Monday, 21 November 2016

दंगे कौन कराता है?

*जनता तो दंगे नहीं करती...*

सोशल मीडिया पर आजकल वैसे तो नोटबंदी को लेकर ही अधिकांश पोस्ट चल रही है। लेकिन इस नोटबंदी को ही लेकर एक ऐसी पोस्ट भी वायरल हो रही है जो गहराई से सोचने को मजबूर करती है। इसमें कहा गया है कि आज नोटबंदी को लेकर आम जनता में हाहाकार है। इसके बावजूद एक अच्छी बात यह है कि जनता तमाम परेशानी नुकसान और यहां तक कि जान जाने के बावजूद सब्र से काम ले रही है। कहीं भी अभी तक बैंक में तोड़फोड़ सार्वजनिक सम्पत्ति में आगज़नी या दंगे  की कोई घटना नहीं हुयी है। यह एक सराहनीय और प्रेरणास्पद बात है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे हालात में दंगों का यह संदेह जताया है। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि देश में इससे पहले जो इस तरह की हिंसा होती रही है।

    

वह कौन कराता है? क्या यह एक सुनियोजित और पेड साज़िश होती है? और आज करंसी उपलब्ध न होने से भाड़े के लोग खरीदे नहीं जा पा रहे? क्या इसको सियासी लोग उकसाते हैं? कांग्रेस माकपा भाजपा और शिवसेना जैसे दलों के कुछ नेताओं के नाम तो कई बार ऐसी हिंसक घटनाओं की जांच के बाद आरोपी के तौर पर सामने भी आये हैं। हम यह तो नहीं कह सकते कि ऐसा इन पार्टियों के एजेंडे में होता होगा क्योेंकि इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है। लेकिन यह सवाल अपने आप में बहुत बड़ा है कि जिन दलों और नेताओं से समाज प्यार भाईचारा और अमनचैन की आशा करता है। उनका अपना दामन इस मामले में पूरी तरह साफ नहीं है।

    

इस आरोप और शक को एक और तरह से समझने की कोशिश करते हैं। यूपी में अगले साल के शुरू में  चुनाव होना है। यह चुनाव मोदी सरकार के लिये 2019 का आम चुनाव जीतने के लिये भी शक्ति परीक्षण जैसा बनने जा रहा है। इससे पहले भाजपा बिहार का चुनाव हारकर पहले ही काफी दबाव और भारी सदमें में है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 में यूपी में साम्प्रदायिक दंगों की घटनायें मात्र 394 थीं। जो 20012-13 में बढ़कर 1000 को पार कर गयीं। 2013-14 में यह आंकड़ा 2186 पहुंच गया। 2014-15 में 2884 और आज 15-16 में 3708 तक हो चुका है। ज़ाहिर बात है कि चुनाव जैसे जैसे करीब आते जा रहे हैं ।

     

यह आंकड़ा तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। सवाल यह है कि क्या एक छोटा बच्चा भी यह अंदाज़ नहीं लगा सकता कि चुनावी सियासत और दंगों में कहीं न कहीं कुछ तार जुड़े हैं? आप एक बात और नोट कर लो अगर पुराने आंकड़ों के हिसाब से अनुमान लगाया जाये तो चुनाव के बाद चाहे बीजेपी जीते और चाहे सपा बसपा यह आंकड़ा तेजी़ से नीचे आ सकता है। 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद कांग्रेस की राजीव सरकार छप्पर फाड़ बहुमत से जीतकर आई थी। ऐसे ही गुजरात में 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के बाद जो मोदी सरकार तीन उपचुनाव हार कर विधानसभा चुनाव हारने के कगार पर थी। अचानक भारी बहुमत से जीतकर वापस आ गयी थी।

   

हालांकि इन दंगों की जांच करने वाले आयोगों ने इन दंगों का इन चुनावी जीत से कोई रिश्ता नहीं माना था। लेकिन यह बात शक और चर्चा का एक मुद्दा तो उठाती ही है कि हमारे देश में दंगों और चुनावी सियासत का क्या लिंक है? हैरत और दुख की बात यह है कि इन दंगों से कभी भी किसी बड़े आदमी का कोई नुकसान नहीं होता। इन साम्प्रदायिक हिंसक टकराव में केवल आम आदमी ही तबाह और बरबाद होता है। वो चाहे हिंदू हो या मुसलमान या किसी भी धर्म का। पता नहीं ऐसे नेताओं को इसके बाद भी अपना मसीहा और आक़ा मानने वाले आम धर्मभीरू लोग कब इस सियासी खेल को समझेंगे?

 

मसलहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,

तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।

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