इवीएम पर विपक्ष की आशंकायें दूर क्यों नहीं करता चुनाव आयोग?
_0 किसी भी देश में लोकतंत्र के लिये चुनाव होना अनिवार्य है। साथ ही चुनाव की निष्पक्षता और सबको समान अवसर उपलब्ध कराना भी चुनाव आयोग की ज़िम्मेदारी होती है। इतना ही नहीं चुनाव की निष्पक्षता पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाये रखना सरकार का संवैधानिक उत्तरदायित्व है। लेकिन जिस मनमाने ढंग से पिछले दिनों सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से बाहर कर उनकी जगह एक वरिष्ठ मंत्री मनोनीत करने का कानून बनाया जिसमें पीएम और विपक्ष का नेता दूसरे दो सदस्य होते हैं, उससे यह प्रक्रिया शक के दायरे में आ गयी है। इसके साथ ही विपक्ष जिस तरह से इवीएम पर बार बार उंगली उठा रहा है, वह भी हमारे संविधान लोकतंत्र और चुनाव आयोग की ईमानदारी के लिये चिंता का विषय है।_
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार को पिछले दिनों इंडिया घटक के सबसे बड़े दल कांगे्रस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक पत्र लिखकर इवीएम और वीवीपेट पर चर्चा के लिये समय मांगा था। लेकिन चुनाव आयोग ने उनकी बात सुनकर चुनाव व्यवस्था में कोई आमूलचूल परिवर्तन तो दूर की बात है। उनको अपने विचार रखने का अवसर तक देना गवाराह नहीं किया। दरअसल इंडिया गठबंधन सभी इवीएम का सौ प्रतिशत वीवीपेट से मिलान की व्यवस्था चाहता है। वीवीपेट यानी वोटर वेरिफियेबिल पेपर आॅडिट ट्रायल वो सिस्टम है जिसमें मतदाता जब अपना वोट इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में बटन दबाकर डालता है तो पास में रखी एक अन्य मशीन वीवीपेट में यह दिखता है कि वोटर ने अपना वोट जिस प्रत्याशी को कास्ट किया वह उसी को गया। इवीएम को लेकर आज इंडिया विपक्ष या कांग्रेस ही नहीं एक समय था जब खुद भाजपा भी संदेह जताती थी।
आईटी से जुड़े उसके वरिष्ठ नेता नरसिम्हा ने तो इवीएम के खिलाफ बाकायदा लंबा अभियान चलाते हुए एक किताब तक लिख दी थी। इवीएम में गड़बड़ी होती है या नहीं इस बारे में तब तक कोई दावे से नहीं कह सकता जब तक कि इस आरोप को सही साबित नहीं कर दिया जाता। हालांकि जानकार दावा करते हैं कि जिस मशीन या चिप को नेट से नहीं जोड़ा गया है उसको हैक नहीं किया जा सकता लेकिन तकनीकी विशेषज्ञ इस मुद्दे पर अलग अलग राय रखते हैं कि किसी भी इलैक्ट्राॅनिक डिवाइस को इस तरह से सेट किया जा सकता है कि उसमें पड़ेे वोट इधर से उधर कर दिये जायें। अमेरिका इंग्लैंड और कई यूरूपीय देशों सहित यही वजह है कि विदेशों में चुनाव वापस बैलेट पेपर से कराये जाने लगे हैं। हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि इवीएम में गड़बड़ी हो रही थी लेकिन इतना ज़रूर है कि उन देशों ने अपनी जनता और सभी दलों को विश्वास में लेने और चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने को यह कदम उठाया है। इंडिया गठबंधन भी चुनाव आयोग से यही चाहता था कि वह वोटों की गिनती इवीएम में पूरी होने के बाद सौ प्रतिशत वीवीपेट का मिलान उसकी पर्ची गिनकर इवीएम से कराये। लेकिन चुनाव आयोग ने इस बारे में केवल एक जवाबी पत्र लिखकर अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है। लेकिन इससे इवीएम पर शक और भी गहरा गया है। उधर दिल्ली में जंतर मंतर पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों और समाजसेवियों ने एक इवीएम और वीवीपेट का प्रदर्शन करते हुए यह आरोप लगाया है कि इसमें गड़बड़ी संभव है। उन्होंने बाकायदा इवीएम में वोट डालकर यह दिखाया कि वोट किसी और को किया गया और वह किसी और चुनाव चिन्ह पर गया। उनका यह भी दावा है कि पहले वीवीपेट में दिये गये वोट की पर्ची 15 सेकंड तक दिखती थी लेकिन अब वह केवल 7 सेकंड ही दिखती है। उनका यह भी कहना है कि पहले वीवीपेट का शीशा सफेद पारदर्शी था जो अब बदलकर काला कर दिया गया है। पर्ची देखने के लिये वीवीपेट में लाइट जलती है। उनका दावा है कि ये सारे परिवर्तन चुनाव में धांधली करने का शक पैदा करते हैं। इनकी यह सब विवादित बातें भी चुनाव आयोग ने नकार दी है। लेकिन यह गड़बड़ी नहीं हो सकती या बदलाव क्यों किये गये इसका सार्वजनिक रूप से आयोग ने कोई स्पश्टीकरण देना ज़रूरी नहीं समझा। अगर इवीएम का इतिहास देखें तो यह बहुत पुराना नहीं है। 2010 में वीवीपेट का विचार पहली बार सामने आया। उस समय चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों के साथ बैठक कर चुनाव को अधिक पारदर्शी बनाने को विचार विमर्श किया था। वीवीपेट को पहली बार नागालैंड की नोकसेन विधानसभा क्षेत्र के चुनाव में 2013 में प्रयोग किया गया। इसके बाद अन्य क्षेत्रों में इसे चरणबध्द तरीके से इस्तेमाल कर बढ़ाते हुए 2019 के आम चुनाव में सभी बूथों पर लगाया गया। इवीएम की विश्वसनीयता को लेकर बार बार उठने वाले विवाद पर चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में 2018 में अपना जवाब दाखिल करते हुए दावा किया कि उसने भारतीय सांखिकीय संस्थान से इसका गणितीय व्यवहारिक और सटीकता का आंतरिक आॅडिट कराया है जिसमें यह पूरी तरह सही साबित हुयी है। इसके बावजूद विभिन्न राजनीतिक दल आयोग से वीवीपेट का 10 से लेकर 100 प्रतिशत ईवीएम से मिलान की अपनी पुरानी मांग पर कायम रहे। फरवरी 2018 में चुनाव आयोग ने विपक्ष द्वारा भारी विरोध करने पर वोटों की गिनती के बाद एक विधानसभा क्षेत्र से पर्ची डालकर आये नंबर की बूथ वाली केवल एक वीवीपेट का मिलान उसके साथ लगी इवीएम से कराने की व्यवस्था शुरू की। विपक्षी नेता चन्द्रबाबू नायडू द्वारा सुप्रीम कोर्ट मंे इसके खिलाफ जनहित याचिका दायर करने के बाद सबसे बड़ी अदालत ने एक की जगह पांच बूथ की वीवीपेट का मिलान इवीएम के साथ ज़रूरी कर दिया। लेकिन विपक्ष इससे भी संतुष्ट नहीं हो सका। उधर चुनाव आयोग ने विपक्ष के बढ़ते दबाव को देखते हुए मार्च 2019 में इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टिट्यूट से अपने स्तर पर मतदान के बाद 479 इवीएम का मिलान वीवीपेट से कराने पर पूरी तरह ठीक पाये जाने का दावा किया। लेकिन यह काम गोपनीय तरीके से केवल चुनाव आयोग की निगरानी में विपक्ष की गैर मौजूदगी में होने से विरोधी दल अपने विरोध पर अडिग रहे। इससे पहले एक बार चुनाव आयोग ने इवीएम पर शक करने वाले विपक्षी दलों को सार्वजनिक रूप से इवीएम को हैक करके दिखाने की चुनौती देते हुए इवीएम भी उनके सामने पेश की थी लेकिन उनको इवीएम छूने नहीं दी थी जिससे वे अपने आरोपों को सही साबित नहीं कर सके और आयोग की इस बैठक का बहिष्कार कर आये थे। चुनाव आयोग सारे वीवीपेट का मिलान सभी इवीएम से कराने की विपक्ष की मांग का तरह तरह के बहाने बनाकर जब जब टालमटोल करता है। तब तब इवीएम पर शक के बादल और गहरे मंडराने लगते हैं। अभी भी चुनाव आयोग विपक्ष की मांग का कोई तार्किक वाजिब या प्रमाणिक जवाब ना देकर यह दावा कर रहा है कि उसने अब तक रेंडमली 38156 वीवीपेट का मिलान इवीएम से खुद कराया है जिसमें गिनती समान और बिल्कुल ठीक पायी है। यही बात आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखते हुए कही थी कि उसने भारतीय संखिकीय संस्थान से 4000 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव की 20600 वीवीपेट का मिलान आज तक कराया जिसमें से एक में भी गिनती का अंतर नहीं आया है। चुनाव आयोग अपने बचाव में एक बात और बार बार दोहराता है कि बैलेट पेपर से चुनाव या फिर शत प्रतिशत वीवीपेट का मिलान इवीएम से कराने पर बहुत अधिक समय और कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। लेकिन यहां वह यह भूल जाता है कि आज भी वोट डाले जाने के बाद कई राज्यों में वोटों की गिनती एक एक माह बाद होती है। जिससे चुनाव परिणाम आने में दो चार दिन अगर और अधिक लग जायें या और कर्मचारी लगाने पड़ जायें तो इससे कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा बल्कि चुनाव की निष्पक्षता ईमानदारी और विश्वसनीयता बहाल होगी जो सबसे ज़रूरी है।
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*
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