देश तो 68 साल से आज़ाद है समाज कब आज़ाद होगा ?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0 हम सब पूंजी और शक्ति के गु़लाम बने हुए हैं!
आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस को लगभग आधी सदी तक जनता ने केंद्र और अधिकांश राज्यों में लगातार सत्ता देकर यह आशा की थी कि वह भारत को एक ऐसा देश बनायेगी जिसमें संविधान में लिखी समानता शिक्षा चिकित्सा रोज़गार सम्मान गरिमा निष्पक्षता और विकास के साथ सबको न्याय मिलेगा लेकिन धीरे धीरे कांग्रेस ने उस कहावत को चरितार्थ किया कि सत्ता भ्रष्ट बनाती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण भ्रष्ट। इसके बाद जब 1975 में पूर्व पीएम श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार बचाने और तानाशाही थोपने को देश में आपातकाल लगाया तो एक तरह से कांग्रेस के ताबूत में खुद ही आखि़री कील ठोंक दी। इसके बाद कांग्रेस का जिन राज्यों से सफाया होता गया वहां वह दोबारा सत्ता मेें नहीं लौटी।
हालांकि केंद्र में जनता पार्टी या जनता दल की खिचड़ी सरकार बार बार बनने से वहां कोई उचित विकल्प न उपलब्ध न होने से कांग्रेस तमाम भ्र्र्र्र्रष्टाचार और मनमानी के आरोपों के बाद भी बार बार सत्ता में वापसी करती रही लेकिन आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है इस कहावत को लागू करते हुए लोगों ने गुजरात के सीएम मोदी को विकास का पर्याय मानते हुए बड़ी बड़ी उम्मीदों के साथ 20 साल बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत की सत्ता सौंप दी। अभी एक साल ही पूरा हुआ है कि मोदी से भी जनता का मोह भंग होने लगा है। हालांकि इसका एक लिटमस टेस्ट दिल्ली राज्य के छोटे से चुनाव में हो चुका है जहां 2014 में भाजपा ने सातों लोकसभा सीट जीतीं थीं लेकिन एक साल बाद ही बीजेपी की मोदी सरकार से लोगों का ऐसा मोहभंग हुआ कि वहां विधानसभा की 70 मंे से 67 सीट नई बनी आम आदमी पार्टी लेने में कामयाब रही जबकि लोगों को बड़े बड़े सपने दिखाने वाली और मंत्रियों व सांसदों के साथ संघ परिवार की पूरी फौज चुनाव प्रचार में पानी की तरह पैसा खर्च करने वाली भाजपा मात्र 3 सीट ही जीत सकी।
इतना ही नहीं उसकी सीएम पद की उम्मीदवार किरण बेदी भी चुनाव हार गयीं। इस हार से मोदी और उनकी भाजपा ने कोई सबक नहीं सीखा और वे आज भी आप की केजरीवाल सरकार को तरह तरह से अपनी सत्ता और पुलिस के बल पर परेशान करने में लगी है। मोदी भूल रहे हैं कि इसका भी उल्टा असर होने जा रहा है। ऐसे ही इस साल के अंत में बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव को लेकर मोदी ने अपनी पहली ही बिहार रैली में वहां के लोकप्रिय और विकास का प्रतीक बन चुके सीएम नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत हमला करके उनके डीएनए में ही गड़बड़ बताकर राजनीति के दिग्गज नीतीश और लालू यादव को बिहार की अस्मिता से इस मुद्दे को जोड़ने का वैसा ही अवसर दे दिया है जैसा खुद मोदी गुजरात में अपने उूपर लगने वाले आरोपों को पूरे गुजरात का अपमान बताया करते थे।
भाजपा बिहार में सीएम पद का अपना प्रत्याशी घोषित न करके मोदी को आगे कर वही गल्ती दोहरा रही है जो वह दिल्ली में अपने परंपरागत और पुराने राज्य नेतृत्व को किनारे रखकर एक बार कर चुकी है। अब तक भाजपा दिल्ली में आप की बंपर जीत और अपनी शर्मनाक हार को अपवाद बताकर जनता को गुमराह करने में किसी हद तक कामयाब रही है लेकिन सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज चौहान पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगने के बावजूद मोदी ने चुप्पी साध रखी है उससे ताज़ा हुए अमेरिकी एजंसी के एक चैनल सर्वे में उनकी साख तेजी से गिर रही है यह अलग बात है कि केंद्र में कोई मज़बूत विकल्प और उनकी टक्कर का नेता विपक्ष मौजूद न होने से चुनाव होने पर अभी भाजपा की हार का ख़तरा सामने नहीं दिख रहा है लेकिन पांच साल तक यह सिलसिला अगर यूं ही बढ़ता रहा तो फिर केजरीवाल की तरह कोई नौसीखिया अगर मोदी के नेतृत्व को चुनौती देने लगा तो उनके लिये मुसीबत खड़ी हो सकती है।
मोदी अपने बड़े वादों में से एक भी पूरा नहीं कर पाये हैं उल्टे भूमि अधिग्रहण कानून से किसान विरोधी और लेबर एक्ट रिफॉर्म बिल से मज़दूर विरोधी उनकी छवि बन चुकी है। गैस सब्सिडी खातों में और हर कन्या स्कूल में शौचालय बनवा देने का उनका काम कोई बड़ बदलाव नहीं माना जा रहा है। बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार अपनी जगह मौजूद है जबकि महंगाई इंटरनेशनल मार्केट में तेल की कीमते गिरने से किसी सीमा तक काबू में है जिससे इसका श्रेय भी उनको नहीं दिया जा सकता। साम्प्रदायिकता और पक्षपात की एक के बाद एक घटनायें सामने आने से उनका न्याय सबको तुष्टिकरण किसी का नहीं नारा भी मज़ाक बनकर रह गया है। हम बात कर रहे थे आज़ादी की।
ऐसा क्या हुआ कि 15 अगस्त 1947 को जो सपना इस देश के लोगों ने मिलकर देखा था कि जब गोरे अंग्रेज़ इस देश से चले जायेंगे तो हम सब मिलकर एक आदर्श भारत बनायेंगे। उसको बिखरने में कुछ ही साल लगे। सच यह है कि वही कहावत चल निकली कि भाग रे गुलाम फौज आई और गुलाम कहता है कि मैं भाग कर क्या करूंगा मैं तो अब भी गुलाम और तब भी गुलाम। शायद ऐसा ही कुछ हमारे देश के अधिकांश लोगों के साथ हुआ है। खुद सरकार के आंकड़े बता रहे हैं कि देश के 80 प्रतिशत लोग 20 रुपये रोज़ से कम पर गुज़ारा कर रहे हैं। आम आदमी की मौत कुत्ते बिल्ली की तरह हो जाती है। पूंजीवाद और निजिकरण के दौर में इलाज से लेकर पढ़ाई तक आम आदमी और खास आदमी के दो वर्ग बन गये हैं। चंद अमीर और ताकतवर लोगों का इंडिया आगे बढ़ रहा है लेकिन अधिकांश गरीब और कमज़ोर लोग दूसरे दर्जे के नागरिक सा जीवन जी रहे हैं।
सांसद विधायक मंत्री गवर्नर जज और बड़े अधिकारी जुर्म करके भी अपनी वीवीआईपी हैसियत के बल पर अकसर बच जाते हैं जबकि आम आदमी पैसा और पहंुच न होने से कई बार मात्र झूठे आरोप लगने से जेल चला जाता है और उसकी ज़मानत तक सालों तक नहीं होती और ज़मानत हो भी जाये तो ज़मानती तक वो देने में नाकाम रहता है। हम सरकार और सत्ताधरियों को तो बेईमान और धोखेबाज़ बताते हैं लेकिन यह कड़वा सच नहीं कबूल करते कि हमारा देश तो 1947 में आज़ाद हो गया था लेकिन हमारा समाज आज भी जाति धर्म पैसा शक्ति साम्प्रदायिकता अंधविश्वास बेईमानी माफिया धोखाधड़ी मिलावट लूट चोरी डकैती भ्र्र्र्र्र्रष्टाचार बलात्कार कालाधन महंगाई कट्टरवाद आतंकवाद माओवाद प्रदूषण अशिक्षा भूख लालच नाकारापन और तमाम सामाजिक बुराइयों का गुलाम बना हुआ है।
जब तक समाज नहीं सुधरेगा तब तक सरकार चलाने वाले भी नहीं सुधर सकते क्योंकि हमारे जनप्रतिनिधि भी इसी समाज से चुनकर जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि आम आदमी कल गोरे अंग्रेज़ो का गुलाम था और आज काले अंग्रेज़ो का गुलाम बन गया है। ऐसा लगता है कि एक और स्वतंत्रता संग्राम की ज़रूरत है। जब तक राजनीतिक के साथ सामाजिक, आर्थिक और मानवीय बराबरी की आज़ादी नहीं मिलेगी तब तक देश के आज़ाद या गुलाम होने के कोई मायने आम आदमी के लिये नहीं माने जा सकते। दुष्यंत ने ठीक ही कहा है-
0 कहां तो तय था चराग़ा हर एक घर के लिये,
कहां चराग़ मयस्सर नहीं यहां शहर के लिये।।
Saturday, 22 August 2015
समाज कब आज़ाद होगा?
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