी समय से ओली सरकार के खिलाफ फेक न्यूज़ और अफवाहंे फैला रहा था। इन पर रोक लगाने को जैसे ही ओली सरकार ने सोशल मीडिया को सेंसर करने के लिये कदम उठाये विदेशी शक्तियों को विद्रोह कराने का अवसर मिल गया। दअसल व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे दर्जनों सोशल मीडिया एप इस साज़िश में अमेरिका का साथ दे रहे थे। वे नेपाल सरकार की एक नहीं सुन रहे थे। यही वह जाल था जिसमें ओली सरकार फंस गयी। जब इन 26 एप ने बार बार दबाव डालने पर भी हेकड़ी दिखाते हुए अपना रजिस्टेªशन नहीं कराया तो ओली सरकार ने तत्काल दबाव बनाने को इन पर रोक लगा दी। यहीं से युवाओं को भड़काने की चाल सफल हो गयी। इसके लिये सरकार और विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार को भी आधार बनाया गया जो पहले से दुखी बेरोज़गार और पलायन के लिये मजबूर नेपाली युवा के दिमाग में आसानी से बैठ गया। इसके बाद जब ये एप खोल भी दिये गये तो भी आंदोलन न रूकने का मतलब समझा जा सकता है। इस मामले में भारत को भी संयम बरतकर चीन से नज़दीकी बढ़ाने की एक सीमा तय करनी चाहिये क्योंकि हम अमेरिकी विरोध भी एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं। साथ ही हमें अपनी संवैधानिक संस्थाओं को आज़ादी देते हुए निष्पक्ष ईमानदार व मज़बूत बनाने के साथ आम आदमी युवाओं और कमज़ोर वर्गों की पहले से अधिक चिंता करनी चाहिये।   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Wednesday, 3 September 2025

निक्की भाटी की दहेज़ हत्या

*निक्की भाटी की हत्या लक्षण है,*
*असली रोग समाज का लोभ है!*
0 21 अगस्त को ग्रेटर नोयडा में 26 साल की निक्की भाटी की दहेज़ के लिये निर्मम हत्या कर दी गयी। इसके साथ ही यह बहस एक बार शुरू हो गयी कि दहेज़ हत्या के लिये क्या पति सास ससुर और उसकी ननद ही ज़िम्मेदार होते हैं? या उसके माता पिता रिश्तेदार और पुरूषप्रधान समाज का लड़की को वस्तु समझना बोझ समझना और किसी तरह से उसकी शादी करके सदा के लिये उससे मुक्ति पाने की सोच भी इस तरह के अपराध के लिये उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं? निक्की का मर्डर केवल दहेज़ के लिये नहीं बल्कि उसका अपने पैरों पर खड़े होने को फिर से ब्यूटी पाॅर्लर खोलने की ज़िद, लगातार टाॅर्चर किये जाने के बावजूद उसके परिवार वालों का उसको पुलिस के पास न भेजकर समझा बुझाकर वापस उसकी ससुराल भेजना और लड़की को डोली में विदा कर उस घर से अर्थी या जनाजे़ में ही निकलने की दकियानूसी सीख भी वजह बनी है?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के अनुसार 2022 में कुल 6450 महिलायें दहेज़ के लिये यातनायें देेकर मारी जा चुकी हैं। दहेज़ हत्या के 60,577 मामलों में केवल 1231 में दोषियों को सज़ा मिली हैं। हमें लगता है कि देश में जिस तरह से लोकलाज गरीबी और विभिन्न सामाजिक भेदभाव के चलते अधिकांश अपराध के मामले दर्ज ही नहीं हो पाते उस हिसाब से दहेज़ हत्या के वास्तविक आंकड़े कई गुना अधिक हो सकते हैं। यह हमारे पूंजीवाद समाज के लिये शर्म की बात है कि आज खुलेआम अधिकांश लोग शादी के लिये रिश्ते की बात तय करते हुए साफ़ साफ़ पूछ लेते हैं कि लड़के वालों की क्या मांग है? उसके बाद लड़की वाला अपना बजट बताता है। फिर दोनों पक्षों में जब किसी खास रकम पर बात तय हो जाती है तो यह भी खोल दिया जाता है कि कितना पैसा किस तरह से लड़की पक्ष की ओर से खर्च किया जायेगा। इसके बाद कई बार यह भी होता है कि लड़के वाला और अधिक की मांग रखता जाता है जबकि लड़की वाला यह कहकर शादी की तैयारी शुरू कर देता है कि चलो देखा जायेगा...। हो जायेगा, देख लेंगे, सोच लेंगे, कोशिश करेंगे आदि आदि। इसके साथ ही कभी कभी यह भी होता है कि तयशुदा रकम या सामान मिलने के बावजूद लड़के वाले की लालच की भूख खत्म नहीं होती और घटिया नीच व अत्यधिक लोभी परिवार होने की वजह से वे एक के बाद एक नई मांग रखते जाते हैं।
    जिससे एक न एक दिन लड़की वाले का बजट और सहनशीलता की सीमा टूट जाती है। इसके बाद टकराव तनाव और लड़की का दहेज़ के लिये उत्पीड़न मानसिक से बढ़कर शारिरिक और पुलिस की थर्ड डिग्री के तौर तरीकों तक पहुंच जाता है। ऐसे में लड़की या तो अपने माता पिता की मजबूरी समझकर चुपचाप सहन करती रहती है या फिर उनको बता भी देती है तो वे असहाय परेशान और तलाक दिलाकर फिर से लाखो रूपये खर्च करने की हैसियत न होने या पैसा हो भी तो सामाजिक पारिवारिक व आर्थिक कारणों से इस जानलेवा समस्या को अनदेखा करते रहते हैं। यह हमारे पुरूषप्रधान समाज की ही निष्ठुरता निर्दयता और बेईमानी है कि लड़की का तलाक होने पर उसकी दूसरी शादी होनी मुश्किल हो जाती है जबकि लड़की को दहेज़ के लिये सताकर मारने वाले लड़के की फिर से शादी बिना किसी बड़े नुकसान सामाजिक प्रतिष्ठा और लोकलाज को दरकिनार हो जाती है। यह हमारे समाज का दोगलापन बड़बोलापन और नैतिक रूप से खोखलापन ही कहा जा सकता है। निक्की के पिता ने शादी में लगभग 30 लाख खर्च किये थे जो कि छोटी रकम नहीं होती। साथ ही स्काॅर्पियो कार बुलेट मोटर साइकिल और भरपूर जे़वर व दूसरे घरेलू इस्तेमाल के महंगे सामान के साथ ही भव्य दावत भी दी थी। लेकिन कहते हैं कि लालची आदमी को आप सारा ज़मीन आसमान भी दे देंगे तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता है। कुछ लोग आज भी शादी में अपनी बेटी को विदा नहीं करते बल्कि गर्व से इसे कन्यादान कहते हैं।
     क्या लड़की कोई सामान है? वह कोई सम्पत्ति है? जो उसको दान किया जाता है? कुछ लोग लड़की के देवी होने का दावा भी करते हैं लेकिन उसको केवल और केवल इंसान नहीं मानते। उसको लड़के के बराबर नहीं मानते। उसकी शादी के लिये उतनी ही समान आवश्यकता नहीं स्वीकारते जितनी लड़के की होती है। अजीब और दुखद बात यह है कि यह बात लड़के वाला ही नहीं खुद लड़की का परिवार भी मानता है कि लड़की लड़के से छोटी कमतर कम पढ़ी लिखी कमज़ोर कम हैसियत वाली कम प्रभावशाली कम कमाने वाली कम सामाजिक कम सहेली दोस्त वाली कम मोबाइल चलाने वाली कम खुलकर हंसने वाली कम गैरों से बात करने वाली कम सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने वाली कम अपनी मर्जी चलाने वाली कम अपनी पसंद से कपड़े खाना और अपने या परिवार के बारे में फैसला करने की इच्छा रखने वाली ही अच्छी होती है। तथाकथित मान मर्यादा इज़्ज़त छवि बच्चो की चिंता परिवार बिखरने का डर और आन के लिये लड़की के साथ खुद उसका परिवार ही पक्षपात अन्याय और असमान व्यवहार कर हर हाल में वहीं जीने वहीं मरने यानी ‘‘एडजस्ट’’ करने को मजबूर करता है। यह जुल्म और ज़्यादती की इंतिहा ही कही जा सकती है कि समाज के लिये एक लड़की की जान बचाने से अधिक परिवार का सम्मान बचाने को उसका तलाक ना लेने देना अधिक उपयोगी माना जाता है।
      उसकी पसंद के लड़के से शादी करना तो दूर उससे रिश्ता तय करते हुए कई परिवारों में लड़के से मिलाना दिखाना और बात कराना तक वर्जित है। ऐसे ही लवमैरिज या लिवइन रिलेशन को समाज के साथ ही कई राज्य सरकारें अपराध जैसा बनाने का कानून ला चुकी हैं जबकि इससे लड़का लड़की की आपसी समझ पसंद और गुण दोष पहले ही सामने आ जाने से कई लड़कियां शादी के बाद दहेज़ उत्पीड़न मानसिक यातना और हत्या से बच जाती हैं। लानत है ऐसे समाज पर लानत है ऐसी व्यवस्था पर और लानत है ऐसी सोच पर जिसमें पंूजीवाद के चलते लोग अधिक से अधिक पैसा एक मासूम असहाय और कमज़ोर लड़की को दुल्हन बनाकर घर लाकर ब्लैकमेल करके न केवल वसूल लेते हैं बल्कि जब असफल हो जाते हैं तो उसकी जान तक भूखे भेड़ियों की तरह ले लेते हैं लेकिन हमारी सरकार पुलिस और अदालतेें समय पर सख़्त सज़ा देकर अपराधियों को सुधरने के लिये मजबूर तक कई कई साल नहीं कर पाते यानी ये सब न्याय के रास्ते बंद से हो चुके हैं। इसका मतलब यह है कि हमारे समाज के साथ ही पूरे सिस्टम को बदले बिना इस रोग से छुटकारा मिलना असंभव है। अंजुम रहबर ने एक दुल्हन के दर्द को शेर में क्या खूब बयान किया है-
 *उसकी पसंद और थी मेरी पसंद और,* 
 *इतनी ज़रा सी बात पर घर छोड़ना पड़ा।*   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*