Monday, 28 July 2025

धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद

*धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद,* 
*इनपर क्यों हो रहा है विवाद?*
0 भारत के कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने राज्यसभा में बताया है कि संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद शब्द निकालने का सरकार का फिलहाल कोई इरादा नहीं है। कानून मंत्री समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन के सवाल का लिखित जवाब दे रहे थे। उन्होंने सदस्यों को आश्वस्त किया कि ऐसा करने के लिये मोदी सरकार ने कोई संवैधानिक या कानूनी प्रक्रिया भी शुरू नहीं की है। साथ ही उनका यह भी कहना था कि इन शब्दों पर राजनीतिक और सार्वजनिक मंचों पर चर्चा चलती रहेगी। आपको याद दिलादें कि आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होशबोले ने कुछ समय पूर्व यह कहकर चर्चा शुरू की थी कि इन शब्दों को संविधान में इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान गलत तरीके से जोड़ा था।  
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      संविधान विशेषज्ञ जानते हैं कि हमारा संविधान मूल रूप से सेकुलर और सोशलिस्ट ही है। संविधान के तमाम अनुच्छेद उपबंध और धारायें इस तथ्य को बार बार परिभाषित करते हैं। इसकी भावना और आत्मा पूरी तरह धर्म जाति क्षेत्र रंग नस्ल भाषा मत आस्था बोली विचारधारा अमीर गरीब शिक्षित अशिक्षित और सबसे बड़े पद पर बैठे नागरिक से लेकर आम आदमी तक सबके लिये बिना पक्षपात बिना भेदभाव और बिना पूर्वाग्रह के एक से अधिकार समान अवसर गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार और वोट देने से लेकर चुनाव लड़ने तक का बराबर हक देने की गारंटी देती है। यह सच है कि संविधान की प्रस्तावना में 1976 में इंदिरा सरकार ने एमरजैंसी के दौरान 42 वां संशोधन करके ये दोनों शब्द संविधान लागू होने के लगभग 25 साल बाद अलग से जोड़े थे। इन शब्दों को पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ तो कैंसर तक बता चुके हैं। जबकि केंद्रीय मंत्री शिवराज चैहान ने इन शब्दोें की तीखी आलोचना की थी। इसी को बहाना बनाकर इन शब्दों को संविधान से निकालने के लिये संघ परिवार से जुड़े कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। लेकिन सबसे बड़ी अदालत ने इस मांग को ठुकरा दिया। कोर्ट का कहना था कि चूंकि हमारे संविधान का हर पेज हर लाइन और हर शब्द सेकुलर और सोशलिस्ट होने की पुष्टि पहले ही करता है तो इन शब्दों को बाद में जोड़े जाने से कोई असंवैधानिक गैर कानूनी या जनविरोधी काम नहीं हुआ है।
       याचिका में दलील दी गयी थी कि ये शब्द संविधान सभा ने नहीं अपनाये क्योंकि इनका समावेश पूर्वव्यापी था, यह कुतर्क भी दिया गया कि आपातकाल में जब ये शब्द संविधान में शामिल किये गये, उस समय लोकसभा भंग हो चुकी थी लिहाज़ा यह संशोधन जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते और इन शब्दों से आर्थिक स्वतंत्रता व धार्मिक तटस्थता प्रतिबंधित होती है। दरअसल यह सब संघ परिवार और भाजपा सरकार का कोरा झूठ व दुष्प्रचार है क्योंकि वे देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। वे देश में खुलकर 2014 के बाद से पूंजीवादी नीतियां भी लागू कर रहे हैं। उनको हर समय यह खतरा सताता रहता है कि उनको असली वैचारिक चुनौती कांग्रेस या सपा टीएमसी एनसीपी शिवसेना जेएमएम या आरजेडी जैसे क्षेत्रीय दलों से नहीं बल्कि कम्युनिस्टों से मिल सकती है। सबको पता है कि वामपंथी ही सही मायने में समाजवाद और धर्मनिर्पेक्षता के वास्तविक पैरोकार हैं। वे भले ही भारत में धर्म व जाति की राजनीति के सामने फिलहाल कमज़ोर पड़ गये हैं लेेकिन आने वाले समय में उनका समानता धर्मनिर्पेक्षता और सबको शिक्षा सबको काम का नारा ही हिंदुत्व के लिये सबसे बड़ी चनौती बन सकता है। संघ परिवार का यह भी आरोप रहा है कि धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर अब तक सेकुलर दलों ने केवल अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण किया है। लेकिन वह यह नहीं बताता कि वह खुद बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता की राजनीति करके कौन सी सही और सच्ची धर्मनिर्पेक्षता का पालन कर रहा है?
       वह अपने ही दिये गये नारे पंथनिर्पेक्षता वसुधैवकुटंबकम और न्याय सबको तुष्टिकरण किसी का नहीं से भी कोसों दूर है। आज भाजपा के राज में कानून के दो पैमाने साफ नज़र आते हैं। आज भी संविधान पर चलने उसकी बार बार शपथ लेने और संविधान दिवस मनाने के बावजूद व्यवहार में सरकारें एक वर्ग के साथ खुलेआम पक्षपात करती नज़र आती हैं। आप किस धर्म को मानेंगे क्या खायेंगे क्या पहनेंगे किससे प्यार करेंगे किससे शादी करेंगे और क्या सोचेंगे यह सब सरकार तय करने लगी है। ऐसे पक्षपातपूर्ण और संवैधनिक स्वतंत्रता को खत्म कर देने वाले कानून बनाये जा रहे हैं जिससे कल आप अगर किसी खास विचार धारा पार्टी या सोच को व्यक्त करेंगे तो भी महाराष्ट्र के नये अर्बन नक्सल कानून के तहत आपको जेल भेजा जा सकता है। सरकार की आलोचना करने मात्र से कई लोग कई कई साल से बिना ज़मानत जेल में पड़े हैं जबकि संघ भाजपा से जुड़े कई लोग प्रथम दृष्टि में अपराध के दोषी लगने के बावजूद या तो थाने में रपट तक नहीं होने देते या हल्की धाराओं में एफआईआर मजबूरी मंे करनी पड़ जाये तो बाद में तरमीम कर फाइनल रिपोर्ट से लेकर विरोधाभासी चार्जशीट गवाहों को तोड़ना सबूतों को नष्ट करना और अंत में न्यायपालिका के कुछ जजों पर दबाव बनाकर अपने लोगों को बरी करा लेना का विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के कुछ सीनियर वकील अकसर आरोप लगाते रहते हैं।
        अटल बिहारी की सरकार के दौरान संविधान समीक्षा आयोग भी बना था। एक बार बिहार चुनाव से पहले संघ प्रमुख संविधान में दिये गये आरक्षण की समीक्षा की बात कहकर राजनीतिक विवाद भी खड़ा कर चुके हैं। 2024 के आम चुनाव से पहले जब भाजपा ने इस बार चार सौ पार का नारा दिया तो उसके कुछ नेताओं ने इसका कारण संविधान बदलने की मंशा भी व्यक्त कर दी थी। सच तो यह है कि संविधान की जगह मनुस्मृति लाने की इच्छा कुछ लोग अभी भी रखते हैं। यह सरकार पूंजीवाद पर भी खुलकर चल रही है। काॅरपोरेट से खुलकर चुनावी चंदा लिया जा रहा है। चंद चहेते पूंजीपतियों को इसके एवज़ में नियम कानूनों को एक तरफ रखकर ध्ंाधा दिया जा रहा है। पुलिस सीबीआई इडी, चुनाव आयोग मानवाधिकार आयोग अल्पसंख्यक आयोग अनुसूचित जाति आयोग पिछड़ा आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं को मोदी सरकार ने लगभग पूरी तरह और न्यायालय को आंशिक रूप से साध लिया है। इसलिये साफ है कि इनको धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद से समस्या है और आगे भी रहेगी। शायर ने राजनेताओं के ऐसे ही विरोधाभास पर क्या खूब कहा है- *जो मेरे ग़म में शरीक था जिसे मेरा ग़म अज़ीज़ था, मैं खुश हुआ तो पता चला वो मेरी खुशी के खिलाफ़ है।* 
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 24 July 2025

धनकड़ का इस्तीफ़ा

*इस्तीफ़ा दिया नहीं लिया गया है,* 
 *धनकड़ किसानों के लिये बोल रहे थे!* 
0 उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने अचानक अपने पद से इस्तीफ़ा दिया नहीं बल्कि उनसे लिया गया है? हालांकि त्यागपत्र का औपचारिक कारण उन्होंने अपना स्वास्थ्य बताया है लेकिन राजनीति के जानकार बताते हैं कि वजह चाहे कुछ भी हो मगर पद छोड़ने को मजबूर करने वाले अकसर ऐसा ही कारण लिखवाते हैं। अगर धनकड़ की सेहत ही उनके पद त्याग की वास्तविक वजह होती तो बीते मार्च माह में उनकी एंजियोप्लास्टी पद से अलग होने की सही टाइमिंग हो सकती थी। सबने देखा एंजियोप्लास्टी के बाद भी उनकी गतिविधियां पहले की तरह सामान्य थीं। चर्चा है कि धनकड़ का गाहे ब गाहे किसानों के हित में खुलकर बोलना, हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ बिना सरकार की मंशा जाने विपक्ष का प्रस्ताव स्वीकार करना और भाजपा मुखिया नड्डा का राज्यसभा में व्यवहार भी इस्तीफे की वजह हो सकती हैं।  
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    जगदीप धनकड़ को जो लोग गहराई से जानते हैं उनको पता है कि वे जनता दल के सांसद से लेकर कांग्रेस के विधायक बनकर भाजपा में दलबदल कर राज्यपाल से उपराष्ट्रपति के पद तक अपने ध्ैार्य राजनीतिक चतुराई और अपनी हर चर्चित विवादित व दुस्साहसी बयानबाज़ी के बल पर इन बड़े पदों तक पहुंचे थे। हालांकि बंगाल के राज्यपाल पद पर रहते उनका कार्यकाल संविधान विरोधी पद की गरिमा के खिलाफ और बेहद विवादित कहा जा सकता है लेकिन विपक्ष को उनकी जो बातें परंपरा लोकतंत्र और कानून के खिलाफ नज़र आती थीं वही उनकी उपलब्धि योग्यता और खूबी थी जिसका इनाम उनको भाजपा ने उपराष्ट्रपति बनाकर दिया। राज्यसभा के पदेन सभापति बन जाने के बाद धनकड़ ने वाइस प्रेसीडेंट के साथ साथ दोहरी भूमिका अदा कर भाजपा के लिये रबर स्टैंप की तरह जमकर काम भी किया । यहां तक कि वे तमिलनाडू के गवर्नर के खिलाफ आये सुप्रीम कोर्ट के एतिहासिक फैसले के खिलाफ जिन कटु और अतिवादी उग्र शब्दों में मोदी सरकार के पक्ष में सबसे बड़ी अदालत से भिड़े वह भी उनका दुस्साहस ही कहा जा सकता है, लेकिन समय आने पर मोदी सरकार ने उनसे नाराज़गी होते ही उनका इस्तीफा मांगने में इन बातों का तनिक भी खयाल नहीं रखा। यह सच है कि धनकड़ ने राज्यपाल उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति रहते संविधान मर्यादा और लोकतांत्रिक परंपराओं का लगातार मखौल उड़ाया। 
      धनकड़ के पक्षपात, विरोधी दलों के खिलाफ समय समय पर अन्याय प्रतिकूल टिप्पणियों से लगातार आहत विपक्ष उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव तक ले आया। संवैधानिक पद होने की वजह से ही धनकड़ सुप्रीम कोर्ट के विरोध में मानहानि अपमानजनक और अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करके भी अपने पीछे खड़ी मोदी सरकार की शक्ति की बदौलत बच निकले। धनकड़ और सरकार के बीच रस्साकशी तो काफी लंबे समय से चल रही थी। पिछले साल धनकड़ ने एक पब्लिक प्रोग्राम में मोदी सरकार को आड़े हाथ लेते हुए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चैहान की उपस्थिति में उनसे तीखे सवाल पूछे थे कि आप बतायंे कि क्या सरकार ने किसानों से किये वादे पूरे किये? धनकड़ ने अपना आक्रोष व्यक्त कर केंद्रीय मंत्री को संबोधित करते हुए यहां तक चेतावनी दे दी थी कि आपका एक एक पल भारी है। वे इतने पर ही नहीं रूके बल्कि उन्होंने किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए मोदी सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। हालांकि उस समय विपक्ष ने धनकड़ की इस उग्र बयानबाज़ी को विपक्ष का स्पेस छीनने की कवायद करार देते हुए उनके इस रूख को खास वेट नहीं दिया था। लेकिन मोदी सरकार ने इसे धनकड़ के विद्रोह की शुरूआत मानते हुए तभी से उनके बयानों गतिविधियों और राज्यसभा में फैसलों पर पैनी नज़र रखनी शुरू कर दी थी। 
       जिस तरह से आडवाणी का पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्नाह के मज़ार पर उनको सेकुलर नेता बताने का बयान संघ परिवार के लिये आडवाणी को बाहर का रास्ता दिखाने का आखि़री फैसला साबित हुआ था। उसी तरह से धनकड़ के इस्तीफे की पटकथा उनके किसानों के समर्थन में खुलकर मोदी सरकार के खिलाफ तीखे लहजे में बोलने वाले दिन ही लिख दी गयी थी। उनको पद छोड़ने के लिये मजबूर करने को दूसरे कारणों की प्रतीक्षा की जा रही थी। संयोग से वो कारण सरकार को अब मिल गये । यह भी खबर आ रही है कि कभी कभी धनकड़ सरकार की मंशा के खिलाफ बच्चो वाली ज़िद लगाकर कुछ ऐसे काम भी करते थे जिनसे सरकार का कोई नुकसान तो नहीं होता था लेकिन यह मोदी और शाह की जोड़ी को इसलिये सहन नहीं होता था कि ऐसा करने का विशेष अधिकार वे केवल अपने पास रखना चाहते थे। इसी मनमानी स्वछंदता और मनमर्जी पर चलने को लेकर पीएम और होम मिनिस्टर पिछले आम चुनाव में संघ प्रमुख भागवत तक से भिड़ गये थे जिसका उनको चुनाव में साधारण बहुमत तक ना मिलने पर नुकसान और अहसास भी हुआ उसके बाद ही दोनों का संवाद सहकार और समझौता हुआ। 
       धनकड़ ने अप्रैल में भारत आये अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस से बिना किसी प्रोग्राम शेड्यूल और प्रोटोकाॅल के मिलने की नाकाम कोशिश की जिस पर उनको समझा बुझाकर शांत किया गया। धनकड़ ने सभी मंत्रियों को अपने अपने आॅफिस में पीएम प्रेसीडेंट के साथ ही अपना भी फोटो लगाने की सीख दे डाली। अपने काफिले की सभी गाड़ियों को प्रेसीडेंट की फ्लीट की तरह मर्सिडीज़ में बदलने की बार बार बेजा मांग भी धनकड़ सरकार से करते रहते थे। धनकड़ ने वन नेशन वन इलैक्शन और संविधान से धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद को निकालने के सरकारी एजेंडे को हवा देने में भी कभी कोर कसर नहीं छोड़ी लेकिन मोदी सरकार को उनकी पूर्ण वफादारी समर्थन और समर्पण पर संदेह हो चला था जिससे जस्टिस वर्मा के खिलाफ विपक्ष का महाभियोग प्रस्ताव बिना सरकार की राय लिये स्वीकार करना उनके लिये सियासी ताबूत में आखि़री कील की तरह बन गया। अलबत्ता सत्यपाल मलिक असम के सीएम हिमंत विस्व सर्मा व धनकड़ जैसे बाहरी नेता भाजपा में कम ही बडे़ पदों पर पहुंचे हैं। धनकड़ पर गालिब का एक शेर याद आ रहा है-
 *ये फ़ितना आदमी की ख़ाना वीरानी को क्या कम है,*
*हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।*
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Saturday, 12 July 2025

वाहन की आयु नहीं फिटनेस

*वाहन चलाने लायक है या नहीं,*
*उसकी आयु नहीं फिटनेस बतायेगी!*
0 दिल्ली में 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के वाहनों पर एकाएक रोक लगाकर पहले वहां की सरकार ने तुगलकी फरमान जारी किया। उसके बाद जब लोगों का गुस्सा सामने आया तो इस आदेश पर पुनर्विचार के नाम पर कुछ समय के लिये रोक लगा दी गयी। लेकिन यह तय मानकर चलिये कि कुछ दिन बाद इस मनमाने आदेश पर कुछ बदलाव करके फिर अमल होगा। इसकी वजह यह है कि सरकार की मंशा एकदम साफ है। उसको वे सब काम करने हैं जिससे पूंजीवाद को बढ़ावा मिलता है। समाजवाद यानी समाज के कमज़ोर गरीब और मीडियम क्लास को इससे क्या नुकसान होगा यह सरकार की चिंता का विषय नहीं है। इस बात को ये सरकारें छिपाती भी नहीं हैं और बार बार जीतकर भी आती हैं।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      एक जुलाई से दिल्ली मंे वायु प्रदुषण कम करने के नाम पर 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के चैपहिया वाहनों पर अचानक रोक ही नहीं लगाई गयी, बल्कि उनको पेट्रोल पंपों पर बजाये तेल ना देकर चालान काटने के जबरन पकड़कर कबाड़ करने का अभियान चला दिया गया। वो तो अच्छा हुआ दो तीन बाद ही लोगों में भयंकर रोष देखकर सरकार ने अपने कदम फिलहाल पीछे खींच लिये। लेकिन यह समझना कि अब यह अभियान आगे कुछ अगर मगर के साथ फिर से नहीं चलेगा, मूर्खों के स्वर्ग में रहना होगा। दरअसल कम लोगों को पता होगा कि इस अभियान के पीछे सरकार की असली मंशा क्या रही होगी? आंकड़े बताते हैं कि देश में निजी वाहनों की बिक्री में गिरावट आ रही है। कार बनाने वाली कंपनियों के पास तीन माह से अधिक तक की इन्वेंट्री बिना सेल के बाकी है। कंपनियों को नये वाहन बनाने में परेशानी आ रही है क्योंकि उनके पास उनको बनाकर स्टोर करने तक के लिये और स्थान नहीं बचा है। सरकार की पूंजीवादी नीतियों से मीडियम क्लास जो कारें और नये मकान सबसे अधिक खरीदता है, आजकल सदमे में हैं। उसकी जेब खाली हो रही है। उसकी आय घट रही है और उसका कर्ज़ बढ़ता जा रहा है। इन सरकारों का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग भी यही क्लास रहा है और बेचारा इसकी कीमत भी यही चुका रहा है क्योंकि गरीब के पास खोने के लिये कुछ अधिक है नहीं और अमीर को इन बातों की चिंता नहीं है। 
     जानकारों का कहना है कि विश्व में किसी भी देश में प्राइवेट व्हेकिल की निर्धारित आयु नहीं होती है बल्कि उनको फिटनेस के हिसाब से 10, 20 या 30 साल तक चलाने की छूट दी जाती है और साथ ही अगर वाहन अधिक चलने या रखरखाव सही नहीं रखने से दो चार साल बाद ही खटारा हो जाता है तो उसको भी सीज़ कर दिया जाता है। हमारे देश में भी नियम है कि आप अपना वाहन तब तक ही चला सकते हैं जब तक उसका प्रदूषण प्रमाण पत्र ओके है। मतलब प्रदूषण फैलाने वाला फोर व्हीलर ही नहीं कोई सा वाहन जब आप चला ही नहीं सकते तो इसमें केवल कारों या भारी वाहनों पर 10 या 15 साल की तय उम्र का कानून कहां से आ गया? सच तो यह है कि वाहनों से सबसे अधिक पाॅल्यूशन चलने से नहीं जाम या रेलवे फाटकों पर उनके रूके रहने से होता है। या फिर भीड़ अधिक होने पर उनके धीरे धीरे चलने रूकने फिर से चलने बंद करने फिर स्टार्ट करने बार बार गियर बदलने या फिर रेस घटाने बढ़ानेे से होता है। वाहन आप अगर आज ही शोरूम से लाये हैं फिर भी वह इंजन चालू कर कहीं जाम में फंसा है तो काॅर्बन डाईआॅक्साइड तेजी से और अधिक छोड़ेगा ही छोड़ेगा। इसमें नई पुरानी डीज़ल पेट्रोल 10 साल 15 साल का कोई खास अंतर नहीं पड़ता है। 
       दूसरी पते की बात यह है कि सबसे अधिक प्रदूषण दिल्ली में टू व्हीलर्स करते हैं। लेकिन सरकार की हिम्मत नहीं कि उनको उम्र के हिसाब से बैन करने की बात भी सोचे। टू व्हीलर वाला वर्ग बहुत बड़ा है। सवाल यह भी है कि सरकार एक झटके में 62 लाख वाहन कैसे पकड़कर कैसे उनको स्क्रैप में बेचकर आपके हाथ में लाखों की गाड़ी के चंद हज़ार रूपये पकड़ा सकती है? मीडियम क्लास परिवारों ने किसी तरह से पेट काटकर पाई पाई जोड़कर या बैंक से कर्ज़ पर ये वाहन लिये होंगे ये उनका दुखता हुआ दिल ही बेहतर जानता होगा। हर साल माॅडल के चक्कर में कार बदल देने वाले मुट्ठीभर अमीर लोगों पर इस अभियान का क्या असर पड़ना है? अगर सरकार का यह जनविरोधी प्रयोग दिल्ली में सफल हो जाता है तो इसके बाद यूपी राजस्थान हरियाणा सहित एनसीआर के अन्य प्रदेशों का नंबर आना तय है। इस चक्कर में वाहन निर्माताओं का तो मज़ा आ जायेगा लेकिन वाहन मालिकों के लिये यह सज़ा बन जायेगा। सरकार यह सोचने को तैयार नहीं है कि दिल्ली राजधनी है और वहां पूरे भारत से लोग अपने अपने काम से आते हैं। उनकी मजबूरी है। उनका शासन प्रशासन से जुड़े कामों के साथ साथ पिकनिक ही नहीं इलाज और रोज़गार के लिये आना ज़रूरत है। इसके लिये जो शानदार जानदार और आसानी से उपलब्ध होने वाला यातायात साधन होना चाहिये वो केवल मैट्रो ही है। लेकिन विडंबना देखिये कि उस तक पहुंचने के लिये भी कार होना ज़रूरी है। 
    इसका विकल्प केवल आॅटो और किराये की ओला उूबर की टैक्सी है जिसका किराया सरकार ने पहले व्यस्त समय पर अप्रैल में डेढ़ गुना किया था अब सीधा दोगुना कर दिया है। सरकार से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिये कि माना आपने दिल्ली में ये वाहन आज नहीं तो कल चलने बंद कर ही दिये तो लोग उनको आधे पौने दाम पर आसपास के दूसरे राज्यों में बेच देंगे। क्या वे प्रदेषण वाले वाहन लोगों के गैराज में खड़े रहेंगे या फिर जहां जायेंगे वहां ही प्रदूषण फैलायेंगे तो क्या वहां के लोगों का जीवन कम मूल्यवान है जो दिल्ली को बचाकर आप बाकी देश के लोगों को साफ आॅक्सीजन की जगह काॅर्बन डाईआॅक्साइड से समय से पहले बीमार बना देना चाहते हैं? अलग अलग स्थान के आधार पर नागरिक नागरिक में यह अंतर क्या सरकार को शोभा देता है? धर्म के आधार पर तो यह सरकार पहले ही अंतर करने के लिये विपक्ष के आरोपों का सामना करती रही है। इस मामले में सरकार पर यह भी आरोप लगता रहा है कि वाहन कंपनियां सत्ताधरी दल को मोटा चुनावी चंदा देकर अपने पक्ष में नीतियां बनवाने का प्रयास करती रही हैं। साथ ही जब लोग लाखों वाहन कबाड़ कर देने पर नये वाहन खरीदेंगे तो सरकार का टैक्स कलैक्शन और अर्थव्यवस्था का साइज़ बढ़ाने का लक्ष्य भी पूरा होगा? ग़ालिब ने क्या खूब कहा है- ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना वीरानी को क्या कम है, हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 3 July 2025

वोटर की नागरिकता

आयोग का काम है चुनाव कराना, 
 ना कि नागरिकता पता लगाना?
0 जो चुनाव आयोग हरियाणा महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों को लेकर पहले ही विपक्ष के निशाने पर था। अब बिहार के विधानसभा चुनाव चार महीने दूर होने पर एक माह के भीतर मतदाता सूची के सघन परीक्षण के बहाने मतदाताओं की नागरिकता के प्रमाण मांगने को लेकर एक बार फिर विवाद के घेरे में आ गया है। यह माना कि आयोग को यह जांचने का अधिकार है कि जो भी नागरिक मतदाता बनना चाहते हैं वे चुनाव में वोट देने का संवैधानिक अधिकार रखते हैं या नहीं? लेकिन सवाल यही है कि जब आयोग किसी नागरिक को मतदाता बनाता है तो उसी समय यह जांच क्यों नहीं की जाती कि वह आदमी वोटर बनने का सही पात्र है कि नहीं? अचानक जल्दबाज़ी और आनन फानन में आयोग का यह कदम चर्चा में है।    
                 -इक़बाल हिंदुस्तानी
     बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाता हैं। इनमें से 59 प्रतिशत 40 साल या उससे कम आयु के हैं। इनमें से 4 करोड़ 75 लाख को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी नहीं तो वे वोटर लिस्ट से अपने आप ही बाहर हो जायेंगे। चुनाव आयोग ने नागरिकता साबित करने के लिये कुल 11 दस्तावेज़ तय किये हैं। अभी तक मतदाता मतलब 18 साल आयु पूरी करना माना जाता था। आपको अपना वर्तमान पता बताना होता था और आप एक फार्म भरकर आराम से मतदाता बन जाते थे। लेकिन अब यह दावा किया जा रहा है कि चूंकि बिहार में बड़ी तादाद में ऐसे लोग वोटर बन गये हैं जो मूल रूप से तो बिहारी हैं लेकिन वे काम ध्ंाध्ेा के सिलसिले में राज्य से बाहर रहते हैं। ऐसे लोगों को उसी स्थान पर मतदाता बनने के लिये कहा जा रहा है जहां वे रोज़गार करते हैं। यहां तक तो बात समझ में आती है लेकिन आयोग यह भी दावा कर रहा है कि बड़ी संख्या में ऐसे घुसपैठिये भी मतदाता बन गये हैं जो भारत के नागरिक नहीं हैं। 
      सवाल यह है कि जब वह मतदाता सूची में किसी का नाम जोड़ता है तब उनसे ऐसे दस्तावेज़ क्यों नहीं मांगे गये जिससे यह साबित होता हो कि वे देश के नागरिक हैं। दूसरी बात यह है कि यह सरकार का काम है कि वह घुसपैठियों की जांच समय समय पर और देश की सीमाओं पर करे जिससे कोई विदेशी नागरिक देश में प्रवेश ही ना कर सके। अगर जांच में यह सच सामने आता है कि बड़े पैमाने पर घुसपैठिये देश में रह रहे हैं तो उनका नाम केवल चुनाव आयोग की मतदाता सूची से ही क्यों भारतीय नागरिकों को मिलने वाली हर सुविधा जैसे सरकारी नौकरी किसी प्रकार का सरकारी लाइसेंस बैंक खाता स्कूल में एडिमिशन वजीफा राशन कार्ड ज़मीन खरीदने बेचने स्वास्थ्य का अधिकार पैन कार्ड आधार कार्ड मनरेगा कार्ड आयुष्मान कार्ड और हर सरकारी सुविधा से वंचित किया जाना चाहिये। अगर आयु 18 साल और स्थानीय निवास प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने का नियम नहीं होता तो दिल्ली और महाराष्ट्र में लाखों लोग स्थानीय जनप्रतिनिधियों के पते पर रहने का दावा करके बोगस मतदाता बनने का विपक्ष का आरोप नहीं झेल रहे होते? यही वजह है कि निवास स्थान बदलने पर वोट कटने का प्रावधान रहा है। अन्यथा दूसरा कारण किसी मतदाता की मृत्यु होने पर उसका नाम वोटर लिस्ट से निकाला जाता है। 
       इसके अलावा आज तक कोई तीसरा आधार मतदाता का नाम काटने का सामने नहीं आया है। कहीं ऐसा तो नहीं जिस एनआरसी को लाने में सकरार 2019 में सीएए लाकर फंस गयी थी और उसने विवाद से बचने को अपने कदम वापस खींच लिये थे, उसी एनआरसी को बैकडोर से चुनाव आयोग के द्वारा लाया जा रहा हो? वैसे भी किसी नागरिक का वोट कटना या बनना तो इतना बड़ा मुद्दा नहीं होता लकिन चुनाव आयोग अपने बूथ लेवल आॅफिसर से किसी की नागरिकता तय कराने लगे तो यह बड़ा मामला बन जाता है। चुनाव आयोग पर बार बार सरकार की कठपुतली बनने के विपक्ष आरोप लगाता आ रहा है लेकिन आयोग इस बारे में गंभीर नज़र नहीं आता कि उसको अपनी विश्वसनीयता साख और स्वायत्ता की कोई खास चिंता है। आयोग को चाहिये था कि वह सरकार से कहता कि वह गृह मंत्रालय से लोगों की नागरिकता की जांच कराये उसके बाद जो लोग पर्याप्त दस्तावेज़ पेश नहीं कर पायेंगे उनके सामने अपीलीय अधिकारी फोरेन ट्यूब्नल या कोर्ट जाने का अधिकार रहता है। जब अंतिम रूप से यह तय हो जाये कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है तो उसका नाम चुनाव आयोग की सूची ही क्या सरकार की ओर से मिलने वाली हर प्रकार की सुविधा से काटा जा सकता है। 
       पासपोर्ट बनाने वाले नियम मतदाता सूची के लिये लागू करने का कोई औचित्य नहीं है। इस सारी कवायद के पीछे राजनीतिक मंशा तलाशी जा रही है। अब तक भाजपा का आरोप रहा है कि सेकुलर दल अपना वोटबैंक बनाने के लिये अवैध घुसपैठियों को मतदाता बनाकर उनके वोट से सत्ता हासिल करते रहे हैं। इसलिये उनको मतदाता सूची से हटाकर विपक्ष को सत्ता में आने से रोका जा सकता है। उधर विपक्ष का भाजपा पर आरोप है कि वह बहुसंख्यकों का धार्मिक तुष्टिकरण करके दलितों आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का नाम बड़ी संख्या में विभिन्न आधार पर सूची से काटकर अपनी जीत का रास्ता साफ करना चाहती है। सवाल यह है कि अगर यह राज्य की सरकारों ने जानबूझकर किया है तो बिहार में भाजपा की साझा नीतीश सरकार पिछले 20 साल से है। क्या वह इन घुसपैठियों के थोक वोट बनवाकर चुनाव जीतकर सत्ता सुख नहीं भोग रही है? क्या यह सब नीतीश को अगले चुनाव में ठिकाने लगाने का सोचा समझा प्लान है? यह भी हो सकता है कि भाजपा को लग रहा हो कि इस बार चुनाव में उसको बेरोज़गारों दलितों और आदिवासियों का पहले की तरह वोट नहीं मिलेगा तो उनको नागरिकता और स्थानीय निवास प्रमाण पत्र जांचने के बहाने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये? जो अल्पसंख्यक भाजपा के खिलाफ अकसर खुलकर विपक्ष को वोट करते हैं उनके वोट भी बड़ी तादाद में काटकर विपक्ष को चोट दी जाये? 
        भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-2 के अनुसार 40 से 60 साल की आयु के केवल 13 प्रतिशत लोगों ने हाईस्कूल की सनद और जन्म तिथि बताने वाली अंक तालिका हासिल की है। एनएफएसएच सर्वे-3 के अनुसार 2001 से 2005 तक जन्मे कुल बच्चो में से मात्र 2.8 प्रतिशत के पास ही जन्म प्रमाण पत्र हैं। एक बात यह समझ से बाहर है कि पिछली बार वोटर लिस्ट जांचने में दो साल लगे थे इस बार मात्र एक महीने में यह काम किसी इमरजैंसी के तहत पूरा करने का तुगलकी आदेश क्यों जारी किया गया है? बिहार में वोटर लिस्ट की बड़े पैमाने पर जांच 2003 में हुयी थी। 2003 की इस सूची में जिनका नाम है उनको नागरिकाता का कोई प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं होगी। एक जुलाई 1987 से पहले पैदा हुए लोग जन्मजात भारत के नागरिक माने जायेंगे लेकिन इसके लिये उनको अपना जन्म प्रमाण पत्र जिसमें जन्म की तिथि और स्थान हो, प्रस्तुत करना होगा। जो लोग 2 दिसंबर 2004 से पहले और एक जुलाई 1987 के बाद पैदा हुए उनको अपने माता पिता में से किसी एक का भारतीय नागरिक होना साबित करना होगा। तीसरी श्रेणी में वो लोग आयेंगे जो 2 दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए उनको अपने माता पिता दोनों का भारत का नागरिक होना प्रमाणित करना होगा। अन्यथा वे भारत के नागरिक नहीं माने जायेंगे।
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीपफ़ एडिटर हैं।