Thursday, 11 September 2025

नेपाल और सोशल मीडिया

*सोशल मीडिया बैन से जला नेपाल,*
 *या इसके पीछे है विदेशी चाल?* 
0 ‘हामी नेेपाल’ यानी हामरे अधिकार मंच इनिशिटिव पेशेवर इवेंट मैनेजर सुदन गुरूंग ने 2015 में बनाया था। इसका मुख्य काम आपदा के समय लोगों की मदद करना और जनता में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करना बताया जाता है। इस संगठन का संबंध विदेशी दूतावासों से रहा है। इसको विदेशी पैसा भी मिलता रहा है। हामी नेपाल के आव्हान पर ही पिछले दिनों नेपाल में ज़बरदस्त हिंसा व आगज़नी हुयी है। कहने को 26 सोशल मीडिया एप पर लगायी गयी रोक इस हंगामे का तत्काल कारण मानी जा रही है लेकिन इससे केवल चिंगारी भड़की है, वहां विरोध आक्रोष और तनाव का बारूद पहले ही मौजूद था। जेन जे़ड यानी 1997 से 2012 के बीच पैदा हुयी पीढ़ी के आंदोलन के पीछे कहीं अमेरिका तो नहीं?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    काठमांडू के 17 साल के छात्र विलोचन पौडेल का कहना है कि ‘‘तीन बड़ी पार्टियांे को बार बार मौका मिलता है, वे कुछ नहीं करती। न अच्छा शासन लाती हैं न विकास। वे दूसरों को भी काम नहीं करने देतीं। हालात ऐसे हो गये हैं कि आम लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवायें तक नहीं मिल पा रहीं। हमें इस कुप्रशासन के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी...तभी देश आगे बढ़ेगा।’’ 23 साल की लाॅ ग्रेज्युएट सादिक्षा का कहना है कि ‘‘यह सिर्फ फेसबुक या टिकटाॅक पर रोक की बात नहीं है। यह उन नेताओं की बात है जो हमारे टैक्स लूटते हैं। जो अमीर बनते जाते हैं जबकि युवाओं के पास नौकरियां नहीं हैं। अब बस बहुत हो गया।’’ इसमें कोई दो राय नहीं नेपाल में जनता में असंतोष है। वहां 12 प्रतिशत से अधिक बेरोज़गारी है। गरीबी है। भुखमरी है। हर साल चार लाख युवा देश छोड़कर काम की तलाश में भारत सहित विदेश जाने को मजबूर हैं। राजनीतिक अस्थायित्व भी है। कोई सरकार कोई पीएम पूरे पांच साल नहीं टिक पाता है। शासन प्रशासन में जमकर भ्रष्टाचार भी चल रहा है। नेताओं के बच्चे आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं। विदेशों में पढ़ रहे हैं। मौज मस्ती कर रहे हैं। बड़े बड़े नेता बड़े बड़े सरकारी बंगलों में ऐश कर रहे हैं। खूब कमीशन खा रहे हैं। ऐसा तो और भी कई देशों में हो रहा है लेकिन वहां तो ऐसा खूनखराबा नहीं हो रहा है। 
    दरअसल जो दिख रहा है वह इतना सामान्य नहीं है। नेपाल में जैसे अचानक सरकार की सोशल मीडिया पर खिंचाई शुरू हुयी। सरकार ने सोशल मीडिया के 26 एप पर रोक लगा दी। बहाना भले ही उनके रजिस्ट्रेशन न कराने का लिया गया हो। यह सब इतना स्वतः स्फूर्त नहीं है कि दस बीस हज़ार की भीड़ सड़कों पर निकली और उसने संसद सुप्रीम कोर्ट और पक्ष विपक्ष के नेताओं के घरों में आग लगा दी। सेना और पुलिस बजाये शासकों की रक्षा करने के पीएम से कहती है कि आप पद से इस्तीफा देकर देश छोड़कर निकल भागिये। पद छोड़ते ही सेना उसको अपने हेलिकाॅप्टर से सुरक्षित स्थान पर पहंुचा देती है। कुछ लोग इसको बगावत और क्रांति का नाम दे रहे हैं लेकिन यह स्वाभाविक तख्तापलट नहीं है। दक्षिण एशिया में यह एक पेटर्न है। इससे पहले श्रीलंका बंगलादेश पाकिस्तान अफगानिस्तान के साथ ही यूक्रेन म्यांमार टयूनीशिया मिस्र सूडान माली नाइज़र जाॅर्जिया किर्गिस्तान बोलिविया और थाईलैंड में ठीक इसी तरह से सत्ता औंधे मुंह गिराई जा चुकी हैं। इनमें से कुछ सरकारें चीन के बहुत करीब जा रही थीं। यह बात अमेरिका को पसंद नहीं थी। इसके बाद जो नई कठपुतली सरकारें बनीं उनको अमेरिका ने खुलकर आर्थिक पैकेज भी दिये। मिसाल के तौर पर श्रीलंका में तख्तापलट के बाद अमेरिका ने 5.75 मिलियन डाॅलर की मानवीय सहायता दी थी। 
       बंगलादेश में तख्तापलट के समय अमेरिका ने सेना के तटस्थ हो जाने और वहां की पीएम शेख हसीना को देश छोड़कर भागने को मजबूर करने लिये सेना की सराहना की और अंतरिम सरकार बनाने से लेकर चलाने तक समर्थन व सहयोग का वादा किया। अमेरिका ने 2011 में टयूनीशिया मेें 2013 में मिस्र में 2014 में यूक्रेन में 2019 में सूडान में 2003 में जाॅर्जिया में 2010 में किर्गिस्तान में और 2019 में बोलीविया में भी यही खेल किया था। अब नेपाल में भी यही कहानी दोहराने की कवायद चल रही है। जिन देशों में तख्तापलट हुआ वे रूस या चीन के निकट जाते दिख रहे थे। दरअसल इतने बड़े आंदोलन तोड़फोड़ आगज़नी और बड़े नेताओं के घरों पर हमले अचानक नहीं होते। इनके लिये बहुत पहले से विस्तृत जानकारी सुनियोजित रोडमैप बड़ी मात्रा में धन और विशाल संसाध्न जुटाने होते हैं जो कि युवाओं का कोई समूह रातो रात नहीं कर सकता है। इसके पीछे विपक्ष विदेशी शक्तियां और ठेके पर काम करने वाले एनजीओ होते हैं। जो इन सारी व्यवस्थाओं को काफी समय पहले संभालते हैं। इसके बाद नेपाल की तरह सोशल मीडिया एप पर पाबंदी की आड़ में पहले से पैदा हो रहे विरोध नाराज़गी और क्रोध के विस्फोटक में चिंगारी लगाने का बहाना तलाशा जाता है। 
       नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार अमेरिका को खफा करके लगातार चीन से नज़दीकी बढ़ा रही थी। अमेरिकी मीडिया काफी समय से ओली सरकार के खिलाफ फेक न्यूज़ और अफवाहंे फैला रहा था। इन पर रोक लगाने को जैसे ही ओली सरकार ने सोशल मीडिया को सेंसर करने के लिये कदम उठाये विदेशी शक्तियों को विद्रोह कराने का अवसर मिल गया। दअसल व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे दर्जनों सोशल मीडिया एप इस साज़िश में अमेरिका का साथ दे रहे थे। वे नेपाल सरकार की एक नहीं सुन रहे थे। यही वह जाल था जिसमें ओली सरकार फंस गयी। जब इन 26 एप ने बार बार दबाव डालने पर भी हेकड़ी दिखाते हुए अपना रजिस्टेªशन नहीं कराया तो ओली सरकार ने तत्काल दबाव बनाने को इन पर रोक लगा दी। यहीं से युवाओं को भड़काने की चाल सफल हो गयी। इसके लिये सरकार और विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार को भी आधार बनाया गया जो पहले से दुखी बेरोज़गार और पलायन के लिये मजबूर नेपाली युवा के दिमाग में आसानी से बैठ गया। इसके बाद जब ये एप खोल भी दिये गये तो भी आंदोलन न रूकने का मतलब समझा जा सकता है। इस मामले में भारत को भी संयम बरतकर चीन से नज़दीकी बढ़ाने की एक सीमा तय करनी चाहिये क्योंकि हम अमेरिकी विरोध भी एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं। साथ ही हमें अपनी संवैधानिक संस्थाओं को आज़ादी देते हुए निष्पक्ष ईमानदार व मज़बूत बनाने के साथ आम आदमी युवाओं और कमज़ोर वर्गों की पहले से अधिक चिंता करनी चाहिये।   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

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