Thursday, 30 October 2025

बहनजी का विश्वास खत्म

*बहनजी का नहीं रहा विश्वास,* 
*मुस्लिम नहीं आयेगा उनके पास!*
0 बसपा सुप्रीमो बहन मायावती ने कहा है कि मुसलमानों ने सपा के साथ बार बार तनमनधन से जाकर देख लिया लेकिन वे बीजेपी को नहीं हरा सके। उन्होंने मुसलमानों को बसपा से जोड़ने के लिये भाईचारा संगठन में यूपी के 18 मंडलों में एक दलित व एक मुस्लिम को संयोजक बनाने की कवायद शुरू की है। विपक्ष का आरोप है कि कुछ दिन पहले माया ने लखनऊ में योगी सरकार के सहयोेग से बीजेपी के दबाव में एक बड़ी विशाल रैली भी की थी, जिसके द्वारा यह संदेश देने की नाकाम कोशिश की गयी कि बसपा ने पूरी तरह से अपना जनाधार नहीं खोया है। इस रैली के ज़रिये मुसलमानों को गुमराह करके बसपा के साथ आने का यह कहकर लालच दिया गया था कि बसपा भाजपा की बी टीम नहीं है। 
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     बसपा की मुखिया मायावती यह भूल रही हैं कि मुसलमान उस दौर में उनकी पार्टी के साथ फिर से जुड़ सकता है जिस दौर में उनके अपने दलित समाज ने उनका साथ छोड़ दिया है। यह बात उनकी किसी हद तक सही है कि अगर मुसलमान दलित समाज के साथ जुड़ जाये तो कुछ अन्य हिंदू कमज़ोर पिछड़े और शोषित वर्ग के प्रत्याशी उतारकर बसपा सपा कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के खिलाफ चुनाव जीत सकती है और माया इसी समीकरण के बल पर एक बार पूरे बहुमत से जीतकर यूपी में सरकार बना भी चुकी है। लेकिन उनको यह पता होना चाहिये कि केवल वोटों के समीकरण से चुनाव नहीं जीते जाते बल्कि इसके लिये जनता का पार्टी व उसके नेता में विश्वास होना पहली शर्त है। 2007 में माया को दलितों व मुसलमानों के साथ ही कुछ पिछड़ों व अगड़ों ने वोट देकर सरकार बनवाई थी। लेकिन उस दौर में माया ने सत्ता के बल पर सबका विकास करके सबका विश्वास जीतने की बजाये केवल दलितों को खुश करने को एकतरफा और पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया और करप्शन के रिकाॅर्ड तोड़कर वह बेहद कीमती मौका गंवा दिया। इसके बाद न केवल उनकी सत्ता चुनाव में छिन गयी बल्कि उनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति की जांच भी शुरू हो गयी। यही वजह है कि बहनजी जेल जाने के डर से बीजेपी के इशारे पर ऐसे काम बयान और फैसले करती हैं जिससे उनके अपने वोटबैंक दलित पिछड़े और मुसलमान उनसे धीरे धीरे किनारा करते गये। उनका विश्वास पूरी तरह खत्म होता जा रहा है।
       उनको जनता का बड़ा हिस्सा बीजेपी की बी टीम मानता है। बहनजी खुद भी बीजेपी से अधिक सपा और कांग्रेस के खिलाफ नज़र आती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का वोट शेयर 1991 में सबसे अधिक 8.38 प्रतिशत था जबकि सांसद सबसे अधिक 2009 में 21 जीते थे तो 2024 में मत प्रतिशत देश में 2.06 यूपी में 9.39 परसेंट हो गया और सांसद शून्य हैं। यूपी की बात करें तो 2007 में उसका वोट प्रतिशत सबसे अधिक 30.43 था तो विधायक सबसे अधिक 207 जीते थे लेकिन 2022 के चुनाव में वोट 12.88 प्रतिशत तो विधायक मात्र एक रह गया है। माया यह भूल रही है कि उनसे अच्छे लच्छेदार और दिल को छू लेने वाले बयान एआईएमआईएम के ओवैसी देते हैं लेकिन उनको भी जब से मुसलमानों ने बीजेपी की बी टीम माना है, तब से बांस से छूने को भी तैयार नहीं हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती चाहे दावे कुछ भी करें लेकिन यह बात अब साफ हो गयी है कि वे मोदी सरकार के दबाव में अपने खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति मामले में जांच को दबाये रखने के लिये भाजपा के इशारे पर बहुजन समाज के हितों के खिलाफ राजनीति कर रही हैं। यही वजह है कि आम चुनाव शुरू होने के दौरान उनको जब इंडिया गठबंधन ने भावी पीएम का चेहरा बनाकर पेश करने के लिये विपक्षी गठबंधन में आने का न्यौता दिया तो वे इतना घबरा गयी कि बिना इस प्रस्ताव पर चर्चा किये ही उल्टा यह आरोप लगा दिया कि कुछ दल बसपा के बारे में विपक्षी गठबंधन में जाने की अफवाहें फैला रहे हैं।
       इससे पहले उन्होंने अपने भतीजे आकाश को चुनाव की कमान सौंप दी थी। जब आकाश जोरदार चुनाव प्रचार करके जल्दी ही मीडिया में चर्चित होने लगे तो उनके खिलाफ कुछ भाषण में अपशब्द कहने की भाजपा सरकार ने रिपोर्ट दर्ज कर दी। इसके बाद मायावती ने उनको उनके पद से हटाकर चुनाव प्रचार से भी रोक दिया। ऐसे ही मायावती ने जितने उम्मीदवार खड़े किये उनमें से जीता तो एक भी नहीं लेकिन चर्चा है कि गैर दलितों से चुनाव चंदे के रूप में मोटी रकम लेकर टिकट इस हिसाब से दिये गये जिससे अकेले यूपी में अकबरपुर अलीगढ़ अमरोहा बांसगांव भदोही बिजनौर देवरिया डुमरियागंज फरूखाबाद फतेहपुर सीकरी हरदोई मिर्जापुरा मिश्रिख फूलपुर शाहजहांपुर और उन्नाव आदि 16 सीट पर बसपा के प्रयाशियों ने इतने मुस्लिम दलित वोट काट लिये कि इंडिया गठबंधन का उम्मीदवार उससे कम वोटों के अंतर से भाजपा केंडीडेट से हार गया। लेकिन यहां सवाल बसपा सुप्रीमो की नीयत का है। वे लगातार ऐसे बयान देती रही हंै जिससे भाजपा को लाभ और सेकुलर दलों को नुकसान हुआ है। 2019 में सपा से गठबंधन करके जब उन्होंने यूपी में संसदीय चुनाव लड़ा था तो उनको शून्य से 10 सीट पर पहुंचने का भारी एकतरफा लाभ हुआ था। जबकि दलित वोट सपा को ना जाने से सपा की सीट पहले की तरह 5 ही रह गयी थीं। फिर भी पूरी बेशर्मी से बहनजी ने झूठ बोलते हुए गठबंधन से बसपा को लाभ ना होने का आरोप लगा कर भाजपा के दबाव में अलग होने का एलान कर दिया था।
       यह अजीब बात है कि आज जब उनकी पोल खुल चुकी है कि वे भाजपा की बी टीम वैसे ही नहीं कही जाती बल्कि इसके कई प्रमाण और उदाहरण लोगों के सामने आते जा रहे हैं। हम तो चाहते हैं कि मायावती क़सम खा लंे कि चाहे कोई मुसलमान कितनी ही बड़ी रकम चंदे मंे दे वे उसको किसी कीमत पर टिकट नहीं देंगी क्योंकि इससे मुसलमानों पर उनका एहसान होगा नुकसान नहीं। सच तो यह है कि करोड़ों रूपये देकर जो बसपा का टिकट लाता है। उसके पास अपवाद छोड़ दें तो नंबर दो यानी हराम का पैसा ही अधिक होता है। इससे मुसलमानों का आर्थिक नुकसान तो होता ही है। साथ साथ वोट काटकर बसपा भाजपा को हर बार कई सीट जिताकर राजनीतिक नुकसान भी करती है। मुसलमानों का एक वर्ग जो साम्प्रदायिक है और बसपा प्रत्याशी को अपने ही धर्म का देखकर केवल इस चक्कर में वोट कर देता है कि इससे संसद में मुसलमानों की संख्या कुछ बढ़ सकती है। जबकि सेकुलर दल और उनके हिंदू नेता आज के दौर में मुसलमानों के अधिकार की लड़ाई बसपा के मुस्लिम से बेहतर लड़ रहे हैं। बहनजी आरपीआई के प्रकाश अंबेडकर और असदुद्दीन ओवैसी जैसे डबल गेम खेलने वाले चालाक धूर्त सभी नेता यह समझ लें कि ये पब्लिक है सब जानती है।
0 एक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 23 October 2025

हरामखोर कौन

*50 परसेंट वोटर्स पर क्यों हैं मौन,*
 *गिरिराज को वेतन देता है कौन?* 
0 केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने उन सब लोगों को नमकहराम कहा है जो केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ तो लेते हैं लेकिन बीजेपी को वोट नहीं देते। भले ही उनका इशारा मुसलमानों की तरफ़ हो लेकिन सही बात यह है कि उन्होंने आधे से अधिक उन हिंदुओं को भी लपेट लिया है जो भाजपा को वोट नहीं देते। बीजेपी को लगभग 36 परसेंट वोट मिलते हैं। मुसलमान देश में 14 परसेंट हैं। तो जो 64 परसेंट वोटर्स बीजेपी को वोट नहीं देते उनमें 50 परसेंट गैर मुस्लिम हैं। दूसरी बात यह है कि गिरिराज सिंह को जो वेतन भत्ते और सांसद निधि मिलती है उसमें मुसलमानों के टैक्स का पैसा भी शामिल है। तीसरी बात यह है कि संविधान मंत्री को इस नफ़रत भेदभाव और पक्षपात की इजाज़त नहीं देता है।
  *-इकबाल हिन्दुस्तानी* 
बिहार के अरवल में एक रैली के दौरान केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने एक मौलवी के साथ अपने वार्तालाप को सुनाते हुए कहा है कि ‘‘हमने कहा आयुष्मान कार्ड मिला? उसने कहा हां मिला। हमने कहा हिंदू मुसलमान हुआ? उसने कहा नहीं। हमने कहा बहुत अच्छा आपने हमको वोट किया था? उसने कहा हां दिया था। मैंने कहा खुदा की नाम लेकर बोलिये? तो उसने कहा नहीं दिया था। हमने कहा नरेंद्र मोदी ने गाली दिया था, हमने गाली दिया था? कहा नहीं। मैंने कहा मेरी गल्ती क्या थी? जो किसी का उपकार ना माने उसे क्या कहते हैं? नमकहराम कहते हैं। हमने कहा मौलवी साहब हमें नमकहराम का वोट नहीं चाहिये।’’ इस बातचीत को पूरी तरह सच नहीं माना जा सकता क्योंकि गिरिराज अकसर झूठ बोलते हैं। दूसरी बात यह है कि चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि बीजेपी को मुसलमानों के 8 प्रतिशत वोट मिलते हैं। गरीब मुसलमान 11 परसेंट तक बीजेपी को वोट देता है। जबकि अमीर 6 और मीडियम क्लास मुसलमान 5 प्रतिशत वोट भाजपा को देता है।
       उधर हिंदू 85 प्रतिशत होकर भी केवल 28 प्रतिशत ही भाजपा को वोट देता है। केंदीय योजनाओं का लाभ तो हिंदू मुसलमान सभी ले रहे हैं। लेकिन यहां नोट करने वाली बात यह है कि जिस तरह से बीजेपी ने मुसलमानों का हर स्तर पर विरोध दमन अन्याय अत्याचार पक्षपात भेदभाव और उनसे दुश्मनी की हद तक नफ़रत का माहौल बनाकर हिंदू वोट बैंक की राजनीति की है, इसके बावजूद उसको उनके 8 परसेंट वोट मिलना भी हैरत और डर की बात है। अगर आज देश में कानून संविधान और समानता का राज होता तो गिरिराज सिंह जैसे लोग मंत्रिमंडल नहीं जेल में होते। उनकी सांसदी छिन चुकी होती। चुनाव आयोग जीवित होता तो उनके ज़हरीले चुनाव प्रचार पर रोक लगा चुका होता। सुप्रीम कोर्ट न्याय करता तो स्वयं सू मोटो लेकर उनको दो धर्म के लोगों के बीच दरार पैदा करने के लिये तलब कर सज़ा दे चुका होता। मीडिया ज़िंदा होता तो उनसे उनके ज़हरीले आपत्तिजनक और विवादित बयानों पर तीखे सवाल पूछ रहा होता।
        खुद मोदी अगर सबका साथ सबका विश्वास में विश्वास रखते तो उनको ना केवल मंत्री पद से बर्खास्त करते बल्कि भविष्य में चुनाव लड़ने को बीजेपी का टिकट भी नहीं देते। साथ ही सब भारतीयों का डीएनए एक बताने वाला संघ उनको अब तक कभी का आडवाणी बना चुका होता। लेकिन खेद है ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि यह सब एक सुनियोजित योजना बीजेपी का एजेंडा और उसके नफ़रत झूठ व बांटो और राज करो की घटिया नीति का सोचा समझा हिस्सा है। लेकिन बीजेपी को यह नहीं भूलना चाहिये कि बढ़ते करप्शन अपराध बेरोज़गारी महंगाई गरीबी भुखमरी अराजकता साम्प्रदायिकता घृणा झूठ जातिवाद हिंसा माॅब लिंचिंग बलात्कार पक्षपात भेदभाव वोट चोरी अन्याय अत्याचार शोषण घोटालों आॅनलाइन स्कैम आवारा पूंजीवाद रिश्वतखोरी कमीशनखोरी का अनुपात के हिसाब से नुकसान उनको ही अधिक संख्या में हो रहा है जिनका जनसंख्या में हिस्सा अधिक है। केवल मुसलमानों को हर समस्या के लिये टारगेट करके अपने कुकर्मों का ठीकरा बार बार उन पर फोड़कर हिंदुओं को अब आगे लंबे समय तक धोखा नहीं दिया जा सकता। अगर बीजेपी इतनी ही लोकप्रिय होती तो उसको राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों का सामना नहीं करना पड़ता वह निष्पक्ष जांच कराकर विपक्ष को विश्वास में ले सकती थी।   
       अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष निडर और कानून के अनुसार काम कर रहा होता तो किसी पार्टी किसी नेता और किसी बड़े से बड़े पद पर बैठे लीडर को हिंदू मुस्लिम जाति व धर्म के आधार पर वोट मांगने से रोकता लेकिन यहां तो चुनाव आयोग क्या मीडिया से लेकर ईडी सीबीआई व इनकम टैक्स विभाग जैसी लगभग सभी संस्थायें एक दल और उसके सहयोगियों को छोड़कर विपक्ष सरकार विरोधियों और निष्पक्ष सभी भारतीयों को लगातार निशाना बना रहा है और अफसोस की बात यह है कि कोर्ट भी इस पक्षपात अन्याय और उत्पीड़न को रोकने में अकसर नाकाम नज़र आता है। मुसलमानों की आबादी देश में 14 प्रतिशत से अधिक है लेकिन वे सरकारी नौकरी से लेकर निजी क्षेत्र की सेवा उद्योगों बैंक सेवा बैंक लोन सरकारी पेट्रोल पंप गैस एजेंसी राशन डीलर सरकारी ठेकों आईआईटी आईआईएम लोकसभा विधानसभा नगर निगम नगरपालिका सरकारी अस्पतालों की सेवा विभिन्न आयोगों सरकारी स्कूलों काॅलेजों यूनिवर्सिटी कोर्ट जजों पुलिस सेना प्रशासनिक अधिकारियों यानी कहीं भी 14 का आघा 7 तो दूर 3.5 प्रतिशत तक नहीं हैं। ऐसे में उनको उनके हिस्से अधिकार और अनुपात से अधिक क्या मिल रहा है?
       भाजपा अकसर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती है। लेकिन उसको कोई गंभीरता से नहीं लेता। अगर वह बढ़ती आबादी को लेकर वास्तव में चिंतित होते तो सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन यानी दो बच्चो का कानून बनाने की दस साल में हिम्मत दिखाते लेकिन वे जानते हैं इससे तो उनका हिंदू वोटबैंक भी नाराज़ हो जायेगा इसलिये उनको तो बस घृणा झूठ और हिंदुत्व की राजनीति करनी है। दूसरा तथ्य इस सारी बहस में यह भुला दिया गया है कि आबादी ज्यादा बढ़ना या तेजी से बढ़ना किसी सोची समझी योजना या धर्म विशेष की वजह से नहीं है बल्कि तथ्य और सर्वे बताते हैं कि इसका सीधा संबंध शिक्षा और सम्रध्दि से है। अगर आप दलितों या गरीब हिंदुओं की आबादी की बढ़त के आंकड़े अलग से देखें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि उनकी बढ़त दर कहीं मुस्लिमों के बराबर तो कहीं उनसे भी अधिक है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह केरल सबसे शिक्षित राज्य है और वहां आबादी की बढ़त 2.01 प्रतिशत यानी लगभग जीरो ग्रोथ आ गयी है जिसमें मुस्लिम भी बराबर शरीक है, ऐसे ही देश में सबसे कम आबादी की बढ़त वाले राज्यों में मुस्लिम बहुल कश्मीर सबसे आगे हैं। देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी की बढ़त असम में 30.9 से बढ़कर 34.2 प्रतिशत पाई गयी है जिसका साफ मतलब है कि बंग्लादेशी घुसपैठ से भी यह उछाल आया है लेकिन सीमा पर घुसपैठ रोकने की ज़िम्मेदारी भी केंद्र सरकार की है।  
*0चाकू की पसलियों से सिफ़ारिश तो देखिये,*
*वह चाहता है काटने में उसको मदद करें।।* 
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के संपादक हैं।*

Thursday, 9 October 2025

बिहार का विवादित एसआईआर

*बिहार का विवादित एसआईआर,* 
 *केंचुआ नहीं मान रहा आधार?* 
0 बिहार का एसआईआर पूरा हो गया। अंतिम मतदाता सूची भी आ गयी लेकिन इस पर विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। चुनाव विश्लेषक और समाजसेवी योगेंद्र यादव का कहना है कि बिहार की कुल व्यस्क आबादी के अनुसार राज्य में 8 करोड़ 22 लाख वोटर होने चाहिये। लेकिन एसआईआर की लास्ट वोटर लिस्ट में 80 लाख वोटर कम हैं। ऐसे ही नये वोटर बनने के लिये आयोग के अनुसार अंतिम तिथि तक 16 लाख 93 हज़ार लोगों ने आवेदन किया था लेकिन नये मतदाता 21 लाख 53 हज़ार बना दिये गये। सवाल यह है कि 4 लाख 60 हज़ार नये मतदाता कहां से आ गये? एक करोड़ 30 लाख से अधिक वोटर के पते सन्दिग्ध हैं। 3 लाख 66 हज़ार नाम जो काटे गये उनका कारण भी नहीं बताया जा रहा है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       बिहार में 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में महागठबंधन और एनडीए एलाइंस के बीच मात्र 11150 वोट का अंतर था। इसकी वजह औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम को माना गया था। जिसने 4 सीट जीती और 11 सीट पर महागठबंधन के वोट काटकर 15 सीट के मामूली बहुमत से जेडीयू भाजपा की सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की थी। विपक्ष का आरोप था कि इस बार महागठबंधन के जीतने के पूरे पूरे आसार देखकर केंचुआ मोदी सरकार के इशारे पर एसआईआर के बहाने विपक्ष के वोट काट रहा है और भाजपा जेडीयू के फर्जी वोट बढ़ा रहा है। एसआईआर जिस जल्दबाज़ी और गैर पारदर्शी तरीके से किया गया है। उससे भी विपक्ष के आरोपों को बल मिल रहा है। बताया जाता है कि जिन लाखों लोगों के वोट केंचुआ ने काटे हैं उनकी विस्तृत जानकारी बार बार मांगने के बाद भी वह अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं कर रहा है कि उनके वोट किस वजह से काटे गये हैं? एसआईआर के दौरान भाजपा ने यह भी दावा किया था कि राज्य में बड़े पैमाने पर विदेशी घुसपैठ हुयी है। लेकिन अब यह नहीं बताया जा रहा है कि कितने घुसपैठियों के वोट काटे गये? यह भी नहीं बताया जा रहा है कि केंचुआ को कैसे पता लगा कि अमुख मतदाता विदेशी है? क्योंकि यह जांचने का काम तो गृह मंत्रालय का है।
      यह बात एसआईआर पर चर्चा के दौरान खुद सुप्रीम कोर्ट कह चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कंेचुआ को कई बार यह भी सलाह निर्देश और आदेश दिया कि वह मतदाता की पहचान के लिये आधार को 12 वां दस्तावेज़ स्वीकार करे, लेकिन केंचुआ अभी भी मक्कारी करते हुए कह रहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट के आधार को लेकर दिये गये आदेश का सम्मान करता है लेकिन पूरे देश में वह आधार तभी स्वीकार करेगा जब पहले से दी गयी पहचान पत्रों की 11 की लिस्ट में से कोई एक कागज़ आधार के साथ दिया जायेगा। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि आधार स्वीकार नहीं किया जा रहा है क्योंकि जब उसके साथ पहले से बताये गये 11 में से एक दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो आधार का क्या मतलब रह गया? एसआईआर के बाद जो वोटर लिस्ट सामने आई है उसमें दो लाख से अधिक मतदाताओं के पते के सामने कुछ भी नहीं लिखा है। ऐसे ही 24 लाख घर ऐसे हैं जिनमें 10 से अधिक लोग रहते हैं, क्या यह शक की बात नहीं है। रिपोर्टर कलक्टिव की रिपोर्ट के अनुसार 14 लाख 35 हज़ार वोट अभी भी डुप्लिकेट हैं। इसमें वोटर का नंबर तो अलग अलग है लेकिन उनके माता पिता का नाम एक ही है। उनके अनुसार एक ही पते पर 505 मतदाता अभी भी मौजूद होना एसआईआर की पूरी कवायद को शक के दायरे मंे लाता है। ऐसे ही एक अन्य जगह पर 442 मतदाता एक साथ रहते पाये गये हैं। इनके धर्म और जाति भी अलग अलग है। एक करोड़ 32 लाख मतदाताओं के पते संदिग्ध हैं। अगर केंचुआ के कर्मचारियों ने घर घर जाकर एक एक मतदाता का सत्यापन किया होता तो इतनी बड़ी कमियां गल्तियां और खामियां नहीं होतीं।
      चुनाव आयोग ने अपनी प्रेस वार्ता में एक साथ पांच पांच रिपोर्टर के सवाल लिये जिससे असुविधाजनक सवालों को वह जवाब देने से टाल गया। न्यूज़ लांड्री की रिपोर्ट के अनुसार 2 लाख 92 मतदाताओं के घर का पता जीरो दर्ज किया गया है। इस मतदाता सूची में पहले की तरह लिंग उम्र और अन्य आधार पर दी जाने वाली आठ अलग अलग जानकारी भी केंचुआ देने से पीछे हट गया है। विधानसभा सीट वार कितने वोट काटे गये और कितने नये जोड़े गये यह भी केंचुआ नहीं बता रहा है क्योंकि उसको डर है कि इससे स्थानी लोग उसकी गड़बड़ी और भी जल्दी पकड़ लेंगे। डिजिटली रीडेबिल वोटर लिस्ट के लिये भी विपक्ष को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगानी पड़ी है तो केंचुआ आखिर छिपाना क्या चाहता है? वह लेवल प्लेयिंग फील्ड उपलब्ध कराकर अपने माथे पर लगा सरकार का कठपुतली होने पर दाग हटाने को चिंतित क्यों नहीं है? चुनाव की तिथि घोषित होने के अंतिम समय तक निष्पक्षता किनारे कर नीतीश सरकार एक करोड़ महिलाओं के खाते में 10 दस हज़ार रूपये एक तरह से रिश्वत के तौर पर भेजती रही लेकिन केंचुआ का मुंह बंद ही रहा। विपक्ष का यह भी आरोप है कि आयोग ने नये मतदाता बनाने के नाम पर एक एक घर एक एक फ्लैट और एक एक अपार्टमेंट में 100 से 200 तक मतदाता बिना कड़ी जांच पड़ताल के कैसे संदिग्ध रूप से बना दिये? विपक्ष का कहना है कि अब बिहार के बाद बंगाल और फिर पूरे देश में स्पेशल इंटैन्सिव रिवीज़न के नाम पर चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के इशारे पर मनमाने तरीके से विपक्ष के परंपरागत समर्थक मतदाता खासतौर पर दलित आदिवासी अल्पसंख्यक और गरीब कमज़ोर वर्ग के वोट एक सुनियोजित षड्यंत्र, अभियान और योजना के तहत काटने पर तुला है।
       विपक्ष का आरोप है कि जो विपक्ष के असली वोटर काटे जाते हैं उनके बदले भाजपा के उतने ही फर्जी मतदाता जोड़ दिये जाते हैं जिससे हर सीट पर 20 से 30 हज़ार वोट का अंतर आ जाता है।  रहा कुछ फर्जी राशन आधार और वोटर कार्ड का सवाल तो जो 11 डाक्यूमेंट की लिस्ट आयोग ने मतदाता जांच के लिये जारी की है, उनमें भी कुछ नकली और फर्जी हो ही सकते हैं जैसा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि दुनिया का ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिसको कुछ लोग फर्जी ना बना लेते हों लेकिन इसकी जांच कर व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे लोगों की पहचान कर उनके कागजों को अमान्य किया जा सकता है लेकिन इस बहाने सबके आधार वोटर और राशन कार्ड को ठुकराना गलत है। सच तो यह है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सरकार ने उसी दिन खत्म कर दी थी जिस दिन चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से चीफ जस्टिस को बाहर कर विपक्ष के नेता व पीएम के साथ उनके एक और मंत्री को शामिल करने का कानून बना था। यही वजह थी इस दौरान एक चुनाव आयुक्त गोयल ने इस्तीफा भी दे दिया था। वीडियो फुटेज ना दिखाना विपक्ष को डिजिटल वोटर लिस्ट ना देना और एक ही पते पर सैंकड़ो लोगों का वोट बन जाना कुछ ऐसे चर्चित विवादित और शक पैदा करने वाले अनेक मामले हैं जिनसे केंचुआ की साख रसातल में जा रही है, लेकिन उसे और सरकार को कोई मतलब नहीं है। केंचुआ पर एक शेर याद आ रहा है-उसके होंटों की तरफ ना देख वो क्या कहता है, उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*