Thursday, 18 September 2025

केंचुआ का दुस्साहस

*केंचुआ क्यों कर रहा है मनमानी,* 
*सुप्रीम कोर्ट की भी नाफ़रमानी?*
0 केंद्रीय चुनाव आयोग यानी केंचुआ सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को बार बार अनदेखा कर दावा कर रहा है कि सुप्रीम कोर्ट उसको पूरे देश मंे एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण करने से नहीं रोक सकता? केंचुआ ने यह चुनौती सबसे बड़ी अदालत को अपने लिखित शपथ पत्र में दी है। यह हैरत और चिंता की बात है कि जो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति गवर्नर और संसद तक को समय समय पर संविधान के खिलाफ काम करने पर चेतावनी पुनर्विचार या उनके बनाये नियम कानूनों तक को निरस्त कर चुका है, उस सर्वोच्च न्यायालय को चुनाव आयोग किसके बल बूते पर चुनौती देने का दुस्साहस कर रहा है? अगर 2014 से पहले का दौर होता तो अब तक सुप्रीम कोर्ट मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाकर जेल भेज चुका होता...।     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     केेंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग ने कहा है कि पूरे देश में होने वाले मतदाता सूचियों के एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण में अब अधिकतर राज्यों में आधे से अधिक मतदाताओं को कोई भी दस्तावेज़ देने की आवश्यकता नहीं होगी। आयोग का दावा है कि 1978 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई कागज़ नहीं देने की छूट दी गयी है। इसके साथ ही केंचुआ ने अपनी बात काटते हुए इसी प्रेस रिलीज़ में यह भी कहा है कि ऐसे लोगों को केवल एक हलफनामा देना होगा जिसके साथ एक ऐसा दस्तावेज़ देना ज़रूरी होगा जिससे उनके जन्मतिथि और जन्मस्थान की प्रमाणिकता की पुष्टि होती हो। ऐसा लगता है कि केंचुआ अपने दिमाग से काम न करते हुए किसी के मौखिक आदेश पर काम कर रहा है? उसको यह मामूली सी बात भी समझ में नहीं आ रही कि जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण पत्र भी दस्तावेज़ ही होता है। जब शपथ पत्र के साथ 1978 से पहले पैदा हुए मतदाताओं को यह दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो यह झूठ क्यों बोला जा रहा है कि ऐसे लोगों को कोई दस्तावेज़ नहीं देना है। सवाल यह भी उठता है कि जब आप किसी से अपने जन्म की तिथि और जन्म के स्थान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं तो एक तरह से नागरिकता का ही प्रमाण मांग रहे हैं। 
     जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि नागरिकता तय करने का काम केंचुआ नहीं गृह मंत्रालय का है। दूसरी बात जो लोग आज से 47 साल पहले यानी 50, 60, 70 या 80 साल पहले पैदा हुए थे वे अपना जन्म का प्रमाण पत्र कहां से लायेंगे? उन दिनों कौन बनवाता था जन्म का प्रमाण पत्र? और अगर किसी ने बनवाया भी होगा तो वह अधिक से अधिक जन्म तिथि का प्रमाण पत्र या हाईस्कूल की मार्कशीट हो सकती है। वो भी 5 से 10 प्रतिशत लोगों के पास ही मिलेगी। सरकारी नौकरी न मिलने या सब काम आजकल आधार से होने की वजह से अधिकांश लोगों ने वह जन्म का प्रमाण भी शायद ही संभाल कर रखा हो। आधार पर याद आया जब सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में एसआईआर शुरू करने के दौरान केंचुआ से कहा कि वह आधार को भी उन 11 दस्तावेज़ों में शामिल करे जो वह राज्य में मतदाताओं से उनके नाम मतदाता सूची में शामिल करने के लिये अनिवार्य तौर पर मांग रहा है। केंचुआ ने सबसे बड़ी अदालत के बार बार निर्देश देने के बावजूद आधार को तब तक उस सूची में शामिल नहीं किया जब तक कि याचिका कर्ताओं ने केंचुआ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से उसकी अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की शिकायत दर्ज नहीं करा दी। यह बात भी रहस्य बनी हुयी है कि सुप्रीम कोर्ट क्यों केंचुआ को इतनी मनमानी और नाफरमानी की खुलेआम छूट दे रहा है? 
      जिससे उसका दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि वह सबसे बड़ी अदालत को बाकायदा लिखित में यह चुनौती शपथ पत्र दााखिल करके दे रहा है कि उसके एसआईआर के काम में सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं दे सकता? यानी केंचुआ कुछ भी गैर कानूनी नियम के खिलाफ और संविधान को ताक पर रखकर मनमानी करने को आज़ाद है? वह भूल गया है कि केंचुआ जनता का नौकर है। नौकर अगर जनता के खिलाफ काम करेगा तो उसको जनता कोर्ट में चुनौती देगी और सुधार नहीं करेगा तो नौकरी से भी निकाला जा सकता है। अगर केंचुआ के पीछे मोदी सरकार नहीं खड़ी है तो उसकी इतनी हिम्मत और हिमाकत कैसे हो गयी कि वह चोरी और सीना ज़ोरी कर रहा है? जब संसद से बने कानून को सुप्रीम कोर्ट निरस्त या संशोधित कर स्टे कर सकता है तो केंचुआ की सुप्रीम कोर्ट के सामने औकात ही क्या है? 
      समाजसेवी और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव का दावा है कि बिहार में केंचुआ की कारस्तानी की पोल खुल चुकी है। वहां उसने 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया। जब 16 लाख लोगों ने अपना नाम शामिल करने और 4 लाख लोगों ने आपत्ति दर्ज की तो पता चला कि 40 प्रतिशत से अधिक वो लोग हैं जिनकी आयु 25 से 100 साल के बीच है। यानी ये लोग पहली बार वोटर बनने के लिये नहीं अपना फर्जी तरीके से कट गया नाम जुड़वाने के लिये आवेदन कर रहे हैं। इनको केंचुआ कह रहा है कि अपना पुराना इपिक भूल जाओ और नये सिरे से मतदाता बनने के लिये ज़रूरी कागजात जमा करो। केंचुआ के दावा है कि आॅब्जक्शन करने वाले 4 लाख लोगों में से 58 प्रतिशत कह रहे हैं कि उनका नाम लिस्ट से काट दीजिये क्योंकि वे मर चुके हैं, विदेशी हैं या कहीं राज्य से बाहर रहने लगे हैं। अब सोचिये क्या कोई मृतक या विदेशी ऐसा कह सकता है? यह सब फर्जीवाड़ा खुद चुनाव आयोग अपने बीएलओ के द्वारा करा रहा है जिससे चुनाव आयोग ने हमारे चुनाव वोटर लिस्ट और लोकतंत्र को तमाशा बना कर रख दिया है। एक शायर ने कहा है-
 *लश्कर भी तुम्हारा है सरदार भी तुम्हारा है,* 
 *तुम झूठ को सच लिख दो अख़बार भी तुम्हारा है।* 
 *इस दौर के फ़रियादी जाएं भी तो कहां जायें,* 
 *सरकार भी तुम्हारी है दरबार भी तुम्हारा है।।* 
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 11 September 2025

नेपाल और सोशल मीडिया

*सोशल मीडिया बैन से जला नेपाल,*
 *या इसके पीछे है विदेशी चाल?* 
0 ‘हामी नेेपाल’ यानी हामरे अधिकार मंच इनिशिटिव पेशेवर इवेंट मैनेजर सुदन गुरूंग ने 2015 में बनाया था। इसका मुख्य काम आपदा के समय लोगों की मदद करना और जनता में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करना बताया जाता है। इस संगठन का संबंध विदेशी दूतावासों से रहा है। इसको विदेशी पैसा भी मिलता रहा है। हामी नेपाल के आव्हान पर ही पिछले दिनों नेपाल में ज़बरदस्त हिंसा व आगज़नी हुयी है। कहने को 26 सोशल मीडिया एप पर लगायी गयी रोक इस हंगामे का तत्काल कारण मानी जा रही है लेकिन इससे केवल चिंगारी भड़की है, वहां विरोध आक्रोष और तनाव का बारूद पहले ही मौजूद था। जेन जे़ड यानी 1997 से 2012 के बीच पैदा हुयी पीढ़ी के आंदोलन के पीछे कहीं अमेरिका तो नहीं?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    काठमांडू के 17 साल के छात्र विलोचन पौडेल का कहना है कि ‘‘तीन बड़ी पार्टियांे को बार बार मौका मिलता है, वे कुछ नहीं करती। न अच्छा शासन लाती हैं न विकास। वे दूसरों को भी काम नहीं करने देतीं। हालात ऐसे हो गये हैं कि आम लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवायें तक नहीं मिल पा रहीं। हमें इस कुप्रशासन के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी...तभी देश आगे बढ़ेगा।’’ 23 साल की लाॅ ग्रेज्युएट सादिक्षा का कहना है कि ‘‘यह सिर्फ फेसबुक या टिकटाॅक पर रोक की बात नहीं है। यह उन नेताओं की बात है जो हमारे टैक्स लूटते हैं। जो अमीर बनते जाते हैं जबकि युवाओं के पास नौकरियां नहीं हैं। अब बस बहुत हो गया।’’ इसमें कोई दो राय नहीं नेपाल में जनता में असंतोष है। वहां 12 प्रतिशत से अधिक बेरोज़गारी है। गरीबी है। भुखमरी है। हर साल चार लाख युवा देश छोड़कर काम की तलाश में भारत सहित विदेश जाने को मजबूर हैं। राजनीतिक अस्थायित्व भी है। कोई सरकार कोई पीएम पूरे पांच साल नहीं टिक पाता है। शासन प्रशासन में जमकर भ्रष्टाचार भी चल रहा है। नेताओं के बच्चे आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं। विदेशों में पढ़ रहे हैं। मौज मस्ती कर रहे हैं। बड़े बड़े नेता बड़े बड़े सरकारी बंगलों में ऐश कर रहे हैं। खूब कमीशन खा रहे हैं। ऐसा तो और भी कई देशों में हो रहा है लेकिन वहां तो ऐसा खूनखराबा नहीं हो रहा है। 
    दरअसल जो दिख रहा है वह इतना सामान्य नहीं है। नेपाल में जैसे अचानक सरकार की सोशल मीडिया पर खिंचाई शुरू हुयी। सरकार ने सोशल मीडिया के 26 एप पर रोक लगा दी। बहाना भले ही उनके रजिस्ट्रेशन न कराने का लिया गया हो। यह सब इतना स्वतः स्फूर्त नहीं है कि दस बीस हज़ार की भीड़ सड़कों पर निकली और उसने संसद सुप्रीम कोर्ट और पक्ष विपक्ष के नेताओं के घरों में आग लगा दी। सेना और पुलिस बजाये शासकों की रक्षा करने के पीएम से कहती है कि आप पद से इस्तीफा देकर देश छोड़कर निकल भागिये। पद छोड़ते ही सेना उसको अपने हेलिकाॅप्टर से सुरक्षित स्थान पर पहंुचा देती है। कुछ लोग इसको बगावत और क्रांति का नाम दे रहे हैं लेकिन यह स्वाभाविक तख्तापलट नहीं है। दक्षिण एशिया में यह एक पेटर्न है। इससे पहले श्रीलंका बंगलादेश पाकिस्तान अफगानिस्तान के साथ ही यूक्रेन म्यांमार टयूनीशिया मिस्र सूडान माली नाइज़र जाॅर्जिया किर्गिस्तान बोलिविया और थाईलैंड में ठीक इसी तरह से सत्ता औंधे मुंह गिराई जा चुकी हैं। इनमें से कुछ सरकारें चीन के बहुत करीब जा रही थीं। यह बात अमेरिका को पसंद नहीं थी। इसके बाद जो नई कठपुतली सरकारें बनीं उनको अमेरिका ने खुलकर आर्थिक पैकेज भी दिये। मिसाल के तौर पर श्रीलंका में तख्तापलट के बाद अमेरिका ने 5.75 मिलियन डाॅलर की मानवीय सहायता दी थी। 
       बंगलादेश में तख्तापलट के समय अमेरिका ने सेना के तटस्थ हो जाने और वहां की पीएम शेख हसीना को देश छोड़कर भागने को मजबूर करने लिये सेना की सराहना की और अंतरिम सरकार बनाने से लेकर चलाने तक समर्थन व सहयोग का वादा किया। अमेरिका ने 2011 में टयूनीशिया मेें 2013 में मिस्र में 2014 में यूक्रेन में 2019 में सूडान में 2003 में जाॅर्जिया में 2010 में किर्गिस्तान में और 2019 में बोलीविया में भी यही खेल किया था। अब नेपाल में भी यही कहानी दोहराने की कवायद चल रही है। जिन देशों में तख्तापलट हुआ वे रूस या चीन के निकट जाते दिख रहे थे। दरअसल इतने बड़े आंदोलन तोड़फोड़ आगज़नी और बड़े नेताओं के घरों पर हमले अचानक नहीं होते। इनके लिये बहुत पहले से विस्तृत जानकारी सुनियोजित रोडमैप बड़ी मात्रा में धन और विशाल संसाध्न जुटाने होते हैं जो कि युवाओं का कोई समूह रातो रात नहीं कर सकता है। इसके पीछे विपक्ष विदेशी शक्तियां और ठेके पर काम करने वाले एनजीओ होते हैं। जो इन सारी व्यवस्थाओं को काफी समय पहले संभालते हैं। इसके बाद नेपाल की तरह सोशल मीडिया एप पर पाबंदी की आड़ में पहले से पैदा हो रहे विरोध नाराज़गी और क्रोध के विस्फोटक में चिंगारी लगाने का बहाना तलाशा जाता है। 
       नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार अमेरिका को खफा करके लगातार चीन से नज़दीकी बढ़ा रही थी। अमेरिकी मीडिया काफी समय से ओली सरकार के खिलाफ फेक न्यूज़ और अफवाहंे फैला रहा था। इन पर रोक लगाने को जैसे ही ओली सरकार ने सोशल मीडिया को सेंसर करने के लिये कदम उठाये विदेशी शक्तियों को विद्रोह कराने का अवसर मिल गया। दअसल व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे दर्जनों सोशल मीडिया एप इस साज़िश में अमेरिका का साथ दे रहे थे। वे नेपाल सरकार की एक नहीं सुन रहे थे। यही वह जाल था जिसमें ओली सरकार फंस गयी। जब इन 26 एप ने बार बार दबाव डालने पर भी हेकड़ी दिखाते हुए अपना रजिस्टेªशन नहीं कराया तो ओली सरकार ने तत्काल दबाव बनाने को इन पर रोक लगा दी। यहीं से युवाओं को भड़काने की चाल सफल हो गयी। इसके लिये सरकार और विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार को भी आधार बनाया गया जो पहले से दुखी बेरोज़गार और पलायन के लिये मजबूर नेपाली युवा के दिमाग में आसानी से बैठ गया। इसके बाद जब ये एप खोल भी दिये गये तो भी आंदोलन न रूकने का मतलब समझा जा सकता है। इस मामले में भारत को भी संयम बरतकर चीन से नज़दीकी बढ़ाने की एक सीमा तय करनी चाहिये क्योंकि हम अमेरिकी विरोध भी एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं। साथ ही हमें अपनी संवैधानिक संस्थाओं को आज़ादी देते हुए निष्पक्ष ईमानदार व मज़बूत बनाने के साथ आम आदमी युवाओं और कमज़ोर वर्गों की पहले से अधिक चिंता करनी चाहिये।   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Wednesday, 3 September 2025

निक्की भाटी की दहेज़ हत्या

*निक्की भाटी की हत्या लक्षण है,*
*असली रोग समाज का लोभ है!*
0 21 अगस्त को ग्रेटर नोयडा में 26 साल की निक्की भाटी की दहेज़ के लिये निर्मम हत्या कर दी गयी। इसके साथ ही यह बहस एक बार शुरू हो गयी कि दहेज़ हत्या के लिये क्या पति सास ससुर और उसकी ननद ही ज़िम्मेदार होते हैं? या उसके माता पिता रिश्तेदार और पुरूषप्रधान समाज का लड़की को वस्तु समझना बोझ समझना और किसी तरह से उसकी शादी करके सदा के लिये उससे मुक्ति पाने की सोच भी इस तरह के अपराध के लिये उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं? निक्की का मर्डर केवल दहेज़ के लिये नहीं बल्कि उसका अपने पैरों पर खड़े होने को फिर से ब्यूटी पाॅर्लर खोलने की ज़िद, लगातार टाॅर्चर किये जाने के बावजूद उसके परिवार वालों का उसको पुलिस के पास न भेजकर समझा बुझाकर वापस उसकी ससुराल भेजना और लड़की को डोली में विदा कर उस घर से अर्थी या जनाजे़ में ही निकलने की दकियानूसी सीख भी वजह बनी है?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के अनुसार 2022 में कुल 6450 महिलायें दहेज़ के लिये यातनायें देेकर मारी जा चुकी हैं। दहेज़ हत्या के 60,577 मामलों में केवल 1231 में दोषियों को सज़ा मिली हैं। हमें लगता है कि देश में जिस तरह से लोकलाज गरीबी और विभिन्न सामाजिक भेदभाव के चलते अधिकांश अपराध के मामले दर्ज ही नहीं हो पाते उस हिसाब से दहेज़ हत्या के वास्तविक आंकड़े कई गुना अधिक हो सकते हैं। यह हमारे पूंजीवाद समाज के लिये शर्म की बात है कि आज खुलेआम अधिकांश लोग शादी के लिये रिश्ते की बात तय करते हुए साफ़ साफ़ पूछ लेते हैं कि लड़के वालों की क्या मांग है? उसके बाद लड़की वाला अपना बजट बताता है। फिर दोनों पक्षों में जब किसी खास रकम पर बात तय हो जाती है तो यह भी खोल दिया जाता है कि कितना पैसा किस तरह से लड़की पक्ष की ओर से खर्च किया जायेगा। इसके बाद कई बार यह भी होता है कि लड़के वाला और अधिक की मांग रखता जाता है जबकि लड़की वाला यह कहकर शादी की तैयारी शुरू कर देता है कि चलो देखा जायेगा...। हो जायेगा, देख लेंगे, सोच लेंगे, कोशिश करेंगे आदि आदि। इसके साथ ही कभी कभी यह भी होता है कि तयशुदा रकम या सामान मिलने के बावजूद लड़के वाले की लालच की भूख खत्म नहीं होती और घटिया नीच व अत्यधिक लोभी परिवार होने की वजह से वे एक के बाद एक नई मांग रखते जाते हैं।
    जिससे एक न एक दिन लड़की वाले का बजट और सहनशीलता की सीमा टूट जाती है। इसके बाद टकराव तनाव और लड़की का दहेज़ के लिये उत्पीड़न मानसिक से बढ़कर शारिरिक और पुलिस की थर्ड डिग्री के तौर तरीकों तक पहुंच जाता है। ऐसे में लड़की या तो अपने माता पिता की मजबूरी समझकर चुपचाप सहन करती रहती है या फिर उनको बता भी देती है तो वे असहाय परेशान और तलाक दिलाकर फिर से लाखो रूपये खर्च करने की हैसियत न होने या पैसा हो भी तो सामाजिक पारिवारिक व आर्थिक कारणों से इस जानलेवा समस्या को अनदेखा करते रहते हैं। यह हमारे पुरूषप्रधान समाज की ही निष्ठुरता निर्दयता और बेईमानी है कि लड़की का तलाक होने पर उसकी दूसरी शादी होनी मुश्किल हो जाती है जबकि लड़की को दहेज़ के लिये सताकर मारने वाले लड़के की फिर से शादी बिना किसी बड़े नुकसान सामाजिक प्रतिष्ठा और लोकलाज को दरकिनार हो जाती है। यह हमारे समाज का दोगलापन बड़बोलापन और नैतिक रूप से खोखलापन ही कहा जा सकता है। निक्की के पिता ने शादी में लगभग 30 लाख खर्च किये थे जो कि छोटी रकम नहीं होती। साथ ही स्काॅर्पियो कार बुलेट मोटर साइकिल और भरपूर जे़वर व दूसरे घरेलू इस्तेमाल के महंगे सामान के साथ ही भव्य दावत भी दी थी। लेकिन कहते हैं कि लालची आदमी को आप सारा ज़मीन आसमान भी दे देंगे तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता है। कुछ लोग आज भी शादी में अपनी बेटी को विदा नहीं करते बल्कि गर्व से इसे कन्यादान कहते हैं।
     क्या लड़की कोई सामान है? वह कोई सम्पत्ति है? जो उसको दान किया जाता है? कुछ लोग लड़की के देवी होने का दावा भी करते हैं लेकिन उसको केवल और केवल इंसान नहीं मानते। उसको लड़के के बराबर नहीं मानते। उसकी शादी के लिये उतनी ही समान आवश्यकता नहीं स्वीकारते जितनी लड़के की होती है। अजीब और दुखद बात यह है कि यह बात लड़के वाला ही नहीं खुद लड़की का परिवार भी मानता है कि लड़की लड़के से छोटी कमतर कम पढ़ी लिखी कमज़ोर कम हैसियत वाली कम प्रभावशाली कम कमाने वाली कम सामाजिक कम सहेली दोस्त वाली कम मोबाइल चलाने वाली कम खुलकर हंसने वाली कम गैरों से बात करने वाली कम सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने वाली कम अपनी मर्जी चलाने वाली कम अपनी पसंद से कपड़े खाना और अपने या परिवार के बारे में फैसला करने की इच्छा रखने वाली ही अच्छी होती है। तथाकथित मान मर्यादा इज़्ज़त छवि बच्चो की चिंता परिवार बिखरने का डर और आन के लिये लड़की के साथ खुद उसका परिवार ही पक्षपात अन्याय और असमान व्यवहार कर हर हाल में वहीं जीने वहीं मरने यानी ‘‘एडजस्ट’’ करने को मजबूर करता है। यह जुल्म और ज़्यादती की इंतिहा ही कही जा सकती है कि समाज के लिये एक लड़की की जान बचाने से अधिक परिवार का सम्मान बचाने को उसका तलाक ना लेने देना अधिक उपयोगी माना जाता है।
      उसकी पसंद के लड़के से शादी करना तो दूर उससे रिश्ता तय करते हुए कई परिवारों में लड़के से मिलाना दिखाना और बात कराना तक वर्जित है। ऐसे ही लवमैरिज या लिवइन रिलेशन को समाज के साथ ही कई राज्य सरकारें अपराध जैसा बनाने का कानून ला चुकी हैं जबकि इससे लड़का लड़की की आपसी समझ पसंद और गुण दोष पहले ही सामने आ जाने से कई लड़कियां शादी के बाद दहेज़ उत्पीड़न मानसिक यातना और हत्या से बच जाती हैं। लानत है ऐसे समाज पर लानत है ऐसी व्यवस्था पर और लानत है ऐसी सोच पर जिसमें पंूजीवाद के चलते लोग अधिक से अधिक पैसा एक मासूम असहाय और कमज़ोर लड़की को दुल्हन बनाकर घर लाकर ब्लैकमेल करके न केवल वसूल लेते हैं बल्कि जब असफल हो जाते हैं तो उसकी जान तक भूखे भेड़ियों की तरह ले लेते हैं लेकिन हमारी सरकार पुलिस और अदालतेें समय पर सख़्त सज़ा देकर अपराधियों को सुधरने के लिये मजबूर तक कई कई साल नहीं कर पाते यानी ये सब न्याय के रास्ते बंद से हो चुके हैं। इसका मतलब यह है कि हमारे समाज के साथ ही पूरे सिस्टम को बदले बिना इस रोग से छुटकारा मिलना असंभव है। अंजुम रहबर ने एक दुल्हन के दर्द को शेर में क्या खूब बयान किया है-
 *उसकी पसंद और थी मेरी पसंद और,* 
 *इतनी ज़रा सी बात पर घर छोड़ना पड़ा।*   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Wednesday, 27 August 2025

मोदी सरकार और भ्रष्टाचार

*सरकार पर लगे हैं आरोप लगातार,*
*लेकिन साबित कैसे होता भ्रष्टाचार?*
0 पीएम मोदी ने कहा है कि इतने वर्षों में हमारी सरकार पर भ्रष्टाचार का एक भी दाग नहीं लगा। यह बात किसी हद तक तो सही है क्योंकि जब मोदी सरकार पर करप्शन के आरोप लगे अगर वे उनकी निष्पक्ष जांच कराते तो सच सामने आता। हालांकि आज के दौर में निष्पक्ष तो सीबीआई या ईडी भी नहीं है जो केवल विपक्ष के नेताओं को चुनचुनकर भ्रष्टाचार के आरोप में निशाने पर लेती है। यही आरोपी विपक्षी नेता जब भाजपा में शामिल हो जाते हैं तो उनकी जांच ठंडे बस्ते में चली जाती है या फिर उनको क्लीन चिट दे दी जाती है। मोदी सरकार में भ्रष्टाचार को कई मामलों में या तो लीगलाइज़ कर दिया गया है या फिर ऐसे तौर तरीके निकाल लिये गये हैं जिनसे करने पर करप्शन करप्शन की परिभाषा से बाहर हो गया है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     इलेक्टोरल बांड की मिसाल ताज़ा है। यह करप्शन का जीता जागता नमूना था। इसको सुप्रीम कोर्ट ने अवैध मानकर निरस्त कर दिया था लेकिन इसके द्वारा जो लाखो करोड़ रूपया वसूला गया उसको राजनीतिक दलों से वापस नहीं कराया गया। आंकड़े बताते हैं कि इसका आधे से अधिक हिस्सा भाजपा के मिला था। विपक्ष का आरोप यह भी था कि जिन्होंने करोड़ों के इलेक्टोरल बांड खरीदकर भाजपा को दिये थे उनको चंदा लेकर ध्ंाधा दिया गया था। इतना ही नहीं मोटा चंदा इन बांड के द्वारा लेकर कई ठेके उन लोगों से निरंतर छापे रेड डालकर बीच में ही वापस ले लिये गये थे जो पहले से उनके पास चले आ रहे थे। इसके बाद ये ठेके नियम विरूध मोदी सरकार ने अपने चहेते उद्योगपतियों को दे दिये थे। ऐसे लोगों की एक लंबी सूची सार्वजनिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनाव आयोग ने जारी की थी जिनमें 12000 करोड़ से अधिक रूपयों के इलेक्टोरल बांड देने वालों को सरकार ने नियम कानून ताक पर रखकर आॅब्लाइज किया था। विपक्ष के सरकार पर करप्शन के आरोप का दूसरा बड़ा उदाहरण पीएम केयर फंड है। इसमें सरकारी कंपनियों धनवान लोगों और सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों के वेतन सहित कंपनी सोशल रेस्पोंसिबिलिटी यानी सीएसआर का पैसा जमकर लिया गया लेकिन जब इसके बारे में सूचना के अधिकार में जानकारी मांगी गयी तो सरकार ने दावा किया कि यह तो निजी ट्रस्ट है इसपर आरटीआई कानून लागू नहीं होता।
     कमाल की बेशर्मी और मनमानी थी कि 30,000 करोड़ की विशाल धनराशि पीएम केयर, जो सरकारी पद है, के नाम पर आप जमा करते हैं और उसका हिसाब किताब मांगने पर उसको निजी बताकर छिपा लेते हैं। कोरोना महामारी के दौरान इस पीएम केयर से जो वंेटीलेटर खरीदे गये थे। उनकी गुणवत्ता और बहुत अधिक कीमत को लेकर भी सरकार पर करप्शन के आरोप लगे थे लेकिन उनकी आज तक कोई जांच नहीं हुयी। करप्शन का तीसरा चर्चित तरीका जो संस्थागत हो गया वह चुने हुए चंद कारपोरेट घरानों को बिना उनकी हैसियत काबिलियत और विशेषज्ञता जांचे सरकारी बैंकों से पहले भूरपूर कर्जा दे दो। उनको ही सरकारी सम्पत्ति औने पौने दाम पर बेच दो। उसके लिये भी उनका पिछला रिकाॅर्ड चैक किये बिना सरकारी बैंकों से लोन दिला दो। उनमें से कुछ बड़ी बड़ी रकम डकार कर विदेश भाग गये। कुछ ने अपना झूठा दिवाला निकालकर एनसीएलटी में अपना कुल कर्जा मात्र 5 से 10 प्रतिशत में लेदेकर सेटल करा लिया। उसके बाद ये ही उद्योगपति फिर से किसी नये प्रोजेक्ट में लग गये। लगता है इन चहेते धंधे वाले लोगों ने बांड के ज़रिये सत्ताधरी दल की सेवा कर दी। अडानी अंबानी और टाटा जैसे चंद पूंजीपतियों को काॅकस बनाकर सारा काम सारे ठेके और सारी योजनायें देते जाओ। उनसे कमीशन या रिश्वत लेने की ज़रूरत ही नहीं है।
        उनको जो करोड़ो अरबों का मुनाफा होगा उसमें से वे आपको चुनावी चंदा जितना आप चाहोगे वो देते रहेंगे। इसमें भ्रष्टाचार कहां हुआ जो पकड़ में आयेगा? एक दौर था जब भ्रष्टाचार होता था तो दिखता भी था। आरोप लगते थे तो ईमानदारी से जांच भी होती थी तो कई मामालों में साबित भी हो जाता था। उस ज़माने में नेता लोग ठेकेदारों अधिकारियों और उद्योगपतियों यहां तक कि छोटे छोटे व्यापारियों से भी चवन्नी अठन्नी से लेकर हज़ार पचास हज़ार लाख और करोड़ तक चंदा लेकर बदनाम होते थे क्योंकि जितना बड़ा चंदे का दायरा उतने मुंह उतनी ही पोल खुलने पर बातें आरोप चर्चा और शोर मचने का खतरा रहता था। अब करपशन को लीगलाइज़ और इंस्टीट्यूशनलाइज करने का मतलब ही यह है कि जो बेईमानी पहले किकबैक या एक्सटाॅर्शन कहलाती थी वह अब लीगली कंट्रीब्यूशन बना दी गयी। अब एक ही कारपोरेट से करोड़ों अरबों रूपया राजनीतिक चंदा चुपचाप ले लिया जाता है। यहां तक विधायक खरीदकर सराकरें भी गिरा दी जाती है। उसके बाद होने वाले चुनाव में वोटर लिस्ट में लाखों फर्जी वोटर जोड़कर उनको किसी एनजीओ के द्वारा जगह जगह मतदान को भेजने के लिये बड़ी रकम खर्च की जाती है। चुनाव लड़ने को एमपी के लिये 90 लाख और एमएलए के लिये 27 लाख की तय सीमा से कई गुना अधिक धन पार्टी मुख्यालयों से महानगर से लेकर गांवों तक पंचायत चुनाव में पार्टी का परचम लहराने को भेजा जा रहा है। 1200 करोड़ के बड़े बड़े राजनीतिक कार्यालय भवन बन रहे हैं। जिनमें फाइव स्टार होटल जैसी सुविधायें हैं।
        सवाल यह है कि अगर करप्शन नहीं हो रहा है तो इतना अरबों खरबों रूपया कहां से आ रहा है? खुद ईडी का कहना है कि उसने पिछले कुछ सालों में जो 400 केस पीएमएलए के तहत दर्ज किये उनमें से मात्र 10 में सज़ा दिला पाई है। पीएम का भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार का दाग न होने का आरोप कुछ ऐसा ही है जैसे कोई थाना इंचार्ज अपने इलाके में अपराध न होने का दावा तब करता है जबकि वो अपराध होने पर एफआईआर दर्ज ही नहीं करता। आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस के नये एप ग्रोक से पूछा गया तो उसने ही ऐसे एक दर्जन से अधिक करप्शन के गंभीर आरोप गिना दिये जिनमें बिड़ला सहारा डायरी, व्यापम घोटाला, नीरव मोदी, मेहुल चैकसी, राफेल सौदा, आईएल एंड एफएस संकट, पीएमसी बैंक, डीएचएफएल धोखाधड़ी, कार्वी ब्रोकिंग, यस बैंक, पेगासस, अडानी हिंडनबर्ग, नीट लीक, यूजीसी नेट लीक, अडानी रिश्वतखोरी, फ्रीडम 251 जैसे करप्शन के बड़े मामले शामिल हैं जिनको विपक्ष ने समय समय पर उठाया है और विकीपीडिया पर भी मौजूद हैं, लेकिन सरकार ने इनपर कभी कान ही नहीं दिये जिससे ये बिना जांच के सही या गलत साबित कैसे हो सकते हैं? शायर ने कहा है- 
*हम कहंे बात दलीलों से तो रद्द होती है,*
*उनके होंठो की ख़ामोशी भी सनद होती है।* 
 नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 21 August 2025

राहुल का एजेंडा

समझ से बाहर है कें.चु.आ. का फ़ंडा, 
भारी पड़ रहा है राहुल का एजेंडा!
0 राहुल गांधी के चुनाव चोरी के आरोपों पर केंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग ने पिछले दिनों प्रैसवार्ता की लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने जो कुछ कहा वह बताने से अधिक छिपाने वाला था। उन्होंने कहा कि वोटिंग की वीडियो फुटेज देने से बहु बेटियों की प्राइवेसी खत्म होगी। पहले के सीईसी राजीव कुमार ने कहा था कि वीडियो देखने में 273 साल लगेंगे। इससे साफ पता लग रहा है कि वीडियो देने से केंचुआ की पोल खुल जायेगी। यही वजह है कि वे विपक्ष को मशीन रीडिंग वोटर लिस्ट भी नहीं दे रहे क्योंकि इससे उनकी धांधली पकड़ने में आसानी हो जायेगी। इतना ही नहीं आरोप लगने के बाद उल्टे केंचुआ ने बिहार में अपनी वेबसाइट पर डाली गयी डिजिटल वोटर लिस्ट हटाकर स्कैन की गयी सूची डाल दी है। केंचुआ राहुल गांधी के आरोपों की जांच कराने की बजाये उनको देश से माफी मांगने की धमकी दे रहा है।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      कंेचुआ यह भूल गया है कि उसके आयुक्त की नियुक्ति समिति में विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी शामिल थे। एक तरह से राहुल उसके बाॅस हैं। चुनाव आयुक्त सेवक है। उनको जनता के टैक्स के पैसों से वेतन मिलता है। उसको पता होना चाहिये कि विपक्ष के नेता का पद संवैधानिक पद होता है। उसका दर्जा कैबिनेट मिनिस्टर के बराबर होता है। आज जब राहुल गांधी ने देश का एजेंडा तय करना शुरू कर दिया है तो केंचुआ सरकार और भाजपा बचाव में एक साथ खड़े हो गये हैं। क्या केंचुआ को पता नहीं है कि पिछले चुनाव में भाजपा को केवल 37 प्रतिशत मत मिले थे। उसमें भी राहुल गांधी के आरोपों की निष्पक्ष जांच के बाद ही पता चलेगा कि कितने असली थे और कितने फर्जी? अगर इनमें पूरे एनडीए यानी भाजपा के सहयोगियों के मत भी जोड़ लें तो भी यह 42 प्रतिशत होता है। इसका मतलब यह है कि आध्ेा से अधिक मतदाताओं का प्रतिनिधित्व विपक्ष करता है। इनमें से भी अगर गैर एनडीए और गैर इंडिया गठबंधन की 16 सीट निकाल दें तो भी विपक्ष के नेता राहुल गांधी बहुत बड़ी जनसंख्या का संसद में नेतृत्व करते हैं। लेकिन केंचुआ का रूख पूरे विपक्ष के साथ इतना बेरूखी शत्रुता और उपेक्षा का है जैसे उसे उनसे कोई लेना देना ही न हो। केंचुआ उनको मिलने तक का टाइम नहीं देता है। जब समय देता है तो उनके नेताओं की संख्या को लेकर सीमा लगाता है। उनके सवालों मांगों और आरोपों पर केंचुआ तमाम इधर उधर की बात करता है लेकिन मूल मुद्दे पर जवाब नहीं देता है। 
       केंचुआ आरोपों की जांच के लिये राहुल से शपथ पत्र की मांग कर रहा है लेकिन दो पूर्व चुनाव आयुक्त स्पश्ट कर चुके हैं कि एफिडेविट जांच से बचने का एक बहाना है क्योंकि नियमानुसार इसकी ज़रूरत ही नहीं है। यूपी में सपा के मुखिया अखिलेश यादव ने 18000 शपथ पत्र जमा कर केंचुआ से एक वर्ग और जाति के वोट काटे जाने की शिकायत की थी लेकिन आज तक केंचुआ उस पर चुप्पी साधे है। ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी पिछले कुछ दिनों से देश का एजेंडा तय कर रहे हैं। पहले संसद में उन्होंने मोदी सरकार को पहलगाम हमला पाकिस्तान से सीज़फायर और चीन द्वारा हमारी ज़मीन पर घुसपैठ के आरोपों पर घेरा जिस पर सरकार की काफी किरकिरी हुयी। इसके बाद राहुल ने सबूत के साथ भाजपा पर चुनाव आयोग के साथ मिलकर कई राज्यों और केंद्र का 2024 का चुनाव चुराने का आरोप लगाया जिससे सरकार भाजपा और केंचुआ आज तक बदहवास हैं लेकिन उनके पास इसकी कोई काट नहीं है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने पलटकर कांग्रेस पर आधा दर्जन संसदीय सीटों पर फर्जी वोट से जीतने के हास्यास्पद और आत्माघाती आरोप लगाये जिससे राहुल के केंचुआ पर आरोपों की ही पुष्टि हुयी। राहुल गांधी जानते हैं कि सरकार चुनाव आयोग या कोर्ट उनके आरोपों की निष्पक्ष जांच नहीं करा सकते क्योंकि इससे न केवल कई राज्यों की भाजपा सरकारों बल्कि मोदी सरकार भी गिरने के कगार पर आ सकती है, साथ ही केंचुआ के आयुक्त से लेकर नीचे के कई अधिकारी कर्मचारी जेल जा सकते हैं। लेकिन इतना तो हुआ है कि जिस दिन से राहुल ने सप्रमाण भाजपा और केंचुआ पर चुनाव चुराने के गंभीर आरोप लगाये हैं, पूरी दुनिया में केंचुआ और मोदी सरकार की वैधता विश्वसनीयता और साख पर ज़बरदस्त बट्टा लगा है। 
        खुद भारतीयों की नज़र में इस सरकार की वैल्यू छवि और औकात कम हो गयी है। 17 अगस्त के दि हिंदू अख़बार में सीएसडीएस लोकनीति के सर्वे में बताया गया है कि 2019 में जहां एमपी राज्य में 57 प्रतिशत लोग चुनाव आयोग पर पूरा भरोसा करते थे वह घटकर अब मात्र 17 प्रतिशत रह गया है, यूपी में यह 56 से 21 प्रतिशत पर आ गया है। केरल में यह आंकड़ा 57 से 35 प्रतिशत रह गया है। जो लोग केंचुआ पर शून्य प्रतिशत विश्वास करते थे उनमें भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुयी है। एमपी में यह 6 से बढ़कर 22 प्रतिशत हो गया है। यूपी में ऐसे लोग 11 से बढ़कर 31 प्रतिशत तक जा पहुंचे हैं। यह कितने दुख और लज्जा की बात है कि एक समय था जब देश में ऐसे सर्वे होते थे तो जनता का कहना होता था कि उनको सबसे अधिक भरोसा तो सेना पर है लेकिन दूसरे नंबर पर चुनाव आयोग को वे विश्वसनीय मानते थे। इतना ही नहीं दुनिया के दूसरे देश केंचुआ को अपने यहां स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में सलाह सहयोग और कार्य करने को सादर आमंत्रित करते थे। सेंटर फाॅर दि स्टडी आॅफ डवलपिंग सोसायटी लोकनीति के सर्वे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि जनता को 2024 के चुनाव में ही मोदी सरकार चले जाने का अनुमान था लेकिन जब विपक्ष के आरोप के अनुसार 79 सीटों पर गड़बड़ी करके भाजपा कम हार जीत के मार्जिन वाली अधिकांश सीट जीतकर तिगड़म से साझा सरकार बनाने में सफल हुयी तो एक साल में ही जनता का भरोसा मोदी सरकार से घटने लगा। वसीम बरेलवी ने क्या खूब कहा है- 
शराफ़तों की यहां कोई अहमियत ही नहीं,
किसी का कुछ ना बिगाड़ो तो कौन डरता है।
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 7 August 2025

चुनाव आयोग और राहुल गांधी

चुनाव आयोग राहुल गांधी को सप्रमाण गलत साबित कर सकता है ?
0 एक तरफ चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची का विशेष सघन पुनरीक्षण कर 65 लाख से अधिक लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया है। इसका आधार इन मतदाताओं का मर जाना, बिहार छोड़कर दूसरे स्थानों पर हमेशा के लिये चला जाना और उनका नाम दो दो जगह मतदाता सूची में होना बताया गया है। वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी ने ताज़ा आरोप लगाया है कि महाराष्ट्र हरियाणा में फर्जी वोटिंग हुयी है। 5 बजे के बाद वोटर टर्न आउट अचानक बढ़ गया। महाराष्ट्र में 40 लाख वोटर रहस्यमय हैं। हमें लगता है इस बड़े खुलासे का आयोग पर कोई खास असर नहीं होगा क्योंकि वह पूरी तरह से मनमानी बेशर्मी और तानाशाही पर कायम है। चुनाव आयोग को स्वस्थ लोकतंत्र पारदर्शी चुनाव और निष्पक्षता के लिये राहुल को सबूत के साथ गलत साबित करना होगा।    
              -इक़बाल हिंदुस्तानी
      राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं। वह बार बार चुनाव आयोग को सचेत कर रहे हैं कि वह निष्पक्ष काम करे नहीं तो सत्ता में आने पर जांच कराकर जो चुनाव अधिकारी और कर्मचारी दोषी पाये जायेंगे उनको रिटायर हो जाने के बावजूद तलाश कर कड़ी कानूनी सज़ा दी जायेगी। राहुल ने प्रैसवार्ता कर कहा कि चुनाव प्रक्रिया लंबी चलने से लोगों का शक बढ़ रहा है। महीनों चुनाव चलने के बाद दलों के आंतरिक सर्वे एग्जिट पोल और ओपिनियन पोल से बिल्कुल अलग चैंकाने वाले परिणाम कैसे आ जाते हैं? सत्ता विरोधी भावना यानी एंटी इनकम्बेसी से केवल बीजेपी कैसे बच जाती है? जबकि लोकतंत्र में हर दल इसका शिकार होता ही है। राहुल ने कहा कि डिजिटल वोटर लिस्ट आज तक नहीं देने से हमें यकीन हो चुका है कि महाराष्ट्र में चुनाव आयोग ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव चुराया है। राहुल ने वोट चोरी की मिसाल देते हुए कहा कि कर्नाटक की महादेवपुरा सीट पर 6.5 लाख में से एक लाख से अधिक वोट की चोरी हुयी है। राहुल ने कहा कि 11000 वोटर ने तीन तीन बार वोट दिये हैं। 40,000 वोटर्स की मकान संख्या शून्य है। 
         एक पते पर बड़ी तादाद में वोटर कैसे बन गये? एक ही वोटर कई राज्यों में वोट कैसे डाल रहा है? क्या चुनाव आयोग फर्जीवाड़ा नहीं कर रहा है? हमें ना देकर चुनाव के सीसीटीवी फुटेज आयोग ने डिलीट क्यों किये अगर कुछ गड़बड़ नहीं थी? राहुल गांधी का यह भी कहना है कि उनको राजस्थान छत्तीसगढ़ और एमपी में हुए विधानसभा चुनाव के बाद से ही आयोग की हरकतों को लेकर शक होने लगा था लेकिन हरियाणा महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनाव के अप्रत्याशित चुनाव परिणाम देखकर उनका आयोग पर पक्षपात का संदेह पूरी तरह से विश्वास में बदल गया। इसकी पुष्टि के लिये उन्होंने अपने स्तर पर मतदाता सूची की जांच कराई जिससे उनको ऐसे तथ्य प्रमाण और दस्तावेज़ मिल गये हैं जिनसे यह पता लगता है कि चुनाव आयोग सत्ताधारी भाजपा के पक्ष में काम कर रहा है? राहुल ने चुनाव आयोग पर चुनाव में वोट चुराने और भाजपा को धोखे से जिताने तक का गंभीर आरोप लगाया है। उनका कहना है कि आयोग की नीयत में खोट इस बात से ही साबित हो जाता है कि उसने आज तक बार बार मांगने के बावजूद महाराष्ट्र के मतदाताओं की डिजिटल लिस्ट उनको उपलब्ध नहीं कराई है। इसकी वजह राहुल को यह लगती है कि इससे आयोग का यह गोरखधंधा खुल जायेगा कि जब पूरे महाराष्ट्र में कुल बालिग लोग ही 9 करोड़ 57 लाख हैं तो कुल मतदाता बढ़कर 9 करोड़ 70 लाख कैसे हो सकते हैं? 
        यह भी सच है कि किसी भी राज्य या देश में सौ फीसदी वयस्क लोगों के वोट बनना भी असंभव होता है। साथ ही यह सवाल भी शक को बढ़ाता है कि राज्य के चुनाव में शाम 5 बजे के बाद अचानक 70 लाख वोटर्स कहां से निकल आये जिन्होंने रात 11 बजे तक मतदान किया। विपक्ष का यह भी आरोप है कि आयोग ने नये मतदाता बनाने के नाम पर एक एक घर एक एक फ्लैट और एक एक अपार्टमेंट में 100 से 200 तक नये मतदाता बिना कड़ी जांच पड़ताल के कैसे संदिग्ध रूप से बना दिये? विपक्ष का कहना है कि अब बिहार उसके बाद बंगाल और फिर पूरे देश में स्पेशल इंटैन्सिव रिवीज़न के नाम पर चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के इशारे पर मनमाने तरीके से विपक्ष के परंपरागत समर्थक मतदाता खासतौर पर दलित आदिवासी अल्पसंख्यक और गरीब कमज़ोर वर्ग के वोट एक सुनियोजित षड्यंत्र, अभियान और योजना के तहत काटने पर तुला है। विपक्ष का आरोप है कि जो विपक्ष के असली वोटर काटे जाते हैं उनके बदले भाजपा के उतने ही फर्जी मतदाता जोड़ दिये जाते हैं जिससे हर सीट पर 20 से 30 हज़ार वोट का अंतर आ जाता है। आयोग बार बार सुप्रीम कोर्ट के सलाह देने के बावजूद आधार राशन और वोटर कार्ड को उन 11 दस्तावेज़ की सूची में शामिल करने को तैयार नहीं है जो अधिकांश लोगों के पास उपलब्ध हैं। यहां तक कि आयोग पूरी बेशर्मी और ढीठता से उस मतदाता पहचान पत्र को भी वैध मानने से मना कर रहा है जो उसने खुद ही जारी किया है। 
        आयोग से पूछा जाना चाहिये कि क्या उसने फर्जी मतदाता पहचान पत्र बनाये हैं? रहा कुछ फर्जी राशन आधार और वोटर कार्ड का तो जो 11 डाक्यूमेंट की लिस्ट आयोग ने मतदाता जांच के लिये जारी की है, उनमें भी कुछ नकली और फर्जी हो ही सकते हैं जैसा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि दुनिया का ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिसको कुछ लोग फर्जी ना बना लेते हों लेकिन इसकी जांच कर व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे लोगों की पहचान कर उनके कागजों को अमान्य किया जा सकता है लेकिन इस बहाने सबके आधार वोटर और राशन कार्ड को ठुकराना गलत है। सच तो यह है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सरकार ने उसी दिन खत्म कर दी थी जिस दिन चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से चीफ जस्टिस को बाहर कर विपक्ष के नेता व पीएम के साथ उनके एक और मंत्री को शामिल करने का कानून बना था। यही वजह थी इस दौरान एक चुनाव आयुक्त गोयल ने इस्तीफा भी दे दिया था। रही सही कसर चुनाव आयोग ने अपने विवादित पक्षपातपूर्ण और अड़ियल रूख से पूरी कर विपक्ष को खुद पर बार बार उंगली उठाने का मौका देकर पूरी कर दी है। 
          चुनाव आयोग पर बार बार सरकार की कठपुतली बनने के विपक्ष आरोप लगाता आ रहा है लेकिन आयोग इस बारे में गंभीर नज़र नहीं आता कि उसको अपनी विश्वसनीयता साख और स्वायत्ता की कोई खास चिंता है। आयोग को चाहिये था कि वह सरकार से कहता कि वह गृह मंत्रालय से लोगों की नागरिकता की जांच कराये उसके बाद जो लोग पर्याप्त दस्तावेज़ पेश नहीं कर पायेंगे उनके सामने अपीलीय अधिकारी फोरेन ट्रियूब्नल या कोर्ट जाने का अधिकार रहता है। जब अंतिम रूप से यह तय हो जाये कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है तो उसका नाम चुनाव आयोग की सूची ही क्या सरकार की ओर से मिलने वाली हर प्रकार की सुविधा से काटा जा सकता है। लेकिन चुनाव आयोग पता नहीं किसके एजेंडे पर चलने पर अड़ा है। शायर ने शायद चुनाव आयोग की बेहिसी पर कहा है- *उसके नज़दीक ग़म ए तर्क ए वफ़ा कुछ भी नहीं, मुतमइन ऐसा है वो जैसे हुआ कुछ भी नहीं।* 
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Monday, 28 July 2025

धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद

*धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद,* 
*इनपर क्यों हो रहा है विवाद?*
0 भारत के कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने राज्यसभा में बताया है कि संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद शब्द निकालने का सरकार का फिलहाल कोई इरादा नहीं है। कानून मंत्री समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन के सवाल का लिखित जवाब दे रहे थे। उन्होंने सदस्यों को आश्वस्त किया कि ऐसा करने के लिये मोदी सरकार ने कोई संवैधानिक या कानूनी प्रक्रिया भी शुरू नहीं की है। साथ ही उनका यह भी कहना था कि इन शब्दों पर राजनीतिक और सार्वजनिक मंचों पर चर्चा चलती रहेगी। आपको याद दिलादें कि आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होशबोले ने कुछ समय पूर्व यह कहकर चर्चा शुरू की थी कि इन शब्दों को संविधान में इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान गलत तरीके से जोड़ा था।  
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      संविधान विशेषज्ञ जानते हैं कि हमारा संविधान मूल रूप से सेकुलर और सोशलिस्ट ही है। संविधान के तमाम अनुच्छेद उपबंध और धारायें इस तथ्य को बार बार परिभाषित करते हैं। इसकी भावना और आत्मा पूरी तरह धर्म जाति क्षेत्र रंग नस्ल भाषा मत आस्था बोली विचारधारा अमीर गरीब शिक्षित अशिक्षित और सबसे बड़े पद पर बैठे नागरिक से लेकर आम आदमी तक सबके लिये बिना पक्षपात बिना भेदभाव और बिना पूर्वाग्रह के एक से अधिकार समान अवसर गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार और वोट देने से लेकर चुनाव लड़ने तक का बराबर हक देने की गारंटी देती है। यह सच है कि संविधान की प्रस्तावना में 1976 में इंदिरा सरकार ने एमरजैंसी के दौरान 42 वां संशोधन करके ये दोनों शब्द संविधान लागू होने के लगभग 25 साल बाद अलग से जोड़े थे। इन शब्दों को पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ तो कैंसर तक बता चुके हैं। जबकि केंद्रीय मंत्री शिवराज चैहान ने इन शब्दोें की तीखी आलोचना की थी। इसी को बहाना बनाकर इन शब्दों को संविधान से निकालने के लिये संघ परिवार से जुड़े कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। लेकिन सबसे बड़ी अदालत ने इस मांग को ठुकरा दिया। कोर्ट का कहना था कि चूंकि हमारे संविधान का हर पेज हर लाइन और हर शब्द सेकुलर और सोशलिस्ट होने की पुष्टि पहले ही करता है तो इन शब्दों को बाद में जोड़े जाने से कोई असंवैधानिक गैर कानूनी या जनविरोधी काम नहीं हुआ है।
       याचिका में दलील दी गयी थी कि ये शब्द संविधान सभा ने नहीं अपनाये क्योंकि इनका समावेश पूर्वव्यापी था, यह कुतर्क भी दिया गया कि आपातकाल में जब ये शब्द संविधान में शामिल किये गये, उस समय लोकसभा भंग हो चुकी थी लिहाज़ा यह संशोधन जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते और इन शब्दों से आर्थिक स्वतंत्रता व धार्मिक तटस्थता प्रतिबंधित होती है। दरअसल यह सब संघ परिवार और भाजपा सरकार का कोरा झूठ व दुष्प्रचार है क्योंकि वे देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। वे देश में खुलकर 2014 के बाद से पूंजीवादी नीतियां भी लागू कर रहे हैं। उनको हर समय यह खतरा सताता रहता है कि उनको असली वैचारिक चुनौती कांग्रेस या सपा टीएमसी एनसीपी शिवसेना जेएमएम या आरजेडी जैसे क्षेत्रीय दलों से नहीं बल्कि कम्युनिस्टों से मिल सकती है। सबको पता है कि वामपंथी ही सही मायने में समाजवाद और धर्मनिर्पेक्षता के वास्तविक पैरोकार हैं। वे भले ही भारत में धर्म व जाति की राजनीति के सामने फिलहाल कमज़ोर पड़ गये हैं लेेकिन आने वाले समय में उनका समानता धर्मनिर्पेक्षता और सबको शिक्षा सबको काम का नारा ही हिंदुत्व के लिये सबसे बड़ी चनौती बन सकता है। संघ परिवार का यह भी आरोप रहा है कि धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर अब तक सेकुलर दलों ने केवल अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण किया है। लेकिन वह यह नहीं बताता कि वह खुद बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता की राजनीति करके कौन सी सही और सच्ची धर्मनिर्पेक्षता का पालन कर रहा है?
       वह अपने ही दिये गये नारे पंथनिर्पेक्षता वसुधैवकुटंबकम और न्याय सबको तुष्टिकरण किसी का नहीं से भी कोसों दूर है। आज भाजपा के राज में कानून के दो पैमाने साफ नज़र आते हैं। आज भी संविधान पर चलने उसकी बार बार शपथ लेने और संविधान दिवस मनाने के बावजूद व्यवहार में सरकारें एक वर्ग के साथ खुलेआम पक्षपात करती नज़र आती हैं। आप किस धर्म को मानेंगे क्या खायेंगे क्या पहनेंगे किससे प्यार करेंगे किससे शादी करेंगे और क्या सोचेंगे यह सब सरकार तय करने लगी है। ऐसे पक्षपातपूर्ण और संवैधनिक स्वतंत्रता को खत्म कर देने वाले कानून बनाये जा रहे हैं जिससे कल आप अगर किसी खास विचार धारा पार्टी या सोच को व्यक्त करेंगे तो भी महाराष्ट्र के नये अर्बन नक्सल कानून के तहत आपको जेल भेजा जा सकता है। सरकार की आलोचना करने मात्र से कई लोग कई कई साल से बिना ज़मानत जेल में पड़े हैं जबकि संघ भाजपा से जुड़े कई लोग प्रथम दृष्टि में अपराध के दोषी लगने के बावजूद या तो थाने में रपट तक नहीं होने देते या हल्की धाराओं में एफआईआर मजबूरी मंे करनी पड़ जाये तो बाद में तरमीम कर फाइनल रिपोर्ट से लेकर विरोधाभासी चार्जशीट गवाहों को तोड़ना सबूतों को नष्ट करना और अंत में न्यायपालिका के कुछ जजों पर दबाव बनाकर अपने लोगों को बरी करा लेना का विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के कुछ सीनियर वकील अकसर आरोप लगाते रहते हैं।
        अटल बिहारी की सरकार के दौरान संविधान समीक्षा आयोग भी बना था। एक बार बिहार चुनाव से पहले संघ प्रमुख संविधान में दिये गये आरक्षण की समीक्षा की बात कहकर राजनीतिक विवाद भी खड़ा कर चुके हैं। 2024 के आम चुनाव से पहले जब भाजपा ने इस बार चार सौ पार का नारा दिया तो उसके कुछ नेताओं ने इसका कारण संविधान बदलने की मंशा भी व्यक्त कर दी थी। सच तो यह है कि संविधान की जगह मनुस्मृति लाने की इच्छा कुछ लोग अभी भी रखते हैं। यह सरकार पूंजीवाद पर भी खुलकर चल रही है। काॅरपोरेट से खुलकर चुनावी चंदा लिया जा रहा है। चंद चहेते पूंजीपतियों को इसके एवज़ में नियम कानूनों को एक तरफ रखकर ध्ंाधा दिया जा रहा है। पुलिस सीबीआई इडी, चुनाव आयोग मानवाधिकार आयोग अल्पसंख्यक आयोग अनुसूचित जाति आयोग पिछड़ा आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं को मोदी सरकार ने लगभग पूरी तरह और न्यायालय को आंशिक रूप से साध लिया है। इसलिये साफ है कि इनको धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद से समस्या है और आगे भी रहेगी। शायर ने राजनेताओं के ऐसे ही विरोधाभास पर क्या खूब कहा है- *जो मेरे ग़म में शरीक था जिसे मेरा ग़म अज़ीज़ था, मैं खुश हुआ तो पता चला वो मेरी खुशी के खिलाफ़ है।* 
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 24 July 2025

धनकड़ का इस्तीफ़ा

*इस्तीफ़ा दिया नहीं लिया गया है,* 
 *धनकड़ किसानों के लिये बोल रहे थे!* 
0 उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने अचानक अपने पद से इस्तीफ़ा दिया नहीं बल्कि उनसे लिया गया है? हालांकि त्यागपत्र का औपचारिक कारण उन्होंने अपना स्वास्थ्य बताया है लेकिन राजनीति के जानकार बताते हैं कि वजह चाहे कुछ भी हो मगर पद छोड़ने को मजबूर करने वाले अकसर ऐसा ही कारण लिखवाते हैं। अगर धनकड़ की सेहत ही उनके पद त्याग की वास्तविक वजह होती तो बीते मार्च माह में उनकी एंजियोप्लास्टी पद से अलग होने की सही टाइमिंग हो सकती थी। सबने देखा एंजियोप्लास्टी के बाद भी उनकी गतिविधियां पहले की तरह सामान्य थीं। चर्चा है कि धनकड़ का गाहे ब गाहे किसानों के हित में खुलकर बोलना, हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ बिना सरकार की मंशा जाने विपक्ष का प्रस्ताव स्वीकार करना और भाजपा मुखिया नड्डा का राज्यसभा में व्यवहार भी इस्तीफे की वजह हो सकती हैं।  
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    जगदीप धनकड़ को जो लोग गहराई से जानते हैं उनको पता है कि वे जनता दल के सांसद से लेकर कांग्रेस के विधायक बनकर भाजपा में दलबदल कर राज्यपाल से उपराष्ट्रपति के पद तक अपने ध्ैार्य राजनीतिक चतुराई और अपनी हर चर्चित विवादित व दुस्साहसी बयानबाज़ी के बल पर इन बड़े पदों तक पहुंचे थे। हालांकि बंगाल के राज्यपाल पद पर रहते उनका कार्यकाल संविधान विरोधी पद की गरिमा के खिलाफ और बेहद विवादित कहा जा सकता है लेकिन विपक्ष को उनकी जो बातें परंपरा लोकतंत्र और कानून के खिलाफ नज़र आती थीं वही उनकी उपलब्धि योग्यता और खूबी थी जिसका इनाम उनको भाजपा ने उपराष्ट्रपति बनाकर दिया। राज्यसभा के पदेन सभापति बन जाने के बाद धनकड़ ने वाइस प्रेसीडेंट के साथ साथ दोहरी भूमिका अदा कर भाजपा के लिये रबर स्टैंप की तरह जमकर काम भी किया । यहां तक कि वे तमिलनाडू के गवर्नर के खिलाफ आये सुप्रीम कोर्ट के एतिहासिक फैसले के खिलाफ जिन कटु और अतिवादी उग्र शब्दों में मोदी सरकार के पक्ष में सबसे बड़ी अदालत से भिड़े वह भी उनका दुस्साहस ही कहा जा सकता है, लेकिन समय आने पर मोदी सरकार ने उनसे नाराज़गी होते ही उनका इस्तीफा मांगने में इन बातों का तनिक भी खयाल नहीं रखा। यह सच है कि धनकड़ ने राज्यपाल उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति रहते संविधान मर्यादा और लोकतांत्रिक परंपराओं का लगातार मखौल उड़ाया। 
      धनकड़ के पक्षपात, विरोधी दलों के खिलाफ समय समय पर अन्याय प्रतिकूल टिप्पणियों से लगातार आहत विपक्ष उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव तक ले आया। संवैधानिक पद होने की वजह से ही धनकड़ सुप्रीम कोर्ट के विरोध में मानहानि अपमानजनक और अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करके भी अपने पीछे खड़ी मोदी सरकार की शक्ति की बदौलत बच निकले। धनकड़ और सरकार के बीच रस्साकशी तो काफी लंबे समय से चल रही थी। पिछले साल धनकड़ ने एक पब्लिक प्रोग्राम में मोदी सरकार को आड़े हाथ लेते हुए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चैहान की उपस्थिति में उनसे तीखे सवाल पूछे थे कि आप बतायंे कि क्या सरकार ने किसानों से किये वादे पूरे किये? धनकड़ ने अपना आक्रोष व्यक्त कर केंद्रीय मंत्री को संबोधित करते हुए यहां तक चेतावनी दे दी थी कि आपका एक एक पल भारी है। वे इतने पर ही नहीं रूके बल्कि उन्होंने किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए मोदी सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। हालांकि उस समय विपक्ष ने धनकड़ की इस उग्र बयानबाज़ी को विपक्ष का स्पेस छीनने की कवायद करार देते हुए उनके इस रूख को खास वेट नहीं दिया था। लेकिन मोदी सरकार ने इसे धनकड़ के विद्रोह की शुरूआत मानते हुए तभी से उनके बयानों गतिविधियों और राज्यसभा में फैसलों पर पैनी नज़र रखनी शुरू कर दी थी। 
       जिस तरह से आडवाणी का पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्नाह के मज़ार पर उनको सेकुलर नेता बताने का बयान संघ परिवार के लिये आडवाणी को बाहर का रास्ता दिखाने का आखि़री फैसला साबित हुआ था। उसी तरह से धनकड़ के इस्तीफे की पटकथा उनके किसानों के समर्थन में खुलकर मोदी सरकार के खिलाफ तीखे लहजे में बोलने वाले दिन ही लिख दी गयी थी। उनको पद छोड़ने के लिये मजबूर करने को दूसरे कारणों की प्रतीक्षा की जा रही थी। संयोग से वो कारण सरकार को अब मिल गये । यह भी खबर आ रही है कि कभी कभी धनकड़ सरकार की मंशा के खिलाफ बच्चो वाली ज़िद लगाकर कुछ ऐसे काम भी करते थे जिनसे सरकार का कोई नुकसान तो नहीं होता था लेकिन यह मोदी और शाह की जोड़ी को इसलिये सहन नहीं होता था कि ऐसा करने का विशेष अधिकार वे केवल अपने पास रखना चाहते थे। इसी मनमानी स्वछंदता और मनमर्जी पर चलने को लेकर पीएम और होम मिनिस्टर पिछले आम चुनाव में संघ प्रमुख भागवत तक से भिड़ गये थे जिसका उनको चुनाव में साधारण बहुमत तक ना मिलने पर नुकसान और अहसास भी हुआ उसके बाद ही दोनों का संवाद सहकार और समझौता हुआ। 
       धनकड़ ने अप्रैल में भारत आये अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस से बिना किसी प्रोग्राम शेड्यूल और प्रोटोकाॅल के मिलने की नाकाम कोशिश की जिस पर उनको समझा बुझाकर शांत किया गया। धनकड़ ने सभी मंत्रियों को अपने अपने आॅफिस में पीएम प्रेसीडेंट के साथ ही अपना भी फोटो लगाने की सीख दे डाली। अपने काफिले की सभी गाड़ियों को प्रेसीडेंट की फ्लीट की तरह मर्सिडीज़ में बदलने की बार बार बेजा मांग भी धनकड़ सरकार से करते रहते थे। धनकड़ ने वन नेशन वन इलैक्शन और संविधान से धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद को निकालने के सरकारी एजेंडे को हवा देने में भी कभी कोर कसर नहीं छोड़ी लेकिन मोदी सरकार को उनकी पूर्ण वफादारी समर्थन और समर्पण पर संदेह हो चला था जिससे जस्टिस वर्मा के खिलाफ विपक्ष का महाभियोग प्रस्ताव बिना सरकार की राय लिये स्वीकार करना उनके लिये सियासी ताबूत में आखि़री कील की तरह बन गया। अलबत्ता सत्यपाल मलिक असम के सीएम हिमंत विस्व सर्मा व धनकड़ जैसे बाहरी नेता भाजपा में कम ही बडे़ पदों पर पहुंचे हैं। धनकड़ पर गालिब का एक शेर याद आ रहा है-
 *ये फ़ितना आदमी की ख़ाना वीरानी को क्या कम है,*
*हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।*
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Saturday, 12 July 2025

वाहन की आयु नहीं फिटनेस

*वाहन चलाने लायक है या नहीं,*
*उसकी आयु नहीं फिटनेस बतायेगी!*
0 दिल्ली में 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के वाहनों पर एकाएक रोक लगाकर पहले वहां की सरकार ने तुगलकी फरमान जारी किया। उसके बाद जब लोगों का गुस्सा सामने आया तो इस आदेश पर पुनर्विचार के नाम पर कुछ समय के लिये रोक लगा दी गयी। लेकिन यह तय मानकर चलिये कि कुछ दिन बाद इस मनमाने आदेश पर कुछ बदलाव करके फिर अमल होगा। इसकी वजह यह है कि सरकार की मंशा एकदम साफ है। उसको वे सब काम करने हैं जिससे पूंजीवाद को बढ़ावा मिलता है। समाजवाद यानी समाज के कमज़ोर गरीब और मीडियम क्लास को इससे क्या नुकसान होगा यह सरकार की चिंता का विषय नहीं है। इस बात को ये सरकारें छिपाती भी नहीं हैं और बार बार जीतकर भी आती हैं।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      एक जुलाई से दिल्ली मंे वायु प्रदुषण कम करने के नाम पर 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के चैपहिया वाहनों पर अचानक रोक ही नहीं लगाई गयी, बल्कि उनको पेट्रोल पंपों पर बजाये तेल ना देकर चालान काटने के जबरन पकड़कर कबाड़ करने का अभियान चला दिया गया। वो तो अच्छा हुआ दो तीन बाद ही लोगों में भयंकर रोष देखकर सरकार ने अपने कदम फिलहाल पीछे खींच लिये। लेकिन यह समझना कि अब यह अभियान आगे कुछ अगर मगर के साथ फिर से नहीं चलेगा, मूर्खों के स्वर्ग में रहना होगा। दरअसल कम लोगों को पता होगा कि इस अभियान के पीछे सरकार की असली मंशा क्या रही होगी? आंकड़े बताते हैं कि देश में निजी वाहनों की बिक्री में गिरावट आ रही है। कार बनाने वाली कंपनियों के पास तीन माह से अधिक तक की इन्वेंट्री बिना सेल के बाकी है। कंपनियों को नये वाहन बनाने में परेशानी आ रही है क्योंकि उनके पास उनको बनाकर स्टोर करने तक के लिये और स्थान नहीं बचा है। सरकार की पूंजीवादी नीतियों से मीडियम क्लास जो कारें और नये मकान सबसे अधिक खरीदता है, आजकल सदमे में हैं। उसकी जेब खाली हो रही है। उसकी आय घट रही है और उसका कर्ज़ बढ़ता जा रहा है। इन सरकारों का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग भी यही क्लास रहा है और बेचारा इसकी कीमत भी यही चुका रहा है क्योंकि गरीब के पास खोने के लिये कुछ अधिक है नहीं और अमीर को इन बातों की चिंता नहीं है। 
     जानकारों का कहना है कि विश्व में किसी भी देश में प्राइवेट व्हेकिल की निर्धारित आयु नहीं होती है बल्कि उनको फिटनेस के हिसाब से 10, 20 या 30 साल तक चलाने की छूट दी जाती है और साथ ही अगर वाहन अधिक चलने या रखरखाव सही नहीं रखने से दो चार साल बाद ही खटारा हो जाता है तो उसको भी सीज़ कर दिया जाता है। हमारे देश में भी नियम है कि आप अपना वाहन तब तक ही चला सकते हैं जब तक उसका प्रदूषण प्रमाण पत्र ओके है। मतलब प्रदूषण फैलाने वाला फोर व्हीलर ही नहीं कोई सा वाहन जब आप चला ही नहीं सकते तो इसमें केवल कारों या भारी वाहनों पर 10 या 15 साल की तय उम्र का कानून कहां से आ गया? सच तो यह है कि वाहनों से सबसे अधिक पाॅल्यूशन चलने से नहीं जाम या रेलवे फाटकों पर उनके रूके रहने से होता है। या फिर भीड़ अधिक होने पर उनके धीरे धीरे चलने रूकने फिर से चलने बंद करने फिर स्टार्ट करने बार बार गियर बदलने या फिर रेस घटाने बढ़ानेे से होता है। वाहन आप अगर आज ही शोरूम से लाये हैं फिर भी वह इंजन चालू कर कहीं जाम में फंसा है तो काॅर्बन डाईआॅक्साइड तेजी से और अधिक छोड़ेगा ही छोड़ेगा। इसमें नई पुरानी डीज़ल पेट्रोल 10 साल 15 साल का कोई खास अंतर नहीं पड़ता है। 
       दूसरी पते की बात यह है कि सबसे अधिक प्रदूषण दिल्ली में टू व्हीलर्स करते हैं। लेकिन सरकार की हिम्मत नहीं कि उनको उम्र के हिसाब से बैन करने की बात भी सोचे। टू व्हीलर वाला वर्ग बहुत बड़ा है। सवाल यह भी है कि सरकार एक झटके में 62 लाख वाहन कैसे पकड़कर कैसे उनको स्क्रैप में बेचकर आपके हाथ में लाखों की गाड़ी के चंद हज़ार रूपये पकड़ा सकती है? मीडियम क्लास परिवारों ने किसी तरह से पेट काटकर पाई पाई जोड़कर या बैंक से कर्ज़ पर ये वाहन लिये होंगे ये उनका दुखता हुआ दिल ही बेहतर जानता होगा। हर साल माॅडल के चक्कर में कार बदल देने वाले मुट्ठीभर अमीर लोगों पर इस अभियान का क्या असर पड़ना है? अगर सरकार का यह जनविरोधी प्रयोग दिल्ली में सफल हो जाता है तो इसके बाद यूपी राजस्थान हरियाणा सहित एनसीआर के अन्य प्रदेशों का नंबर आना तय है। इस चक्कर में वाहन निर्माताओं का तो मज़ा आ जायेगा लेकिन वाहन मालिकों के लिये यह सज़ा बन जायेगा। सरकार यह सोचने को तैयार नहीं है कि दिल्ली राजधनी है और वहां पूरे भारत से लोग अपने अपने काम से आते हैं। उनकी मजबूरी है। उनका शासन प्रशासन से जुड़े कामों के साथ साथ पिकनिक ही नहीं इलाज और रोज़गार के लिये आना ज़रूरत है। इसके लिये जो शानदार जानदार और आसानी से उपलब्ध होने वाला यातायात साधन होना चाहिये वो केवल मैट्रो ही है। लेकिन विडंबना देखिये कि उस तक पहुंचने के लिये भी कार होना ज़रूरी है। 
    इसका विकल्प केवल आॅटो और किराये की ओला उूबर की टैक्सी है जिसका किराया सरकार ने पहले व्यस्त समय पर अप्रैल में डेढ़ गुना किया था अब सीधा दोगुना कर दिया है। सरकार से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिये कि माना आपने दिल्ली में ये वाहन आज नहीं तो कल चलने बंद कर ही दिये तो लोग उनको आधे पौने दाम पर आसपास के दूसरे राज्यों में बेच देंगे। क्या वे प्रदेषण वाले वाहन लोगों के गैराज में खड़े रहेंगे या फिर जहां जायेंगे वहां ही प्रदूषण फैलायेंगे तो क्या वहां के लोगों का जीवन कम मूल्यवान है जो दिल्ली को बचाकर आप बाकी देश के लोगों को साफ आॅक्सीजन की जगह काॅर्बन डाईआॅक्साइड से समय से पहले बीमार बना देना चाहते हैं? अलग अलग स्थान के आधार पर नागरिक नागरिक में यह अंतर क्या सरकार को शोभा देता है? धर्म के आधार पर तो यह सरकार पहले ही अंतर करने के लिये विपक्ष के आरोपों का सामना करती रही है। इस मामले में सरकार पर यह भी आरोप लगता रहा है कि वाहन कंपनियां सत्ताधरी दल को मोटा चुनावी चंदा देकर अपने पक्ष में नीतियां बनवाने का प्रयास करती रही हैं। साथ ही जब लोग लाखों वाहन कबाड़ कर देने पर नये वाहन खरीदेंगे तो सरकार का टैक्स कलैक्शन और अर्थव्यवस्था का साइज़ बढ़ाने का लक्ष्य भी पूरा होगा? ग़ालिब ने क्या खूब कहा है- ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना वीरानी को क्या कम है, हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 3 July 2025

वोटर की नागरिकता

आयोग का काम है चुनाव कराना, 
 ना कि नागरिकता पता लगाना?
0 जो चुनाव आयोग हरियाणा महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों को लेकर पहले ही विपक्ष के निशाने पर था। अब बिहार के विधानसभा चुनाव चार महीने दूर होने पर एक माह के भीतर मतदाता सूची के सघन परीक्षण के बहाने मतदाताओं की नागरिकता के प्रमाण मांगने को लेकर एक बार फिर विवाद के घेरे में आ गया है। यह माना कि आयोग को यह जांचने का अधिकार है कि जो भी नागरिक मतदाता बनना चाहते हैं वे चुनाव में वोट देने का संवैधानिक अधिकार रखते हैं या नहीं? लेकिन सवाल यही है कि जब आयोग किसी नागरिक को मतदाता बनाता है तो उसी समय यह जांच क्यों नहीं की जाती कि वह आदमी वोटर बनने का सही पात्र है कि नहीं? अचानक जल्दबाज़ी और आनन फानन में आयोग का यह कदम चर्चा में है।    
                 -इक़बाल हिंदुस्तानी
     बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाता हैं। इनमें से 59 प्रतिशत 40 साल या उससे कम आयु के हैं। इनमें से 4 करोड़ 75 लाख को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी नहीं तो वे वोटर लिस्ट से अपने आप ही बाहर हो जायेंगे। चुनाव आयोग ने नागरिकता साबित करने के लिये कुल 11 दस्तावेज़ तय किये हैं। अभी तक मतदाता मतलब 18 साल आयु पूरी करना माना जाता था। आपको अपना वर्तमान पता बताना होता था और आप एक फार्म भरकर आराम से मतदाता बन जाते थे। लेकिन अब यह दावा किया जा रहा है कि चूंकि बिहार में बड़ी तादाद में ऐसे लोग वोटर बन गये हैं जो मूल रूप से तो बिहारी हैं लेकिन वे काम ध्ंाध्ेा के सिलसिले में राज्य से बाहर रहते हैं। ऐसे लोगों को उसी स्थान पर मतदाता बनने के लिये कहा जा रहा है जहां वे रोज़गार करते हैं। यहां तक तो बात समझ में आती है लेकिन आयोग यह भी दावा कर रहा है कि बड़ी संख्या में ऐसे घुसपैठिये भी मतदाता बन गये हैं जो भारत के नागरिक नहीं हैं। 
      सवाल यह है कि जब वह मतदाता सूची में किसी का नाम जोड़ता है तब उनसे ऐसे दस्तावेज़ क्यों नहीं मांगे गये जिससे यह साबित होता हो कि वे देश के नागरिक हैं। दूसरी बात यह है कि यह सरकार का काम है कि वह घुसपैठियों की जांच समय समय पर और देश की सीमाओं पर करे जिससे कोई विदेशी नागरिक देश में प्रवेश ही ना कर सके। अगर जांच में यह सच सामने आता है कि बड़े पैमाने पर घुसपैठिये देश में रह रहे हैं तो उनका नाम केवल चुनाव आयोग की मतदाता सूची से ही क्यों भारतीय नागरिकों को मिलने वाली हर सुविधा जैसे सरकारी नौकरी किसी प्रकार का सरकारी लाइसेंस बैंक खाता स्कूल में एडिमिशन वजीफा राशन कार्ड ज़मीन खरीदने बेचने स्वास्थ्य का अधिकार पैन कार्ड आधार कार्ड मनरेगा कार्ड आयुष्मान कार्ड और हर सरकारी सुविधा से वंचित किया जाना चाहिये। अगर आयु 18 साल और स्थानीय निवास प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने का नियम नहीं होता तो दिल्ली और महाराष्ट्र में लाखों लोग स्थानीय जनप्रतिनिधियों के पते पर रहने का दावा करके बोगस मतदाता बनने का विपक्ष का आरोप नहीं झेल रहे होते? यही वजह है कि निवास स्थान बदलने पर वोट कटने का प्रावधान रहा है। अन्यथा दूसरा कारण किसी मतदाता की मृत्यु होने पर उसका नाम वोटर लिस्ट से निकाला जाता है। 
       इसके अलावा आज तक कोई तीसरा आधार मतदाता का नाम काटने का सामने नहीं आया है। कहीं ऐसा तो नहीं जिस एनआरसी को लाने में सकरार 2019 में सीएए लाकर फंस गयी थी और उसने विवाद से बचने को अपने कदम वापस खींच लिये थे, उसी एनआरसी को बैकडोर से चुनाव आयोग के द्वारा लाया जा रहा हो? वैसे भी किसी नागरिक का वोट कटना या बनना तो इतना बड़ा मुद्दा नहीं होता लकिन चुनाव आयोग अपने बूथ लेवल आॅफिसर से किसी की नागरिकता तय कराने लगे तो यह बड़ा मामला बन जाता है। चुनाव आयोग पर बार बार सरकार की कठपुतली बनने के विपक्ष आरोप लगाता आ रहा है लेकिन आयोग इस बारे में गंभीर नज़र नहीं आता कि उसको अपनी विश्वसनीयता साख और स्वायत्ता की कोई खास चिंता है। आयोग को चाहिये था कि वह सरकार से कहता कि वह गृह मंत्रालय से लोगों की नागरिकता की जांच कराये उसके बाद जो लोग पर्याप्त दस्तावेज़ पेश नहीं कर पायेंगे उनके सामने अपीलीय अधिकारी फोरेन ट्यूब्नल या कोर्ट जाने का अधिकार रहता है। जब अंतिम रूप से यह तय हो जाये कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है तो उसका नाम चुनाव आयोग की सूची ही क्या सरकार की ओर से मिलने वाली हर प्रकार की सुविधा से काटा जा सकता है। 
       पासपोर्ट बनाने वाले नियम मतदाता सूची के लिये लागू करने का कोई औचित्य नहीं है। इस सारी कवायद के पीछे राजनीतिक मंशा तलाशी जा रही है। अब तक भाजपा का आरोप रहा है कि सेकुलर दल अपना वोटबैंक बनाने के लिये अवैध घुसपैठियों को मतदाता बनाकर उनके वोट से सत्ता हासिल करते रहे हैं। इसलिये उनको मतदाता सूची से हटाकर विपक्ष को सत्ता में आने से रोका जा सकता है। उधर विपक्ष का भाजपा पर आरोप है कि वह बहुसंख्यकों का धार्मिक तुष्टिकरण करके दलितों आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का नाम बड़ी संख्या में विभिन्न आधार पर सूची से काटकर अपनी जीत का रास्ता साफ करना चाहती है। सवाल यह है कि अगर यह राज्य की सरकारों ने जानबूझकर किया है तो बिहार में भाजपा की साझा नीतीश सरकार पिछले 20 साल से है। क्या वह इन घुसपैठियों के थोक वोट बनवाकर चुनाव जीतकर सत्ता सुख नहीं भोग रही है? क्या यह सब नीतीश को अगले चुनाव में ठिकाने लगाने का सोचा समझा प्लान है? यह भी हो सकता है कि भाजपा को लग रहा हो कि इस बार चुनाव में उसको बेरोज़गारों दलितों और आदिवासियों का पहले की तरह वोट नहीं मिलेगा तो उनको नागरिकता और स्थानीय निवास प्रमाण पत्र जांचने के बहाने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये? जो अल्पसंख्यक भाजपा के खिलाफ अकसर खुलकर विपक्ष को वोट करते हैं उनके वोट भी बड़ी तादाद में काटकर विपक्ष को चोट दी जाये? 
        भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-2 के अनुसार 40 से 60 साल की आयु के केवल 13 प्रतिशत लोगों ने हाईस्कूल की सनद और जन्म तिथि बताने वाली अंक तालिका हासिल की है। एनएफएसएच सर्वे-3 के अनुसार 2001 से 2005 तक जन्मे कुल बच्चो में से मात्र 2.8 प्रतिशत के पास ही जन्म प्रमाण पत्र हैं। एक बात यह समझ से बाहर है कि पिछली बार वोटर लिस्ट जांचने में दो साल लगे थे इस बार मात्र एक महीने में यह काम किसी इमरजैंसी के तहत पूरा करने का तुगलकी आदेश क्यों जारी किया गया है? बिहार में वोटर लिस्ट की बड़े पैमाने पर जांच 2003 में हुयी थी। 2003 की इस सूची में जिनका नाम है उनको नागरिकाता का कोई प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं होगी। एक जुलाई 1987 से पहले पैदा हुए लोग जन्मजात भारत के नागरिक माने जायेंगे लेकिन इसके लिये उनको अपना जन्म प्रमाण पत्र जिसमें जन्म की तिथि और स्थान हो, प्रस्तुत करना होगा। जो लोग 2 दिसंबर 2004 से पहले और एक जुलाई 1987 के बाद पैदा हुए उनको अपने माता पिता में से किसी एक का भारतीय नागरिक होना साबित करना होगा। तीसरी श्रेणी में वो लोग आयेंगे जो 2 दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए उनको अपने माता पिता दोनों का भारत का नागरिक होना प्रमाणित करना होगा। अन्यथा वे भारत के नागरिक नहीं माने जायेंगे।
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीपफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 26 June 2025

ईरान ने ताकत दिखा दी...

*क्यों लड़ रहे थे इज़्राइल इरान,*
*क्या हासिल हुआ क्या नुक़सान?* 
0 इज़राइल ने 12 जून को इरान पर हमले की यह कहकर शुरूआत की थी कि वह परमाणु बम बना रहा है। उसने इरान के परमाणु केंद्रों पर हमले के साथ ही उसके कई सैनिक कमांडर और बड़े साइंटिस्ट की हत्या कर दी थी। पलटवार करते हुए इरान ने इज़राइल पर जब अपनी आध्ुानिक और मारक मिसाइलों की ताबड़तोड़ बौछार की तो इज़राइल उनको ना रोक पाने से बौखला गया। इसके बाद इज़राइल के बार बार मदद मांगने पर अमेरिका ने इरान के तीन परमाणु सेंटर फोरडो नतांज़ और इस्फाहान पर बी टू स्टील्थ बाॅम्बर से बंकर बस्टर बम गिराकर दावा किया कि उसका एटम बम बनाने का प्रोग्राम सदा के लिये ख़त्म कर दिया है। इरान ने बदला लेने को क़तर स्थित अमेरिका के सैन्य ठिकाने पर भी मिसाइल दाग दीं इसके बाद उसी रात इरान इज़राइल में जंग थम गयी।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      14 मई 1948 को इज़राइल फिलिस्तीन की धरती पर यहूदी शरणार्थियों के जर्मनी द्वारा नरसंहार के बाद आने पर यूरूपीय देशों द्वारा बनाया गया था। इज़राइल को सबसे पहले अमेरिका ने मान्यता दी थी। उसके बाद इज़राइल के विवादित विस्तारवाद फिलिस्तीनियों के उत्पीड़न निर्वासन और अन्याय के खिलाफ कई बार उसके आसपास के अरब देशों ने हमला किया लेकिन इज़राइल को अमेरिका का असीमित और बिना शर्त सपोर्ट मिलने से वह हर बार जीतकर आगे बढ़ता रहा। आज अधिकांश अरब देश अमेरिका के सैन्य अड्डे अपने यहां बनाकर और उससे सुरक्षा की गारंटी किराये पर लेकर इज़राइल के खिलाफ अपना मंुह बंद रखते हैं। लेकिन इज़राइल के जुल्म ज़्यादती और नाइंसाफी के खिलाफ फिलिस्तीनी लगातार लड़ते आ रहे हैं। अरब देशों से अलग राह पर चलकर इरान ने हमेशा फिलिस्तीन को हर तरह से सपोर्ट किया है। यह भी कहा जाता है कि हमास हिजबुल्लाह और हूथी जैसे कथित उग्रवादी संगठन भी इरान की सपोर्ट से ही इज़राइल पर आयेदिन छिटपुट हमले करते रहते हैं। लेकिन अमेरिका द्वारा इज़राइल को दिये गये अरबों डाॅलर आध्ुानिक हथियार और आइरन डोम जैसी दुश्मन की मिसाइलों को ज़मीन पर गिरकर नुकसान करने से पहले ही बीच में इंटरसेप्ट करके नाकाम कर देने वाली माॅडर्न तकनीक से उसका कोई भी देश संगठन या बम मिसाइल कुछ खास बिगाड़ नहीं सकी है। 
     फिलिस्तीन और उसके समर्थक संगठन जहां अपने मूल अधिकार दो राष्ट्र सिध्दांत और सह अस्तित्व लिये संघर्ष करते रहे हैं वहीं इरान इज़राइल का नाम ओ निशान इस धरती से मिटाने की क़समें खाता रहा है। लेकिन इरान को भी अब इज़राइल का वजूद स्वीकार कर लेना चाहिये। साथ ही स्थायी अमन के लिये इज़राइल को भी आज़ाद फिलिस्तीन स्वीकार करना होगा। अब तक इरान की इज़राइल से सीधी लड़ाई नहीं हुयी थी। लेकिन इस बार जब इज़राइल ने 12 जून को उस पर अचानक सीधे हमले कर उसको नुकसान पहंुचाया तो इरान ने पलटवार कर यह भ्रम तोड़ दिया कि इज़राइल अपराजय है। 12 दिन की जंग में इरान ने अपनी सीमा से 2500 किमी. दूर इज़राइल पर इतनी ज़बरदस्त मिसाइल बरसा दीं कि इज़राइल को अपना वजूद इरान के बिना एटम बनाये ही खतरे में नज़र आने लगा। उसने अपने आका अमेरिका से अपील कर इरान के तीन परमाणु केंद्रों पर हमले कराये लेकिन इरान उन केंदों को पहले ही खाली कर चुका था। इस दौरान चीन और रूस इरान के साथ खुलकर खड़े हो गये। रूस ने परमाणु बम बनाने वाले 200 वैज्ञानिक इरान को दे दिये। चीन ने इज़राइल के हमलों से बचाव की नई तकनीक और हथियार इरान को पर्दे के पीछे से देने शुरू कर दिये। 
      इससे इज़राइल और अमेरिका बौखला गये। उधर अमेरिका में जनता ने अफगानिस्तान और इराक की नाकामी को देखते हुए अमेरिका के जंग में शामिल होने का सड़कों पर खुलकर विरोध शुरू कर दिया। साथ ही जंग के लिये अमेरिकी कांग्रेस से सहमति ना लेने पर ट्रंप की सत्ता पर विपक्ष ने जोरदार हमले शुरू कर दिये। वहां का मीडिया भी ट्रंप की जंग में एंट्री के खिलाफ मुखर हो गया। उधर इज़राइल इरान की आधुनिक नवीनतम और सुपरसोनिक मिसाइलों के ताबड़तोड़ हमलों से इतना हलकान हो गया कि वह अमेरिका से गिड़गिड़ाने लगा कि किसी तरह से जंग रूकवा दीजिये। इरान जब इज़राइल पर जंग मंे भारी पड़ने लगा तो वह सीज़फायर के लिये तैयार नहीं हो रहा था। इस दौरान जब अमेरिका ने इरान के तीन परमाणु केंद्रों पर उसे बाकायदा सूचित कर दिखावे के लिये हमले किये तो इरान ने 60 से 90 प्रतिशत तक परिष्कृत परमाणु सामाग्री अपने 16 बड़े वाहनों में पहले ही लोड कर किसी सुरक्षित स्थान पर छिपा दी थी। किसी भी केंद्र पर रेडियेशन ना होने से हमले नाकाम साबित हो गये। 
       खुद अमेरिकी जांच एजेंसी ने ट्रंप के दावों की पोल खोलते हुए कहा कि उनको इरान के परमाणु केंद्र खत्म होने के अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं। इरान ने भी जंग रोकने के लिये शर्त रखी कि वह जब तक बदला लेने के लिये अमेरिका के सैन्य ठिकानों पर हमला नहीं कर लेगा तब तक जंग नहीं रोक सकता। इसके बाद क़तर स्थित अमेरिका के मिलैट्री बेस पर अमेरिका को इरान ने खबर करके हमला किया जिससे जान का नुकसान ना के बराबर हुआ। इसके बाद अमेरिका को अपनी धमकी के मुताबिक इरान पर और बड़े हमले करने चाहिये थे लेकिन वह अपनी नाक नीची करके उसी रात इरान इज़राइल को सीज़फायर के लिये राज़ी करने में कामयाब होेे गया। इस दौरान इरान ने इज़राइल को पहली बार इतिहास में अपनी मिसाइलों से इतनी ज़बरदस्त चोट और नुकसान पहुंचाया जिसकी इज़राइल ने आज तक कल्पना भी नहीं की थी। हालत इतनी खराब थी कि इज़राइल के लोग अपना देश तक छोड़कर भागने लगे थे। जो देश में थे वे दिन रात बंकर में अपनी जान की खैर मांग रहे थे। इज़राइल के पास जंग का साज़ ओ सामान गोला बारूद दूसरे हथियार और अरबों डाॅलर का नुकसान होने से आगे जंग जारी रखने को पैसा तक खत्म होने वाला था। उसको पहली बार इरान ने जंग का खौफ और मज़ा चखाया है जो वह निहत्थे और कमजोर फिलिस्तीनियों पर हमला करके अपना रौब झाड़ा करता था। 
        अब सवाल यह है कि इससे अमेरिका और इज़राइल को क्या मिला? जंग से पहले ये दोनों देश इरान में सरकार परिवर्तन परमाणु केंद्रों का सफाया उसके सबसे बड़े धार्मिक और सियासी रहनुमा खामनई की हत्या और इरान से बिना शर्त सरेंडर की मांग कर रहे थे लेकिन अब इरान ने इनके चारों मकसद पर पानी फेरकर खुद को इज़राइल से बेहद ताकतवर और परमाणु बम हर हाल में बनाने का एलान कर दिया है। सही भी है कि अगर दुनिया के पांच देशों अमेरिका चीन रूस ब्रिटेन फ्रांस के पास घोषित और भारत इज़राइल पाकिस्तान व उत्तरी कोरिया के पास अघोषित एटम बम मौजूद हैं तो इरान को परमाणु बम बनाने से रोकने का किसी को क्या नैतिक अधिकार है? अगर दुनिया ताकत की ही भाषा समझती है तो इस बार संयोग से इरान ने इज़राइल ही नहीं उसके आका अमेरिका को भी अपनी पाॅवर का एहसास कराकर अपना बम बनाने का इरादा साफ कर दिया है।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 12 June 2025

पाकिस्तान हल्कान

पाकिस्तान: अपने आतंक के बोझ से खुद होगा हलकान!
0 आॅप्रेशन सिंदूर के बाद से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। पहलगाम हमले का बदला लेने के लिये जब भारत ने उसके नौ आतंकी ठिकानों पर मिसाइल दाग़ीं तो तो वह उनमें से एक को भी इंटरसेप्ट कर नाकाम नहीं कर पाया। उसने अपना रक्षा बजट बेतहाशा बढ़ा दिया है। पाकिस्तान आज आर्थिक रूप से भारी संकट में है। सिंध ुजल समझौता टूटने से पाक में सूखा पड़ने के आसार अभी से दिखने लगे हैं। उसकी कुल खेती लायक ज़मीन में से 70 प्रतिशत पर 263 अमीर सामंत और नवाब रहे बड़े लोगों का कब्ज़ा है। आतंकवाद उसे अंदर ही अंदर खाता जा रहा है। पिछले साल आई भीषण बाढ़ से उसकी एक तिहाई खेती तबाह हो गयी। वहां निर्माण से अधिक आतंक पैदा हुआ है। पाक लगभग दिवालिया हो चुका है।                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
     आॅप्रेशन सिंदूर से घबराये पाकिस्तान ने जब पलटवार करने को भारत पर मिसाइल हमला करना चाहा तो उसका एक भी वार कामयाब नहीं हुआ। इन सबको भारत ने नाकाम कर दिया। इससे यह साबित होता है कि पाकिस्तान भारत का सीधी जंग होने पर बराबर का मुकाबला नहीं है। इससे पहले भी पाकिस्तान हम से कई जंग हार चुका है। यही वजह है कि उसने आतंक के ज़रिये एक छिपा हुआ गोरिल्ला यानी छद्म वार का रास्ता चुना है। विश्व के सैन्य विशेषज्ञों का अनुमान है कि पाकिस्तान भारत के साथ सीधे युध्द में तीन से 7 दिन तक ही टिक सकता है। आॅप्रेशन सिंदूर के बाद तीन दिन बाद ही जिस तरह से पाकिस्तान ने भारत के सामने घुटने टेक दिये उससे दुनिया के रक्षा जानकारों का यह अंदाज़ सही साबित भी हो चुका है। इस मामले में पाकिस्तान की चार बड़ी समस्यायें सामने आ रही हैं जिसमें सैन्य, आर्थिक रण्नीतिक और भौगोलिक चुनौती उसके सामने खड़ी हैं। भारत के पास 15 लाख एक्टिव और 11 लाख 50 हज़ार रिज़र्व फौजी हैं जबकि पाकिस्तान के पास 6 लाख 50 हज़ार सक्रिय और 5 लाख सुरक्षित सैनिक हैं। जानकारों का कहना है कि भारत की सेना को लेकर कई लोगों को यह भ्रम रहता है कि उसकी सेना चीन बंगलादेश की सीमा और कश्मीर में विभाजित है जबकि पाकिस्तान की सेना खुद भी ब्लोचिस्तान और खैबर पख्तूनवा के साथ ही अफगानिस्तान और भारत की सीमा पर चार चार जगह बंटी हुयी है। 
    भारत के पास टैंक 4614 एयरक्राफट 2230 जबकि पाक के पास टैंक 3742 और एयरक्राफट केवल 425 ही हैं। युध्दपोत के हिसाब पाक भारत के सामने कहीं मुकाबले मंे टिक ही नहीं सकता क्योंकि हमारे पास जहां पूरा नौसैनिक बेड़ा है तो पाक के पास छोटा सा पोत है। जो हाथी और चींटी जैसा मुकाबला माना जा सकता है। मिसाइलों के मामले में भी पाकिस्तान भारत से हर मामले में उन्नीस ही साबित होगा। गोला बारूद पाक पूरी तरह से बाहर से आयात करने पर निर्भर है जिससे वह चार से सात दिन तक का ही कोटा रखता है जबकि भारत खुद भी गोला बारूद बनाता है जिससे वह इस मामले में भी पाक पर बहुत भारी पड़ने वाला है। भारत की जीडीपी पाक से दस गुना अधिक है। भारत का रक्षा बजट 83 बिलियन डाॅलर जबकि पाक का मात्र 7 से 8 बिलियन डालर था जो अब 9 बिलियन किया है। पाक में महंगाई की दर 23 प्रतिशत अभी है जो जंग जारी रहने पर वह कई गुना बढ़कर पाक का दिवाला निकाल देगी। जहां तक भौगोलिक और रण्नीतिक लड़ाई की बात है तो भारत की सेना मैदानी और पहाड़ी दोनों तरह के मोर्चो पर लड़ने के लिये प्रशिक्षित रही है जबकि पाक की सेना शुरू से ही रक्षात्मक होने की वजह से जंग चालू होने के कुछ समय बाद ही पीछे हटने पर मजबूर हो जाती है। 
       1971 की जंग मंे भारत ने पाकिस्तान के एकमात्र करांची पोर्ट की पूरी तरह नाकेबंदी कर दी थी। यह जंग केवल 13 दिन चली था। जबकि हमारे पास रसद तेल और दूसरे जंगी सामान पहंुचाने के कई वैकल्पिक रास्ते मौजूद रहे हैं जिनमें से एक भी पाक के बस का बंद करना नहीं है। इस कमज़ोरी को समझते हुए पाक ने इस बार तुर्की से एक युध्दपोत उधार ले लिया था लेकिन वह उसकी कोई खास मदद कर पाया हो ऐसी कोई ख़बर अब तक सामने नहीं आई है। पाक की सेना भारत से लड़ने को अगर घरेलू मोर्चे से हटती है तो उसके पाले हुए अफगानी आतंकी उसकी सत्ता पर हमला कर सत्ता पलट कर अंदरूनी मसला खड़ा कर सकते हैं। चीन का खुलकर समर्थन हासिल करने का पाक का दावा उसका माॅरल हाई कर सकता है यह किसी हद तक सच है। पाक का जंग में कमजोर पड़ने पर परमाणु हथियार का इस्तेमाल करने की धमकी देना एक तरह से ब्लैकमेल करना है जिसे दुनिया चुपचाप शायद ही देख सकती है। आईएमएफ यानी इंटरनेशनल मोनेट्री फंड ने उसको इस संकट से निकालने के लिये 7 अरब डालर का बेलआउट पैकेज दिया है लेकिन उसकी शर्तें इतनी मुश्किल जनविरोधी और सख़्त हैं कि पाक के सामने एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई वाली हालत है। रेटिंग एजेंसी मूडीज़ का कहना है कि पाक की कर्ज़ चुकाने की क्षमता आज दुनिया के किसी भी आज़ाद और संप्रभु देश के मुकाबले सबसे कमज़ोर है। उसके कर्ज़ का ब्याज भुगतान ही कुल आने वाले राजस्व का आधा है। 
      2017 का विदेशी कर्ज़ 66 से बढ़कर 100 बिलियन हो चुका है। डाॅलर की कीमत 267 रूपये हो चुकी है जिससे पाक का कर्ज़ बिना और लिये ही बढ़ता जा रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 3.67 अरब डालर बचा है जोकि आगामी तीन सप्ताह के लिये ही हैै। उसकी सीमा पर विदेशी माल के ढेर लगे हैं। लेकिन उनकी कीमत चुकाने के लिये विदेशी मुद्रा ना होने से वह माल पाक मंे अंदर प्रवेश नहीं कर पा रहा है। आतंकवाद उग्रवाद चरमपंथ कट्टरपंथ करप्शन सेना का बार बार चुनी हुयी सरकार का तख़्ता पलट करना आर्थिक गैर बराबरी विदेश में काम करने वाले पाकिस्तानियों पर अर्थव्यवस्था का टिका होना आज़ादी के दशकों बाद तक अपना संविधान ना बना पाना लोकतंत्र मज़बूत ना होना सेना पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करना अमेरिका और खाड़ी के देशों से मिलने वाली बड़ी वित्तीय मदद का बड़ा हिस्सा तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को पैदा कर पालना पोसना और भारत की तरह ज़मींदारी उन्मूलन ना कर देश में केवल बेहद गरीब और बेहद अमीर दो ही वर्ग आज तक बने रहना भी पाक की तबाही का कारण बना है। 
      ऐशियन लाइट की रिपोर्ट बताती है कि पाक ने जेहाद के नाम पर अमेरिका से मोटी रकम हथियार और राजनीतिक मदद लेकर पहले 1979 में रूस को अफगानिस्तान से निकालने कश्मीर को आज़ाद कराने के दावे को लेकर और बाद में 2001 में ओसामा बिन लादेन के 9 बटे 11 के हमले के बाद अलकायदा को ख़त्म करने को लेकर लोहे को लोहे से काटने के लिये अपनी सरज़मीं पर दहशतगर्द पैदा करने का कारखाना लगाया। अब जब ये अभियान खत्म हो चुका है तो पाक को अमेरिकी और अन्य मुल्कों की मदद मिलनी तो बंद हो ही गयी है। साथ ही उसने जिस तालिबान के जिन्न को बोतल से निकाला था। वह आज अफगानिस्तान में मिशन पूरा होने पर पाकिस्तान के गले का सांप बन गया है। कहावत सही है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से आये।
नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।

Thursday, 5 June 2025

चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था

चैथी बड़ी अर्थव्यवस्था होना नहीं,
प्रति व्यक्ति आय बढ़ना विकास है ?
0 नीति आयोग का दावा है कि देश दुनिया की चैथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। जबकि सच यह है कि आईएमएफ ने यह मात्र अनुमान लगाया है कि शायद भारत 2025 खत्म होने तक जापान को पीछे छोड़कर यह स्थान पा सकता है। उधर मोदी सरकार का कहना है कि वह देश को जल्दी ही विश्व की तीसरी बड़ी इकाॅनोमी बना देगी। लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश की जीडीपी उनके कार्यकाल में कांग्रेस की सरकार के मुकाबले आधी से भी कम स्पीड यानी 2014 से 2023 तक 84 प्रतिशत तो 2004 से 2014 तक दोगुने से भी अधिक यानी 183 प्रतिशत बढ़ी थी। जबकि दुनिया की तालिका में भारत प्रति व्यक्ति आय 2600 डाॅलर के हिसाब से देखा जाये तो हम 144 वें स्थान पर हैं।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      इंटरनेशनल माॅनेटरी फंड के अधिकृत आंकड़ों के अनुसार दुनिया में जीडीपी के हिसाब से 2025 के अंत तक अमेरिका 30507.22 बिलियन डाॅलर से नंबर वन तो चीन 19231.71 बिलियन डाॅलर से दूसरे व जर्मनी 4744.80 बिलियन डाॅलर से तीसरे भारत 4187.02 बिलियन डाॅलर के साथ चैथे और 4186.43 बिलियन डाॅलर से जापान पांचवे स्थान पर पहुंच सकता है। 2014 से 2023 तक चीन की जीडीपी 84 तो अमेरिका की 54 प्रतिशत बढ़ी है। इनके अलावा दुनिया के टाॅप टेन देशों में से कई की जीडीपी या तो मामूली बढ़त के साथ स्थिर रही है या फिर मंदी के कारण वर्तमान से भी कुछ नीचे चली गयी है। अगर अप्रैल के आंकड़ों की बात करें तो अभी हम पांचवे स्थान पर ही हैं। मिसाल के तौर पर जिस ब्रिटेन को पहले हमने पांचवे पायेदान से पीछे छोड़ा था। उसकी जीडीपी बढ़त इस दौरान मात्र 3 तो फ्रांस की 2 और रूस की केवल एक प्रतिशत ही रही है। ऐसे ही जिस जापान को हम इस साल के अंत तक पीछे छोड़ने जा रहे हैं उसकी जीडीपी ग्रोथ मात्र 0.3 प्रतिशत है। इसके लिये यह भी ज़रूरी है कि देश में जंग के हालात न बनें, अमेरिका के लिये भारत का निर्यात बिना टैरिफ बढ़े पहले की तरह चलता रहे, हमारे यहां जीडीपी की रियल ग्रोथ मज़बूत बनी रहे और इस बढ़त में प्रोडक्शन का हिस्सा न केवल 15 प्रतिशत से नीचे न जाये बल्कि इससे आगे रहे।
      इनमें से एक भी चीज़ गड़बड़ होती है तो हम अपनी विकास दर वर्तमान स्तर पर भी बनाये रखने के लिये संघर्ष करने को मजबूर हो सकते हैं। उधर ब्राजील की जीडीपी उल्टा 15 प्रतिशत पीछे चली गयी है। इसकी वजह दुनिया में आई 2008-09 की मंदी भी बनी। हालांकि भारत भी इस मंदी से प्रभावित हुआ लेकिन उसका असर बहुत हल्का सा था। हालांकि पूर्व अनुमान के अनुसार भारत आशा के अनुसार 8 से 9 प्रतिशत की स्पीड से नहीं बढ़ रहा है लेकिन अगर हम 6 प्रतिशत की जीडीपी औसत बढ़त भी बनाये रख सके तो 2026 तक जर्मनी को पीछे छोड़कर विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। इसकी वजह यह होगी कि हमारी इकाॅनोमी तब तक 38 तो जापान और जर्मनी की 15 प्रतिशत ही बढे़गी। 2004-09 में डीडीपी 8.5 प्रतिशत तो 2004 से 2014 तक औसत 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी। आज भारत की जीडीपी औसत 5.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। वह दौर एक तरह से मनमोहन सिंह सरकार का भारत में आार्थिक प्रगति का स्वर्ण काल था लेकिन अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की आड़ में मीडिया व संघ परिवार ने एक सोची समझी योजना के तहत तिल का ताड़ बनाकर उस सरकार को काल्पनिक टू जी घोटाले के बहाने इतना अधिक बदनाम कर दिया जितना उसका कसूर नहीं था। इन आंकड़ों की सहायता से हम यह समझ सकते हैं कि किसी देश की जीडीपी बढ़ने में उसकी सरकार आबादी और दूसरे देशों की मंदी कम स्पीड और प्रति व्यक्ति आय की क्या भूमिका होती है?
     हमारे देश में 35 करोड़ लोग पूरा पौष्टिक खाना नहीं खा पा रहे हैं। 80 करोड़ लोगों को सरकार 5 किलो अनाज देकर जीवन जीने में मदद कर रही है। देश की निचली 50 प्रतिशत आबादी सालाना आमदनी 50 हज़ार रूपये कमाकर भी कुल जीएसटी का 64 प्रतिशत चुका रही है। जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत मात्र 3 प्रतिशत भागीदारी कर रहे हैं। इससे आमदनी ही नहीं खर्च और कर चुकाने के हिसाब से भी आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। जबकि चोटी के एक प्रतिशत की वार्षिक आय 42 लाख है। जीएसटी हर साल हर माह पहले से अधिक बढ़ने का दावा भी सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर करती है जबकि जानकार बताते हैं कि इसका बड़ा कारण तेज़ी से बढ़ती बेतहाशा महंगाई भी है। महंगाई बढ़ाने में खुद सरकार पेट्रोलियम पदार्थों रसोई गैस और चुनचुनकर उपभोक्ता पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाना या कर की दरें लगातार बढ़ाते जाना भी हैै। जीडीपी प्रोडक्शन का पैमाना माना जाता है। लेकिन यह उपभोग का माप भी है। जब आप कन्ज्यूमर की एक विशाल गिनती लेकर उसे एक मामूली राशि से गुणा करेंगे तो एक बहुत बड़ी संख्या आती है। अगर क्रय मूल्य समता यानी पीपीपी के आधार पर देखा जाये तो हमारी यह 2100 अमेरिकी डाॅलर है। जबकि यूके की 49,200 डाॅलर और अमेरिका की 70,000 डाॅलर है।
        अगर देश के लोग गरीब हैं तो दुनिया में जीडीपी पांचवे तीसरे नंबर पर ही नहीं नंबर एक हो जाने पर भी क्या हासिल होगा? यह एक तरह से भोली सीधी सादी जनता को गुमराह करने का एक चुनावी राजनीतिक झांसा ही अधिक है। सच तो यह है कि मोदी सरकार की नोटबंदी देशबंदी और जीएसटी बिना विशेषज्ञों की सलाह लिये और बिना सोचे समझे और जल्दबाज़ी में लागू करने से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहंुचा है जिससे यह वर्तमान में जहां खुद पहंुचने वाली थी उससे भी पीछे रह गयी है। इसका परिणाम तेज़ी से बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई है। इसके साथ ही यह भी एक बड़ा विचारणीय तथ्य है कि जिस देश में शांति भाईचारा समानता निष्पक्षता धर्मनिर्पेक्षता न्याय नहीं होगा वहां शांति नहीं रह सकती और जब शांति नहीं होगी तो ना विदेशी निवेश आयेगा और ना ही स्थानीय स्वदेशी कारोबार से अर्थव्यवस्था ठीक से फले फूलेगी। इस बार अब तक विदेशी निवेश में भारी कमी की ख़बरें आ रही हैं। कहने का मतलब यह है कि जब तक प्रति व्यक्ति आय नहीं बढ़ती है तब तक लोगों को निशुल्क शिक्षा, बेहतर इलाज, शानदार सड़कें और 24 घंटे बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराना एक सपना ही बना रहेगा। पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद गर्ग ने भी यही दोहराया है कि अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ना अच्छी बात है लेकिन विकसित राष्ट्र बनने के लिये प्रति व्यक्ति आय बढ़ना ज़रूरी है जिसमें हम अभी काफी पीछे हैं। अदम गोंडवी का एक शेर याद आ रहा है- तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है।         नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 22 May 2025

संविधान सर्वोच्च है

सही है चीफ़ जस्टिस का बयान,
सर्वोच्च है भारत का संविधान!
0 सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी आर गवई ने बिल्कुल सही कहा है कि लोकतंत्र में विधायिका न्यायपालिका और कार्यपालिका तीनों स्तंभ समान हैं, उनको एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। उनका कहना है कि अगर कोई सर्वोच्च है तो वह संविधान है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से तमिलनाडू के मामले में वहां के राज्यपाल और देश के राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर विधानसभा से पास विधेयकों को पास करने या वापस लौटाने का आदेश दिया उस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने जिन शब्दों में एतराज़ जताया है उससे यह बहस छिड़ गयी है कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट अथवा राष्ट्रपति? जबकि सच यह है कि संविधान सबसे बड़ा है।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर पांच पन्ने का संदर्भ मांगा है। प्रेसिडंेट ने यह संदर्भ संविधान में उनको दिये गये अनुच्छेद 143 के तहत अधिकार का प्रयोग करते हुए यह जानना चाहा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान में व्यवस्था नहीं होने के बावजूद उनको समय सीमा के अंदर बिल पास करने के लिये कह सकता है? दो जजों की बैंच ने जब यह निर्णय दिया था जानकार लोगों ने तभी अनुमान लगाया था कि केंद्र सरकार इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका लगा सकती है। इसके बाद अनुमान है कि यह मामला संविधान पीठ के सामने विचार के लिये जा सकता है। आपको याद दिला दें कि तमिलनाडू सरकार के कुछ बिलों को वहां के गवर्नर द्वारा कई साल तक रोकने और उसके बाद वापस करने पर उनको वहां की सरकार द्वारा दोबारा पास करके भेजने के बाद उन बिलों को विचार के लिये गवर्नर द्वारा प्रेसीडेंट के पास भेज देने और वहां एक बार फिर से वे बिल ठंडे बस्ते में असीमित समय के लिये रूक जाने से नाराज़ होकर सबसे बड़ी अदालत ने अपने विशेष संवैधानिक अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए उन दस बिलों को बिना राष्ट्रपति की सहमति के ही पास मानकर कानून का दर्जा दे दिया था। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने भविष्य में ऐसे विवाद रोकने के लिये राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिये ऐसे बिलों को पास करने या वापस करने के लिये एक से तीन माह का समय तय कर दिया था।
     अब राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सवाल उठाते हुए उससे संदर्भ मांगा है कि क्या वह संविधान में ऐसी कोई समय सीमा न होने के बाद भी उनको निर्धारित समय में ऐसे मामलों में निर्णय लेने के लिये आदेश दे सकता है? साथ ही राष्ट्रपति ने इस बात पर भी एतराज़ किया है कि सुप्रीम कोर्ट को उनके विवेक पर सवाल उठाने का अधिकार कहां से मिला है? 2014 के बाद से यह देखा गया है कि केंद्र सरकार के निर्देशों पर काम करने वाले राज्यपाल विपक्षी सरकारों को तरह तरह से पहले की केंद्र सरकारों के मुकाबले कुछ अधिक ही परेशान करते रहे हैं। हालांकि हाल ही में विरोधी दलों की राज्य सरकारों को असंवैधानिक रूप से गिराने की तिगड़मों में कुछ कमी आई है। इस मामले में कांग्रेस की केंद्र सरकार का रिकाॅर्ड अधिक खराब रहा है। जहां तक राज्यों की चुनी हुयी सरकारों का सवाल है उनको राष्ट्रपति और राज्यपाल से अधिक संवैधानिक शक्तियां मिली हुयी हैं। सही मायने में राष्ट्रपति और राज्यपाल तो केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं। इसी लिये यह नियम बनाया गया था कि अगर केंद्र या राज्य की कोई सरकार किसी विधेयक को बिना पास किये विचार के लिये लौटाने पर दोबारा पास करके भेजती है तो राष्ट्रपति और राज्यपाल को उन पर हस्ताक्षर करने ही होंगे। ऐसा न करने पर उनको अपना पद छोड़ होगा।
       इसका मतलब यह है कि उनको किसी भी बिल को पास करने से रोकने की संवैधानिक पाॅवर हासिल नहीं है। लेकिन संविधान में ऐसा करने के लिये कोई समय सीमा न होने से वे इसका इस्तेमाल बिलों को अनिश्चित समय तक रोके रखने के लिये करते रहे हैं। सच तो यह है कि ऐसा वे खुद नहीं बल्कि केंद्र सरकार के इशारे पर करते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में ऐसी समय सीमा नहीं होने के कारण गलत इस्तेमाल की जा रही इस शक्ति पर रोक लगाकर कुछ भी गलत नहीं किया है लेकिन हां यह संविधान में नहीं लिखा है यह बात सच है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की।
       सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करते हैं। सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये। उसके बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने गवर्नर से उन कानूनों को पास करने या फिर से विचार करने को वापस राज्य सरकार के पास भेजने को कहा। लेकिन जब बात नहीं बनी तो राज्यपाल ने उन कानूनों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। सरकार के कुल कार्यकाल पांच साल में अगर तीन साल कानून राज्यपाल के यहां अटके रहेंगे और इसके बाद जानबूझकर देर करने सरकार को बदनाम करने या उसको काम न करने देने के इरादे से वही कानून राष्ट्रपति के पास भेज दिये जायेंगे। जहां वे राज्यपाल के आॅफिस की तरह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे तो निर्वाचित सरकार का क्या मतलब रह जाता है? केंद्र सरकार के संविधान विरोधी इलैक्टोरल बांड जैसे कानून पहले भी सुप्रीम कोर्ट में निरस्त होते रहे हैं। लगता है वक्फ़ कानून का भी यही हश्र होने जा रहा है।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 15 May 2025

सेना का सम्मान

देशभक्तों सेना का सम्मान कीजिये, 
सभी भारतीयों को साथ लीजिये!
0 आॅप्रेशन सिंदूर हमारी सेना का पाकिस्तान को पहलगाम हमले का करारा जवाब है। हर भारतीय को सेना के इस साहस पर गर्व है। पूरा देश इस नाजुक और एतिहासिक अवसर पर सेना के साथ खड़ा है। सरकार ने सेना को इस आॅप्रेशन के लिये खुली छूट दी थी। इसके लिये विपक्ष ने सरकार का पूरा साथ दिया है। हर भारतीय पाक को सबक सिखाने के लिये देश के लिये हर तरह की कुरबानी देने को तैयार है। लेकिन दुख की बात है कि जिनका एजेंडा हिंदू मुस्लिम है उनमें से चंद लोग अभी भी कर्नल सोफिया कुरैशी को मुसलमान होने की वजह से टारगेट कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे विदेश सचिव विक्रम मिस्री को भी पाक के साथ सीज़ फ़ायर का ऐलान करने से ट्राॅल करने लगते हैं। उनके परिवार तक पर कीचड़ उछाला जाता है जिससे तंग आकर वे अपना सोशल मीडिया एकाउंट लाॅक करने को मजबूर होते हैं। यह बहुत निंदनीय और दुखद सोच है। सही मायने में ऐसे लोगों पर देशद्रोह का केस चलाया जाना चाहिये।  
-इक़बाल हिंदुस्तानी
     सेना सेना होती है। उसका कोई निजी धर्म नहीं होता। उसका मकसद सदा देश और जनता की सेवा होता है। सेना से बड़ा देशभक्त कोई दूसरा नहीं साबित कर सकता। सेना अपना सब कुछ दांव पर लगाकर सीमा की निगहबानी करती है। वो देश की बिना शर्त रक्षा करती है। सैनिक अपनी जान की परवाह किये बिना विषम हालात में भूख प्यासा आंधी तूफान के बीच भी दिन रात देश की आन बान शान के लिये आखि़री सांस तक लड़ता है। लेकिन जब कोई दो कौड़ी का नेता आॅप्रेशन सिंदूर को अपने नेतृत्व में अंजाम तक पहंुचाने वाली कर्नल सोफिया कुरैशी जैसी जांबाज़ फौजी को उनके धर्म की वजह से पाक के आतंकियों की बहन बताकर अपमान करता है तो वह हमलावरों के देशवासियों को बांटने के एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा होता है। वह तो अच्छा हुआ एमपी के हाईकोर्ट ने इस मामले का खुद संज्ञान लिया और आरोपी के खिलाफ रपट दर्ज करने का आदेश दे दिया। लेकिन अफसोस यह रहा कि खुद को सबसे बड़ा देशभक्त बताने वाली पार्टी के मुखिया उनके पितामाह सांस्कृतिक संगठन पीएम सीएम और अन्य बड़े बड़े पदों पर बैठे नेताओं ने उस मुंहफट मंत्री से इस्तीफा तक नहीं लिया। अलबत्ता पार्टी ने जब उनके बयान से खुद को अलग किया तो उसने मजबूरन दिखावे की माफी ज़रूर मांग ली। ऐसे ही विदेश सचिव विक्रम मिस्री का मामला है। उनको सरकार के आदेश का पालन करना होता है। उन्होंने जब मीडिया में पाक के साथ सीज़ फायर का ऐलान किया तो ट्राॅल आर्मी उनके पीछे पड़ गयी।
      14 नवंबर 2015 को लंदन के वेम्बली स्टेडियम में भारतीय प्रवासियों की एक सभा में पीएम नरेंद्र मोदी ने सेल्फी विद डाॅटर अभियान की अपील करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय आंदोलन बताया था। जानी मानी काॅरपोरेट लाॅयर डिडोन के पिता विक्रम मिस्री ने अपनी बेटी के साथ एक सेल्पफी सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी थी। दस साल बाद इस सेल्फी को ट्राॅल आर्मी ने तलाश कर निकाला और डिडोन के अश्लील मीम बनाकर उनके पिता विदेश सचिव विक्रम मिस्री के ट्विटर हैंडल पर भद्दे चित्रों और कमेंट की बाढ़ ला दी। मिस्री का कसूर यह था कि उन्होंने भारत सरकार के निर्देशानुसार पाक के साथ जंगबंदी की घोषणा की थी। अंधभक्त चाहते थे कि जंग जारी रहे और गोदी मीडिया के झूठे दुष्प्रचार के हिसाब से इस बार पाकिस्तान को पूरी तरह निबटा दिया जाये। उनको यह नहीं पता कि न तो कोई विदेश सचिव जंग की शुरूआत करता है और न ही जंग रोकने का फैसला उसके हाथ में होता है। इससे पहले पहलगाम हमले में अपने फौजी पति को खो बैठी हिमांशी नरवाल को उनकी इस पोस्ट पर निशाने पर लिया गया था कि वे चाहती हैं कि पाक हमलावरों को कड़ी सज़ा मिले लेकिन इसके लिये कश्मीरी और भारतीय मुसलमानों को आरोपी न माना जाये। ऐसे ही नैनीताल में एक लड़की के साथ रेप होने पर जब आरोपी के दूसरे धर्म का होने की वजह से उस धर्म के लोगों को हिंसा का शिकार बनाया गया तो शैला नेगी ने इस अन्याय का विरोध किया तो ट्राॅल आर्मी ने कायदे की बात करने वाली इस बहादुर और समझदार लेडी को ही डराना धमकाना और अपमानित करना शुरू कर दिया था।
       इतना ही नहीं देश के वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने पिछले दिनों सरकार से उसकी नाकामी और गैर ज़िम्मेदारी पर कुछ तीखे सवाल पूछे तो उनकी डीपी पर लगी उनकी बेटी की फोटो लेकर सोशल मीडिया पर अश्लील कमेंट किये जाने लगे। इससे दुखी और नाराज़ होकर कभी संघ के समर्थक रहे राहुल देव ने अपनी डीपी से अपनी बेटी की तस्वीर हटा दी। अब वे खुद भी सोशल मीडिया पर इस मानसिक आघात से बहुत कम पोस्ट कर रहे हैं। इससे पहले सरकार के खिलापफ कुछ कड़े फैसले देने पर कोर्ट के खिलाफ भी ऐसे ही ट्राॅल ने बहुत अभद्र और आक्रामक भाषा का प्रयोग किया था। इस तरह के पीड़ित लोगों की लिस्ट काफी लंबी है। धर्म और साम्प्रदायिकता की नफ़रत भरी झूठी राजनीति करने वालों के संरक्षण के कारण ऐसे ट्राॅल अब निडर होकर किसी पर भी टूट पड़ते हैं। इनका विश्वास न तो संविधान में है और न ही ये लोकतंत्र का सम्मान करते हैं। यही वजह है कि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता को भी कुछ नहीं समझते हैं। ज़ाहिर बात है कि ऐसे लंपटों के लिये किसी भी मामले में असहमति या विरोध के लिये भी कोई जगह नहीं है। हम शुरू से ही कहते आ रहे हैं कि अगर किसी वर्ग जाति या धर्म के लोगों के लिये कोई कानून हाथ में लेगा उनको बात बात पर निशाने पर लेगा या हिंसक और अश्लील तरीके से पेश आयेगा और सरकारें उस पर जानबूझकर चुप्पी साधेंगी तो यह आग एक दिन उनके घर को भी जलायेगी जो दूसरों को नुकसान पहुंचाकर आज बहुत खुश हो रहे हैं। अभी भी समय है कि अगर आप सच्चे देशभक्त हैं तो सेना का सम्मान कीजिये और सभी भारतीयों को साथ लीजिये। मजाज़ का एक शेर याद आ रहा है- बख़्शी हैं हमको इश्क ने वो जुर्रत ए मजाज़, डरते नहीं सियासत ए अहले जहां से हम।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 8 May 2025

सम्मान के बदले अपमान...

ट्रजिडी! जिनको सम्मानित करना 
चाहिये उनको अपमानित कर रहे हैं!
0 पहलगाम हमले में अपने पति लेफ़निनेंट विनय नरवाल की जान गंवाने वाली उनकी पत्नी हिमांशी नरवाल ने भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान में की गयी एयर स्ट्राइक को आतंकवाद ख़त्म होने तक नहीं रोकने की मांग की है। उनका कहना है कि उनके पति का वायुसेना में शामिल होने का मकसद देश में शांति कायम करना और आतंकवाद को खत्म करना था। इससे पहले हिमांशी ने कहा था कि जिन लोगों ने उनके पति की हत्या की है उनको सज़ा मिलनी चाहिये लेकिन इस घटना के लिये सभी मुसलमानों और कश्मीरियों को निशाना नहीं बनाना चाहिये। इस बयान पर हिमांशी को सोशल मीडिया पर ट्राॅल किया गया तो महिला आयोग उनके पक्ष में बोला लेकिन यह दुखद है कि जिस साहस और विवेक के लिये हिमांशी को सम्मानित किया जाना चाहिये था उसके लिये उल्टा उनको अपमानित किया गया। ट्रजिडी यह है कि ऐसा ही कुछ शैला नेगी सहित और भी कुछ लोगों के साथ समय समय पर अनर्थ होता रहा है।   
-इक़बाल हिंदुस्तानी
      हिमांशी नरवाल उन बहादुर समझदार और विवेकशील चंद लोगों में से है। जो दुख गुस्सा और उन्माद के दौर में भी अपनी भावनाओं पर काबू रखकर वही कह रही हैं। जो कि सच है। जो कि कानून के अनुसार है। जो कि संविधान कहता है। जो कि एक सभ्य समाज को कहना चाहिये। जो कि एक अमन चैन न्याय तर्कशील और मानवीय सोच के इंसान को कहना चाहिये। कम लोगों को याद होगा नोएडा के दादरी में जब काफी पहले अख़लाक नाम के एक बुजुर्ग की भीड़ द्वारा लिंचिंग कर हत्या कर दी गयी थी तो वायुसेना में सेवा दे रहे उनके बेटे सरताज ने कहा था कि चंद लोगों द्वारा उनके पिता को मौत के घाट उतार देने के बावजूद वे हत्यारों के धर्म के कारण सारे हिंदुओं को दोषी नहीं ठहरा सकते। इसी तरह पहलगाम हमले में अपने पिता ए रामचंद्रन को खो देने वाली उनकी बेटी आरती ने कहा कि मेरे पिता को आतंकवादियों ने मार दिया लेकिन कश्मीर ने मुझे समीर और मुसाफिर के रूप में दो भाई भी दिये हैं। ऐसे ही एक लड़की दीपिका ने कहा कि आतंकवादियों ने जिस तरह से चुनचुनकर मेरे सामने हिंदुओं को मारकर मुसलमानों को हिंदुओं से अलग करना चाहा उसका जवाब कश्मीरी मुसलमानों ने मेरा साथ देकर हाथो हाथ दे दिया।
      पिछले दिनों नैनीताल में एक लड़की के साथ एक मुस्लिम व्यक्ति ने बलात्कार किया तो पुलिस ने रपट दर्ज आरोपी को पकड़कर जेल भेज दिया। लेकिन कुछ कट्टरपंथी लोगों ने इस घटना को साम्प्रदायिक रूप देते हुए जब हंगामा करना शुरू किया तो शैला नेगी नाम की महिला शेरनी की तरह उनके सामने खड़ी हो गयी। शैला का सवाल था कि जिसने अपराध किया उसको सज़ा देने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। ऐसे में सब मुसलमानों को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिये। शैला के इस रूख़ पर कट्टरपंथी उनसे नाराज़ हो गये और उनको डराया धमकाया जाने लगा। हालांकि जितनी बड़ी संख्या में इन बहादुर और समझदार महिलाओं के पक्ष में कानून के समर्थक लोगों को खड़ा होना चाहिये था उतने लोग सामने नहीं आये। उल्टा वे साम्प्रदायिक संकीर्ण धर्म की राजनीति करने वाले सत्ता के सहारे लंपट लोग इन महिलाओं को ट्राॅल करने लगे जिनको संविधान हिंदू मुस्लिम भाई चारा और कानून का राज पंसद नहीं है। यह विडंबना ही है कि जिनको उन्माद भीड़तंत्र और जंगलराज के दौर में सम्मानित किया जाना चाहिये उनको कट्टरपंथी लोग निडर होकर सोशल मीडिया पर डरा धमका रहे हैं लेकिन महिला आयोग की मुखिया के हिमांशी नरवाल के पक्ष में बयान के अलावा कोई बड़ा एक्शन नहीं हुआ।
      महिला आयोग ने भी हिमांशी को डराने धमकाने वालों के खिलाफ पुलिस को रपट दर्ज कर आरोपियों के खिलापफ सख़्त कानूनी कार्यवाही की ज़रूरत नहीं समझी। साथ ही पीएम रक्षामंत्री मुख्यमंत्री कथित सांस्कृतिक संगठनों के मुखिया सीएम एमपी एमएलए तक इस मामले पर चुप्पी साध्ेा रहे। हद तो यह है कि सेना का वह संगठन जो शहीदों और उनकी विधवाओं के भले के लिये काम करता है वह भी इस गंभीर आपत्तिजनक और शर्मनाक मामले पर कुछ नहीं बोला। बात बात पर स्वतः संज्ञान लेने वाला कोर्ट और उसमें छोटे छोटे मामलों में जनहित याचिका दायर करने वाले समाजसेवी भी इन साहसी महिलाओं और उनके कानून के राज के समर्थन में बोलने पर रहस्यमयी खामोशी से निराश करता नज़र आया। यह माना कि आज कुछ ऐसे लोग ऐसे बड़े पदों पर बैठे हैं जिनको सत्ता शक्ति और पद का नशा है। लेकिन यह दौर हमेशा रहने वाला नहीं है। जो लोग अपने सियासी स्वार्थ के लिये देश का माहौल बिगाड़ रहे हैं, धर्म के आधार पर लोगों को आपस में लड़ाना चाहते हैं, वे एक तरह से आतंकियों पाकिस्तान जैसे देश के दुश्मनों और समाज विरोधी कट्टर लोगों का ही जाने अंजाने एजेंडा आगे बढ़ाने का अपराध कर रहे हैं। जिनको इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।
       हमारा कहना है जो गलत है वह गलत है। वह चाहे किसी भी धर्म का व्यक्ति करे। किसी एक घटना एक अपराध और एक आदमी के जुर्म के लिये किसी पूरे समुदाय वर्ग या धर्म के लोगों को न तो टारगेट किया जाना चाहिये ना ही उनको कसूरवार मानना चाहिये। सभी धर्मों जातियों और समुदायों में अच्छे बुरे लोग होते हैं। यही बात कट्टरपंथी लोगों पर भी लागू होती है। हमारे देश में लोकतंत्र है। कानून का राज है। देश संविधान से चलेगा। अगर कोई कानून हाथ में लेता है और किसी पूरे समाज को निशाना बनाता है तो वह देशभक्त राष्ट्रवादी और संविधान का मानने वाला नहीं हो सकता। आज नहीं तो कल ऐसे लोगों को पूरा समाज देश और दुनिया उनके असली मकसद को समझकर सज़ा देंगे और उस समय हिमांशी नरवाल शैला नेगी आरती दीपिका और सरताज को याद किया जायेगा सम्मानित किया जायेगा आदर्श माना जायेगा उनको नायक माना जायेगा और उनके साहस समझ और विवेक को मिसाल मानकर इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। मुनीर नियाज़ी ने ऐसे लोगों के लिये ही शायद यह शेर लिखा है- लोग नाहक़ किसी मजबूर को कहते हैं बुरा, आदमी अच्छे हैं पर वक़्त बुरा होता है।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 1 May 2025

पहलगाम हमला

पहलगाम हमला: जनता ने जवाब दे दिया अब सेना की बारी है!
0 1965, 1971 और 1999 में तीन तीन बार भारत से जंग हारकर मुंह की खाने के बाद भी पाकिस्तान को शायद यह बात समझ में नहीं आ रही है कि वह आज जिस कंगाली की दहलीज़ पर पहुंच चुका है वहां से अब वापसी का कोई रास्ता नहीं है। कश्मीर को सेना के बल पर जब पाक हासिल करने में नाकाम रहा तो उसने चोर दरवाजे़ से आतंकवाद का शाॅर्टकट रास्ता चुना है। आज़ादी के बाद कुछ दशक तक उसको इस्लाम के नाम पर कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों संगठनों और भटके हुए कश्मीरी बेरोज़गार युवाओं का कुछ साथ मिला भी जिनको अपने लड़ाकों के साथ मिलाकर उसने पैसा हथियार और प्रशिक्षण देकर कश्मीर सहित हमारे देश में समय समय पर आतंकी हमले किये लेकिन आज पूरा देश उसके खिलाफ़ एकजुट है।   
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      कहावत है कि आप अपना घर बदल सकते हैं लेकिन पड़ौसी नहीं बदल सकते। यही बात आज पाकिस्तान पर लागू होती है। उसके संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह ने टू नेशन थ्योरी के नाम पर इस्लाम के बहाने मुस्लिम लीग की मदद से पाकिस्तान बनाया लेकिन 24 साल बाद ही बंगाल की बगावत से जिनाह का यह सपना टूट गया। पूर्वी बंगालियों के साथ पक्षपात धोखा और जुल्म करने से उसका एक हिस्सा टूटकर अलग देश बंगलादेश बन गया। हालांकि इस बंटवारे का दोष पाक भारत को देता है लेकिन उससे पूछा जा सकता है कि अगर बंगाली मुसलमान न चाहते तो उनको पाक से अलग कौन कर सकता था? शेख़ मुजीबुर्रहमान को पाक के चुनाव में बहुमत मिला था लेकिन वहां हावी पंजाबी मुसलमानों ने शेख़ को पीएम नहीं बनने दिया जिससे टकराव बढ़ा और विद्रोह होने के बाद मुक्ति वाहिनी की मदद से बंगलादेश बन गया। इसका बदला लेने के लिये पाक ने कश्मीर को छीनना चाहा लेकिन वह आमने सामने की लड़ाई में इसमें हर बार नाकाम रहा। वह तो भारत की मेहरबानी रहमोकरम और बड़प्पन था जिससे पाक के 90 हज़ार सैनिकों के बंदी बनाकर उसके एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करने बावजूद हमने पीछे हटकर शिमला समझौता कर उसको माफ कर दिया वर्ना आज पाक का नाम निशान भी नहीं होता।
      इसके बाद पाक को यह बात समझ में आ गयी कि वह भारत का मुकाबला सीधी जंग में कभी नहीं कर सकता तो उसने आतंकवाद का सहारा लेना शुरू कर दिया। अगर इस्लाम के नाम पर सब मुसलमान साथ रह सकते तो दुनिया में 57 मुस्लिम मुल्क ना होते। इसी तरह अगर सभी मुसलमानों के हित एक होते तो ईराक ईरान आठ साल तक जंग नहीं लड़ते। ऐसे ही पाकिस्तान के अहमदिया शिया और बलूच अलग देश की मांग नहीं कर रहे होते। पाक को यह बात समझ में नहीं आ रही कि उसने अफगानिस्तान से रूस का कब्ज़ा हटाने को जिस आतंकवाद की नर्सरी को शुरू किया था आज वह कैंसर बन चुका है। आज पाक में उसके ही बनाये आतंकी मस्जिद में नमाज़ पढ़ते मुसलमानों को बम से निशाना बनाते हैं। पहलगाम हमला भी उसी नीच घटिया और अमानवीय सोच का नतीजा है जिसमें बेकसूर निहत्थे और कश्मीर को रोज़गार देने वाले 28 टूरिस्टों को बेदर्दी से मारा गया है। इनका खून बेकार नहीं जायेगा बल्कि एक दिन रंग लायेगा। यह हमला करके पाक ने अपने ताबूत में खुद आखि़री कील ठोक दी है। उसके पापों का घड़ा इस घटना के बाद भर चुका है। अब उसके ऐसे हमले साज़िश और जुल्म आगे और सहन नहीं किये जा सकते। आज पूरा भारत उसके लोग उसके राज्य बिना किसी धर्म भाषा और क्षेत्रीय भेदभाव के छिटपुट घटनाओं को अपवाद मानकर छोड़दें तो पाक की इस नापाक हरकत के खिलाफ एक साथ खड़े हैं।
      हर तरह के बंद विरोध प्रदर्शन कैंडिल मार्च नारेबाज़ी ज्ञापन भाषण और काली पट्टी बांधने के साथ मंदिर व मस्जिदों में मृतकों की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना व दुआ तक सब एक साथ मिलकर कर रहे हैं। पहलगाम की शर्मनाक दर्दनाक और तकलीफदेह घटना ने देश के 140 करोड़ भारतीयों को एक दूसरे के साथ कंध्ेा से कंधा मिलाकर खड़ा कर दिया है। उनकी आंखों में गुस्सा तो दिल में दुख है। वे अब पाक को उसकी नापाक हरकतों के लिये अंतिम और निर्णायक सबक सिखाने की चाहत रखते हैं। खुद कश्मीरियों ने जिस तरह टूरिस्टों को बचाने संभालने और सुरक्षित घर पहुंचाने के लिये अपनी जान तक दी उनकी मेहमान के तौर पर सेवा की और बिना पैसा लिये वापस उनको सुरक्षित ठिकानों तक पहुंचाने मंे मदद की उससे पाक को संदेश मिल गया होगा कि वह जिन कश्मीरियों के कश्मीर को अपने साथ मिलाने के लिये यह सब घटिया और नीच हरकतें कर रहा है वे उसके साथ नहीं अपने मुल्क भारत के साथ खड़े हैं। अलबत्ता यह समय है जब पहलगाम की घटना को सियासत या हिंदू मुस्लिम दरार बढ़ाने के लिये ज़रा भी दुरूपयोग नहीं किया जाना चाहिये नहीं तो जाने अंजाने में ऐसे लोग पाकिस्तान का आतंकवाद अलगाववाद और देश की जनता को गृहयुध्द में झोंकने का एजेंडा ही आगे बढ़ाने का काम कर रहे होंगे।
      विपक्ष ने सरकार का ध्यान इस गंभीर मुद्दे की तरफ दिलाया है और सरकार ने इस मामले को प्राथमिकता के आधार पर लेकर सभी देशवासियों को एकजुट रखने का वादा भी किया है। हम सबको यह बात समझने की ज़रूरत है कि सभी धर्मों मेें कुछ शरारती कट्टर और अपराधी लोग हो सकते हैं लेकिन इन आरोपों को केवल किसी एक मज़हब जाति या रंग के लोगों पर शत प्रतिशत थोपकर आप राष्ट्रवादी देशभक्त और देशप्रेमी नहीं बन सकते। साम्प्रदायिकता कट्टरता और संकीर्णतावाद किसी का भी हो कभी भी अच्छा नहीं हो सकता। देशहित से बड़ा राजनीतिक हित कभी भी नहीं हो सकता। जो पार्टी संगठन या सरकार किसी वर्ग विशेष के खिलाफ दुभार्वना पक्षपात या घृणा रखता हो वह खुद भी कभी देशभक्त या राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। यह समय है जब हम सबको मिलकर आतंकवाद कट्टरता संकीर्णतावाद और पाकिस्तान को उसकी गलत हरकतों का जवाब देना है। पहलगाम के आतंकियों के लिये एक शेर याद आ रहा है- इसी लहू मंे तुम्हारा सफ़ीना डूबेगा, ये कत्ल नहीं तुमने खुदकशी की है।
नोट- लेखक नवभारट टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 24 April 2025

संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट

न संसद न कोर्ट न ही राष्ट्रपति,
 हमारा संविधान ही है सर्वोपरि!
0 इस देश में 2014 के बाद से जो थोड़ी बहुत उम्मीद कानून के राज न्याय और निष्पक्षता की बची है वह सुप्रीम कोर्ट से ही है। पिछले दिनों वक़्फ़ कानून के कुछ प्रावधानों पर सबसे बड़ी अदालत ने जिस तरह से सरकार से सख़्ती से कुछ सवाल पूछे उससे यह आशा एक बार फिर मज़बूत हुयी है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से तमिलनाडू के मामले में वहां के राज्यपाल और देश के राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर विधानसभा से पास विध्ेायकों को पास करने या वापस लौटाने का आदेश दिया उस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने जिन शब्दों में एतराज़ जताया है उससे यह बहस छिड़ गयी है कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति जबकि सच यह है कि संविधान सबसे बड़ा है।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों संसद में दावा किया था कि जो भी कानून सरकार बनायेगी उसको सबको मानना ही होगा। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दख़ल नहीं देगा। हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की। इतना ही नहीं अपने पहले के विवादित बयान पर तमाम हंगामा विरोध और आलोचना होने के बाद भी वाइस प्रेसिडेंट धनकड़ ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई है। सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधनमंत्री करते हैं। यही वजह है कि खुद राष्ट्रपति ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह सच है कि संविधान में ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये।
      गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों संसद में दावा किया था कि जो भी कानून सरकार बनायेगी उसको सबको मानना ही होगा। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दख़ल नहीं देगा। हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की। इतना ही नहीं अपने पहले के विवादित बयान पर तमाम हंगामा विरोध और आलोचना होने के बाद भी वाइस प्रेसिडेंट धनकड़ ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई है। सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधनमंत्री करते हैं। यही वजह है कि खुद राष्ट्रपति ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह सच है कि संविधान में ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये।
      उसके बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने गवर्नर से उन कानूनों को पास करने या फिर से विचार करने को वापस राज्य सरकार के पास भेजने को कहा। लेकिन जब बात नहीं बनी तो राज्यपाल ने उन कानूनों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। नियम यह है कि अगर सरकार दोबारा उन कानूनों को गवर्नर के पास फिर से पास करने के लिये बिना बदलाव किये भेज देती है तो राज्यपाल को उनको पास करना ही होगा लेकिन यहां गवर्नर केंद्र के इशारे पर उनको फिर से दबाकर बैठ गये। सरकार के कुल कार्यकाल पांच साल में अगर तीन साल कानून राज्यपाल के यहां अटके रहेंगे और इसके बाद जानबूझकर देर करने सरकार को बदनाम करने या उसको काम न करने देने के इरादे से वही कानून राष्ट्रपति के पास भेज दिये जायेंगे। जहां वे राज्यपाल के आॅफिस की तरह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे तो निर्वाचित सरकार का क्या मतलब रह जाता है? केंद्र सरकार के संविधान विरोधी इलैक्टोरल बांड जैसे कानून पहले भी सुप्रीम कोर्ट में निरस्त होते रहे हैं। लगता है वक्फ़ कानून का भी यही हश्र होने जा रहा है। ऐसे मंे सुप्रीम कोर्ट ने मजबूर होकर तमिलनाडू सरकार के उन दस कानूनों को बिना गवर्नर और प्रेसीडेंट के हस्ताक्षर के ही पास घोषित करके आगे के लिये ऐसे मामलों में दोनों के लिये कानून पास करने या फिर से विचार के लिये वापस लौटाने के लिये तीन महीने का समय निर्धारित करके सराहनीय काम किया है। यह एक तरह से लोकतंत्र संविधान और चुनी हुयी सरकार के अधिकार की रक्षा का आदेश माना जाना चाहिये। लेकिन धनकड़ साहब मोदी सरकार का अंध समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बोल रहे हैं।
       उनको लगता है जिस तरह से वे बंगाल का गवर्नर रहते हुए ममता सरकार को नाको चने चबवाकर इनाम के तौर पर उपराष्ट्रपति बन गये वैसे ही शायद अब मोदी सरकार को खुश करके राष्ट्रपति भी बन सकते हैं। हम यह दावा नहीं कर सकते कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। हम यह भी नहीं कह रहे कि सुप्रीम कोर्ट के 12 मई के बाद नये बनने वाले चीफ जस्टिस सबसे बड़ी अदालत के पुराने फैसलों पर टिके ही रहेंगे या सरकार द्वारा फिर से विचार करने की अपील पर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर दिये गये निर्णय की तरह पीछे हट जायेंगे? यह बात किसी से छिपी नहीं रह गयी है कि विपक्ष के आरोप के अनुसार वर्तमान सरकार का पूरा विश्वास संविधान कानून के राज और निष्पक्षता में नहीं है। संघ परिवार पर सेकुलर दल यहां तक आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार लोकतंत्र समानता धर्मनिर्पेक्षता जनपक्षधरता समाजवाद निष्पक्षता पारदर्शिता और स्वायत संस्थाओं की स्वतंत्रता में विश्वास नहीं करती है। यही वजह है कि वह सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसलों से तिलमिला रही है। अमित शाह हों रिजिजू हों धनकड़ हों या दुबे और शर्मा ये सब संघ परिवार के एजेंडे के लिये किसी सीमा तक भी जा सकते हैं। सच यह है कि सुप्रीम कोर्ट ही आज लोकतंत्र संविधान और समानता को बचाने का प्रयास कर रहा है जबकि मोदी सरकार उसको भी मीडिया पुलिस सीबीआई ईडी और चुनाव आयोग जैसी अन्य संस्थाओं की तरह अपने दबाव में लेकर अपना मनमाना जनविरोधी और संविधान विरोधी एजेंडा किसी भी कीमत पर लागू करना चाहती है, जिससे आशंका यही है कि वह एक दिन सफल हो सकती है। शायर ने कहा है कि - तारीख़ के औराक़ में जो लोग बड़े हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं जो लाशों पर खड़े हैं।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।