Sunday, 29 March 2020

कोरोना: हाथ धो लो ना...

कोरोनाः हाथ जान से नहीं साबुन से बार बार धो लो ना!

0एन एस ओ यानी नेशनल स्टेटिस्टिक्स ऑफ़िस के एक सर्वे के अनुसार देश के 35.8प्रतिशत लोग ही खाना खाने से पहले हाथ साबुन से धोते हैं। कोरोना से बचने को सबसे ज़रूरी और सबसे आसान तरीक़ा जबकि यही बताया जा रहा है कि आप 21 दिन के लॉकडाउन के दौरान भी अपने हाथ बार बार साबुन से धोते रहें। इसकी वजह यह है कि जब जब आप अपने दरवाजे़ को खोलते हैं। थोड़ी देर को ही बाहर निकलते हैं। किसी अजनबी से सामान अपने घर पर ही खरीदते हैं। आप कोरोना से हर बार बचाव ज़रूर करें।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   21 दिन के लॉडाउन को अभी एक सप्ताह ही बीता है। लेकिन ऐसी ख़बरें थोक में आनी शुरू हो गयी हैं कि लोग इस देशबंदी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। दिल्ली मुंबई चैन्नई और देश के बड़े औद्योगिक नगरों से लाखों प्रवासी मज़दूर गरीब और कमज़ोर वर्ग के लोग बड़ी तादाद में अपने अपने गृह राज्यों यूपी बिहार और राजस्थान आदि के लिये पलायन कर रहे हैं। हालांकि सरकार ने कहा था कि जो जहां है वहीं रूका रहे। सबको उनके घर पर ही खाना पानी और अन्य आवश्यक सुविधायें पहुंचाई जायेंगी। लेकिन देखने मंे यह आ रहा है कि जो दुकानें कारखानें और उद्योग बंद हो गये हैं।

    उनके स्वामी अपना पीछा छुड़ाने को अपने यहां काम करने वाले मज़दूरों उनके परिवार वालों और अन्य स्टाफ को चंद रूपये पकड़ा कर चलता कर दे रहे हैं। दूसरी तरफ जिन आम लोगों कामगारों और श्रमिकों को कोरोना के बारे में ठीक से जानकारी नहीं है। या कोरोना के ख़तरे की व्यापकता गंभीरता और भयावहता का अनुमान नहीं हैं। वे कोरोना से अधिक अपनी भूख आजीविका और अपने घर सुरक्षित पहंुचने के लिये अपने कार्यस्थलों से पैदल ही 100 से 1000 कि.मी. के दुर्गम सफर पर निकल चुके हैं।

    हालांकि दिल्ली यूपी सहित कुछ अन्य राज्य सरकारों ने इन प्रवासी मज़दूरों के लिये उनके घर पहुंचाने के लिये चंद बसों की व्यवस्था बंदी के बावजूद की है। लेकिन इनकी विशाल संख्या के सामने ये साधन उूंट के मुंह मेें ज़ीरा साबित हो रहे हैं। बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने तो यहां तक मांग की है कि इन प्रवासी श्रमिकों को पलायन के लिये अंतिम अवसर देकर शेष को उनके कार्यस्थल पर ही रोका जाये। वर्ना 21दिन के लॉकडाउन का उद्देश्य ही नष्ट हो सकता है। दरअसल अचानक लॉकडाउन होने से सारा सिस्टम गड़बड़ा गया है। हालांकि यह कहना आसान नहीं है कि सरकार को ऐसा करना चाहिये था ।

    सरकार को वैसा करना चाहिये था। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि पूरा देश एक साथ बंद करने को चार घंटे का नोटिस बहुत कम समय लगता है। दूसरी बात आवश्यक खाने पीने के सामान की पूर्ति अचानक राज्यों की सीमायें सील हो जाने से जहां की तहां रूक गयीं। पुलिस यह तय नहीं कर सकी कि किसको रोकना है और किसको जाने देना है। इसका नतीजा यह हुआ कि जो जहां था। अचानक पीएम के देशबंदी के ऐलान से वहीं फंसकर रह गया। वैसे होना यह चाहिये था कि लोगों को अपने आवश्यक काम निबटाने और अपने कार्यस्थलों से घरों तक पहंुचने को कुछ दिन का समय दिया जाना चाहिये था।

    इसके साथ ही बाज़ार में आवश्यक सामान की पर्याप्त आपूर्ति उसकी लोगों द्वारा खरीदारी और गरीब लोगों को सरकारी सहायता मिलने के बाद उनको यह अहसास दिलाया जाना चाहिये था कि 21 दिन की बंदी के दौरान काम ना करने के बावजूद वे भूखे नहीं मरेंगे। लेकिन सरकार वनमैन शो होने की वजह से शायद न तो कैबिनेट की बैठक में यह चर्चा हुयी और ना ही विशेषज्ञों से नोटबंदी की तरह देशबंदी करते हुए राय ली गयी। इसका नतीजा आज हमारे सामने है। कुछ लोगों ने अपने घरों में 21 दिन की बजाये पूरे साल का खाने पीने का सामान बाज़ार से महंगे दामों में खरीदकर स्टॉक कर लिया है।

    जबकि देश के 74 करोड़ लोग जिनकी रोज़ की आमदनी 44 रू. है। वे अपने हाथ में पैसा ना होने से एक सप्ताह का कोटा भी घर में जमा नहीं कर सकें हैं। आशा की जानी चाहिये कि जो लोग अपने घरों को लौट रहे हैं। वे सब सकुशल अपने परिवारों तक पहुंच जायें। साथ ही जिनको कोरोना के डर से गांव वाले अपने गांवों में घुसने नहीं दे रहे हैं। उनका सरकार अपने स्तर पर स्वास्थ्य चैकअप कराकर उनके सैकड़ों मील पैदल चलकर आने को कारामद करेगी। इसके साथ ही संदिग्ध कोरोना संक्रमितों के लिये गांव कस्बे या नगर से बाहर अलग से रहने की व्यवस्था करके उनको 14दिन क्वारंटाइन में रखा जा सकता है।

    खैर यह समस्या तो एक दो दिन में सुलझ ही जायेगी। असली सवाल यह है कि सरकार ने21 दिन देशबंदी करने का जो अभूतपूर्व और एतिहासिक निर्णय लिया है। कुछ लोग कफर््यू ना लगने से उसका मज़ाक बनाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। मजबूरन सरकार को कफर््यू भी लगाना पड़ सकता है। इसके लिये हम लोग खुद ही ज़िम्मेदार होंगे। सरकार ने एक लाख 70 हज़ार करोड़ का राहत पैकेज भी दिया है। लेकिन वह लोगों तक कैसे और कब तक पहंुचेगा यह देखने की बात है। साथ ही यह भी समय बतायेगा कि यह कितना असरदार साबित होता है।

     इस दौरान हम सबको जो सबसे ज़रूरी बात समझनी है। वह यह है कि सरकार जो कुछ कर रही है। वह सब हमारी भलाई के लिये ही कर रही है। महामारी फैलने पर सबको अस्पतालों में भर्ती करना लगभग असंभव सा जा जायेगा। हमें यह भी जानना ज़रूरी है कि हम इस समय कोरोना की दूसरी स्टेज में हैं। अगर यह तीसरी यानी बेकाबू स्टेज में पहुंच गया तो फिर यह सरकार और जनता सबकी पकड़ से बाहर होकर महामारी का रूप का धारण कर सकता है। इस भयंकर स्थिति से बचने को हमें कुछ खास बातों का खयाल रखना है।

    एक तो गैर ज़रूरी घर से नहीं निकलना है। अगर घर की ज़रूरत का सामान खरीदने निकलें तो मंुह और नाक को कवर करने वाला एन 95 या थ्री प्लाई मास्क लगाकर निकलना है। साथ ही घर आने पर नोट या किसी दूसरी चीज़ का लेनदेन करने या दरवाज़ा खोलने बंद करने के बाद भी हर बार साबुन से हाथ बार बार धोते रहना है। ऐसा करना जान से हाथ धोने से अच्छा होगा। आपको यह जानकर हैरत होगी कि कोरोना से बचने के लिये ही नहीं खाना खाने से पहले और शौच से आने के बाद भी हमारे देश के एक तिहाई लोग ही साबुन से हाथ धोते रहे हैं।

     एन एस ओ के अनुसार ग्रामीण आबादी मंे25.3 प्रतिशत शहरी जनसंख्या में 56 प्रतिशत यानी कुल 35.8 परसेंट जनता ही भोजन से पहले साबुन से हाथ धोती है। इनमें से 60.4प्रतिशत लोग केवल पानी से हाथ धोते हैं। जबकि 2.7 प्रतिशत तो राख मिट्टी और रेत से हाथ साफ करते हैं। उनको यह तक नहीं पता कि इन चीज़ों से हाथ और गंदे और विषाणुयुक्त हो जाते हैं। जिस तरह से घर घर शौचालय बनने से आज देश के 60 करोड़़ से अधिक लोग खुल मेें शौच से मुक्त हो चुके हैं। यह समय है।

    जब हम कोरोना से लड़ाई जीतने के लिये आज से यह संकल्प लें कि केवल 21 दिन या तीन व छह माह ही नहीं आगे से कोरोना जैसी बीमारियों से जंग जीतने के लिये दिन में कई कई बार साबुन से हाथ धोने की आदत अपने जीवन में लगातार बनाये रखेंगे। हमें यह याद रखना होगा कि केवल सरकार हमारी रक्षा कोरोना से नहीं कर सकती। बल्कि इसके लिये समाज यानी जनता को भी सरकार के साथ हर हाल में कदम से कदम मिलाकर चलना होगा। जिसमें सबसे अधिक ज़रूरी 21 दिन के देशबंदी के दौरान और जब तक कोरोना का ख़तरा हमारे सर पर मंडराता रहेगातब तक यानी खासतौर पर मई जून तक और उसके बाद इस पूरे साल और बाद में आजीवन बार बार हाथ धोने की अच्छी आदत पर इसलिये अमल करना है क्योंकि जान से हाथ धोने की बजाये साबुन से हाथ धोना आसान सस्ता और जीवनदायक साबित होगा। ऐसा लगता है कि मशहूर शायर बशीर बद्र ने यह शेर कोरोना पर ही लिखा था-                                                

0 कोई हाथ तक ना मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से,

  ये नये मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो ।।         

Monday, 23 March 2020

जनता कर्फ़्यू

जनता कफ़्यू सफलः सरकार पब्लिक साथ साथ हैं!


0विश्व की जानी मानी पत्रिका इकोनोमिस्ट’ के अनुसार 1918-19 में स्पैनिश इन्फ्लुएंजा महामारी से अंग्रेज़ों के राज के दौरान भारत में एक करोड़ 80 लाख लोगों की मौत हुयी थी। आज जब हमारी आबादी बहुत बढ़ चुकी है तो यह आशंका थी कि शायद कम स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते हमें कोरोना वायरस की भारी कीमत चुकानी पड़े लेकिन संयोग से चीन ईरान और इटली से हमारा आना जाना बहुत कम होने की वजह से काफी कम लोग कोविड19 से ग्रस्त हुए हैं।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   22 मार्च को पीएम मोदी की अपील पर जनता कर्फ्यू की लगभग शत प्रतिशत एतिहासिक और इतिहास में अभूतपूर्व सफलता पूरी दुनिया को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ होगा कि जिस भारत सरकार और उसकी जनता को अब तक कोरोना वायरस से लड़ने के लिये कमज़ोर और कम जानकार समझा जा रहा था। वह आपदा आने पर कैसे कदम से कदम से मिलाकर पक्ष विपक्ष को छोड़कर और अपने सारे मतभेद भूलकर एक साथ मिलकर चट्टान की तरह खड़ी हो सकती है। हालांकि हमने 30 जनवरी को कोरोना का पहला मामला देश में सामने आने के बावजूद पूरी फ़रवरी कोई ठोस कदम इससे बचाव के लिये नहीं उठाया।

   विदेश से आये यात्रियों का क्वारंटाइन तो दूर हमने उनकी स्क्रीनिंग तक नहीं की। यहां तक कि 25 फरवरी को ट्रम्प के स्वागत के लिये एक लाख से अधिक लोग बिना मास्क लगाये ही स्टेडियम जा पहुंचे। इसके बाद 3 मार्च को कोरोना पर पीएम मोदी का पहला बयान आया। 9 मार्च तक हमने इटली और दक्षिण कोरिया के यात्रियों को बिना रोक टोक भारत आने की इजाज़त दे रखी थी। सही मायने में17 मार्च को राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री का संदेश और जनता का अपने स्तर पर अपनी सुरक्षा और सेहत के लिये स्वैच्छिक भारत बंद का आव्हान हमारी कोरोना को रोकने की सही और ठोस पहल थी।

   इसका असर यह भी हुआ कि गरीब अशिक्षित और कमज़ोर लोग दहशत में ज़रूरत का सामान खरीदने बाज़ार पर टूट पड़े। लेकिन उनकी इतनी क्षमता ही नहीं थी कि वे कुछ लंबे समय के लिये खरीदारी करके रख सकते। हालत यह हो गयी कि टेªन और बसें बंद होने से लोग जहां के तहां फंस गये। उनको यह अनुमान ही नहीं था कि यह लॉकडाउन आगे लंबा भी चल सकता है। सरकार की मजबूरी यह रही होगी कि अगर ऐसा पहले बताया जाता तो लोगों में और अधिक दहशत का माहौल बन सकता है। जबकि अपने घरों को लौट रहे प्रवासी मज़दूरों पर्यटकों और दूसरे लोगों के लिये रेलवे ने कुछ स्पेशल रेलें भी चलाईं।

   लेकिन यात्रियों की तादाद इतनी अधिक थी कि ये उूंट के मुंह में ज़ीरा साबित हो कर रह गयीं। हालांकि इससे पहले ही सरकार ने स्कूल कॉलेज सिनेमा हॉल बैंक्वट हॉल शॉपिंग मॉल पर्यटन स्थल और अन्य भीड़ वाले केंद्र बंद करके देर आयद दुरस्त आयद का परिचय दे दिया था। इस मामले मंे केरल सरकार की पहल सराहनीय रही जिसने केवल घोषणायें और अपील ना करके जनता के लिये एक पूरा पैकेज राहत के तौर पर दिया। उसने स्कूलों का भोजन घर घर पहुंचाना शुरू करके अन्य राज्यों के सामने एक मिसाल पेश की। वहां हालांकि जन स्वास्थ्य सुविधायें पहले ही अन्य राज्यों से बेहतर हैं।

   लेकिन फिर भी सड़कों के किनारे बेसिन लगाकर बार बार और जगह जगह हाथ धोने के व्यापक प्रबंध किये गये। इतना ही नहीं महाराष्ट्र सरकार ने तो लोगों के हाथ पर स्टांप लगाना शुरू कर दिया जिससे लोग घरों में क्वारंटाइन का गंभीरता से पालन करें। सबसे बड़ी समस्या हमारे देश में कोरोना परीक्षण के सही आंकड़े उपलब्ध ना हो पाना है। सरकारी व्यवस्था पर्याप्त नहीं है। जबकि निजी क्षेत्र में इसकी जांच का शुल्क 5000 काफी अधिक है। यही वजह है कि अभी तक लगभग 15000 लोगों का ही परीक्षण हो सका है। उधर दक्षिण कोरिया जैसे हम से बहुत छोटे देश में 3 लाख लोगों की कोरोना जांच हो चुकी है।

   इसके साथ ही हम यह मानकर चल रहे हैं कि कोरोना केवल विदेश से आये लोगों में ही हो सकता है। जबकि यह पहली स्टेज की बात थी। अब हम स्टेज तीन में पहंुच चुके हैं। जहां स्थानीय लोग भी बाहर से आये लोगों से जाने अनजाने सम्पर्क की वजह से कोरोना की ज़द में बड़ी तादाद में आ चुके होेंगे। पिं्रसटन यूनिवर्सिटी के डा. रमानन लक्ष्मी नारायण का कहना है कि अगर हमने तीन लाख लोगों का परीक्षण किया होता तो निश्चित रूप से कोरोना रोगियों की संख्या अब तक घोषित आंकड़ों के मुकाबले कम से कम तीस गुना पहंुच चुकी होती।

   उनका मानना है कि अब तक भारत में 10हज़ार लोग कोरोना का शिकार हो चुके होंगे। लेकिन पर्याप्त जांच ना कराने या सरकार द्वारा जबरन ना करने से यह आंकड़ा बहुत कम दिखाई दे रहा है। वैसे भी हमारे देश में वास्तविक आंकड़ों को छिपाना आम बात है। लेकिन हम इस मामले में कितने जागरूक हैं। इसका एक नमूना विदेश से लौटी और कोरोना पॉज़िटिव विख्यात गायिका कनिका कपूर और उसकी पार्टी में बड़ी तादाद में बिना जांच पड़ताल किये शरीक होने वाले हमारे बड़े बड़े नेता सेलिब्रिटी मंत्री और सांसद हैं। यह साफ है कि कोरोना भारत में प्रवेश कर चुका है।

    लेकिन इसका असर अमेरिका और इटली की तुलना में हमारे यहां दो से चार सप्ताह बाद पूरा नज़र आ सकता है। बस यही सबसे बड़ी ख़तरे की बात है। हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में दुनिया में लगभग सबसे कम यानी अपनी जीडीपी का मात्र 1.3 प्रतिशत खर्च करते हैं। हमारी सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत छोटी जर्जर और करप्शन का शिकार है। जबकि प्राइवेट इतनी महंगी और लोगों की आर्थिक हालत इतनी पतली है कि ये दोनों मिलकर महामारी व्यापक रूप से फैलने की आशंका पर 137 करोड़ लोगों के लिये नाकाफी ही नहीं बल्कि ना के बराबर है।

   हमारे यहां हालत यह है कि जिस प्रदेश के सरकारी मेडिकल कॉलेज में 2017 में सामान्य दिनोें में 63 बच्चे ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ देते हैं। उसका सीएम लाखों लोगों को रामनवमी मेला लगाने को एकत्र करने को अधिक सक्रिय है। यह आंकड़ा बहुत डरावना है। लेकिन सच है कि हमारे देश में एक लाख इंटेंसिव केयर बैड एक साल में लगभग 50लाख लोगों के काम आ पाते हैं। लेकिन कोरोना महामारी एक बार अगर फैल गयी तो इतने मरीज़ तो इसके एक सप्ताह में ही अस्पताल पहंुच जायेंगे।

   इकोनोमिस्ट ने यही चिंता जताई है कि भारतवासी इतने जागरूक नहीं हैं कि वे पहले से हालत खराब होने पर कोरोना से फेफड़ों में प्रदूषण को जब तक समझेंगे तब तक देर हो चुकी होगी। लेकिन फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम है। हमें यह भरोसा रखना चाहिये कि आज का भारत वह भारत नहीं है जहां चंद मुट्ठीभर अपवाद लोगों को छोड़कर बड़ी संख्या में लोग गौमूत्र झाड़पफूंक या तावीज़ गंडों से कोरोना से मुक्ति का हवा हवाई नुस्खा आज़माने को तैयार हों। ज़रूरत इस बात की भी है कि जो लोग क्वारंटाइन या आईसोलेशन के दौरान अपने घरों मंे खुद को बंद रखकर पूरे समाज और देश की भलाई में कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। उनको खाना दवाई या एमरजेंसी होने पर आवश्यक सुविधा हर हाल में सरकार समाज उपलब्ध कराते रहंे।                                            

0 तुम्हारे घर में दरवाज़ा है लेकिन तुम्हें ख़तरे का अंदाज़ा नहीं है,

  हमें ख़तरे का अंदाज़ा है लेकिन हमारे घर में दरवाज़ा नहीं है।।         

मुंबई का आईना

*मुंबई का आईना: बॉम्बे मिरर या सामना?*
*0 मुम्बई में घूमने को समंदर के किनारे जुहू चौपाटी, गेटवे ऑफ इंडिया और बड़े बड़े शॉपिंग मॉल के साथ ही एस्सेल वर्ल्ड व म्यूज़ियम से लेकर अनेक देखने लायक़ चीजें हैं लेकिन हमने मीडिया से जुड़े होने की वजह से वहां के मशहूर हिंदी और अंग्रेज़ी अखबारों में अधिक दिलचस्पी ली।*
-इक़बाल हिंदुस्तानी
         मार्च के पहले सप्ताह में पारिवारिक कारणों से बड़ी बेटी के परिवार से मिलने पत्नी के साथ पहली बार मुम्बई जाना हुआ। हालांकि उसके पास रहने को दो कमरों का काफ़ी बड़ा फ्लैट है। लेकिन नजीबाबाद के बड़े मकान के मुक़ाबले दो चार दिन तो हमें ऐसा लगा जैसे हम किसी छोटे से कमरे में नज़रबंद हो गए हों। थकान उतरी और थोड़ा घर से बाहर निकले तो सबसे पहले मुम्बई के अख़बारों को देखने पढ़ने और समझने की रुचि जागी। मुंबई वाले आधी रात के बाद सोते हैं तो सुबह भी देर से उठते हैं। लेकिन हमारी बेटी और दामाद ने हमारे मिज़ाज के हिसाब से रात को 10 बजे तक खाना खिला दिया तो हम 11 बजे तक सो गए। इसका नतीजा ये हुआ कि सुबह जल्दी उठ भी गये। फ़्रेश हुए योगा किया और मोबाइल के गूगल मैप से अकेले ही घूमने निकल गये। एक जगह समाचार पत्रों का काउंटर नज़र आया तो ऐसा लगा मुंह मांगी मुराद मिल गयी। हालांकि वहां मराठी के अख़बार ज़्यादा बिकते हैं। लेकिन हिंदी उर्दू और अंग्रेज़ी वालों की तादाद भी काफ़ी हो चुकी है। हो सकता है चेम्बूर के पास जिस गोवंडी इलाके में हम ठहरे हुए थे वहां स्लम एरिया होने और दलित मुस्लिम व ग़रीब मज़दूरों की आबादी अधिक होने की वजह से ऐसा हो। इतनी तरह के न्यूज़ पेपर एक साथ देखकर हम तो ऐसे हो गए जैसे किसी भूखे को बहुत सी स्वादिष्ट डिश परोस दी गयीं हों। ख़ैर हमने खुद को न रोकते हुए पहले दिन तो काउंटर पर मौजूद हिंदी के सभी और अंग्रेज़ी के खास खास व उर्दू का विख्यात इंक़लाब अख़बार खरीद लिया। घर लौटे तो पत्नी और बेटी ने हाथ में ढेर सारे पत्र देख हंसकर कहा कि आपको यहां भी अपनी ख़ुराक़ मिल गयी। हालांकि हमने कोशिश की कि सभी अख़बारों को न सिर्फ़ पूरा पढ़ें बल्कि तफ़सील से उनकी खूबियों बारीकियों और खास खास बातों को आपके सामने रखें लेकिन 6 माह के नाती सहल और बेटी दामाद से बातचीत बीच बीच में रिश्तेदारों की आमद उनके यहां रोज़ ही शाम को दावत और सैर सपाटे में ये मक़सद पूरी तरह हासिल शायद नहीं हो पाया है।
चेंबूर के एक चौराहे से गुज़र रहे थे तो मशहूर कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण की मूर्ति देखी। लिखा था-आर के लक्ष्मण यांची फ्रेंड ऑफ कॉमन मैन। पत्रकार होने की वजह से सर गर्व से ऊंचा हो गया। ऐसी मूर्तियां देश में कम ही होंगी। यहां आजकल मेट्रो-2 का काम नवी मुंबई में तेज़ी से चल रहा। लेकिन यहां भारतीय रेलवे की लोकल ट्रेन सर्विस सक्षम पर्याप्त बहुत बड़ी और किफ़ायती है। वैसे यहां टैक्सी भी महंगी नहीं है। नॉन एसी कार का किराया लगभग ऑटो के बराबर ही है। बेस्ट की बस सर्विस है लेकिन इस्तेमाल कम ही होता है। सबसे बड़ी बात दिल्ली की निजी ट्रांसपोर्ट में चीटिंग नहीं है। यातायात ही नहीं आम दुकानदार और मॉल वाले भी धोखा कम ही करते हैं। ये देखकर अच्छा लगा कि एक्सप्रेस हाइवे पर भी कोई पैदल रोड क्रॉस करे तो बड़े वाहन बिना रेड सिग्नल के खुद रुक जाते हैं। धर्म जाति और अमीर ग़रीब का तो नहीं लेकिन मराठी भाषी और यूपी बिहार के भय्यों को कुछ लोग अलग नज़र से कहीं कहीं देखते हैं।पाव भाजी और पोहा यहां यहां सस्ता भी है और अच्छा भी है। मिठाई में बुरहानपुर की मावे की जलेबी और अफ़लातून का जवाब नहीं। जबकि नान खटाई और बेकरी के एक से बढ़कर एक आइटम दूर दूर से लोग घर ले जाते हैं। आपसी भाईचारा ऐसा कि रंग वाले दिन लोग रोज़ की तरह घर से बाहर निकले कोई किसी पर ज़बरदस्ती रंग नहीं डालता। यहां तक कि मिलीजुली आबादी में एक तरफ रात को होली जली तो दूसरी तरफ 10 मीटर दूर उसी सड़क पर मुस्लिम अपनी मिलाद की मजलिस कर रहे थे। मौसम हमारे उत्तर भारत से हमेशा 10 डिग्री टेम्परेचर अधिक लेकिन शाम होते ही हवा इतनी सुहानी कि कूलर ए सी की ज़रूरत नहीं।
सबसे पहले हमारा सामना शिवसेना के मुखपत्र हिंदी दोपहर का सामना से हुआ। हालांकि इसका प्रसार मराठी संस्करण में बहुत ज़्यादा है। लेकिन पसंद करें या नापसंद हिंदी अंक भी इसके खूब बिकते हैं। शिवसेना के पुराने तेवर के हिसाब से सामना कट्टर मुस्लिम विरोधी उत्तर भारतीय विरोधी और घोर साम्प्रदायिक माना जाता रहा है। लेकिन वक़्त की नज़ाकत कहें या सियासी हालात का तकाज़ा, सामना अब ऐसा नज़र नहीं आता। ये संस्करण 1993 से छप रहा है। ये आमतौर पर 16 पेज का 3 ₹ में बिकता है। छात्रों को नियमित डिजिटल भविष्य की जानकारी के लिये इसमें मोफीद खान का बेहतरीन कॉलम छपता है। नया झरोखा, बेमिसाल विरासत, सफल प्रयोग, रोज़ की खोज , दिन विशेष, बस्ती बसेरा बिरादरी, इंफ्रा चेक, पुराने पन्नो से, सुजीत गुप्ता का कॉलम मुंबई आई, ये सोच नई नई है, डॉ रमेश ठाकुर का राजधानी लाइव और ललित गर्ग का कॉलम-3  कमाल का है। 9 मार्च का सामना का सम्पादकीय "सीने में सचमुच राम हैं न? फिर पीटते क्यों हो" ग़ज़ब का है। 11 मार्च को सामना ने अपने अग्रलेख "ये खेल परछाइयों का" में एक विधायक वाली मनसे की शेडो कैबिनेट की मज़ाक उड़ाई है। एक एडिटोरियल में सामना ने दिल्ली के दंगों को लेकर भाजपा सरकार को बुरी तरह लताड़ा है। इसने अनाथ हो गए एक मुस्लिम बच्चे के फोटो के साथ सवाल उठाया है कि इस मासूम का क्या कसूर था? शिवसेना का एक एमएलए और सभासद मुस्लिम भी हैं।
मुंबई के औसत हिंदी समाचार पत्रों में हमारा महानगर, यशोभूमि, प्रातःकाल, दबंग दुनिया और शायद सबसे पुराना 1934 में स्थापित नवभारत (नवभारत टाइम्स नहीं) है। सबके पेज लगभग 12 और मूल्य 5 ₹ है।
अंग्रेज़ी का मुम्बई मिरर 40 पेज का है। वैसे ये 3 ₹ का है लेकिन सियासी दलों की तरह इसका गठबंधन टाइम्स ऑफ़ इंडिया से है। ये दोनों मिलकर 11 की बजाए 7 ₹ में उपलब्ध हैं । लेकिन इसमें विज्ञापनों की भरमार है। इसमें शोभा डे का टॉक टाइम कॉलम बिंदास लिखे की पहचान है। टॉक बैक में गिव द एडिटर ए पीस ऑफ़ यौर माइंड लेखों पर पाठकों की कमेंट मांगी जाती है, अनवाइंड में घटनाओं और विचारों को जैसा का तैसा पेश किया जाता है , साई टेक में नई जानकारी शेयर की जाती है, फ़न ज़ोन में मनोरंजन , सिटी द इन्फॉर्मर, मुंबई स्पीक्स में स्थानीय उपलब्धि और महानगर की प्रॉब्लम होती है, चाय टाइम में पहेली व यू कॉलम में आस्क द एक्सपर्ट में डॉ महेंद्र वत्स पाठकों की सेक्स प्रॉब्लम का बेहिचक मनोवैज्ञानिक हल बताते हैं। मिड डे जागरण ग्रुप का है। 36 पेज का 4 ₹ का है। टैबलेट साइज़ है। इसमें भी पठनीय सामग्री कम एड बहुत अधिक हैं। डेली डोजियर, एम एस वर्ड, हिटलिस्ट, टीवी वेब, अप एंड एबॉउट, हैव यू हर्ड, द गाइड, हेल्थ और कॉर्पोरेट वाच, मैड वर्ल्ड में दुनिया की अजीबो गरीब जानकारी,ओपिनियन में ज़रा हटके लिखा जाता है। देवलोक में धार्मिक सामग्री होती है। गैलरी फीचर और फ़ूड इसके परम्परागत कॉलम हैं। मुंबई मेरी जान में मंजुल के चुटीले कार्टून होते हैं।टाइम पास में डॉ लव पर्सनल उलझनों को सुलझाते हैं। फ्री प्रेस जर्नल मात्र 2 ₹ का लेकिन 22 पेज का 1957 से छप रहा दैनिक अंग्रेज़ी अखबार है। इसकी खबरों का सलेक्शन तो शानदार है ही , लेख भी बड़े जानदार और तर्कसम्मत होते हैं। हिस्ट्री, दिस डे 25 इयर्स एगो, एटसेटरा, ग्लैम, मनी और एम एम आर इसके प्रसिद्ध कॉलम हैं। इसके साथ ही 8 पेज का सबसे महंगा यानी 10₹ का पेपर है-असाइनमेंट एब्रॉड टाइम्स, इसमें विदेशों के थोक में एड होते है। लेकिन इसी लिये ये खूब बिकता है। उर्दू दैनिक इंक़लाब 6 दशक से ज़्यादा पुराना और खास तौर पर मुसलमानों का चहेता है। मिड डे पब्लिकेशन यानी जागरण ग्रुप द्वारा कुछ साल पहले इसके अधिकार खरीद लिए जाने के बावजूद ये अपने परम्परागत पाठकों में अभी भी लोकप्रिय इसलिये बना हुआ है क्योंकि इसकी सम्पादकीय नीति से कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है। बाक़ी अख़बार और मैगज़ीन यहां की कई और भी हैं या होंगी ही लेकिन या तो वे हमें उपलब्ध नहीं हो सकी या फिर हम विस्तार से देख नहीं पाए इसलिये सरसरी तौर पर सिर्फ संक्षिप्त ही लिखा है।
*मैं मुसाफ़िर हूँ ख़तायें भी हुई होंगी मुझसे,*
*तुम तराज़ू में मग़र मेरे पाँव के छाले रखना..!*

Monday, 9 March 2020

दंगा नहीं बात करो...


दिल्ली दंगा: हिंसा से नहीं बातचीत से होगा हल!
0दिल्ली उत्तरपूर्व के दंगे में मरने वालों की लिस्ट 47 से उूपर पहुंच चुकी है। 200 से अधिक लोग घायल हैं। अरबों खरबों की सम्पत्ति जली है। ये सब दुखद है। लेकिन सुखद यह है कि प्रेमकांत बघेल जैसे लोगों ने अपनी जान दांव पर लगाकर मौजपुर में अपने 6 मुस्लिम पड़ौसियों को जलती बिल्डिंग से सुरक्षित निकाल लिया। ऐसे ही 3 मस्जिदें जलने के बावजूद मुसलमानों ने शिव मंदिर पर आंच नहीं आने दी। एकता और भाईचारे के ऐसे और भी कई मामले सामने आये हैं जो नफ़रत और हिंसा के अंध्ेारे में रोशनी की किरन हैं।     
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
   कुछ लोग यह समझ रहे हैं कि दिल्ली में दंगा केवल नेताओं के ज़हरीले बयानों और गंदी सियासत की वजह से हुआ। कुछ लोग मानते हैं कि दिल्ली में बाहर से वाहनों में भरकर दंगाई आये और हिंसा व लूट करके चले गये। अधिकांश लोगों को लगता है कि दिल्ली पुलिस की नाकामी नालायकी और मिलीभगत से दंगा इतना बढ़ा। उधर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनको लगता है कि लोगों के दिल दिमाग़ में पहले से ही घृणा अलगाव और हिंसा का बारूद भरा हुआ था जिसको सीएए के खिलाफ सड़क पर आंदोलन होने से जाम लगने की छोटी सी चिंगारी से अचानक भड़कने का बहाना मिल गया। 
    हो सकता है कि इन सब बातों में आंशिक सच्चाई हो। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या दंगों से किसी समस्या का समाधान हुआ है? आज तक देश में हज़ारों दंगे हो चुके हैं। क्या उनसे हिंदू मुस्लिम टकराव ख़त्म हो गया? क्या यह संभव है कि किसी एक वर्ग को हिंसा के बल पर पूरी तरह से देश से ख़त्म किया जा सकता है? क्या यह मुमकिन है कि सभी अल्पसंख्यकों को घुसपैठिया आतंकी और जेहादी बताकर देशनिकाला दे दिया जाये? क्या सभी मुसलमानों को डराकर धमकाकर ललचाकर या किसी भी तरीके से घर वापसी यानी हिंदू बनाया जा सकता है? 
   क्या सभी मुसलमानों को बंगाल की खाड़ी में डाला जा सकता है? क्या 20 करोड़ लोगों के एनआरसी एनपीआर या सीएए के बहाने नागरिक अधिकार छीने जा सकते हैं? उनके बड़े हिस्से को जेल या डिटेंशन कैंप में डाला जा सकता है? क्या उनका आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार करके देश और बहुसंख्यकों का भला हो सकता है? हमारा ही नहीं हर विवेकशील समझदार और निष्पक्ष इंसान का एक ही जवाब होगा-नहीं, कभी नहीं। दरअसल यह बहुत आसान होता है कि हम किसी कमी किसी अपराध या दंगे के लिये दूसरों पर आरोप लगाकर खुद बचकर निकल जायें। लेकिन वास्तविकता से मंुह चुराने से मसले का हल नहीं होता। 
   अगर हम गहराई से देखें तो पायेंगे कि दंगा तो उस रोग का एक लक्ष्ण मात्र है। जो हमारे समाज में बहुत पहले से और बहुत गहराई से अपनी जड़े जमा चुका है। क्या यह सच नहीं है कि हम सब स्वार्थी हैं? क्या हम सबमें साम्प्रदायिकता जातिवाद क्षेत्रवाद भाषावाद बेईमानी पक्षपात और हिंसा पहले से मौजूद नहीं है? मशहूर ठग नटवर लाल ने एक बार कहा था कि लोगों को मैं नहीं ठगता बल्कि उनके अंदर पहले से मौजूद लालच उनको मेरे हाथों ठगवाता है। ऐसे ही हम गौर से देखें तो आज हममें सही मायने में धर्म नैतिकता और मानवता खत्म हो चुकी है। 
     अगर नाजायज़ गैर कानूनी और समाज विरोधी लाभ हमें कहीं से किसी से और किसी कीमत पर भी मिले तो कम लोग होेंगे जो उसे लेने से मना करें। सवाल यह है कि जब दिल्ली मंे सीएए के खिलाफ सड़क जाम कर आंदोलन नहीं होता था तब दंगा क्यों हुआ था? क्या देश के अन्य हिस्सों में पहले दंगे नहीं हुए? हुए हैं लेकिन उनका बहाना वजह और हालात दूसरे थे। अगर सीएए और उसके खिलाफ नॉर्थईस्ट दिल्ली में रोड जाम कर कुछ लोगों के आंदोलन को ही वजह मानें तो सवाल यह भी उठेगा कि जब दिल्ली पुलिस की कमान केंद्र सरकार के पास है तो उसने समय रहते कानून व्यवस्था ठीक रखने को आंदोलनकारियों को बलपूर्वक वहां से हटा क्यों नहीं दिया? 
   इसके लिये सत्ताधारी दल के नेताओं मंत्रियों सांसदों विधायकों को कानून हाथ में लेने की धमकी क्यों देनी पड़ी? उनको अपने समर्थकों को हिंसा के लिये सड़क पर आने को क्यों कहना पड़ा? साथ ही लाख टके का सवाल यह भी है कि जब सीएए कानून केंद्र सरकार ने बनाया। उसके खिलाफ कुछ लोग आंदोलन कर रहे हैं तो सरकार उनसे बात क्यों नहीं करती? अपने ही नागरिकों से बात करके समस्या का समाधान करने में सरकार को अपमान क्यों लग रहा है? आप तो सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास का नारा लगाते रहे हैं। तो क्या सबका विश्वास इसी तरह से हासिल किया जायेगा? 
   अगर बात करने या पुलिस बल का प्रयोग करने से पूरी दुनिया में आपकी नाक कट जाती तो क्या अब दंगा होने से सरकार की विश्व स्तर पर किरकिरी नहीं हो रही है? यह अजीब बात है कि एक तरफ केंद्र सरकार अपने उन नेताओं के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने को तैयार नहीं है। जिन पर नफरत और हिंसा भड़काने को खुलेआम भाषण बयान और नारे देने का आरोप है। दूसरी तरफ एक गैर संवैधानिक धर्म के आधार पर पक्षपात करने वाले और अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का संदेह पैदा करने वाले कानून के खिलाफ शांतिपूर्वक आंदोलन करने वालों पर बहुसंख्यकों का विरोध करने का आरोप लगाकर कानून हाथ में लिया जा रहा है। 
    अच्छी बात यह है कि इस मामले में सीएए के समर्थकों के साथ ही देश के सभी वर्गों दलों राज्यों और सोच के लोगों में काफी बड़ा वर्ग इस कानून का विरोध भी कर रहा है। अभी भी समय है कि सुप्रीम कोर्ट के पाले मंे गंेद ना डालकर केंद्र सरकार सीएए विरोधियों से बातचीत शुरू करे और उनकी वाजिब शिकायतें शक और परेशानियां दूर करे और ज़रूरत हो तो कानून में आवश्यक संशोधन भी करे। नहीं तो देश में इस तरह के विवाद हिंसा और टकराव से ना केवल पूरी दुनिया में हमारे देश की बदनामी हो रही है बल्कि अशांति लगातार बने रहने से हमारा आर्थिक सामाजिक और आपसी सौहार्द का माहौल भी ख़राब हो रहा है।                                      
0 न इधर उधर की बात कर ये बता क़ाफ़िला क्यों लुटा,
  मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।          
  

Sunday, 1 March 2020

आप की जीत की सीख

आप की जीत से भाजपा कांग्रेस सबक़ लेंगी ?

0अमित शाह ने माना है कि दिल्ली के चुनाव में भाजपा की हार की कई वजह मंे से एक उसके कुछ नेताओं के वे विवादित बयान भी रहें हैं। जिनको जनता ने पसंद नहीं किया। लेकिन कांग्रेस ने अभी तक ऐसा कोई बयान नहीं दिया है। जिससे पता चले कि उसकी हालत दिन ब दिन बद से बदतर क्यों होती जा रही हैउधर क्षेत्रीय दलों को भी अपनी भ्रष्ट अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और परिवारवादी छवि पर केजरीवाल की जीत से विचार की ज़रूरत दरपेश है। 

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

    एक समय था। जब देश में गुजरात मॉडल की चर्चा होती थी। उस चर्चा में जहां विकास का दावा किया जाता था। वहां कुछ लोग 2002के दंगों को भी गुजरात के भाजपाई मॉडल के साथ जोड़कर देखते थे। कुछ लोग गुजरात को संघ की प्रयोगशाला का नाम देते थे। सच जो भी रहा हो। लेकिन इन सब बातों को जोड़कर2014 में गुजरात के सीएम मोदी को पीएम पद के लिये उम्मीदवार के तौर पर आम चुनाव मंे उतारा गया। यूपीए-2 की करप्ट बदनाम और किंकर्तव्य विमूढ़ सरकार मोदी के हाथों मात खा गयी। इसके बाद देश में बिहार के नीतीश कुमार मॉडल की भी चर्चा कुछ दिन चली।

    लेकिन गैर भाजपा विपक्ष ने क्योंकि उनको अपना पीएम पद का उम्मीदवार बनाने से दो टूक मना कर दिया। लिहाज़ा उनका विकास मॉडल आम चुनाव में परीक्षण न होने से परवान नहीं चढ़ा। इसके बाद दिल्ली में जब पहली बार2015 के चुनाव में केजरीवाल की आप ने 70में से रिकॉर्ड 67 सीट जीतकर दिल्ली का नया विकास मॉडल सामने रखा तो एक बार फिर नये विकास मॉडल की चर्चा कुछ दिन चली। लेकिन आम आदमी पार्टी के हरियाणा और पंजाब में मात खाने पर इस मॉडल को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया।

    इतना ही नहीं दिल्ली के नगर निगम और लोकसभा चुनाव में जब आप को भाजपा के हाथों पटख़नी दी गयी तो केजरीवाल का जलवा और भी कम हो गया। लेकिन आज जब केंद्र और एक दर्जन से अधिक राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगी दलों की सरकारें राज कर रहीं हैं। ऐेसे में दिल्ली में एक बार फिर आप की सरकार बन जाना उसका 70 में से 62सीटें जीतना और अपना वोटबैंक पहले की तरह 54 प्रतिशत बनाये रखना दिल्ली मॉडल को फिर से चर्चा में ले आया है।

    सवाल यह है कि क्या लोगों को धर्म जाति और भावनाओं की राजनीति से निकालकर उनकी भलाई के ठोस काम करके आज भी दिल्ली की तरह केंद्र और अन्य राज्यों में गैर भाजपा सरकार बनाई जा सकती हैतो जवाब है कि केंद्र में तो अभी राहुल गांधी और कांग्रेस के अकेले राष्ट्रीय विपक्षी दल होने के रूप में यह दो तीन दशक तक होता नज़र नहीं आता। जहां तक राज्यों का सवाल है तो उनको आप की तरह विकास और केजरीवाल की तरह ईमानदार होना होगा। मिसाल के तौर पर यूपी को देखें तो सपा बसपा जैसे दलों का जातिवाद परिवारवाद और करप्शन भाजपा को अभी अगले कई चुनाव तक ऑक्सीजन देने का काम करता रहेगा।

     साथ ही कांग्रेस सहित इन जातिवादी दलों ने मुसलमानों को वोटबैंक बनाकर उनका जो धार्मिक तुष्टिकरण किया है। उसके जवाब में बना हिंदू वोटबैंक विकास ना होने और कानून व्यवस्था खराब होने के बावजूद भाजपा के साथ बना रहेगा। ऐसे ही बिहार में लालू यादव और कांग्रेस एक तरह से चले हुए कारतूस की तरह हैं। बंगाल में ममता बनर्जी बेशक ईमानदार हैं। लेकिन मुसलमानोें के तुष्टिकरण के नाम पर भाजपा उनको भी घेरने में कुछ हद तक सफल रहेगी। यह अलग बात है कि ममता के जनहित के काम भाजपा को वॉकओवर नहीं देंगे।

     वहां टक्कर कांटे की रहेगी। उड़ीसा में नवीन पटनायक आंध््राा में जगनमोहन रेड्डी और महाराष्ट्र मंे शिवसेना गठबंध्न क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर भाजपा को सत्ता से दूर रख सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा आगे भी उग्र हिंदूवाद की मुस्लिम विरोधी राष्ट्रवादी राजनीति के बल पर राज्यों के चुनाव में बिना विकास के फिर से सरकार बना सकती हैक्या कांग्रेस अपनी भूलों गल्तियों और करप्शन से तौबा कर भाजपा से इतर विकास का कोई नया मॉडल जनता के सामने रखने की तैयारी करती नज़र आ रही है?

     जहां तक भाजपा का सवाल है तो उसके बड़े नेता अमित शाह भले ही सार्वजनिक रूप से यह मान रहे हों कि दिल्ली के चुनाव में उसके कुछ नेताओं को देश के ग़द्दारों कोगोली मारो सालों जैसे नारे नहीं देेने चाहिये थे। लेकिन साथ ही वे यह भी दोहराते हैं कि उनके वोट और सीटें दोनों बढ़ीं हैं। उनका यह भी कहना है कि वे चुनाव केवल सत्ता में आने को नहीं लड़ते बल्कि उनका मकसद इस बहाने अपनी विचारधारा जनता के सामने रखना होता है।

     इसमें कोई दो राय नहीं इस बार दिल्ली महानगर जैसे एक चौथाई से चींटी से राज्य के चुनाव में भाजपा ने अपनी सोच दुनिया के सामने रखने के लिये खुद को पूरी तरह से एक्सपोज़ करने में ज़रा भी संकोच नहीं किया। एक समय था। जब वह कांग्रेसमुक्त भारत की बात करती थी। इस बार दिल्ली जब कांग्रेसमुक्त हुआ तो वह खुद भी चुनाव इसी वजह से हार गयी। कांग्रेस ने खुद को चुनाव से अप्रत्यक्ष रूप से किनारे करके आप जैसे अपने नये और छोटे विरोधी की बजाये बड़े और ख़तरनाक शत्रु भाजपा को हराकर एक तरह से सही चाल चली है।

     जहां तक भाजपा और आप की लड़ाई का सवाल है तो आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि अन्य राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय दल केजरीवाल का विकास मॉडल अपनाकर भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाते हैं या फिर खुद भाजपा आप वाला विकास मॉडल अपनाकर आगे उसमें हिंदुत्व का तड़का लगाकर वापस उन राज्यों में भी विपक्ष से सत्ता छीनने का सफल प्रयोग करती हैजहां वह या तो अब तक सरकार बना नहीं पाई है या फिर एक बार सत्ता में आकर दूसरी बार चुनाव में गच्चा खा गयी थी।

    वैसे हमारा मानना है कि भाजपा अभी केंद्र में भी लंबे समय तक सत्ता में बनी रहेगी और गैर भाजपा या गैर एनडीए वाले राज्यों में भी वह अपनी रण्नीति बदलकर एक बार फिर देश के आधे से अधिक राज्यों में चुनाव जीतकर राज करेगी क्योंकि विपक्ष बिखरा हुआ भ्रष्ट परिवारवाद जातिवाद नाकारा भयभीत और मुस्लिम धार्मिक तुष्टिकरण का बिना मीडिया व बिना लोकतांत्रिक संगठन का प्राइवेट लिमिटेड दिवालिया कंपनी जैसा बन चुका है। आज देश को आप जैसी नई ईमानदार विकासशील और सबको साथ लेकर चलने वाली वामपंथी झुकाव की नई लोकतांत्रिक कांग्रेस की ज़रूरत है। जो अभी तक बनी नहीं है। जबकि बनने के बाद भी उसको भाजपा का विकल्प बनने में कई दशक लग सकते हैं।                               

0 मैं उस शख़्स को ज़िंदों में क्या शुमार करूं,

  जो सोचता भी नहींख़्वाब देखता भी नहीं।।         

राष्ट्रवाद नहीं राष्ट्र

राष्ट्रवाद: आरएसएस की सोच में आ रहा है बदलाव ?

0संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि हमें राष्ट्रवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहिये क्योंकि इससे नाज़ीवाद का भ्रम होता है। इससे पहले संघ के संयुक्त सचिव मनमोहन वैद्य ने कहा था कि राष्ट्र का मतलब भौगोलिक क्षेत्र नहीं बल्कि उस भूभाग के लोग हैं। उनका यह भी कहना था कि भारत राष्ट्र का अर्थ भारत की विभिन्नता है। ऐसा लगता है कि संघ अब हिंदू राष्ट्रवाद से संवैधानिक राष्ट्रवाद की तरफ़ आ रहा है। जिसमें देश के सभी नागरिक शामिल हैं।   

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   दरअसल राष्ट्रवाद का विचार 19 वीं शताब्दी का है। राष्ट्रवाद प्राचीन या मध््यकालीन भारत मंे कभी नहीं रहा। दुनिया में सबसे पहले फ्रांस के मशहूर चिंतक अरनेस्ट रेनन ने 1887 में राष्ट्रवाद पर एक किताब लिखी थी। इसमेें उन्होंन राष्ट्र शब्द को विस्तार से परिभाषित किया। हमारे संविधान मंे भी केवल एक बार राष्ट्र शब्द का प्रयोग हुआ है। इसमेें भी राष्ट्र शब्द हम भारत के लोग के संदर्भ में आया है। यानी राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिये भारत के लोगों में एकता भाईचारा और प्रेमभाव होना ज़रूरी है। शायद यही वजह है कि अब संघ ने हिंदू राष्ट्रवाद की बात छोड़कर उदार संवैधानिक राष्ट्र का संकल्प अपनाने का मन बनाया है।

    उसमें भी वह राष्ट्रवाद पर ज़ोर ना देकर केवल राष्ट्र शब्द पर ही नज़र रखेगा। संघ के दूसरे बड़े पदाधिकारी मनमोहन वैद्य की राष्ट्र की परिभाषा से भी कुछ ऐसी ही बात सामने आती है। इससे पहले संघ ने कहा था कि भाजपा का विरोध करना हिंदू का विरोध करना नहीं माना जा सकता। भागवत ने दिल्ली के दंगों के बाद देश और दुनिया में भारत की छवि ख़राब होने पर सामाजिक सौहार्द को हर हाल में बनाये रखने की बात भी कही है। यही वजह है कि रवींद्रनाथ टैगोर नेशनलिज़्म यानी राष्ट्रवाद की बजाये पैट्रियोटिज़्म यानी देशप्रेम की बात करते थे।

    उनका मानना था कि हम अगर अपने देश से प्रेम करते हैं तो इससे दूसरे देश से टकराव या हितों का विवाद होने की संभावना नहीं बनती। लेकिन राष्ट्रवाद हमें मानवता विश्व बंधुत्व और वसुध्ैाव कुटंुम्बकम की भावना के खिलाफ खड़ा करता है। गुरूदेव का कहना था कि जिस तरह से लोगों के अलग अलग सम्प्रदाय होना कोई चिंता की बात नहीं है क्योंकि वे कहां पैदा हुए उनके वश में नहीं था। लेकिन बाद में उनका सम्प्रदायवादी होना यानी केवल अपने सम्प्रदाय के हित सब सम्प्रदायों से उूपर रखना सारे विवाद की जड़ बन जाता है।

     इसी तरह राष्ट्र नहीं राष्ट्रवाद फ़साद की जड़ है। जो लोग संघ की गलत बातों के लिये आलोचना करते हैं। उनको संघ की इस सराहनीय पहल का स्वागत भी करना चाहिये। इसके साथ ही आशा की जानी चाहिये कि संघ अपनी इस समझ पर भी आगे फिर से विचार करेगा कि देश के सभी नागरिक हिंदू नहीं बल्कि भारतीय और हिंदुस्तानी हैं। जिस तरह से संघ ने यह सच और वास्तविकता स्वीकार की है कि शब्द राष्ट्रवाद में कोई बुराई नहीं है। लेकिन यह हिटलर के नाज़ीवाद का प्रतीक बन चुका है। इसलिये हम आगे से इसका प्रयोग नहीं करेेंगे। एक सत्य और है।

     वह यह कि कुछ लोग राष्ट्र और हिंदू का एक ही मतलब समझते हैं। जबकि ऐसा नहीं है। एक बार हमारे पीएम मोदी ने भी चुनाव के दौरान कहा था कि मैं हिंदू हूं और राष्ट्रवादी हूं। यानी वह खुद को हिंदू राष्ट्रवादी बता रहे थे। लेकिन यह पुरानी बात है। हम समझते हैं कि आज जब संघ ने स्वयं राष्ट्रवाद शब्द को छोड़ दिया है तो मोदी भी संघ से बाहर नहीं हैं। सही मायने में हमें खुले मन से यह देखना होगा कि कोई भी शब्द वास्तविक या शब्दकोष के हिसाब से नहीं बल्कि आम जनता में किस मायने में इस्तेमाल हो रहा है।

    मिसाल के तौर पर आप किसी से उसकी औक़ात पर सवाल करो तो वह बुरा मान जायेगा। लेकिन आप हैसियत की जानकारी करो तो वह अपना परिचय आराम से दे देगा। इसी तरह से देश में 137 करोड़ लोगों में हिंदू मुसलमान सिख ईसाई जैन पारसी बौध््द और अन्य धर्मों के लोग रहते हैं। इनमें सबसे अधिक लगभग 80 प्रतिशत हिंदू आबादी है। आप चाहें तो हिंदू धर्म की विविधता सहिष्णुता और उदारता की वजह से यह भी कह सकते हैं कि जो गैर हिंदू धर्मों में से किसी को नहीें मानता है और आस्तिक ही है। वह हिंदू माना जा सकता है। लेकिन कोई यह दावा नहीं कर सकता कि भारत में रहने वाला हर नागरिक हिंदू ही कहा जायेगा।

    सच तो यह है कि भारत में रहने वाले सब लोग भारतीय इंडियन एवं हिंदुस्तानी हैं। हमारा कहना है कि संघ ने जिस तरह से राष्ट्रवाद से तौबा की है। उसी तरह से उसे सब देशवासियों को हिंदू मानने की ज़िद भी छोड़ देनी चाहिये। अब समय आ गया है कि देश की एकता अखंडता और भाईचारे के लिये हम सब संविधान के अनुसार राष्ट्र की एकता उदारता और सर्व समावेश की भावना से मिल जुलकर आगे बढ़ें। अगर कोई सही मायने में देश की भलाई चाहता है तो वह देश के किसी भी वर्ग धर्म जाति या क्षेत्र के लोगों के खिलाफ ज़हर नहीं उगल सकता।

    कोई चाहे खुद को जितना भी देशभक्त और राष्ट्रवादी बताये लकिन अगर वह सबको साथ लेकर चलने को तैयार नहीं है। अगर कोई देश के लोगों के बीच किसी भी आधार पर पक्षपात भेदभाव अत्याचार और अन्याय करता है तो वह केवल जनविरोधी ही नहीं देशद्रोही देशविरोधी और राष्ट्र विरोधी भी है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि कोई सत्ता शक्ति या पूंजी के बल पर अगर यह समझता है कि वह अपने से इतर दूसरे लोगों को हमेशा दबाकर सताकर या डराकर रख सकता है तो यह कठिन ही नहीं लगभग नामुमकिन ही है। इससे समाज में असंतोष तनाव और अशांति बनी रहती है।

    यह भी सब जानते हैं कि जहां धर्मों जातियों व वर्गों के बीच हितों का टकराव और हिंसा होगी वहां कभी भी विदेशी निवेश नहीं होगा। साथ ही देशी संसाधनों से भी विकास पर्याप्त और सबका नहीं हो पायेगा। इसलिये आज ज़रूरत इस बात की है कि हम सब हिंसा तनाव टकराव अन्याय अत्याचार पक्षपात भेदभाव दंगों और घृणा का रास्ता छोड़कर आपसी संवाद से संविधान के दायरे में कानून के हिसाब से सबको साथ लेकर सबका विकास और सबका विश्वास हासिल कर देशहित में मिलजुलकर काम करें।                                 

0 कुव्वत  ओ  फ़िक्र ए अमल पहले फ़ना होती है,

  फिर किसी क़ौम की अज़मत पे ज़वाल आता है।।         

मुसलमानों का दुश्मन पठान

वारिस पठान: मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन!

0मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता वारिस पठान ने 15 करोड़ मुसलमानों को 100करोड़ हिंदुओं पर भारी बताकर जो ज़हर उगला है। शहला रशीद ने बिल्कुल ठीक कहा है कि वो ज़हर खुद बाक़ी के मुसलमानों को ही निगलना पड़ेगा। इससे पहले अकबरूद्दीन औवेसी ने भी एक बार 15 मिनट के लिये पुलिस और सेना बीच से हटाकर हिंदुओं मुसलमानों के बीच सड़क पर दो दो हाथ की चुनौती दी थी। इन जैसे मूर्ख नादान और बड़बोले मुस्लिम रहनुमाओं केे रहते मुसलमानों को बाहरी दुश्मन की ज़रूरत नहीं है।  

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

    इतिहास के जानकारों को पता है कि आज तक दुनिया के किसी भी देश में कोई अल्पसंख्यक वर्ग वहां के बहुसंख्यकांे को नाराज़ करके सुखी नहीं रह सका है। जहां तक भारत की बात है तो आज भी नफ़रत हिंसा और पक्षपात के इतने बुरे दौर में भी मुसलमानों के साथ बड़ी तादाद में निष्पक्ष उदार और सेकुलर हिंदू बिना हिचक साथ खड़ा हुआ है। दरअसल अच्छा दिखना और अच्छा होने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। जिस तरह से संघ परिवार ने हिंदुओं के एक बड़े वर्ग को साम्प्रदायिक कट्टर और असहिष्णु बनाकर केेंद्र और कई राज्यों में सत्ता ज़रूर हासिल कर ली है। लेकिन वह उनका भी बड़ा भारी अहित कर रहा है।

     ऐेसे ही मुसलमानों में एक वर्ग हमेशा से ऐसा रहा है। जो मुसलमानों के पक्ष में ऐसी ऐसी विवादित भड़काने वाली और जज़्बाती बातें बोलता है। जिससे मुसलमानों को सुनकर अच्छा तो लग सकता है। लेकिन इससे उनको कोई फायदा होने की बजाये भारी नुकसान ही होता है। मिसाल के तौर पर सबसे पहले तो हमें एआईएमआईएम के नाम पर ही एतराज़ है। मुसलमानों के नाम पर कोई सियासी पार्टी बनाने की क्या ज़रूरत थीओवैसी हैदराबाद की अपनी लोकसभा और तेलंगाना की चंद विधानसभा सीटें जीतने के लिये पूरे भारत के मुसलमानों को दांव पर लगाते रहते हैं।

     अगर मुसलमानों को शिवसेना जैसी पार्टी के नाम पर ऐतराज़ होता है तो उनको एमआईएम जैसी पार्टी बनाने का क्या नैतिक अधिकार हैसाथ ही अगर मुसलमानों को आरएसएस भाजपा और विहिप के नेताओं के घृणावादी बयान बुरे लगते हैं तो हिंदुओं को अकबरूद्दीन और पठान के बयान क्यों नहीं बुरे लगेंगेआज तो वो दौर है कि किसी देश में आप छोटी से छोटी अल्पसंख्यक आबादी को भी बहुसंख्यकवाद के बल पर लंबे समय तक दबाकर डराकर या हिंसा से चुप नहीं करा सकते। फिर ऐसे में पठान का यह कहना कि हम 15 करोड़ होते हुए भी 100 करोड़ पर भारी हैं।

     क्या यह पागलपन साबित नहीं करता कि इन 15 करोड़ के पास कोई खास ताक़त विशेष हुनर या जिन्नात को काबू करने की क्षमता है?अरे आज के दौर में कोई दंगल की कुश्ती हो रही है क्या जिसमें दोनों वर्गों के लोग आमने सामने खड़े करके लड़वाने की अहमकाना बात सोची जायेहमारा मानना तो यह है कि आज के मुसलमान की हालत आर्थिक शैक्षिक और सामाजिक तौर पर इतनी ख़राब है कि वो 15करोड़ हो कर भी देश के मात्र दो करोड़ सिखों से भी किसी अच्छे काम में मुकाबला नहीं कर सकता। आज शारिरिक ताकत का नहीं उच्च शिक्षा तकनीक पूंजी समाजसेवा और रण्नीति का दौर है।

     जिसमें मुसलमान दुनिया की दूसरी लगभग सभी कौमों से पिछड़ा हुआ है। पठान और औवेसी को यह पता नहीं कि आज का मुसलमान इस बात को समझने लगा है कि उसको अब तक भड़काने वाली सर्वश्रेष्ठता और आत्मश्लाघा वाली कोरी बयानबाज़ी से मूर्ख बनाया गया है। उसको वोटबैंक बनाकर इस्तेमाल किया गया है। धार्मिक कट्टरपंथियों और मुसलमानों की सियासत के ठेकेदारों ने बाकायदा एक कॉकस बनाकर अल्पसंख्यक मुसलमानों को गरीब जाहिल और धर्मभीरू बनाये रखा है। लेकिन वह अब इनके चंगुल से बाहर आने लगा है।

    शाहीन बाग़ का मुस्लिम महिलाओं का सीएए एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ दो माह से चल रहा कामयाब धरना इसकी जीती जागती मिसाल है। जिसको मुस्लिम धार्मिक रहनुमाओं ने गैर ज़रूरी और गुमराह लोगों का आंदोलन बताया था। एक बात मेरी समझ में आज तक नहीं आई कि अगर हिंदू वोट बैंक की सियासत गलत है तो मुस्लिम वोटबैंक की सही कैसे हो सकती हैअगर हिंदू साम्प्रदायिकता संविधान के खिलाफ है तो मुस्लिम फिरकापरस्ती धर्मनिर्पेक्षता के लिये ठीक कैसे हो सकती है?

    अगर हिंदू धर्म का दख़ल सरकार प्रशासन और कोर्ट में गैर कानूनी है तो वह मुस्लिम बहुल मुल्कों और यहां तक कि सेकुलर भारत के कश्मीर में कैसे उचित ठहराया जाता रहा है?अगर हिंदू कट्टरपंथियों की हिंसा गलत है तो तालिबान अलकायदा या माओवादियों की हिंसा सही कैसे बताई जा सकती हैकहीं ऐसा तो नहीं हम सबके इसी दोगलेपन दो पैमानों और पूर्वाग्रह की वजह से एक दूसरे की साम्प्रदायिकता घृणा और हिंसा औचित्य पाकर अंदर ही अंदर देश और दुनिया को खोखला बना रही हो?

    अंत में यही कहा जा सकता है कि जिस तरह से शुगर के मरीज़ को वह डाक्टर बहुत अच्छा लगता है जो उसको सभी तरह की दवायें बंद कर मन माफ़िक मीठा खाने की छूट दे देता है। लेकिन याद रहे ऐसे नीम हकीम का मरीज़ बहुत जल्दी यमराज के हत्थे चढ़ जाता है। इसी तरह के नीम हकीम ख़तरा ए जान वारिस पठान जैसे मुस्लिम समाज के दोस्तनुमा दुश्मन हैं जो दवा के नाम पर ज़हर परोस रहे हैं। हम तो कहते हैं कि हाथ में लेकर हाथ चलेंगे हिंदू मुस्लिम साथ चलेेंगे।                             

0 मेरे  बच्चे  तुम्हारे  लफ़्ज़ को रोटी समझते हैं,

  ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।।