Saturday, 30 November 2024

बढ़ती बेरोजगारी

सरकारी आंकड़ों की जादूगरी जारी, 
फिर भी बढ़ती जा रही है बेरोज़गारी?
0 मोदी सरकार जब से सत्ता में आई है तब से वादों दावों और नारों के साथ फर्जी आंकड़ों की जादूगरी से जनता को ऐसा अहसास कराया जा रहा है। मानो सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा हो। इसके बावजूद देश में महंगाई बेरोज़गारी और गरीबी बढ़ती ही जा रही है। सच यह है कि काॅरपोरेट सैक्टर ने हर साल 1,45,000 करोड़ का टैक्स बचाकर भी नया निवेश नहीं किया है। जिससे रोज़गार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं। 2013 से 2022 तक उत्पादन क्षेत्र में मात्र 32 लाख रोज़गार पैदा हुए हैं। 18 प्रतिशत लोग घरेलू तौर पर अवैतनिक काम में लगे हैं। बड़े वाहनों की बिक्री घट रही है। मीडियम क्लास की तादाद भी कम होने लगी है। लेकिन सरकार धर्म की राजनीति कर चुनाव जीतने में लगी है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
आर्थिक सर्वेक्षण बता रहा है कि सरकार रोज़गार के अवसर बढ़ाने में लगातार नाकाम हो रही है। दस साल से स्किल इंडिया चलने का दावा किया जा रहा है लेकिन 51.25 प्रतिशत युवाओं में नौकरी पाने लायक ज़रूरी योग्यता व क्षमता ही नहीं है। सरकार इसका ठीकरा राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र पर फोड़कर अपना पल्ला झाड़ रही है। इसका दुष्परिणाम यह है कि एआई कौशल क्षेत्र में उल्टा नौकरी कम हो रही हैं। 11 करोड़ रोज़गार कृषि और 06.5 करोड़ एमएसएमई यानी कुल 94 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र से जुड़े हैं। वित्तमंत्री विपक्ष के बेरोज़गारी के आंकड़ों को विश्वसनीय नहीं मानती लेकिन सवाल यह है कि खुद सरकार के पास भी कोई अधिकृत आंकड़ा क्यों नहीं है। 2017 में सरकार को अरविंद पनगढ़िया ने रोज़गार के आंकड़े दिये थे। जिनको सरकार ने सार्वजनिक न कर ठंडे बस्ते में डाल दिया था। हर दस साल में जनगणना के दौरान ही नियमित रोज़गार और हर पांच साल मेें अनिगमित क्षेत्र के रोज़गार की गणना कराई जाती रही है। लेकिन 2021 में यह कोरोना की वजह से नहीं होने से यह आंकड़ा भी सामने नहीं आ सका है। एक जानकारी के अनुसार 2020 से 2023 तक काॅरपोरेट का लाभ टैक्स छूट से बढ़कर चार गुना तक पहुंच गया है। लेकिन काॅरपोरेट ने न तो नई नौकरियां दीं और न ही पुराने कर्मचारियों का वेतन अपने बढे़ लाभ के अनुपात में बढ़ाया। अरविंद सुब्रमण्यम का कहना है कि इस सरकार में दो खास काॅरपोरेट घरानों को सरकार का खुला संरक्षण मिलने से अन्य उद्योग स्वामी निवेश करने से बचने लगे हैं। 
सरकारी नीतियां इन दो उद्योग समूह के हिसाब से ही बन रही हैं जिससे मीडिया से लेकर पोर्ट एयरपोर्ट टेलिकाॅम और सीमेंट जैसे कई बड़े क्षेत्रों पर इन दोनों का एकतरफा कब्ज़ा हो गया है। हालत यह है कि 2014 से 2023 तक काॅरपोरेट कर घटकर 26 प्रतिशत होने से व्यक्तिगत कर बढ़कर 35 प्रतिशत आ रहा है। काॅरपोरेट एक तो नई नौकरी नहीं दे रहा अगर देता भी है तो संविदा पर सेवा कराने का चलन बढ़ता जा रहा है। आॅनलाइन कारोबार बढ़ते जाने से असंगठित क्षेत्र की 16 लाख नौकरी हाल में चली गयी हैं। जानकार बताते हैं कि देश में हर साल 79 से 81 लाख नये रोज़गार की ज़रूरत होती है। विडंबना यह है कि जिस देश में 80 करोड़ से अधिक लोग सरकारी निशुल्क राशन पर जीवन गुज़ारने पर मजबूर हांे वहां उपभोक्ता बाज़ार कैसे बढ़ेगा? यह भी अर्थशास्त्र का सिध्दांत है कि जब तक खपत नहीं बढ़ेगी नया निवेश कर नया उत्पादन कौन कंपनी और क्यों बढ़ायेगी? यानी नया रोज़गार और नौकरी बढ़ने की संभावना कैसे पैदा होगी? एनसीआरबी का आंकड़ा बता रहा है कि बेरोज़गारी की वजह से 2018 में हर दो घंटे में तीन बेरोज़गार जान देते थे अब यह आंकड़ा बढ़कर एक घंटे में दो बेरोज़गारों की आत्महत्या पर पहंुच गया है। 
   सरकार का झूठ इससे भी पता चलता है कि 2016-17 में काम करने वाली कुल आबादी देश में जहां 42.79 प्रतिशत यानी 40 से 41 करोड़ थी वह 2023-24 में बढ़कर मात्र 41 से 42 करोड़ बताई जा रही है। जबकि वास्तविक काम करने वाली जनसंख्या 55 से 60 प्रतिशत होती है। सरकार ने पिछले दिनों आरबीआई के एक सर्वे का हवाला देते हुए दावा किया था कि पिछले 3 से 4 साल में 8 करोड़ रोज़गार पैदा हुए हैं। सच यह है कि रिज़र्व बैंक ऐसा कोई सर्वे नहीं करता है। यह सरकार को खुश करने और जनता को गुमराह करनेे के लिये पीएलएफएस के आंकड़ों को ही तोड़ मरोड़कर मन माफिक परिणाम निकाल कर परोसने की राजनीतिक कला है। इन आंकड़ों में एक खेल यह किया जाता है कि जो अनपेड लेबर है उसको भी स्वरोज़गार में जोड़कर आंकड़ा काफी बढ़ा चढ़ाकर दिखाया जाता है। मिसाल के तौर पर जो लोग अपने परिवार के मुखिया की खेती या दुकान या ठेले पर काम में बिना किसी वेतन के हाथ बंटा देते हैं उनके श्रम की गणना नये रोज़गार के तौर पर कर ली जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि इससे किसी को नया रोज़गार तो मिला ही नहीं होता। यह कोई देखने को तैयार नहीं है कि भारत की 45 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती करती है जबकि जीडीपी में उसकी भागीदारी मात्र 15 प्रतिशत है तो इससे यह असमानता और विषमता कैसे दूर होगी? इससे इस बड़े क्षेत्र की उत्पादकता भी कम रह जाती है। 
सरकार इपीएफ में दर्ज होने वाले नामों को भी नया रोज़गार मानकर आंकड़ों में हेरफेर करती रहती है। जबकि सबको पता है कि जो लोग पहले से संविदा या अनियमित सेवा दे रहे हैं। उनके रोज़गार नियमित होने पर उनका नाम कर्मचारी भविष्यनिधि संगठन में दर्ज करना अनिवार्य होता है। मनरेगा के 50 से 100 दिन के काम को भी कुछ संगठन नये रोज़गार पाने वालों में जोड़कर रोज़गार पाने वालों का फर्जीवाड़ा करते हैं। कोरोना लाॅकडाउन में जब तमाम लोगों के रोज़गार बड़े पैमाने पर चले गये तो उनका आंकड़ा तो बेरोज़गारों में जोड़ा नहीं गया लेकिन जिन लोगों ने मनरेगा छोटी दुकान या ठेला लगाया उनको नये रोज़गार में शामिल कर रोज़गार बढ़ने का ढोल पीट दिया गया।
0 तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं,
 मगर वो क्या करे जिसका भरोसा टूट जाता है।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

रेवड़ी से जीते झारखंड और महाराष्ट्र

महाराष्ट्र लाडली बहन योजना से, 
झारखंड मईया सम्मान से जीते?
0 महाराष्ट्र में एनडीए और झारखंड में इंडिया गठबंधन की जीत को एक एक से बराबर कहना ठीक नहीं होगा। महाराष्ट्र न केवल बहुत बड़ा राज्य है बल्कि वह मुंबई के देश की आर्थिक राजधानी कहलाने से बहुत अधिक अहम भी है। साथ ही वहां शिवसेना और एनसीपी के बंटवारे से यह देखना भी रोचक था कि मराठी जनता किसको असली दल मानती है। हालांकि लोकसभा चुनाव में 48 में से 30 सीट जीतकर कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन ने अपनी बढ़त साबित कर दी थी लेकिन उसको यह नहीं भूलना चाहिये था कि सीटों में डेढ़ गुना से अधिक अंतर होने के बावजूद दोनों गठबंधन के वोटों मंे मात्र एक प्रतिशत का ही फ़र्क था। महाराष्ट्र की जीत में लाडली बहन योजना तो झारखंड में मइया सम्मान योजना इंडिया गठबंधन की जीत में बड़ी वजह बनी है।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    महाराष्ट्र की भारी बहुमत वाली बंपर जीत से पीएम मोदी भाजपा संघ परिवार शिवसेना शिंदे गुट और एनसीपी अजित पवार गुट ने एनडीए को हरियाणा के बाद एक और लाइफलाइन देकर यह साबित कर दिया है कि पिछले लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन की बढ़त और भाजपा का संसद में बहुमत के आंकड़े से कुछ पीछे रह जाना महज़ एक अपवाद संयोग और विपक्ष का संविधान खतरे मंे बताकर दलितों आदिवासियों व कुछ पिछड़ों को अपनी तरफ मोड़ लेेने का दांव तात्कालिक क्षणिक और सियासी जुगाड़ था। हालांकि झारखंड में भाजपा का बंग्लादेशी घुसपैठिये आदिवासियों की रोटी बेटी और माटी छीन लेंगे का नारा नाकाम रहा। वहां लोगों ने भाजपा के घोर झूठे और सांप्रदायिक फर्जी दुष्प्रचार को भाव न देकर आदिवासी अस्मिता और क्षेत्रीयता को महत्व दिया है। लोगों ने भाजपा के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर इस लिये भी कान नहीं दिये कि अगर वास्तव में घुसपैठ हो भी रही है तो यह केंद्र सरकार की नाकामी है। साथ ही झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया और राज्य के सीएम हेमंत सोरेन को केंद्र द्वारा कथित करप्शन के आरोप में जेल भेजे जाने का गुस्सा भी भाजपा के खिलाफ गया। इसके साथ ही आदिवासी जेएमएम सरकार की कल्याणकारी योजनाओं जैसे मय्या सम्मान से भी संतुष्ट नज़र आये। हालांकि यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं होगा कि महाराष्ट्र में महायुति गठबंधन की कार्यशैली से खुश होकर मराठी जनता ने इतना ज़बरदस्त बहुमत एनडीए को दिया है। 
सच तो यह है कि महायुति का सत्ता में होना इस दौरान जनकल्याण की कई आकर्षक योजनायें जैसे महिलाओं को खुश करने वाली लाडली बहना योजना लागू करना केंद्र का उसको हर तरह से सहयोग करना बंटेंगे तो कटेंगे जैसे नारों का महाराष्ट्र के चुनाव में पहुंच जाना और पीएम का इसी नारे को थोड़ा परिष्कृत कर एक हैं तो सेफ हैं के ज़रिये खुलकर हिंदू वोट बैंक की राजनीति करना चुनाव आयोग का सत्ताधारी दल के पक्ष में पूरी बेशर्मी से झुक जाना काॅरपोरेट और खासतौर पर अडानी पर मंुबई की धारावी झुग्गी झोंपड़ी का पुनर्निर्माण का ठेका बचाये रखने के लिये अपनी तिजोरी का मंुह खोल देना सत्ताधारी दल पर अकूत धन से वोट खरीदने का आरोप गोदी मीडिया का सत्ता के पक्ष में विपक्ष पर दिन रात झूठे आरोप लगाना बदनाम करना जनविरोधी बताना देशद्रोही तक कहना ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स के ज़रिये विरोधी नेताओं उनको चंदा देने वालों और उनका साथ देने वालों को निशाने पर लेने से लेकर तरह तरह के हथकंडे अपनाकर साम दाम दंड भेद से किसी कीमत पर भी चुनाव जीतने का अभियान एनडीए के पक्ष में गया है। अगर निष्पक्षता ईमानदारी और बिना पूर्वाग्रह के देखें तो साफ नज़र आ रहा है कि सत्ताधरी दल का मुकाबला विपक्ष करने की स्थिति में नहीं था। उसको लोकसभा चुनाव में बढ़त मिलने से उसका नैतिक बल ज़रूर बढ़ गया था। 
कांग्रेस अधिक से अधिक सीट पर लड़कर राज्य में अपना महत्व फिर से वापस लाना चाहती थी। शिवसेना ठाकरे भी इसी कोशिश में थी। उधर शरद पवार पर जब से यह आरोप लगा कि 2019 में अडानी के घर हुयी बैठक में वे नई सरकार बनाने की योजना में शामिल थे तो जानकारों का यहां तक कहना है कि वे मोदी से अपने अच्छे रिश्ते की वजह से जानबूझकर अपने भतीजे अजित पवार को दिखावे की बगावत करके एनडीए गठबंधन में भेजने को अपनी मर्जी से तैयार हुए थे। उधर दलितों की सबसे बड़ी पार्टी बहुजन अघाड़ी इंडिया गठबंधन से अलग चुनाव लड़कर एनडीए गठबंधन की जीत का रास्ता तैयार करने में लगी थी। साथ ही मुस्लिम वोटों के ठेकेदार बनकर भाजपा का खेल खेलने वाले एमआईएम के कई प्रत्याशी इंडिया गठबंधन के वोट काटकर महायुति की मदद करने में शर्म महसूस नहीं कर रहे थे। इसके अलावा कांगे्रस और उसके साथी घटक अपने विद्रोही उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने या एक दूसरे के वोट बैंक को नुकसान पहंुचाने से बाज़ नहीं आये। हालांकि यही काम भाजपा और एनडीए के दूसरे घटकों ने भी कम या अधिक किया है लेकिन भाजपा व महायुति के पास ऐसे बागी प्रत्याशियों को सत्ता से धमकाने या ललचाने का एक अतिरिक्त विकल्प उपलब्ध था जिससे महाविकास अघाड़ी वंचित था। 
कुल मिलाकर चुनाव नतीजों का विश्लेषण टीका टिप्पणी और क्या हुआ कैसे हुआ क्यों हुआ अभी आंकड़े विस्तार से आने तक चलता रहेगा लेकिन एक बात साफ हो गयी है कि भाजपा और उसके गठबंधन एनडीए के पास जो शक्ति सत्ता और संसाधन हिंदुत्व का तड़का लगाने तक सरकारी एजंसियों के दुरूपयोग के उपलब्ध हैं वे इंडिया गठबंधन के पास न तो हैं और न ही साम्प्रदायिक कट्टर और नफरत का कार्ड विपक्ष सेकुलर होने की वजह से खेल सकता है लिहाज़ा ऐसा लगता है कि भाजपा अभी लंबे समय तक राज करती रहेगी चाहे इसके लिये उसे ‘कुछ भी’ करना पड़े। कल तक पीएम मोदी भाजपा और तथाकथित संघी मानसिकता के अर्थशास्त्री जिन जनहित की योजनाओं को राज्यों के बजट का दिवाला निकालने वाला और रेवड़ी कल्चर कहकर मज़ाक उड़ाया करते थे। आज उन योजनाओं के सहारे ही जब भाजपा एक के बाद एक राज्य का चुनाव जीत रही है तो उसको जनता को नकद सहायता देकर अर्थव्यवस्था को गति देने वाला बताया जा रहा है। जबकि महाराष्ट्र में 7 लाख करोड़ का बजट घाटा पहले ही चल रहा है। 
     जब 2019 में राहुल गांधी ने पहली बार न्याय योजना के नाम से देश के सबसे गरीब 5 करोड़ परिवारों को हर साल 72000 रूपये देने का एलान किया था तो उस योजना का जमकर भाजपा ने विरोध किया था। महाराष्ट्र में इसीलिये चुनाव हरियाणा व कश्मीर के साथ नहीं कराया गया था। महाराष्ट्र में कुल 4.69 करोड़ महिला मतदाता हैं। राज्य में 21 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। 52 लाख नई महिलायें इस बार चुनाव में पहली बार वोटर बनी हैं। वहां ढाई करोड़ से अधिक महिलाओं को 1500 रूपये के हिसाब से कुल पांच किश्तों में 7500 रूपये दिये जा चुके हैं। साथ ही चुनाव जीतने पर यह राशि बढ़ाकर 3000 करने का वादा भी किया गया है। यही वजह है कि महिलाओं के मत पुरूषों से 6 प्रतिशत अधिक डाले गये हैं। ज़ाहिर बात है कि इनमें से अधिकांश सत्ताधारी महायुति के पक्ष में गये होंगे। लेकिन यह सवाल अपनी जगह है कि जिस राज्य में 6 माह में 1267 किसानों ने आत्महत्या की हो और बेरोज़गारी चरम पर हो वहां उन पुरूषों को ऐसी कोई नकद सहायता क्या सोचकर नहीं दी गयी है? 
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 14 November 2024

चौहान साहब होते तो....

चैहान साहब आज होते तो कट्टरपंथियों के निशाने पर होते!

0 वरिष्ठ पत्रकार चिंतक और ललित निबंध लेखक स्व. बाबूसिंह चैहान जब तक जीवित रहे अपनी लेखनी बिना यह देखे निष्पक्षता स्पश्टता और मानवता के पक्ष में चलाते रहे कि उनके सच लिखने से किस वर्ग के कट्टरपंथी नाराज़ हो जायेंगे। बाबूजी तो यहां तक कहा करते थे कि अगर उनके लिखने बोलने और कार्य करने से संप्रदायवादी जातिवादी और फासिस्ट तत्व खफ़ा होते हैं तो समझ जाना चााहिये कि वे अपने मिशन पर सही जा रहे हैं। उनका कहना था कि जिस दिन यथास्थितिवादी और अंधवश्विासी लोग आपकी सराहना करने लगे समझ लीजिये आप अपने सत्य तथ्य और प्रमाण्किता के रास्ते से भटक चुके हैं। यही वजह है कि ऐसा माना जाता है कि चैहान साहब आज होते तो कट्टरपंथियों के निशाने पर होते। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कहने को देश में लोकतंत्र है। चुनाव भी हो रहे हैं। मीडिया है। न्यायपालिका है। संविधान है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। अखबार छप रहे हैं। टीवी चैनल चल रहे हैं। लेकिन सच इन सबमें गुम सा हो गया है। चैहान साहब आज जीवित होते तो इन मूल्यों लक्ष्यों और उसूलों के लिये लड़ रहे होते। हालांकि उनकी सोच के चंद लोग अपवाद स्वरूप आज भी पूरी तरह पंूजीवाद लाभ और स्वार्थ को लात मारकर न्याय समाजवाद और सौहार्द की लड़ाई लड़ रहे हैं। बिजनौर टाइम्स और चिंगारी जैसे उनके लगाये पौधे भी वटवृक्ष बन गये हैं। उनके सुपुत्र श्री चंद्रमणि रघुवंशी और श्री सूर्यमाणि रघुवंशी भी उनकी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। बि.टा. ग्रुप से जुड़े आॅफिस फील्ड के पत्रकार समाचार पत्र वितरक हाॅकर विज्ञापनदाता लेखक कवि और सबसे बढ़कर पाठकों का एक बड़ा वर्ग इन विषम परिस्थितियों में भी मिशनरी पत्रकारिता के साथ खड़ा है। यह इस बात का प्रमाण है कि झूठ की आंधी चाहे जितनी भी प्रचंड हो लेकिन वह सच के दिये को बुझा नहीं सकती। आज का दौर ऐसा दौर है। जिसमें सत्ता में ऐसे लोग हावी हैं। जिनका विश्वास संविधान लोकतंत्र और समानता में नहीं है। उनका काॅरपोरेट के साथ एक काॅकटेल बन गया है। उन्होंने मीडिया के साथ ही पुलिस और प्रशासन न्यायपालिका और जांच एजंसियों सहित लगभग सभी सरकारी संस्थानों को बंधक बना लिया है।
वे विपक्ष या असहमति के आवाज़ को दुश्मन मानते हैं। ऐसे में अधिकांश पिं्रट और इलैक्ट्राॅनिक मीडिया ने उनके सामने घुटने टेक दिये हैं। इसका समीकरण बहुत सीधा है। पहले दूरदर्शन और आकाशवाणी को सरकार का भोंपू माना जाता था। जब ये दोनों सरकार का राग दरबारी छेड़ते थे तो किसी को बहुत हैरत भी नहीं होती थी। यही वजह है कि आज के दौर में इनकी विश्वसनीयता रसातल में जा चुकी है। लेकिन जब उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो लोगों को लगा था कि अब सरकारी मीडिया की मनमानी पर लगाम लगेगी। शुरू में कुछ दिन यह आशा फलीभूत होती भी नज़र आई लेकिन फिर एक दिन ऐसा आया जब सत्ता और पूंजीपतियों ने हाथ मिला लिया। ऐसे में सत्ता पूंजीपतियों को कानून ताक पर रखकर लाभ देने लगी और बदले में पूंजीपतियों ने न केवल अपनी तिजोरी का मंुह खोल दिया बल्कि सत्ता की चाकरी में अपने अखबार और चैनलों को पूरी तरह से सरकार के कदमों में बिछा दिया। इसी का अंजाम यह हुआ कि निजी मीडिया झूठा नफरती और फर्जी आंकड़ों का रोबोट बन गया है। आज पूरी बेशर्मी बेहयाई और निर्लजता से गोदी मीडिया सरकार की गोद में बैठा है। ऐसे में बाबूजी याद आते हैं। उनको आप किसी तरह के लालच और डर से अपने मकसद से डिगा नहीं सकते थे। वे होते तो सच लिखते। बड़े बड़े अखबारों और टीवी चैनलों की पोल खोल देते। उनके इस अभियान से सरकार नाराज़ होती। सांप्रदायिक और फासिस्ट शक्तियां उनको निशाने पर लेती लेकिन वे हार मानने वाले नहीं थे। 
हालांकि उनके दिखाये रास्ते पर ही आज बिजनौर टाइम्स और चिंगारी चल रहे हैं। इन दोनों अखबारों को भी अपने उसूलों सच और न्याय का साथ देने की कीमत चुकानी पड़ रही है। मुझे याद आ रहा है कि एक बार चैहान साहब ने भुखमरी के दौर में एक आदमी के रोटी चुराने के मामले को लेकर एक खबर छाप दी थी कि भूखा मानव क्या करेगा? इस पर तत्कालीन अधिकारी उनसे खफा हो गये थे। उनका आरोप था कि चैहान साहब जनता को अनाज चोरी और लूट के लिये भड़का रहे हैं। लेकिन चैहान साहब तो एक ज़िम्मेदार संवेदनशील और मानवतावादी पत्रकार का अपना कर्तव्य पूरा कर रहे थे। ऐसा ही शायद उनके जीते आज होता जब वे अन्याय अत्याचार और पक्षपात के खिलाफ खुलकर लिखते बोलते तो शासन प्रशासन के निशाने पर आने के साथ ही उस कट्टर सोच के लोगों की आंख की किरकिरी बन जाते जो सबको अपने हिसाब से हांकना चाहते है। वे बुल्डोज़र के विध्वंस के खिलाफ बहुत तीखा लिखते। वे माॅब लिंचिंग को लेकर सवाल खड़ा करते। वे चुनाव आयोग के पक्षपात पर चुप नहीं रहते और ईडी व सीबीआई के गलत इस्तेमाल पर जमकर आवाज़ उठाते चाहे इसके लिये उनको विपक्षी दलों का साथ देने वाला ही क्यों कहा जाता। वे न्यायपालिका के स्लैक्टिव निर्णयों पर भी कलम चलाने से खुद को नहीं रोक पाते चाहे इसकी कीमत उनको कोर्ट की मानहानि का मुकदमा झेलकर ही क्यों चुकानी पड़ती। वे अडानी अंबानी जैसे चंद पूंजीपतियों को सारे संसाधन बैंक लोन और देश की नवरत्न कंपनियां औने पौने दामों में सौंप दिये जाने का भी मुखर विरोध करते चाहे इसके लिये उनको उनके अंदर का कम्युनिस्ट एक बार फिर जाग जाने का उलाहना ही क्यों ना दिया जाता। 
वे कई वरिष्ठ वकीलों लेखकों मानवाधिकारवादियों और स्वतंत्र सेवा करने वालों को झूठे आरोप लगाकर जेल भेजने और सालों तक बंद रखने का हर हाल में विरोध करते चाहे इसके लिये उनको अरबन नक्सल का समर्थक ही क्यों ना बताया जाता। वे बारी बारी से सबके निशाने पर आते लेकिन उच्च जातियों के गरीबों पिछड़ों वर्ग के कमजोरों दलितों के पीड़ितों और अल्पसंख्कों के साथ होने वाले पक्षपात पर लगातार कलम चलाते रहते चाहे इसके लिये उनको सरकार के कोपभाजन का शिकार ही क्यों होना पड़ता। खास बात यह थी कि वे केवल कलम ही नहीं चलाते थे बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सड़क पर उतरकर आंदोलन करना और जेल भरो अभियान चलाना भी उनको आता था। आज वे होते तो यह कदम उठाने से भी नहीं हिचकते। बिजनौर ज़िले की शान मिशनरी पत्रकारिता के जनक और लेखक व चिंतक श्री बाबूसिंह चैहान का नाम आज यूपी ही नहीं पूरे देश में मान सम्मान कलम के ज़रिये समाजसेवा समाज सुधार और युग परिवर्तक के पहचाना जाता है। उनके सहित्य की चर्चा करें तो गिनाने के लिये बहुत लंबी सूची है। कहने का मतलब यह है कि चैहान साहब कोई साधारण पत्रकार लेखक या काॅमरेड नहीं थे। वे अगर आज होते तो उनको यह माहौल घुटनभरा लगता जिसमें पत्रकारिता मिशनरी से व्यवसायिक ही नहीं पूरी बेशर्मी और निर्लजता से चाटुकारिता नफ़रत और समाज को बांटने के काम में लगी है। उनको यह सब किसी कीमत पर सहन नहीं होता और वे इस पतन बेहयायी और समाज विरोधी पत्रकारिता का जमकर विरोध करते। चैहान साहब के लिये गोदी मीडिया का यह दौर असहनीय इसलिये भी होता क्योंकि वे जब जब टीवी चैनल और सरकार के गुलाम बन चुके अधिकांश हिंदी व क्षेत्रीय समाचार पत्र देखते पढ़ते तो उनको ऐसा लगता मानो आज भारत मंे सच लिखना बोलना और उस पर चर्चा करना अपराध बन गया है। जब हम उनके मार्गदर्शन में चिंगारी बि.टा. के संपादन में सहयोगी के तौर पर डेस्क पर काम करते थे तो कभी कभी वे अपने पुराने अनुभव साझा किया करते थे। कहते थे अगर वे चाहें भी तो भी किसी तानाशाह के पक्ष में नहीं लिख सकते। हालांकि उस दौरान भी अख़बार में वे आपातकाल के खिलाफ लिखने से बाज़ नहीं आये।

0 मैं चुप रहा तो मुझे मार देगा मेरा ज़मीर,

  गवाही दी तो अदालत में मारा जाउूंगा।।

 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

बुलडोजर पर सुप्रीम ऑर्डर

सुप्रीम आॅर्डर से रूकेगा बुल्डोज़र या सरकारें बाईपास निकाल लेंगी?
0 सबसे बड़ी अदालत ने मनमाना बुल्डोज़र चलाने के खिलाफ सख़्त रूख़ अपनाते हुए व्यापक दिशा निर्देश जारी कर दिये हैं। लेकिन जानकारों को शक है कि इसके बावजूद बुल्डोज़र आरोपियों के घर पर चलने से रूक जायेगा या सरकारें कोर्ट के अन्य आदेशों निर्देशों और रूलिंग के खिलाफ पहले की तरह बाईपास निकालकर संविधान के खिलाफ मनमर्जी चलाती रहेंगी और सर्वोच्च न्यायालय चुप रहेगा? ‘बुलडोज़र जस्टिस’ के नाम पर तबाही, बरबादी, अन्याय, मनमानी और अत्याचार का यह सिलसिला यूपी से शुरू हुआ था। देखते ही देखते यह कानून विरोधी अभियान भाजपा शासित दूसरे राज्यों में भी पहुंच गया। यूपी सरकार के प्रवक्ता ने फैसले पर यह कहते हुए अपना पल्ला अभी से झाड़ लिया है कि शीर्ष अदालत का आदेश दिल्ली के संदर्भ में है, उत्तर प्रदेश सरकार इसमें पार्टी नहीं थी।        
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      सुप्रीम कोर्ट ने सैक्शन 142 के तहत डायरेक्शन जारी करते हुए साफ कहा है कि किसी भी आरोपी ही नहीं अपराधी का भी सज़ा के तौर पर घर तोड़ना असंवैधानिक यानी गैर कानूनी है। ऐसा करना सरकारी शक्ति का गलत प्रयोग करना माना जायेगा। जबकि सरकार का काम कानून का राज कायम करना होता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि बिना मुकदमा चलाये किसी भी इमारत को नहीं गिराया जा सकता। फिर भी प्रशासनिक अधिकारी अगर मनमाने तरीके से पहले की तरह किसी का घर गिराते हैं तो वे व्यक्तिगत रूप से इस अपराध के ज़िम्मेदार होंगे और उनके वेतन से पीड़ित को हरजाना दिलाया जायेगा। ऐसे अफसरों को दंडित भी किया जायेगा। सरकार दोषी मिली तो उसको अवैध ध्वंस का मुआवज़ा देना होगा। अदालत का कहना है कि पुलिस प्रशासन जज नहीं बन सकता। न्याय करना और सज़ा देना कोर्ट का काम है। अवैध निर्माण को जुर्माना लगाकर नियमित भी किया जा सकता है। किसी आरोपी ही नहीं अपराधी के अपराध का दंड उसके बेकसूर पूरे परिवार को बेघर करके नहीं दिया जा सकता। 15 दिन का नोटिस देना नोटिस स्थानीय नगर निकाय के अनुसार होना नोटिस रजिस्टर्ड पोस्ट से भेजना मकान के अवैध हिस्से का उसमें सपश्ट उल्लेख करना आरोपी को अपना पक्ष रखने का मौका देना तीन महीने में पोर्टल बनाकर उस पर नोटिस साझा करना नोटिस की जानकारी ज़िलाधिकारी को देना डीएम द्वारा एक माह के भीतर नोडल अधिकारी नियुक्त करना अवैध निर्माण तोड़ने की वीडियो बनाना आदि आदि अनिवार्य किया गया है। 
नोटिस के दो बड़े मकसद होते हैं। एक तो यह कि आप विवादित जगह को छोड़कर सुरक्षित कहीं और चले जायें और अपना जीवन यापन का सामान टूटने से बचाने के लिये वहां से समय रहते निकाल लें। दूसरा मकसद यह होता है कि अगर कोई छोटा या मामूली कानूनी उल्लंघन हुआ है तो उसको मानचित्र के हिसाब से सही कर के भूल सुधार कर लें। सौ टके का सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस महत्वपूर्ण फैसले पर राज्य सरकारें अमल करेंगी या नहीं करेंगी? आप कहेंगे लागू नहीं करेंगी तो न्यायालय की मानहानि में फंस जायेंगी? यूपी सरकार के मंत्री ओमप्रकाश राजभर दावा किया है कि उनकी सरकार किसी की निजी सम्पत्ति पर बुल्डोज़र नहीं चलाती है। उनका यह भी कहना है कि सार्वजनिक सम्पत्तियों और अवैध कब्ज़ों पर बुल्डोज़र चलाया जाता है। यूपी सरकार का कहना है कि कोर्ट के इस आॅर्डर से अपराधियों के मन में कानून का भय पैदा होगा। साथ ही माफिया व संगठित अपराधियों पर लगाम लगाने में आसानी होगी। इन बयानों से आप समझ सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के बुल्डोज़र के खिलाफ फैसले से क्या बदलने जा रहा है? दरअसल कोर्ट ने खुद ही मनमानी करने वाली सरकारों को इसके लिये एक वैकल्पिक रास्ता दे दिया है। अदालत ने साफ कर दिया है कि अगर सार्वजनिक स्थान जैसे सड़क गली फुटपाथ रेलवे लाइन नदी या जल निकाय पर अनधिकृत निर्माण हो तो यह निर्देश लागू नहीं होंगे। 
सरकारें इन अपवादों का सहारा लेकर अपना ध्वस्तीकरण अभियान जारी रख सकती हैं? अधिकांश मामले तो कार्ट में उसके निर्देशोें का उल्लंघन करने को लेकर पहुंचेगे ही नहीं क्योंकि जिस का घर गिरा दिया गया और उस पर असली नकली आरोप लगाकर केस बनाकर उसे जेल भेज दिया गया हो वह कोर्ट कैसे जायेगा? निचली अदालते ऐसे मामलों में अकसर स्टे देती नहीं। बड़ी अदालतों में जाने को धन संसाधन और समय अधिक चाहिये जो सबके पास होता नहीं। सुप्रीम कोर्ट किसी समाजसेवी संस्था के शिकायत करने पर ऐसे व्यक्तिगत मामलों पर तब तक सुनवाई करता नहीं जब तक पीड़ित स्वयं कोर्ट में ना आये। इससे पहले बड़ी अदालत फर्जी एनकाउंटर के खिलाफ भी कई बार कडे़ दिशा निर्देश जारी कर चुकी है। लेकिन हम देख रहे हैं कि अब फर्जी एनकाउंटर पहले से अधिक हो रहे हैं। साथ साथ यूपी में तो हाफ एनकाउंटर जिनमें आरोपी के पैर में गोली मार दी जाती है। थोक में हो रहे हैं। लेकिन न तो कोई सुप्रीम कोर्ट जाता है न ही सुप्रीम कोर्ट इन मामलों में सू मोटो लेकर खुद किसी सरकार डीजीपी या प्रशासन से जवाब तलब करता है। 
     हमें आशंका है कि जिस तरह से बुल्डोज़र जस्टिस के नाम पर अन्याय कर राजनीति करके सरकारें अपना वोट बैंक मज़बूत कर बार बार बिना ठोस विकास रोज़गार और वास्तव में कानून व्यवस्था ठीक किये आराम से चुनाव जीत जाती हैं। उसके चलते वे अपना बुल्डोज़र अभियान किसी ना किसी तरह से चालू रखेंगी और कानून व संविधान का उल्लंघन ठीक वैसे ही करती रहेंगी जैसे कि वे धर्म परिवर्तन संवैधानिक होते हुए भी लव जेहाद के नाम पर उसको रोकने में काफी सीमा तक सफल रही हैं। सब देख रहे हैं कि कैसे सरकारंे उनके समर्थक और सत्ताधारी दल नफरत झूठ और करप्शन करके भी साफ बचके निकल जाते हैं जबकि विरोधी नेता सेकुलर हिंदू और अल्पसंख्यक दलित व गरीब बिना अपराध साबित हुए ही केवल आरोप लगने पर केस दर्ज होने और हिरासत में लेने के बाद सालों तक जेलों में बंद कर ज़मानत ना दिये जाने से अपना काम धंधा बंद होने और घर दुकान पर बुल्डोज़र चला दिये जाने से तबाह और बर्बाद हो रहे हैं।
*0 यहां मज़बू से मज़बूत लोहा टूट जाता है,*
 *कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है।*
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*