Wednesday, 12 March 2025

कांग्रेस में भाजपाई

*कांग्रेस से निकालेंगे ‘‘भाजपाई’’,* 
*राहुल कर पायेंगे पूरी सफ़ाई?*
0 राहुल गांधी ने कहा है कि कांग्रेस में कुछ भाजपा की सोच के नेता हैं। ये तादाद में 30 से 40 तक हो सकते हैं। ये कांग्रेस में रहकर भाजपा के लिये काम करते हैं। उनका यह भी कहना था कि एक रेस का घोड़ा होता है दूसरा बारात का घोड़ा होता है। पार्टी में कभी कभी इनका उल्टा इस्तेमाल होता है जिससे कांग्रेस का नुकसान होता है। गांधी ने मज़ाक में यहां तक कह दिया है कि कांग्रेस में कई बबर शेर हैं लेकिन वे सो रहे हैं। इससे पहले राजस्थान छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश व हरियाणा की हार के बाद राहुल गांधी कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं पर अपने अपने परिवार के सदस्यों के चुनाव लड़ाने के लिये पार्टी के हित को अनदेखा करने का आरोप भी लगा चुके हैं। लेकिन अभी तक एक्शन क्यों नहीं लिया?    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      कांग्रेस अपने सबसे मुश्किल दौर का सामना कर रही है। राहुल गांधी ने जब से कांग्रेस की कमान संभाली है वह केंद्र की सत्ता में भले ही ना आ सकी हो लेकिन वह गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद से मज़बूत हुयी है इसमें कोई दो राय नहीं है। साथ ही जब से मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस का मुखिया बनाया गया है। तब से पार्टी में कुछ जान आई है। इसी का नतीजा है कि संसदीय चुनाव में उसके सांसद बढ़कर बढ़कर लगभग दोगुना हो गये हैं। इतना ही नहीं कांगे्रस के नेतृत्व में बने इंडिया गठबंधन ने भाजपा के 400 पार के नारे की हवा निकालकर उसके एमपी की संख्या पहले से 63 घटाकर उल्टा 240 तक सीमित कर दी है। लेकिन यह भी सच है कि लोकसभा के चुनाव के बाद से जितने भी राज्यों के चुनाव हुए हैं उनमें कश्मीर और झारखंड को छोड़कर भाजपा ने लगभग सबमें बाज़ी मारकर अपना माॅरल हाई कर लिया है। इस सब कवायद में कांग्रेस को सबसे अधिक झटका लगा है। हालांकि कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों ने एक के बाद एक हार के लिये भाजपा पर मतदाता सूची में गड़बड़ी और चुनाव आयोग की मिलीभगत का गंभीर आरोप लगाया है। लेकिन इस मामले में आज तक कोई ठोस आंदोलन विरोध प्रदर्शन या कानूनी कार्यवाही होती नज़र नहीं आ रही है। इस दौरान राहुल गांधी ने लीक से हटकर कांग्रेस की हार की निष्पक्ष और साहसी समीक्षा करनी शुरू की है। उन्होंने माना है कि कांग्रेस की सीधी लड़ाई सत्ता की नहीं वैचारिक और उसूलों की लड़ाई है। उनका कहना है कि वे आरएसएस की साम्प्रदायिक झूठी और नफरत की सोच के खिलापफ लड़ रहे हैं। उनका यह भी आरोप है कि मोदी सरकार ने चुनाव आयोग पुलिस ईडी इनकम टैक्स पर पूरा और अदालतों की स्वायत्ता व स्वतंत्रता पर आंशिक रूप से कब्ज़ा कर लिया है। इसके लिये वे इंडियन स्टेट से लड़ने तक का विवादित बयान तक दे चुके हैं। 
     गांधी ने यह भी माना कि जब उनके साथ दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक लंबे समय तक लगभग तीन चैथाई रहे तो कांग्रेस की सराकर उनके लिये उतने भलाई के काम नहीं कर सकी जितने करने चाहिये थे। उनको शायद पता नहीं या बाद में कभी वे यह भी मानेंगे कि पिछड़े आज भाजपा की सबसे बड़ी ताकत बने है जिसे कांग्रेस ने कभी अहमियत नहीं दी। उसको आरक्षण देने के लिये देश आज़ाद होने के दो दशक बाद तक कांगे्रस ने सोचा तक नहीं। इसके बाद काका कालेलकर आयोग बनाया गया। उसकी रिपोर्ट दस साल बाद आई और कांग्रेस ने ठंडे बस्ते में डाल दी। इसके बाद मंडल आयोग बना। उसने पिछड़ों को रिज़र्वेशन देने की सिफारिश की उसको भी कांग्रेस ने अनसुना कर दिया। वी पी सिंह की जनमोर्चा सरकार ने मंडल आयोग लागू कर पिछड़ांे को आरक्षण दिया। जिससे पिछड़े कांग्रेस से नाराज़ हो गये। कांग्रेस सरकार ने संघ और भाजपा को अपनी नीतियां लागू करने को खुलकर मौका दिया। दूरदर्शन पर रामायण व महाभारत दिखाकर उनके पक्ष में हिंदूवादी माहौल बनाया। शाहबानों केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेककर हिंदू ध््राुवीकरण करने का संघ परिवार को खुल मैदान दिया। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाकर दंगे रामरथ यात्रा गुजरात दंगे और कांग्रेस में भाजपा की सोच के नेताओं को हिंदू कार्ड खेलने का जोखिम लिया। सत्ता में रहते कांग्रेसियों ने करप्शन में भी रिकाॅर्ड तोड़े। आज इसी का नतीजा है कि भाजपा सरकार जिस कांग्रेसी को चाहे उसे ईडी व सीबीआई से टारगेट कर लेती है। 
     बसपा की मायावती को जेल भेजने का डर दिखाकर ही भाजपा ने उनकी पार्टी को लगभग खत्म कर दिया है। ऐसी और भी कई क्षेत्रीय पार्टियां और कांग्रेस सहित अन्य दलों के नेता हैं जिनको जांच के नाम पर डराकर भाजपा या तो कांग्रेस से खींच लेती है या फिर उनको कांग्रेेस में रहकर भाजपा के लिये काम करने को मजबूर कर देती है। एक सच यह भी है कि कई ईमानदार और सच्चे कांग्रेस व विपक्षी नेताओं को झूठे आरोप मुकदमें और जांच में उलझाकर भाजपा उनकी पार्टी छोड़ने को मजबूर कर देती है। ऐसे मामलों में राहुल गांधी के पास क्या बचाव है यह वही बता सकते हैं। इतना ही नहीं भाजपा के पास जो संघ के लाखों कार्यकर्ता हैं जिस तरह समर्पण त्याग और मेहनत से वे पार्टी के लिये काम करते हैं। उसका कोई विकल्प कांगे्रस के पास आज नहीं है। कांग्रेस ने मीडिया और न्यायपालिका में कभी उच्च जातियों के साथ पिछड़ों दलितों और अल्पसंख्यकों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से भागीदारी देने की गंभीर कोशिश नहीं की जिसकी कीमत आज वह खुद ही चुका रही है। कांग्रेस ने अपने नवजीवन कौमी आवाज़ और नेशनल हेराल्ड जैसे अखबार बंद कर दिये और कभी कोई नेशनल मैगजीन या टीवी चैनल शुरू नहीं किया जिससे आज उसकी बात जनता तक नहीं पहुंच रही है। कांग्रेस ने जनता पार्टी जनतादल वामपंथी और क्षेत्राीय दलों को स्वस्थ विपक्ष के तौर पर कभी विकसित नहीं होने दिया जिससे विपक्ष की खाली जगह संघ ने भाजपा को धर्म की राजनीति के सहारे सत्ता में लाकर भर दी। 
      कुछ समय पहले खुद राहुल मंदिर मंदिर जाकर अपना जनेउू दिखाकर और खुद को वैष्णवी ब्रहम्ण बताकर भाजपा के पाले में घुसकर उसकी हिंदू साम्प्रदायिकता को जाने अंजाने में मान्यता देने की गल्ती कर चुके हैं। राहुल गांधी को यह भी समझ आ गया होगा कि कांग्रेस भाजपा की तरह हिंदू साम्प्रदायिकता ध््राुवीकरण मुस्लिम विरोध दलित विरोध गरीब विरोध व्हाट्सएप प्रोपेगंडा काॅरापोरेट से दोस्ती कर मोटा चंदा धर्म की राजनीति नफ़रत की सियासत पिछड़ों का आरक्षण निजीकरण कर खत्म करना सत्ता का भाजपा की तरह खुलकर साम दाम दंड भेद से बेशर्म दुरूपयोग कर हर कीमत पर चुनाव जीतना इतिहास बदलना अतीत का झूठा गुणगान करना औरा भविष्य के फर्जी सपने दिखाकर भोली जनता को झांसे में लेना व चीन तथा अमेरिका के सामने अन्याय व अपमान पर चुप्पी साधना उसके बस की बात नहीं है। सवाल अब यह है कि देर आयद दुरस्त आयद ही सही लेकिन जब राहुल गांधी को कांग्रेस की जिन गल्तियों कमियांे और बुराइयों पता चल चुका हैं तो उन पर एक्शन लेने के लिये कौन से शुभ मुहूरत की प्रतीक्षा की जा रही है? बाकी यह बात सही है कि सत्ता मिले या ना मिले लेकिन भाजपा व संघ से बिना डरे अपनी जनहित की बात अपनी निष्पक्ष सोच और अपना सही वीज़न जनता के सामने रखना चाहिये।

0 यहां मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है,

 कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है।

 तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं,

 मगर वो क्या करे जिसका भरोसा टूट जाता है।।    
*0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Monday, 3 March 2025

आपके दिमाग़ में क्या है?

*आप क्या लिखने की सोच रहे हैं, 
आपको पता है कोई यह जानता है?
इक़बाल हिंदुस्तानी
0 आपने सुना होगा पैगासस एक ऐसा स्पाई साफ्टवेयर है जिसको आपके मोबाइल फोन में इंस्टाॅल करके आपकी हर गतिविधि को ट्रैक किया जा सकता है। हैरत की बात यह है कि इसको आपके सेलुलर फोन मंे पहुंचाने के लिये केवल एक मिस काॅल करनी होती है। लेकिन चूंकि यह बहुत महंगा है इसलिये इसको आम तौर पर देशों के स्तर पर सरकारें अपने विरोधियों और दुश्मनों की जासूसी करने के लिये ही इस्तेमाल करती रही हैं। भारत में भी इसके इस्तेमाल को लेकर काफी हंगामा मचा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट की जांच कमैटी भी इस मामले में किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी। अब आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि आपके दिमाग़ मंे क्या चल रहा है आप क्या सोच रहे हैं और आप क्या लिखना चाहते हैं आज के दौर में तकनीक ने यह सब बहुत आसान बना दिया है। 
               आज का दौर आधुनिक तकनीक का दौर है। टेक कंपनियां आपके दिमाग में झांकने लगी हैं। आपने कभी नोटिस किया है कि आप के माइंड में जो कुछ चल रहा है, गैजेट उसको पहले ही जान जाता है। यही वजह है कि जब आप अपने मोबाइल लैप टाॅप या डेस्क टाॅप पर कुछ लिखने को की बोर्ड पर उंगली रखने की सोच रहे होते हैं तो आपके शब्दों के सुझाव में उूपर ठीक वही वर्ड दिखाई देता है जो आप अभी सोच रहे होते हैं? आखि़र ऐसा कैसा होता है? यह क्या रहस्य है? यह जादू तो नहीं है? तो फिर आपके कीबोर्ड यानी गूगल को कैसे पता लगा कि आप अगला शब्द क्या लिखने जा रहे थे? इतना ही नहीं टेक कंपनी की घुसपैठ आज आपके दिमाग तक हो चुकी है। अगर आपको अभी भी विश्वास नहीं आ रहा है तो हम आपको आज विस्तार से यह राज़ बतायेंगे कि आपका आज कुछ भी छिपा हुआ नहीं रह गया है। हालत यह है कि आपके भविष्य के कामों तक पर टेक कंपनी नज़रें गड़ायें हैं। आप क्या खरीदना चाहते हैं वे यह भी जानती हैं। वो कैसे? आपने नोट किया है कि अगर आप आॅनलाइन कुछ खरीदना चाहते हैं तो आप जिस साइट पर जायेंगे आपको उस ही प्रोडक्ट के एड दिखाई देने लगेंगे। आखि़र गूगल को किसने बताया कि आप क्या खरीदने की सोच रहे हैं? आपके ख्वाब क्या हैं? आप क्या योजना बना रहे हैं?  
     आप भविष्य में कहां की यात्रा करने का प्लान बना रहे हैं? दरअसल आप भूल जाते हैं कि आप जब फेसबुक ट्विटर और यूट्यूब पर जो कुछ लिख रहे पढ़ रहे पोस्ट कर रहे और सर्च कर रहे होते हैं। उसको यह ऐप आर्टिफीशियल इंटैलिजैंस से रिकाॅर्ड कर लेते हैं। यहां तक कि आप जो फोटो वीडियो आॅडियो या रील बनाकर इन साइट्स पर डालते हैं। ये उनके हिसाब से आपकी सोच आपकी पसंद और आपकी आदतों का एक पूरा चार्ट तैयार कर लेते हैं। इतना ही नहीं ये एप आपके कमेंट लाइक और शेयर करने से ही समझ जाते हैं कि आप किस तरह की सोच समझ और पसंद के इंसान हैं। इसके बाद आप जब भी नेट आॅन करेंगे ये आपको आपकी सोच चाहत और तलाश के हिसाब से चीजे़ परोसना शुरू कर देंगे। आपको लगता है कि इससे आपका काम भी आसान हो जाता है। एक दिन ऐसा आता है जब ये वेबसाइट एप और सर्च इंजन आपको कंट्रोल करने लगते हैं।
    यह आपको समय समय पर बिना सर्च किये बताने लगते हैं कि बाज़ार में क्या नया आया है? यह आपको मजबूर करते हैं कि जिस तरह का लेटेस्ट फैशन चल रहा है आप भी वही अपनायें। सोशल मीडिया आपको गाइड करता है कि आप किस तरह सोचें किस तरह से लिखें किस तरह से खायें किस तरह से सोयें किस तरह के कपड़े पहनें और यहां तक कि आपका निजी जीवन कैसा होना चाहिये यह सब भी इंटरनेट से बताया जाने लगता है। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि आज आपका सब कुछ इंटरनेट के आॅब्ज़र्वेशन में चल रहा है। आपका पर्सनल कुछ नहीं है। हो सकता है कि टेक कंपनी को आपके बारे में इतना अधिक पता हो जितना आपको खुद भी नहीं पता। यह सब कभी कभी बहुत डरावना भी लगता है। लेकिन यकीन मानिये यह सब सच है। वास्तविकता है। मुमकिन है। आपकी सोच ही नहीं आपकी भावनाओं को पढ़ने की टैक्नालाॅजी भी आज मौजूद है। तकनीकी एक्सपर्ट आपके लिखने के तौर तरीको को ही नहीं बल्कि आपके माइंडसेट को भी जानते हैं। आप कब किस मनःस्थिति में लिख रहे हैं वे यह भी समझने लगे हैं। आपका मूड कब कैसा होता है वे यह भी रीड कर रहे हैं। यही वजह है कि जब आप यूट्यूब पर जाते हैं तो वे आपको बिना सर्च किये ही वही वीडियो आॅटो प्ले कर देते हैं जिनको देखने की अभी आप बस सोच ही रहे थे। नेटफिलिक्स आपकी चाहत वाली फिल्म पहले ही पेश कर देता है। 
    कमाल है न? नहीं यह बाइचांस नहीं है यह आपके डिजिटल प्रोफाइलिंग का कमाल है। जो आसानी से आपके दिल को पढ़ लेता है। आप ने देखा होगा जब आप फेसबुक पर कुछ लिखने या पोस्ट करने के लिये खोलते हैं तो वहां लिखा आता है-व्हाट्स आॅन योर माइंड? यही वह ट्रेप है जिसमें फंसकर आप अपना वह सब साझा कर चुके हैं जो वे आपके लिखने सोचने और करने से पहले ही जान रहे हैं। जब आप अपने दोस्तों से चैट करते हैं तो आपका सब कुछ निजी ज्ञान उनके साथ अंजाने में ही साझा हो जाता है। मेटा फिलिप काॅर्ट अमेज़न गूगल माइक्रोसाॅफ्ट एआई सिरी एलेक्सा और न्यूराल केवल आपके लिये नहीं आपकी जासूसी को भी बनाये गये हैं। आपको अब तक यह खुशफहमी रही होगी कि नेट आपको अपने हिसाब से पोस्ट ख़बरें और कंटेंट दिखाकर आपकी सोच अपने हिसाब से बनाना चाहता है लेकिन तकनीक अब इससे आगे निकल चुकी है। वह आपका व्यवहार आपका नज़रिया और आपका मकसद भी तय करने लगी हैं। वे आपके अंर्तमन तक पहंच चुकी हैं। आज आपका सबसे बड़ा नेता संचालक और कंट्रोलर आप खुद नहीं आपका दिमाग नहीं आपकी अपनी समझ नहीं कोई और है। शायर ने शायद पहले ही इस टैक्नीक को समझ लिया था, तभी तो लिख दिया था- ये लोग पांव नहीं ज़ेहन से अपाहिज हैं, उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 20 February 2025

बीजेपी का अगला निशाना नीतीश कुमार?

भाजपा ने शिंदे का किया बंटाधार,
 नीतीश होंगे उसका अगला शिकार?
0 मायावती ने भाजपा से गठबंधन कर तीन बार सरकार बनाई थी। आज बसपा का कोई नामलेवा नहीं है। महाराष्ट्र में यही काम शिवसेना को तोड़कर एकनाथ शिंदे ने किया तो आज उनकी हालत भी ख़राब है। केजरीवाल को भी कुछ लोग संघ का ही छिपा सिपाही मानते रहे हैं, उनको भी ठिकाने लगा दिया गया है। राजनीति के जानकार कहते हैं कि इस श्रृंखला में अगला नंबर बिहार के नीतीश कुमार का है। यही वजह रही कि जो दल पिछली लोकसभा में चोरी छिपे मोदी सरकार की जनविरोधी कानून बनवाने में मदद कर रहे थे, उनको जनता ने पिछले संसदीय चुनाव में बाहर का रास्ता दिखा दिया है। दोनों गठबंधन के अलावा केवल 16 सीट पर अन्य जीत सके हैं। बीजेडी बीआरएस और वाईएसआर सीपी के पास 2019 मंे 43 सीट थी जो अब घटकर केवल 5 रह गयी हैं। ऐसा लगता है कि आने वाले समय में भाजपा का मुकाबल कांग्रेस ही करेगी।
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      मुंबई से ख़बर आ रही है कि महायुति सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे राज्य के सीएम फडनवीस से बुरी तरह ख़फ़ा लग रहे हैं। इसकी वजह सबको पता है कि पहले शिंदे से शिवसेना को दो फाड़ कराकर महायुति सरकार भाजपा ने बनवाई। उसके बाद चुनाव से पहले उनको ही फिर से सीएम बनाने का वादा करके चुनाव साम दाम दंड भेद से जीता गया लेकिन बाद में उनको यूज़ एंड थ्रो कर दिया गया। उनको जो मलाईदार मंत्रालय दिये जाने थे। वे भी नहीं दिये गये। उनके विधायकों की हाई सिक्यूरिटी भी वापस लेकर उनको उनकी औकात बता दी गयी है। उनको मुख्यमंत्री उच्च स्तरीय सरकारी बैठकों में भी नहीं बुला रहे हैं। जबकि उनसे कम विधायक वाले अजित पंवार को उनसे अधिक महत्व दिया जा रहा है। इसी हरकत से नाराज़ शिंदे अब खुद भी सीएम की ज़रूरी मीटिंग में बुलाने पर भी जाने को तैयार नहीं हैं। इतना ही नहीं सीएम फडनवीस शिंदे को चिढ़ाने के लिये उल्टा उध्दव ठाकरे के साथ कई मुलाकात कर चुके हैं। वे उध्दव की पार्टी के विधायकों के लिये हमेशा मुलाकात को तैयार रहते हैं। उनके बताये काम भी पहली फुर्सत में कराये जा रहे हैं। यहां तक कि विपक्ष में होते हुए शरद पवार का तो अपना जलवा अलग ही है। फडनवीस सरकार पवार को सम्मान वेट और अहमियत देने का कोई मौका चूकती नहीं है। यह बात भी शिंदे को बहुत चुभ रही है। इसके साथ ही हालात को समझते हुए सीएम फडनवीस एमएनएस के राज ठाकरे से भी उनके घर जाकर राजनीतिक हालात पर बंद कमरे में चर्चा कर आये हैं। आने वाले दिनों में मुंबई में कभी भी नया राजनीतिक धमाका हो सकता है, सियासी जानकार इस संभावना से इनकार नहीं कर रहे हैं लेकिन शिंदे के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। बताया जा रहा है कि अगर वे गठबंधन से बाहर निकलना भी चाहें तो उनको पुरानी और असली शिवसेना स्वीकार नहीं करेगी। इतना ही नहीं शिंदे को बाद में पता चला कि उनकी पार्टी के टिकट पर बड़ी संख्या में जीते उम्मीदवार भाजपा के ही सदस्य थे जो बगावत करने पर भाजपा का साथ देंगे। 
      उधर गठबंधन छोड़ने पर शिंदे के लिये सीबीआई ईडी और इनकम टैक्स छापे मारने की रण्नीति एडवांस में ही बनाने में जुट गयी हैं। चर्चा यहां तक है कि शिंदे और उनके वफादार विधायकों व करीबी नेताओं के फोन तक टेप हो रहे हैं। शिंदे को यह बात अब समझ में आई है कि वे जिस मूल शिवसेना से विद्रोह करके भाजपा के साथ सरकार बनाने को भरोसा करके आये थे, उस भाजपा ने उनसे अधिक शक्तिशाली उध्दव ठाकरे को राजनीतिक रूप से कहीं का नहीं छोड़ा तो शिंदे तो संघ परिवार के सामने क्या हैसियत रखते हैं? अब यही खेल 20 साल से साझा सरकार चला रहे नीतीश कुमार के साथ बिहार में होने जा रहा है। इसकी वजह है कि भाजपा और संघ बहुत लंबी योजना के साथ राजनीति करते हैं। वे सही समय का वेट करते रहते हैं। मौका मिलते ही अपने ही सहयोगी दलों और नेताओं को भी निशाना बनाने में उनको ज़रा भी लज्जा या हिचक नहीं होती है। उनका मानना है कि जंग और सियासत में सब जायज़ है। आपको याद रखना चाहिये कि जब भाजपा का पूर्व दल जनसंघ अपने बल पर कांग्रेस को बार बार नहीं हरा पाया तो उन्होंने जनता पार्टी से हाथ मिला लिया। वह संयुक्त सरकार नहीं चली। उसके बाद केंद्र में जनता दल की सरकार को वामपंथियों के साथ मिलकर समर्थन देने में भी भाजपा को समस्या नहीं हुयी। उसको सत्ता में भागीदार न बनाने की कम्युनिस्टों ने शर्त रखी तो उसने वह भी दूर का लाभ देखकर चुपचाप मान ली। आज न तो वामपंथी बचे और न ही जनता पार्टी व जनता दल है। कर्नाटक में एक दौर में भाजपा ने रामकृष्ण हेगड़े की क्षेत्रीय पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और आज वहां भाजपा मुख्य दल है जबकि हेगड़े और उनकी पार्टी का नाम भी कोई नहीं जानता है। ममता बनर्जी बंगाल में चाहे जितनी भी मज़बूत हो वे भी भाजपा की सहयोगी रह चुकी हैं। आप नोट कर लीजिये अगले चुनाव में उनकी खैर नहीं है इसके लिये भाजपा को चाहे जो हथकंडा अपनाना पड़े लेकिन वह बंगाल की सत्ता दिल्ली की तरह हर हाल में ममता से छीनकर ही दम लेगी। 
      साथ ही भाजपा पर जिस तरह से सत्ता का गलत इस्तेमाल कर चुनाव आयोग की मिलीभगत से बार बार राज्यों में चुनाव जीतने के आरोप लग रहे हैं, उससे यह भी तय है कि एक बार अगर किसी विपक्ष शासित राज्य में भाजपा जीत गयी तो वह केंद्र की तरह फिर सत्ता किसी कीमत पर छोड़ने वाली नहीं है, खासतौर पर जिन राज्यों में कांग्रेस का राज था वहां भाजपा ने जीतकर लंबे समय के लिये सरकार पर कब्ज़ा जमा लिया है। भाजपा ने जिनसे गठबंधन कर सहयोग लिया या दिया बाद में मौका आने पर उनको ही मिट्टी में मिला दिया। इसकी एक लंबी सूची है। मिसाल के तौर पर हम कुछ नाम आपको याद दिला देते हैं- प्रफुल्ल महंता, मायावती, महबूबा मुफती, प्रकाश सिंह बादल, नवीन पटनायक, चंद्रशेखर राव, जगन मोहन रेड्डी, उध्दव ठाकरे, दुष्यंत चैटाला, अरविंद केजरीवाल और अब शिंदे के बाद नीतीश कुमार का नंबर आने वाला है। यूपीए और एनडीए की सरकारांे मंे एक बुनियादी अंतर साफ नज़र आ रहा है कि अल्पमत में होने के बावजूद भाजपा अपने घटक दलों के दबाव में काम करने को तैयार नहीं है। एनडीए के दो बड़े घटक टीडीपी और जेडीयू उल्टा भाजपा के दबाव में काम करते लग रहे हैं। इसके बाद जिस दिन उसके पास कुछ छोटे दल या निर्दलीय सांसद दल बदल करके भाजपा में आ जायेंगे वह नायडू की कठिन मांगे मानना भी बंद कर देगी और उनको एनडीए से जाने या बने रहने का खुला विकल्प दे देगी।
0 गिरा दिया है तो साहिल पे इंतिज़ार न कर,
अगर वो डूब गया है तो बहुत दूर निकलेगा।
उस आस्तीन से अश्कों को पोछने वाले,
उस आस्तीन से खं़जर ज़रूर निकलेगा।।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 13 February 2025

आप बुरी, बीजेपी खरी?

आप हार गयी तो वो बुरी है, 
बीजेपी जीत गयी तो खरी है?
0 दिल्ली के चुनाव को लेकर चुनाव आयोग एक बार फिर सवालों के घेरे में आया है। चुनाव की निष्पक्षता और सब दलों को समान अवसर उपलब्ध कराना चुनाव आयोग की संवैधानिक ज़िम्मेदारी होती है। इतना ही नहीं चुनाव की प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाये रखना सरकार का भी कानूनी उत्तरदायित्व है। लेकिन जिस मनमाने ढंग से पिछले दिनों चुनाव आयोग ने दिल्ली राज्य के चुनाव को लेकर और उससे पहले हरियाणा व महाराष्ट्र के चुनाव पर विपक्ष के सवालों के या तो जवाब ही नहीं दिये या फिर बाद में विस्तार से लिखित स्पश्टीकरण का बहाना बनाकर टाला उससे जनता का आयोग की निष्पक्षता से भरोसा उठ सकता है। दिल्ली में बड़े पैमाने पर असली मतदाताओं के नाम काटने और फर्जी वोटर बनाने के साथ ही पैसा साड़ी व शराब बांटने व लोगों की उंगली पर स्याही लगाने के गंभीर आरोप लगे लेकिन चुनाव आयोग चुपचाप तमाशा देखता रहा।  
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     एक कहावत आपने सुनी होगी- जो जीता वो सिकंदर। कुछ ऐसा ही मीडिया में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार और भाजपा की जीत को लेकर चर्चा में देखा जा सकता है। आप हार गयी तो उसके सौ ऐब गिनाये जा रहे हैं जबकि भाजपा की जीत को पाक साफ बताया जा रहा है। जबकि आप अभी भी वोट के मामले मंे बीजेपी से मात्र दो प्रतिशत पीछे है। यह बात किसी हद तक सही हो सकती है कि आप के खिलाफ दस साल की एंटी इंकम्बैंसी थी जिससे उसका जनसमर्थन कुछ घट सकता है लेकिन जिस तरह से केंद्र की भाजपा सरकार ने चुनाव आयोग से लेकर केंद्र की सत्ता का खुला दुरूपयोग किया उस पर मुख्य धारा का मीडिया चुप्पी साध रहा है। जो भाजपा कभी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग और केंद्र में आने पर स्वयं ऐसा करने का दावा करती थी उसने केजरीवाल सरकार को काम करने से रोकने के लिये उसके अधिकार संविधान संशोधन करके उल्टे कम कर दिये। इसके साथ ही उपराज्यपाल लगातार आप सरकार के विकास और जनकल्याण के कामों में जानबूझकर बाधा खड़ी करते रहे। 
      इतना ही नहीं केंद्र ने आप सरकार को बदनाम करने के लिये उसके हिस्से का राजस्व भी रोकना शुरू कर दिया था। दिल्ली में आप सरकार को महिलाओं को हर माह दिये जाने वाला पैसा उपराज्यपाल ने बांटने नहीं दिया। साथ ही चुनाव आयोग के आश्वासन के बाद भी आमबजट में 12 लाख की तक आय कर मुक्त करने का श्रेय लेने को भाजपा ने अख़बारों में बाकायदा विज्ञापन दिया। मतदाताओं को लुभाने के लिये तरह तरह के उपहार दिये जाने पर भी चुनाव आयोग ने आंखे बंद रखीं जबकि यमुना का पानी ज़हरीला होने और चुनाव के बाद आपके विधायक खरीदे जाने के आरोप पर आयोग आप नेताओं के दर पर मिनट से पहले नोटिस थमाने पहुंच गया। पक्षपात की हद यह थी कि जब कुछ लोगों को पैसा देकर उनकी उंगली पर चुनाव से पहले उनको आप समर्थक होने की वजह से वोट देने से रोकने को स्याही लगाने का आप ने आरोप लगाया तो दिल्ली पुलिस उल्टा उन लोगों को ही पकड़ ले गयी जो गवाह के तौर पर पेश किये गये थे। आयोग ने दिल्ली जैसे छोटे से राज्य में चुनाव के बाद दो दिन तक कुल मतदान का आंकड़ा तक नहीं बताया। आयोग की विश्वसनीयता की हालत यह हो गयी कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो आवेश और निराशा में यहां तक कह दिया कि चुनाव आयोग मर चुका है उसको कफन के लिये सफेद कपड़ा भेजा जाना चाहिये जिस पर आयोग सपा मुखिया को नोटिस भेजने पर भी विचार कर रहा है लेेकिन वह अपने गिरेबान में झांककर देखने को तैयार नहीं है कि कोई विपक्षी नेता इतना गंभीर और हताशा वाला आरोप आयोग पर लगाने को क्यों मजबूर है? 
              विपक्ष का सवाल रहा है कि महाराष्ट में कुल 9 करोड़ 54 लाख वयस्क आबादी है तो वहां 9 करोड़ 70 लाख मतदाता कैसे हो गये? जबकि शत प्रतिशत बालिगों का वोट कभी बनता भी नहीं है। दिल्ली में भी संसदीय चुनाव के मुकाबले हुए असैंबली चुनाव की वोटर लिस्ट में 4 लाख मतदाता 7 माह में बढ़ गये हैं। इसके साथ ही महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के वोटों में भी 39 लाख वोटर्स का भारी अंतर है। चुनाव आयोग इस सवाल का भी कोई सही जवाब नहीं दे पाया कि वहां शाम 5 बजे से रात 11 बजे तक इतना ज़बरदस्त वोटर टर्नआउट कैसे बढ़ा? इस शक को दूर करने के लिये वोटिंग की वीडियोग्राफी देखी जा सकती थी लेकिन यहां तो चुनाव आयोग ने हाल ही में नियम बदलकर यह वीडियोे फुटेज देखने पर ही रोक लगा दी है। जिससे विपक्ष का शक और भी गहरा गया है। दिल्ली के चुनाव आयुक्त ने खुद कहा है कि जिस तरह से 30 दिन में 5 लाख नये लोगों ने मत बनवाने के लिये आवेदन किया है उससे सघन जांच की आवश्ययकता है क्योंकि यह अप्रत्याशित है। आप का आरोप है कि लगभग हर विधानसभा क्षेत्र में 10 प्रतिशत वोट नये बनाने और साढे़ 5 प्रतिशत लोगों के वोट काटने के आवेदन आ रहे थे। 
      संदेह बढ़ाने वाली बात यह है कि जिनके नाम से ये आवेदन आये हैं उनसे संपर्क करने पर अब वे अपना नाम उनकी जानकारी बिना फर्जी तरीके से प्रयोग करने की बात बता रहे हैं। अजीब बात यह भी है कि ऐसी 4183 एप्लीकेशन मात्र 84 लोगों की तरफ से लिखी गयी हैं। चुनाव आयोग का इस पर कहना है कि बिना ठोस सबूत के किसी का वोट नहीं काटा जाता। लेकिन नये वोट बनाने को लेकर वह उदार क्यों रहा है इसके बारे में आयोग कोई संतोषजनक उत्तर नहीं देेेे पा रहा है? जब चुनाव आयोग के बीएलओ घर घर मुहल्ले मुहल्ले जाकर पहले ही गलत वोट काटने और नये मतदाता जोड़ने का अभियान चला चुके हैं तो नई एप्लीकेशन वोट काटने और जोड़ने के लिये इतने बड़े पैमाने पर कहां से आ रही थीं ? चीफ इलैक्शन कमिश्नर राजीव कुमार ने शेर ओ शायरी करते हुए विपक्ष के आरोप हवा में उड़ाते हुए यहां तक कह दिया कि शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था, लेकिन वह यह नहीं मान रहे हैं कि जहां टी एन शेषन जैसे चुनाव आयुक्त ने आयोग की प्रतिष्ठा शक्ति और विश्वसनीयता आसमान में पहुंचा दी थी वहीं उन्होंने केंद्रीय चुनाव आयोग जिसे कुछ लोग संक्षित में ‘‘केंचुआ‘‘ भी कहने लगे हैं की निष्पक्षता गरिमा और स्वतंत्रता को रसातल में पहुंचा दिया है।
0 उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़,
  हमें यक़ीं था हमारा क़सूर निकलेगा।।        
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Saturday, 8 February 2025

केजरीवाल की हार

केजरीवाल की वैचारिक बेईमानी, 
दिल्ली की सत्ता पड़ गयी गंवानी!
0आम आदमी पार्टी दिल्ली में हार गयी। उसके मुखिया केजरीवाल अपनी सीट भी हार गये। उसके और भी कई बड़े नेता हार गये। हालांकि कम लोगों को पता होगा कि आप के वोट केवल 10 प्रतिशत ही कम हुए हैं लेकिन उसकी सीट 62 से 22 पर आ गयी। आप जितने वोटों से 13 सीट हारी उससे अधिक वोट कांग्रेस और ओवैसी की एआईएमआईएम को मिले। यही काम आप ने गोवा गुजरात और हरियाणा में कांग्रेस को दर्जनों सीट हराकर किया था। केजरीवाल मजबूरी मंे लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन में गये लेकिन वे भाजपा से अधिक कांग्रेस का विरोध करते रहे। मुस्लिम मुद्दों पर चुप रहकर वे हिंदूवादी बनने चले थे लेकिन भाजपा ने उनको अपना कार्ड खेलन नहीं दिया और उनकी इमेज बिगाड़ कर उनका खेल खत्म कर दिया।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      आम आदमी पार्टी ने अपना सफर समाज सेवा से शुरू किया था। उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल ने करप्शन के खिलाफ अन्ना हज़ारे के कथित गैर राजनीतिक आंदोलन का सफल प्रबंधन और संचालन किया था। वे अपने इनकम टैक्स कमिश्नर के बड़े भारी भरकम और कमाई वाले पद से इस्तीफा देकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले जनलोकपाल कानून बनाने को लेकर आमरण अनशन में अन्ना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शामिल होकर लोगों का यह विश्वास जीतने में उस समय सफल रहे थे कि यह नौजवान समाज के लिये कुछ बड़ा क्रांतिकारी बदलाव लाना चाहता है। लेकिन बाद में देश को पता लगा वे संघ परिवार के छिपे एजेंडे के तहत तत्कालीन मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार को बदनाम करने भाजपा को सत्ता में लाने और खुद अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा पूरी करने के लिये यह सब कर रहे थे। यही वजह थी कि बाद में यूपीए सरकार पर उस समय लगाये गये अधिकांश आरोप झूठे साबित हो गये। जब कांग्रेस और भाजपा जैसे राजनीतिक दलों ने उनकी मांगों पर कोई खास तवज्जो न देते हुए उनको राजनीति में आकर खुद लोकपाल जैसे कानून बनाने और भ्रष्टाचार खत्म कर साफ सुथरा शासन चलाने के लिये चुनौती दी तो वे अपनी सरकार बनाने की आकांक्षा पूरी करने को अपने गुरू अन्ना के मना करने के बावजूद आम आदमी पार्टी बनाकर सियासत में कूद पड़े। 
       बाद में उनमें इतना अहंकार और स्वार्थ भर गया कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के वकील और सोशल एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण, जाने माने सेफोलोजिस्ट योगेंद्र यादव पूर्व जज हेगड़े वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष व पूर्व पुलिस कमिश्नर किरण बेदी सहित दर्जनों वरिष्ठ साथियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यह सही है कि केजरीवाल ने दिल्ली में शिक्षा स्वास्थ्य और निशुल्क बिजली पानी के साथ महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा व वरिष्ठ नागरिकों को तीर्थ यात्रा कराने जैसी समाज कल्याण की अनेक योजनायें शुरू कीं लेकिन जिस सुशासन भ्रष्टाचार मुक्त और उच्च मानक के सर्वसमावेशी विकास के दावे के साथ वे सत्ता में तीन बार आये उनको पूरा करने में नाकाम नज़र आने लगे थे। साथ ही उन्होंने दिल्ली दंगों शाहीन बाग आंदोलन मुसलमानों के मकानों दुकानों पर चलने वाले बुल्डोज़र पर चुप्पी साध्कर और कोरोना लाॅकडाउन के दौरान तब्लीगी जमात को टारगेट करके खुद को भाजपा से बड़ा हिंदूवादी नेता साबित करने का अवसरवादी साम्प्रदायिक और ध्ूार्तता वाला संकीर्ण कार्ड खेला वह आज उनके लिये आत्मघाती साबित हो गया। हालांकि उन पर मोदी सरकार द्वारा लगाये गये करप्शन के आरोप अभी तक सच साबित नहीं हुए लेकिन जिस तरह उनको ईडी ने शराब घोटाले के आरोप में और आप के कई बड़े नेताओं को कई माह तक जेल भेजा उससे उनकी छवि काफी खराब हो गयी। 
       इसके साथ ही आम आदमी की तरह सादगी और किफायत से सरकार चलाने के दावों के बावजूद जिस तरह से केजरीवाल ने अपने घर को भारी भरकम सरकारी खर्च पर सुसज्जित कराया उससे उन पर भाजपा का शीशमहल का आरोप चस्पा होता नज़र आया। हालांकि उनकी पार्टी के अभी भी केवल 10 प्रतिशत वोट ही पिछले चुनाव से कम हुए हैं जिनमें से भाजपा को आठ और कांग्रेस को दो प्रतिशत वोट मिले हैं लेकिन उनकी सीट 62 से कम होकर मात्र 22 ही रह गयी हैं। दो प्रतिशत वोट बढ़ने के बावजूद कांग्रेस का अभी भी विधानसभा में खाता तक नहीं खुला है। लेकिन बीजेपी ने केवल 8 प्रतिशत वोट बढ़ने से अपनी सीटों की संख्या 7 से बढ़ाकर 48 कर ली है। इतना ही नहीं केजरीवाल ने चुनाव के दौरान ही आरोप लगाये थे कि भाजपा मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर फेरबदल कर रही है। इस बारे में खोजी वेबसाइट क्विंट ने दावा किया है कि 2020 से 2024 के आम चुनाव तक चार साल में जहां दिल्ली में चार लाख वोट बढ़े वहीं हैरतनाक तरीके से 7 माह बाद चार लाख वोट और बढ़ गये। कुछ इसी तरह के आरोप भाजपा सराकर पर महाराष्ट्र के चुनाव में भी लगे थे। 
      हाल ही में राहुल गांधी ने इस बारे में प्रैस वार्ता कर आरोप लगाया है कि महाराष्ट्र में जितने वोट चुनाव आयोग ने बताये हैं उतने तो वहां कुल बालिग भी नहीं हैं। अलबत्ता यह आरोप प्रतिआरोप चर्चा और विवाद चलते रहेंगे जबतक इनकी निष्पक्ष जांच नहीं होगा तब तक कोई अंतिम नतीजा नहीं निकाला जा सकता। बहरहाल जो जीता वह सिकंदर और जो हार गया उसकी लाख कमियां गल्तियां और नालायकियां तलाशी जाती हैं। जानकारों का यह भी कहना है कि इस बार आपका एकमुश्त वोटबैंक रहा 17 प्रतिशत दलित 13 प्रतिशत मुस्लिम 15 प्रतिशत मिडिल क्लास 14 प्रतिशत झुग्गी झोंपड़ी वाला 15 प्रतिशत पूर्वांचली वोट बिखर गया। आठवे वेतन आयोग के गठन और बजट में 12 लाख तक की आय करमुक्त करके भाजपा ने आप के मिडिल क्लास वोट में खासी सेंध लगा दी है। बीजेपी ने आप द्वारा शुरू की गयी निशुल्क स्कीमें जारी रखने का वादा कर भी उस वोटर को अपनी ओर खींचा जो हर बार लोकसभा में भाजपा को वोट देकर अपनी सुविधायें खत्म होने के डर से विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के साथ चला जाता था। केजरीवाल और भाजपा संघ मोदी व लेफटिनेंट गवर्नर के बीच लगातार चलने वाले टकराव से भी दिल्ली की जनता यह सोचकर परेशान होने लगी थी कि एक ही पार्टी की सरकार दोनों जगह बनने से शायद रूका हुआ विकास तेज़ हो सकता है। शायर ने क्या खूब इशारा किया है अगर विपक्षी दल समझ रहे हों तो- मैं आज ज़द पर अगर हूं तो खुश गुमान ना हो, चिराग़ सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं।।    
 नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं। ।

Thursday, 6 February 2025

प्रवासी भारतीय और ट्रंप

अमेरिका बेेशक सुपर पाॅवर है तो होगा, 
प्रवासी भारतीयों का अपमान सहन नहीं होगा!
0 अमेरिका में ट्रंप के सत्ता संभालते ही बहुत कुछ बदल रहा है। नये राष्ट्रपति अपने देश से अवैध प्रवासियों को निकाल रहे हैं। गैर कानूनी तरीके से अमेरिका में रह रहे प्रवासियों की संख्या एक करोड़ से अधिक बताई जा रही है। इनमें से लगभग 7 लाख भारतीय बताये जाते हैं। फिलहाल कुल 18000 भारतीयों की पहचान की जा चुकी है जिनको स्वदेश वापस भेजा जाना है। इनमें से 104 प्रवासी भारतीयों की पहली खेप को लेकर अमेरिकी सेना का मिलिट्री एयरक्राफ्ट सी 17 ग्लोबमास्टर 5 फरवरी को अमृतसर में लैंड हुआ। इस विमान में जिस अमानवीय तरीके से प्रवासी भारतीयों को हथकड़ी और बेड़ी में जकड़कर लाया गया वह मानवीय गरिमा का असहनीय अपमान है।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
        अंग्रेज़ी दैनिक इंडियन एक्सप्रैस ने अमेरिका से भारत लाये गये एक प्रवासी हरविंदर सिंह से बातचीत के आधार पर बताया कि इन प्रवासियों को विमान मंे भी 40 घंटे तक हथकड़ी व बेड़ियां लगाकर रखा गया। बार बार अपील करने पर भी उनको मुक्त नहीं किया गया। हालत यह थी कि उनको विमान के एकमात्र वाशरूम तक जाने को भी घिसटना पड़ा। हरविंदर सिंह ने बताया कि टाॅयलेट जाने के लिये उनको अमेरिकी क्रू के कर्मचारी गेट खोलकर अंदर धकेल देते थे। सारा सफर पूरा करने के दौरान उनको उनकी सीट से ज़रा सा भी हिलने नहीं दिया गया। उनका कहना था कि यह यात्रा उनके जीवन की सबसे मुश्किल कष्टदायक और अपमानजनक नरक से भी बदतर यात्रा थी। इस दौरान वे ठीक से खाना तक नहीं खा पाये। ज़ाहिर बात है कि कोई इंसान अपने हाथ हथकड़ी से कसकर बंध्ेा होने पर आराम से भोजन कैसे कर सकता है? अमेरिकी सरक्षाकर्मी जानते थे कि विमान के दरवाजे़ बंद होने और आसमान में उड़ रहे होेने के दौरान कोई प्रवासी यात्री चाहकर भी कहीं भाग नहीं सकता था लेकिन बार बार अपील करने के बावजूद उनके हाथ थोड़ी देर के लिये भी जानबूझकर नहीं खोले गये। इससे अमेरिका के तथाकथित प्राचीन लोकतंत्र स्वतंत्रता और उसके मानव मूल्यों के सम्मान का ढांेग पता लगता है। सिंह का कहना था कि उनको यह यात्रा शारीरिक रूप से ही नहीं मानसिक रूप से भी आघात पहुंचाने वाली रही है। सिंह का कहना था कि सारे सफर में वे एक मिनट भी सो नहीं पाये। 
      उनको कुछ माह पहले देखे गये अपने सारे सपने याद आते रहे। अपनी एक एकड़ ज़मीन गिरवी रखी, कुछ लाख का कर्ज़ बहुत अधिक ब्याज दर पर लिया तब एजेंट के ज़रिये बड़ी मशक्कत से अमेरिका गये थे। उनके एक रिश्तेदार ने 42 लाख में कानूनी तरीके से 15 दिन में अमेरिका भेजने का दावा किया था। इसके बावजूद धोखा कर उनको डंकी रूट यानी गैर कानूनी तरीके से चोरी छिपे गलत रास्ते से अमेरिका भेजा गया। इन रास्तों से जाने वालों को बहुत अधिक खतरों मुसीबतों और नुकसान का सामना करना पड़ता है। कई बार शाॅर्टकट से नंबर दो में जाने वाले लोगों के साथ अपराध्यिों द्वारा यह सोचकर भी लूट हत्या और रेप तक कर दिये जाते हैं कि ऐसा करने से उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया जा सकेगा। हरविंदर की पत्नी आंख में आंसू भरकर बताती हैं कि उनके पति को 8 महीने तक इधर से उधर फुटबाल बनाकर घुमाया जाता रहा जिसके दर्दनाक वीडियो बनाकर हरविंदर अपनी आपबीती अपने परिवार को लगातार बताते रहे लेकिन वे ऐसे चक्रव्यूह में फंस चुके थे जहां से ससम्मान और सुरक्षित वापसी के रास्ते भी बंद थे। ढाई माह पहले एजेंट ने अमेरिका के ग्वाटेमाला में उनसे तयशुदा रकम में से बाकी बचे 10 लाख भी वसूल लिये थे। 
       15 जनवरी के बाद हरविंदर का अपने परिवार से संपर्क नहीं हो पाया था। हरजिंदर ने गांव की पंचायत में उस धोखेबाज़ एजेंट की शिकायत भी सार्वजनिक रूप से की थी लेकिन एजेंट की पहंुच शासन प्रशासन के कई बड़े अधिकारियों तक होने से उसके खिलाफ कोई जांच एफआईआर या कानूनी एक्शन आजतक नहीं हो सका है। हरजिंदर जैसे लोग नादान महत्वाकांक्षी और मासूम हैं जो अपने देश से बेहतर रोज़गार कम समय में अधिक पैसा कमाने और अपने परिवार को खुशहाल बनाने के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगाकर डंकी रूट से अमेरिका सपने पूरे करने जाते हैं लेकिन वहां उनको वह सब नहीं मिल पाता जो वे सोचकर गये थे साथ ही न अब उनके पास गुज़ारा करने को ज़मीन बची है और न ही लाखों का भारी कज़ उतारने को कोई रास्ता है। सवाल यह भी है कि अगर हमारे देश में सबको बेहतर रोज़गार बढ़िया वेतन और शानदार भविष्य दिखाई देता तो हरजिंदर जैसे लोग अमेरिका इतना जोखिम लेकर क्यों जाते? लेकिन हमारे देश की सरकार इस सच को स्वीकार नहीं करेगी। 
        उसको तो यूनिविज़न मीडिया एजेंसी की उस ख़बर से भी शायद ही कोई सरोकार हो जिसमें कोलंबिया जैसे छोटे से देश के राष्ट्रपति गुस्ताव पेट्रो ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को दो टूक कहा है कि बेशक वे अपने देश से प्रवासी लोगों को वापस उनके देश भेजें लेकिन कोलंबिया के किसी भी नागरिक को हथकड़ी और बेड़ी नहीं लगायें क्योंकि वे प्रवासी तो ज़रूर हैं लेकिन अपराधी नहीं हैं। यह तो सही सही पता नहीं कि उनकी इस मांग पर अमेरिका ने कान दिये या नहीं लेकिन गुस्ताव ने अपने देश की संप्रभुता आत्मसम्मान और मानवीय गरिमा के पक्ष में बयान देकर भारत के सामने एक चुनौती ज़रूर पेश कर दी है कि दुनिया का विश्वगुरू बनने वाला देश इस अपमानजनक पीड़ादायक और अमानवीय अमेरिकी व्यवहार पर चुप्पी क्यों साध्ेा बैठा है? इससे पहले मैक्सिको कनाडा और चीन भी अमेरिका द्वारा टैरिफ बढ़ाने पर ट्रंप को मुंहतोड़ जवाब देकर अपने देश की ताकत दिखा चुके हैं। यह माना कि अमेरिका दुनिया की सुपर पाॅवर है तो होगा लेकिन भारत दुनिया में अपना अलग और विशेष स्थान रखता है। हम भारतीयों का अपना आत्मसम्मान और मानवीय गरिमा है। 
         संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सिटीज़न चार्टर है। इसके हिसाब से वो सब देश चलने को मजबूर हैं जिन्होंने इस पर हस्ताक्षर किये हैं। ट्रंप जिस तरह की मनमानी तानाशाही और जोरज़बरदस्ती कर रहे हैं उसका दुनिया के कई स्वाभिमानी स्वतंत्र और छोटे देश भी हिम्मत दिखाकर अभी से विरोध करने लगे हैं। यह समय है जब भारत को भी अमेरिका के अन्याय अत्याचार और मनमानी के खिलाफ अपना मंुह खोलना चाहिये। अमेरिका कोई राक्षस नहीं है तो हमें सही बात बोलते ही खा जायेगा। अमेरिका को वियतनाम ईराक और अफगानिस्तान में अवैध कब्ज़ा करने पर विरोध हुआ तो दुम दबाकर भागते हुए दुनिया ने देखा है। मोदी सरकार को निडर होकर यह समझना चाहिये कि जितनी भारत को अमेरिका की ज़रूरत है उससे कहीं अधिक अमेरिका को भारत की भी ज़रूरत है। बेज़मीर लोगों के लिये शायर ने क्या खूब कहा है- मौत के डर से नाहक़ परेशान हैं, आप ज़िंदा कहां हैं जो मर जायेंगे।।        नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीपफ एडिटर हैं। ।

Sunday, 2 February 2025

बजट 2025

बजटः एक करोड़ को टैक्स छूट, 
100 करोड़ से आंकड़ो का झूठ?
0 देश की कुल 142 करोड़ आबादी में 12 करोड़ लोग अमीर 30 करोड़ मीडियम क्लास और 100 करोड़ गरीब हैं। अमीरों की सालाना आय 12 लाख से अधिक मीडियम क्लास की आमदनी 02.50 लाख से अधिक और गरीबों की औसत मासिक इनकम लगभग 5500 रूपये है। इनमें शहरी गरीब 7000 तो गांव का निधर््ान 4000 के लगभग हर माह खर्च करता है। आयकर रिटर्न भरने वाले 8 करोड़ हैं जबकि टैक्स देने वाले मात्र 3.10 करोड़ हैं। इनमें से एक करोड़ अब टैक्स की सीमा 7 से बढ़कर वार्षिक 12 लाख होने से आयकर मुक्त हो जायेंगे। सवाल यह है कि इस तरह बजट को सारे मीडियम क्लास को खुश करने वाला कैसे कहा जा सकता है? साथ ही 100 करोड़ गरीबों को बजट से क्या मिला?      
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
        सरकार का यह फैसला किसी हद तक सही है कि जीडीपी दर इस साल गिरने से मंदी का ख़तरा अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहा है। इसलिये आयकर की सीमा बढ़ाकर करदाताओं के हाथ में खर्च करने को कुछ अधिक पैसा दिया गया है। इससे बाज़ार में मांग बढ़ने की आशा है। मांग बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा और नया निवेश आने से रोज़गार के अवसर भी बढ़ सकते हैं। लेकिन व्यवहारिक रूप से ऐसा ही होगा यह गारंटी से नहीं कहा जा सकता। पहले सरकार ने काॅरपोरेट टैक्स कम करते हुए भी यही दावा किया था लेकिन वास्तव में देश की टाॅप 500 कंपनियों का मुनाफा तो 22 प्रतिशत बढ़ गया लेकिन नई नौकरियां केवल 01.5 प्रतिशत ही बढ़ सकी हैं। फाइनेंशियल एनर्जी और आॅटोमोबाइल की कंपनियां इस मामले में सबसे अधिक लाभ कमा रही थीं। इन कंपनियों का जीडीपी मंे भी अनुपात उम्मीद से काफी अधिक बढ़ा है। कंपनियां अपने कर्मचारियों का वेतन अपने लाभ के अनुपात में बढ़ाने का तैयार नहीं हैं। उनको यह अहसास नहीं है कि अगर वे लोगों के हाथ में वेतन के रूप में अधिक पैसा नहीं देंगी तो बाज़ार में मंदी आ सकती है। उधर उम्मीद से अधिक महंगाई बढ़ने से लोगों की क्रयशक्ति पहले ही कम होती जा रही है क्योंकि उनकी आय कई सालों से या तो ठहरी हुयी है या फिर कम हो गयी है। इससे उन लोगों ने उपभोग कम कर दिया है। उपभोग कम होने से उत्पादन कम होने लगा है। दस लाख से कम की कारों की बिक्री 80 से घटकर 50 प्रतिशत आ गयी है। 
      4000 कंपनियों ने कर्मचारियों पर खर्च पहले की 17 प्रतिशत की अपेक्षा 13 प्रतिशत ही बढ़ाया है। आर्थिक समीक्षा मंे सामने आया है कि 2017 से 2023 तक स्वरोज़गार वाले पुरूषों की आय 9454 रू. से उल्टा 9 प्रतिशत घटकर 8591 रह गयी है। महिलाआंे की 32 प्रतिशत घटकर 2950 रह गयी है। इस दौरान वेतनभोगी कर्मियों की वास्तविक मासिक आमदनी भी कम होकर 12665 से 11858 रह गयी है। हालांकि इस अवधि में महिला श्रम बल में बढ़ोत्तरी हुयी है जो 23 से बढ़कर 42 प्रतिशत तक पहुंच गया है। दिहाड़ी मज़दूरों की आमदनी 19 प्रतिशत तक बढ़ी है। आर्थिक जानकार कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को नोटबंदी और देशबंदी से जो झटके लगे थे, उससे महंगाई दर लगातार उूंची रही है। देश में बेरोज़गारी दर 45 साल की सबसे अधिक 3.2 प्रतिशत हो चुकी है। नौकरियों को लेकर इस बजट में सरकार ने कोई नया या विशेष प्रावधान नहीं किया है। सरकार चाहती तो लगभग 10 लाख रिक्त सरकारी सेवाओं को ही भर सकती थी। लेकिन उसने पिछली योजनाओं को ही दोहराते हुए जारी रखने पर जोर दिया है। टाॅप कंपनियों में इंटर्नशिप और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नये जाॅब निकलने की उसकी आशा परवान नहीं चढ़ सकी है। सरकार ने पिछले बजट में पहली बार नौकरी में जाने वालों के खाते में इपीएपफओ के ज़रिये 15000 रू. देने का दावा किया था लेकिन अभी तक तीन किश्तों में मिलने वाले इस पैसे की पहली किश्त भी किसी के एकाउंट में नहीं पहुंची है। नई नौकरी देने वाले सेवायोजक को सरकार ने हर महीने 3000 रूपये दो साल तक प्रोत्साहन राशि देने का वादा किया था लेकिन ज़मीन पर अभी तक यह भी किसी को नहीं मिला है। सरकार ने आम आदमी यानी 100 करोड़ गरीबों को बजट मंे कोई सीधी राहत नहीं दी है। यहां तक कि उसने जीएसटी में भी कोई कमी नहीं की है जबकि सबसे बड़ा हिस्सा गुड्स और सर्विस टैक्स का इसी बड़े वर्ग से आ रहा है। जनहित का डंका पीटकर लोगों को झूठे आंकड़ों में उलझाने का गोदी मीडिया का खेल बजट को लेकर भी जारी है। सच यह है कि स्वास्थ्य का बजट सरकार ने 89287 करोड़ से घटाकर 88032 करोड़ शिक्षा का 125638 से 114054 करोड़ सामाजिक कल्याण का 56501 से 46482 करोड़ कृषि का 15185 से 140859 करोड़ ग्रामीण विकास का 265808 से 190675 करोड़ शहरी विकास का 82577 से 63670 करोड़ और उत्तर पूर्व विकास का 5900 से घटाकर 4006 करोड़ कर दिया है। 
        ऐसे में सरकार लोगों के वास्तविक विकास पर खर्च घटाकर उनको धर्म परोस रही है। वह बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता की राजनीति करने में लगी है। जिससे दो प्रमुख वर्गों के बीच आपसी तनाव बढ़ता है। इससे देश में शांति को ख़तरा पैदा होता है। इतिहास गवाह है जहां अमन चैन और सुरक्षा नहीं होती वहां निवेश नहीं आता यानी प्रोडक्शन और कंज़म्पशन नहीं बढ़ता और इसी से मंदी आती है जिसकी आहट जीडीपी 8.2 प्रतिशत से गिरकर 6.4 तक आने में साफ सुनी जा सकती है। लोग यह जानकर भी हैरान पेरशान हैं कि एक तरफ तो सरकार 12 लाख तक आय वालों पर जीरो टैक्स का दावा कर रही है दूसरी तरफ वही चार से आठ लाख तक आय पर 5 और 8 से 12 लाख तक इनकम पर 10 प्रतिशत टैक्स लगाने का स्लैब पेश कर रही है। इस मामले में अगले सप्ताह सरकार द्वारा लाये जाने वाले नये इनकम टैक्स बिल से तस्वीर साफ होगी। हो सकता है सरकार दिल्ली चुनाव का वेट कर रही हो और उसके बाद जो नया कानून वह लायेगी उसमें एक हाथ से देकर दूसरे हाथ से उससे अधिक वापस ले ले। हो सकता है आगे से स्वतः कर निर्धारण की व्यवस्था खत्म कर सभी आयकरदाताओं की स्कूटनी शुरू कर दी जाये जिससे जो पहले से ही टैक्स दे रहे हैं उनसे ही अधिक कर वसूल कर टैक्स छूट की सीमा बढ़ने से हुए नुकसान की पूर्ति सरकार कर ले। सरकार का अभी दावा है कि चार से 12 लाख तक आय पर जो टैक्स लगता है उसको खत्म नहीं किया गया है बल्कि सरकार धारा 87 ए के तहत उसको माफ कर देगी। अजीब बात है जब टैक्स 12 लाख तक लेना ही नहीं है तो क्यों उसको दो स्लैब लगाकर गणना कर रहे हो और क्यों फिर माफ कर रहे हो? लोगों को सरकार की नीयत पर शक है कि कहीं वह जुमलेबाज़ी कर फिर से कान घुमाकर ना पकड़ ले। बजट में पुरानी रिजीम वालों को कोई खास छूट नहीं दी गयी है जिससे उनको 12 लाख तक आय पर कर ना देने के लिये नई रिजीम में आना पड़ेगा। इससे उनकी 80 सी और 80 बी पर मिलने वाली डेढ़ लाख की छूट खत्म हो जायेगी। मज़ेदार बात यह है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण आम आदमी को को बजट का फायदा क्या समझा सकती हैं जबकि उनके पति परकला प्रभाकर ही उनकी आर्थिक नीतियां के सबसे बड़े आलोचक हैं। अदम गांेडवी का शेर याद आ रहा है- आंख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे, अपने शाह ए वक़्त का मर्तबा आला रहे।।        
 नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

छोटे व्यापारी

बढ़ रही है आॅनलाइन ख़रीदारी, 
मंदी का शिकार छोटा व्यापारी!
0 रिलायंस स्टोर हर छोटे शहर कस्बे और बड़े गांवों में दो से चार बड़े स्टोर खोलने जा रहा है। यानी बड़े लोग बड़ा कारोबार करेंगे आॅनलाइन मेगा सेल लगायेंगे और छोटे व्यापारी छोटी दुकानों पर मंदी का सामना करेंगे। सोचने की बात है कि छोटा व्यापारी बड़े काॅरपोरेट घरानों के सामने कैसे टिक सकता है? जब गैर बराबरी का मुकाबला होगा तो छोटी मछली को बड़ी मछली खा जायेगी। वजह साफ़ है कि गली मुहल्ले का दुकानदार बड़े पूंजीपति के डिपार्टमेंटल स्टोर शाॅपिंग माॅल और फास्ट फूड सेंटर का मुकाबला पंूजी निवेश विज्ञापन और ग्राहकों को लुभाने के लिये लागत से कम दाम पर स्कीम के बहाने सामान उपलब्ध कराने का सामना किसी कीमत पर नहीं कर पायेागा।     
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     देश में अंबानी की रिटेल सेल 2,60,000 करोड़ तक पहुंच गयी है। जिसका कुल स्पेस 06.5 करोड़ स्क्वायर फ़िट है। 2020 में यह स्पेस 02.25 करोड़ फिट था। अंबानी का इरादा हर सौ कि.मी. पर अपने रिटेल स्टोर खोलने का है। जिनकी बिक्री का लक्ष्य मासिक 100 करोड़ का है। उधर टाटा ने 90 से अधिक बड़े शहरों में अपने 580 रिटेल स्टोर खोल दिये हैं। बिरला के पहले ही 3977 रिटेल स्टोर खुले हुए हैं। इन सबका ऐसा सारा कारोबार आज 9 लाख करोड़ तक हो चुका है। जिसको 2030 तक बढ़ाकर 19 लाख करोड़ किये जाने का टारगेट है। आप सोच रहे होंगे कि अगर बड़े काॅरपोरेट घराने रिटेल स्टोर बड़े शहरों के साथ ही कस्बों और गांवों में खोलने जा रहे हैं तो इसमें प्राॅब्लम क्या है? इससे तो लोागों को घर बैठे अच्छा और अलग वैरायटी का सामान मिलेगा? प्रोडक्शन बढ़ेगा। बिक्री बढ़ेगी। कंपटीशन बढ़ेगा। ग्राहक को सस्ता सामान मिलेगा। कुछ और लोगों को रोज़गार मिलेगा। सरकार को बढ़ा हुआ टैक्स मिलेगा। लेकिन मामला इतना सीधा नहीं है। दरअसल सच यह है कि नये रिटेल स्टोर और आॅनलाइन बिक्री नये ग्राहक नहीं पैदा कर रही है। ये लोग पुराने और छोटे दुकानदारों के कस्टमर तोड़कर अपने पास ले जा रहे हैं। यहां तक कि छोटे दुकानदारों के नौकरों को भी दो चार हज़ार अधिक वेतन देकर ये अपने यहां नियुक्त कर देते हैं। इससे छोटे और पुराने दुकानदार को दोहरा नुकसान होता है। पुराने नौकर के साथ कुछ ग्राहक भी नये रिटेल स्टोर पर चले जाते हैं। स्थानीय कर्मचारी स्थानीय संपर्क और संबन्ध भी बड़े स्टोर पर ले जाते हैं। साथ ही छोटे व्यापारी को नया नौकर पहले से अधिक वेतन पर रखना पड़ता है। जो काम सीखने में समय लेता है। 
      यही वजह है कि नये विशाल स्टोर लोगों की परचेज़िंग पाॅवर बढ़ने से नहीं अपनी बिक्री छोटे दुकानदार के ग्राहक छीनकर बढ़ा रहे हैं। आज के दौर में हर आदमी के हाथ में मोबाइल आॅनलाइन पेमेंट एप और अमेज़ाॅन व फिलिप काॅर्ट व इंडिया मार्ट जैसे प्लेटफाॅर्म उपलब्ध होने से वह इनके मनोहारी आकर्षक और लागत से भी कम कीमत पर मिलने वाले नये ब्रांड आधुनिक व नई खूबियों वाले सामान के चक्कर मेें ज़रूरत नहीं होने पर भी सामान खरीद लेता है। अब चूंकि उसका बजट और आमदनी तो बढ़ी नहीं है जिससे वह जो ज़रूरत का सामान लोकल दुकान से खरीदने वाला था कई बार वह भी नहीं खरीद पाता। बड़े काॅरपोरेट का कहना है कि बड़े शहरों से जो कमाना था वह तो वे कमा चुके हैं। आगे भी जो कुछ मिलेगा वह कमाते रहेंगे। लेकिन अब छोटे शहरों कस्बों और गांवों में अपना नया बाज़ार नया कस्टमर और नई मांग तलाशनी है। छोटे व्यापरी पहले इस खुशफहमी में थे कि आॅनलाइन कस्टमर माल ठीक से देख पसंद और चुन नहीं पाता है। इसलिये वह हमारे पास आमने सामने आकर ही सामान खरीदने को मजबूर है। लेकिन अब जब बड़े कारोबारी छोटे शहरों में अपने रिटेल शोरूम खोल रहे हैं तो छोटा व्यापारी समझ रहा था वे दो से चार हज़ार का महंगा सामान ही बेचेंगे जबकि हज़ार पांच सौ का सामान खरीदने बंदा हमारे पास ही आयेगा। 
     अब रिटेल स्टोर वालों ने यह भरम भी दूर कर दिया है। वे सौ से दो सौ रूपये में दर्जनों डिज़ाइन कलर और हर मौसम के हिसाब से शर्ट तक बेच रहे हैं। इससे छोटे व्यापारी की रही सही कमर भी टूट रही है। यह सब कई बार इसलिये भी किया जाता है कि छोटा व्यापारी उनका दाम और च्वाइस के मामले में मुकाबला नहीं कर पाये। बाद में जब छोटे छोटे व्यापारियों का दिवाला निकल जाये तो उनकी दुकानें बंद होने पर ये मेगा स्टोर मोनोपोली हो जाने पर सौ दो सौ के माल को 500 से 1000 में बेचेंगे। तब उनको कंपटीशन देने वाला कोई दूसरा दुकानदार मैदान में नहीं बचा होगा। यह प्रयोग जियो अपना नेट शुरू में फ्री देकर कामयाबी के साथ कर चुका है। बड़े स्टोर को बल्क में माल बनवाने पर काफी सस्ता भी पड़ता है। कई बार ये घटिया और कम मात्रा में भी लागत से कम में सामान बेचकर ग्राहक का विश्वास जीत लेते हैं। छोटे व्यापारी मैनेजमैंट वैरायटी और फाइनेंस में इनका मुकाबला चाहकर भी कर ही नहीं सकते। ऐसे में एमएसएमई ही छोटे उद्योगों को बचाने आगे आ सकते हैं। लेकिन सरकार काॅरपोरेट से मोटा चंदा लेकर उनको बढ़ावा देने में लगी है। दूसरी तरफ छोटे दुकानदार गली मुहल्ले के व्यापारी और लघु उद्योग से जुड़े लोग धर्म जाति और नफ़रत की राजनीति के झांसे में आकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने पर तुले हैं। 
        इसके विपरीत छोटे व्यापारी अपनी कम जानकारी सीमित ज्ञान और भावुकता में बाज़ार की मंदी के लिये अमीरों का बड़ी संख्या में हर साल विदेशी नागरिकता लेना, युवाओं का विदेश जाने का सपना और छात्रों का विदेशी शिक्षा के प्रति आकर्षण मानकर अपना दुर्भाग्य भी मानकर खामोश है। आॅनलाइन शाॅपिंग में दिवाली जैसे त्यौहारों पर मेगा सेल के बहाने जिन चीज़ों को छूट के साथ बेचने का दावा किया जाता है उनकी कीमत वास्तविक कीमत से पहले ही बढ़ाकर रखी जाती है। छोटे व्यापारी अपनी समस्या का बड़ा कारण सस्ता और घटिया चीनी सामान भी बताते हैं। लेकिन चीनी सामान भी केंद्र सरकार की बिना अनुमति के नहीं आ सकता है। यह भी देखने में आ रहा है कि लोग अब समय बचाने के लिये दवाइयां भी आॅनलाइन खरीदने लगे हैं। इसमें कभी कभी एक्सपायरी और गलत दवा भी आ जाती हैं जिससे दवा बदलने और सही मेडिसन मंगाने में मरीज़ की जान दांव पर लग जाती है लेकिन लोगों को तो सुविधा से मतलब है। स्थानीय कारोबारी छोटे व्यापारी और स्माल मीडियम व माइक्रो एंटरप्राइजे़ज वाले प्रतिस्पर्धा आयोग से भी अपना दर्द कई बार बयान कर चुके हैं लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था उनकी समर्थक सरकार और मुनाफे को ही सब कुछ समझने वाले सिस्टम में यही सबसे बड़ी बुराई है कि इसमें मानवता नैतिकता और संवेदनशीलता के लिये कोई जगह नहीं होती है। 
0 जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Friday, 17 January 2025

चुनावी निष्पक्षता...

चुनाव निष्पक्षता पर विपक्ष की 
आशंकायें दूर करेगा चुनाव आयोग?
0 चुनाव की निष्पक्षता और सब दलों को समान अवसर उपलब्ध कराना चुनाव आयोग की संवैधानिक ज़िम्मेदारी होती है। इतना ही नहीं चुनाव की प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाये रखना सरकार का भी कानूनी उत्तरदायित्व है। लेकिन जिस मनमाने ढंग से पिछले दिनों चुनाव आयोग ने दिल्ली राज्य के चुनाव का एलान करते हुए सवालों के जवाब दिये उससे यह प्रक्रिया शक के दायरे में आ गयी है। इसके साथ ही विपक्ष जिस तरह से इवीएम पर बार बार उंगली उठा रहा है, वह भी हमारे संविधान लोकतंत्र और चुनाव आयोग की ईमानदारी के लिये चिंता का विषय है। गोदी मीडिया की सरकार की एकतरफा पैरवी की वजह से कुछ वाजिब और जायज़ सवाल पूछे ही नहीं गये। नहीं तो दिल्ली में सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी के आरोपों पर स्पश्टीकरण सामने आ सकता था। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने पिछले दिनों

दिल्ली में प्रैस वार्ता के दौरान हरियाणा और महाराष्ट्र राज्यों के चुनावों को लेकर विपक्ष के लगाये गये तमाम आरोपों को बिना किसी प्रमाण आंकड़ों और तथ्यों के सामने रखे ज़बानी तौर पर नकार दिया। इसके साथ ही उन्होंने दिल्ली के आगामी चुनाव को लेकर पक्ष विपक्ष के लगाये जा रहे बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम काटने और फर्जी वोटर्स के नाम जोड़ने के मुद्दे पर ज़बान बंद रखी। विपक्ष का सवाल रहा है कि महाराष्ट में लोकसभा चुनाव में कुल 9 करोड़ 28 लाख वोट 6 माह बाद ही विधानसभा चुनाव में 9 करोड़ 77 लाख कैसे हो गये? इसके बाद मतदाता सूची में नये मतदाता बनाने और पुरानों के नाम काटने को लेकर दिल्ली में आप सावधान हो गयी है। 
      उसका दावा है कि महाराष्ट्र में भाजपा ने 50 लाख नये मतदाता जोड़कर चुनाव लिस्ट मंे गड़बड़ी की है? दिल्ली में भी संसदीय चुनाव के मुकाबले होने जा रहे असैंबली चुनाव की वोटर लिस्ट में 8 लाख मतदाता बढ़ गये हैं। इसके साथ ही लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वोटों में भी वहां 75 लाख वोटर्स का भारी अंतर है। यह माना जा सकता है कि कंेद्र और राज्य के चुनाव में लोगों का अलग अलग रूजहान होता है जिससे विधानसभा में वोट देने वाले वोटर्स की तादाद बढ़ सकती है लेकिन चुनाव आयोग नये मतदाता इतनी बड़ी संख्या में बढ़ने का कोई सटीक जवाब नहीं दे पाया है। उसका दावा है कि उसने नये मतदाता बनाने को जो अभियान चलाया यह उसका नतीजा है। सवाल यह भी उठता है कि चुनाव आयोग के द्वारा ऐसा अन्य राज्यों में क्यों नहीं किया गया? चुनाव आयोग इस सवाल का भी कोई सही जवाब नहीं दे पाया कि वहां शाम 5 बजे से रात 11 बजे तक इतना ज़बरदस्त वोटर टर्नआउट कैसे बढ़ा? इस शक को दूर करने के लिये वोटिंग की वीडियोग्राफी देखी जा सकती थी लेकिन यहां तो चुनाव आयोग ने हाल ही में नियम बदलकर यह वीडियोे फुटेज देखने पर ही रोक लगा दी है। जिससे विपक्ष का शक और भी गहरा गया है। दिल्ली के चुनाव आयुक्त ने खुद कहा है कि जिस तरह से 30 दिन में 5 लाख नये लोगों ने मत बनवाने के लिये आवेदन किया है उससे सघन जांच की आवश्ययकता है क्योंकि यह अप्रत्याशित है। आप का आरोप है कि लगभग हर विधानसभा क्षेत्र में 10 प्रतिशत वोट नये बनाने और साढे़ 5 प्रतिशत लोगों के वोट काटने के आवेदन आ रहे हैं। संदेह बढ़ाने वाली बात यह है कि जिनके नाम से ये आवेदन आये हैं उनसे संपर्क करने पर वे अपना नाम उनकी जानकारी बिना फर्जी तरीके से प्रयोग करने की बात बता रहे हैं। अजीब बात यह भी है कि ऐसी 4183 एप्लीकेशन मात्र 84 लोगों की तरफ से लिखी गयी हैं। 
     चुनाव आयोग का इस पर कहना है कि बिना ठोस सबूत के किसी का वोट नहीं काटा जाता। लेकिन नये वोट बनाने को लेकर वह उदार रहा है इसके बारे में आयोग कोई संतोषजनक उत्तर नहीं देेेे पा रहा है? जब चुनाव आयोग के बीएलओ घर घर मुहल्ले मुहल्ले जाकर पहले ही गलत वोट काटने और नये जोड़ने का अभियान चला चुके हैं तो नई एप्लीकेशन वोट काटने और जोड़ने के लिये इतने बड़े पैमाने पर कहां से आ रही हैं? चीफ इलैक्शन कमिश्नर राजीव कुमार ने शेर ओ शायरी करते हुए विपक्ष के आरोप हवा में उड़ाते हुए यहां तक कह दिया कि शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था। आप का यहां तक दावा है कि पिछले चुनाव में उनकी पार्टी को 49 लाख से अधिक वोट मिले थे। जिनमें से 9 लाख वोट काटे जा रहे हैं। दूसरी तरफ केजरीवाल का कहना है कि भाजपा इतने ही नये फर्जी वोटर जोड़कर अपने पिछली बार के 35 लाख वोटर को 44 लाख पहुंचाना चाहती है। लेकिन चुनाव आयोग इन गंभीर आरोपों पर चुप्पी साध रहा है। इवीएम को लेकर भी विपक्ष उंगली उठाता रहा है लेकिन आयोग उस पर भी बात नहीं करता है। दरअसल इंडिया गठबंधन सभी इवीएम का सौ प्रतिशत वीवीपेट से मिलान की व्यवस्था चाहता है। वीवीपेट यानी वोटर वेरिफियेबिल पेपर आॅडिट ट्रायल वो सिस्टम है जिसमें मतदाता जब अपना वोट इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में बटन दबाकर डालता है तो पास में रखी एक अन्य मशीन वीवीपेट में यह दिखता है कि वोटर ने अपना वोट जिस प्रत्याशी को कास्ट किया वह उसी को गया। इवीएम को लेकर आज इंडिया विपक्ष या कांग्रेस ही नहीं एक समय था जब खुद भाजपा भी संदेह जताती थी। आईटी से जुड़े उसके वरिष्ठ नेता नरसिम्हा ने तो इवीएम के खिलाफ बाकायदा लंबा अभियान चलाते हुए एक किताब तक लिख दी थी। 
      इवीएम में गड़बड़ी होती है या नहीं इस बारे में तब तक कोई दावे से नहीं कह सकता जब तक कि इस आरोप को सही साबित नहीं कर दिया जाता। हालांकि जानकार दावा करते हैं कि जिस मशीन या चिप को नेट से नहीं जोड़ा गया है उसको हैक नहीं किया जा सकता लेकिन तकनीकी विशेषज्ञ इस मुद्दे पर अलग अलग राय रखते हैं कि किसी भी इलैक्ट्राॅनिक डिवाइस को इस तरह से सेट किया जा सकता है कि उसमें पड़ेे वोट इधर से उधर कर दिये जायें। यही वजह है कि अमेरिका इंग्लैंड और कई यूरूपीय देशों सहित विदेशों में चुनाव वापस बैलेट पेपर से कराये जाने लगे हैं। हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि इवीएम में गड़बड़ी हो रही थी लेकिन इतना ज़रूर है कि उन देशों ने अपनी जनता और सभी दलों को विश्वास में लेने और चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने को यह कदम उठाया है।
0 उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़,
 हमें यक़ीं था हमारा क़सूर निकलेगा।।        
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

90 घंटे काम क्यों...

90 घंटे चाहिये काॅरपोरेट को काम, 
कंपनी का लाभ, देशहित का नाम !
0 एल एंड टी के चेयरमैन एस एन सुब्रहमण्यन ने कामगारों को 90 घंटे काम करने का उपदेश दे दिया है। वे अपने कर्मचारियों को शनिवार को छुट्टी नहीं देते हैं। वे चाहते हैं कि उनके कामगार संडे को भी काम करें। उधर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इतना अधिक काम करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। मेडिकल एक्सपर्ट दावा करते हैं कि आजकल पहले ही युवाओं पर इतना काम का बोझ है कि उनको इसके तनाव के चलते हार्ट अटैक ब्लड पे्रशर और डायबिटीज़ की समस्याओं का बहुत कम उम्र में ही सामना करना पड़ रहा है। साथ ही ट्रेड यूनियन वामपंथी और सामाजिक संगठन भी मूर्ति और सुब्रहमण्यन की इस सलाह को युवाओं का आर्थिक और मानसिक शोषण करने वाला पूंजीवादी सोच का नमूना बताकर विरोध में उतर आये हैं।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई यही है कि यह पूंजी बढ़ाने यानी लाभ को ही सब कुछ मानकर चलता है। जबकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है जिसे रोज़ी रोटी यानी आमदनी के साथ ही भावनाओं आस्थाओं  मनोरंजन मानवता सामाजिकता संवेदनशीलता परिवार प्यार मुहब्बत सेवा अध्ययन गीत संगीत साहित्य घूमने फिरने गपशप हंसी मज़ाक आराम रिश्ते नातों के लिये भी समय चाहिये। चालाकी और धूर्तता यह कि कारपोरेट कम से कम पैसे में अधिक से अधिक काम अपनी कंपनी के लिये लेकर इसे देश के लिये बताकर कामगारों का खून चूसना चाहता है। ऐसे दौर मंे जब वर्क लाइफ बैलेंस पर राष्ट्रीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक जमकर बहस चल रही है, लाॅर्सन एंड टुब्रो के मुखिया से यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी तो सालाना 51 करोड़ है, जो उनकी कंपनी के कर्मचारियों के वेतन से 543 गुना अधिक है। उनका कहना है कि जो लोग संडे की छुट्टी करते हैं वे घर पर अपनी पत्नी को निहारकर क्या हासिल कर लेते हैं? उनको शायद यह पता नहीं कि और भी ग़म हैं ज़माने में काम के सिवा। एक फिल्मी गीत के बोल हैं- तेरी दो टकिया की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाये। ऐसे लोगोें को धनपशु कहा जाता है जिनको जीवन में पैसे के सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता या धन दौलत ही सबकुछ लगता है। ऐसे लोगों का बस चले तो ये ज़मींदारी या सामंतवादी युग की तरह से मज़दूरों के गले में बेड़िया डालकर उनसे दिन रात काम करायें और उनको केवल जिं़दा रहने के लिये 24 घंटे में दो रूखी सूखी रोटी ही दें। यानी इंसान नहीं इनको गुलाम चाहिये। चर्चा यह भी है कि 90 घंटे काम की बिना मांगे सलाह देने वाले काॅरपोरेटर सर के पास केंद्र सरकार की जल शक्ति योजना का अरबों रूपये का टेंडर है और ये काॅन्ट्रैक्टर्स से काम पूरा कराकर उनका पैसा पूरा और समय पर ना देने के लिये भी बदनाम हैं। यही वजह है कि लेबर टैक्सटाइल्स पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य और सीपीआई एमएल के बिहार से सांसद राजाराम सिंह ने श्रम मंत्री को पत्र लिखकर 90 घंटे काम का विरोध करते हुए कहा है कि अधिक समय काम करने से प्राॅडक्टिविटी बढ़ने की जगह घट जाती है। उन्होंने यह भी कहा कि सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिये क्योंकि ऐसा करना श्रम कानून का उल्लंघन होगा। 
     1921 में इंटरनेशनल लेबर आॅर्गनाइजेशन के मुताबिक सप्ताह में 48 घंटे काम का अंतर्राष्ट्रीय नियम बनाया गया था। 1935 आते आते दुनिया के विकसित और सभ्य देशों ने काम के घंटे घटाकर 40 कर दिये और आज ये सम्पन्न और समृध्द देशों में 29 से 35 तक आ चुके हैं। मिसाल के तौर पर अधिक उत्पादकता और बेहतर अर्थव्यवस्था के हिसाब से नार्वे सबसे आगे है लेकिन यहां कामगार 35 घंटे ही काम करते हैं। ऐसे ही 29 घंटे तक काम लेने वाले आॅस्ट्रिया फ्रांस और डेनमार्क में भी सबसे अच्छा रिर्टन मिलता है। 90 घंटे काम की सलाह देने वाले यह नहीं सोचते कि भारत में 90 प्रतिशत मज़दूर असंगठित क्षेत्र में हैं। श्रम पोर्टल पर केवल 28 करोड़ कामगार दर्ज हैं। इनमें से 94 प्रतिशत की आमदनी 10 हज़ार से भी कम है। जबकि ये सप्ताह में सातों दिन 10 घंटे से अधिक काम करते हैं। ढाबों होटलों और हलवाई की दुकान पर मज़दूर 12 से 14 घंटे तक काम करते हैं। लेकिन उनको पर्याप्त पैसा नहीं मिलता। आई एल ओ की अपै्रल 2023 की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत घंटों के हिसाब से काम में दुनिया में सातवें स्थान पर है। घामिया भूटान और कांगों जैसे देशों का स्थान इस रैंकिंग मेें भारत से पहले आता है। इन छोटे देशों में लोग 50 घंटे तक काम करते हैं। लेकिन खराब अर्थव्यवस्था की वजह से यहां अधिक घंटे काम करने के बाद भी लोगों को वेतन बहुत कम मिलता है। इसकी वजह इन देशों की उत्पादकता कम और गरीबी अधिक होना माना जाता है। यही कारण है कि भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 140 वें स्थान पर है। इससे यह पता चलता है कि अधिक मेहनत करने के बाद भी लोगों को पूरा या अधिक वेतन नहीं मिलता है। यह बात किसी हद तक सही है कि राष्ट्र निर्माण अनुशासन और समर्पण मांगता है लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे देश में काम करने वाले योग्य और प्रतिभाशाली युवाओं की कमी है जो उन ही लोगों से अधिक काम करने की अपील कर रहे हैं जिनपर पहले ही कम वेतन में अपने टारगेट पूरा करने का जानलेवा दबाव है। 
       कंपनियों के चेयरमैन डायरेक्टर एमडी और दूसरे सलाहकार सप्ताह में कितने घंटे काम करते हैं? यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी कई गुना क्यों बढ़ रही है? इंफोसिस के सीईओ की कमाई ही कंपनी के नये कर्मचारी से 2200 गुना अधिक है। 2008 में कंपनी के सीईओ का वेतन 80 लाख और किसी नये भर्ती कर्मचारी का वेतन 2.75 लाख था। मनी कंट्रोल की रिपोर्ट बताती है कि 10 साल बाद यह सौ गुना बढ़कर जहां 80 करोड़ हो गया वहीं नये भर्ती कर्मचारी का वेतन केवल 3.60 लाख ही हुआ क्योें? एक सप्ताह में तो मात्र 168 घंटे ही होते हैं। ऐसे में किसी सीईओ को कितने गुना बढ़े घंटे काम करने की सलाह देंगे और कैसे देंगे? क्योंकि 2.75 लाख वाले कर्मचारी को तो उन्होंने 3.60 लाख सेलरी होने पर पहले से डेढ़ गुना से अधिक काम करने की सलाह दे दी लेकिन यही देशभक्ति और भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की सलाह सीईओ को क्यों नहीं दे रहे? क्या यह सब कंपनी का मुनाफा बढ़ाने की सोची समझी कवायद का हिस्सा तो नहीं? पश्चिमी देश आज अधिक काम से नहीं बल्कि तकनीक आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस व रोबोटिक्स से गुणात्मक विकास को बढ़ा रहे हैं। साथ ही वे अपने यहां शोध पर अधिक धन खर्च कर रहे हैं। उल्टा हमारे देश में 2008 में शोध पर खर्च होने वाला पैसा 0.8 प्रतिशत से घटाकर 0.7 कर दिया गया है। 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर में काम के बढ़े घंटे कम करने की मांग को लेकर एतिहासिक संघर्ष होने के बाद मानवीय सामाजिक और नैतिक आधार पर कारखाने वाले नौकरी के घंटे कम करने को तैयार हुए थे। आज फिर वही पूंजीवाद राजनैतिक दलों को मोटा चंदा देकर उनके सत्ता में आने पर कई देशों में अपने हिसाब से काम के घंटे और रोज़गार की कठिन शर्ते बनवा रहा है। मज़दूरों का तो मशहूर नारा ही रहा है कि 8 घंटे काम के 8 घंटे आराम और 8 घंटे सामाजिक सरोकरा के चाहिये।
0 जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
  उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 2 January 2025

भागवत का विरोध

भागवत की संघ परिवार नहीं मानता, कोई विपक्षी यह सच नहीं मानता!
0 आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों कहा था कि राम मंदिर निर्माण के बाद कुछ लोग ऐसे ही अनेक विवादित मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बनने का असफल प्रयास कर रहे हैं। इस बयान का जहां सेकुलर लोगों ने स्वागत किया वहीं संघ परिवार से जुड़े अनेक कट्टर हिंदूवादी नेता इसके खिलाफ़ खुलकर सामने आ गये। इतना ही नहीं संघ का माउथ पीस समझे जाने वाला अंग्रेज़ी अख़बार आॅर्गनाइज़र तक इस बयान से असहमति जताते हुए लिखता है कि यह सोमनाथ से संभल और उससे आगे तक इतिहास की सच्चाई जानने और सभ्यतागत न्याय हासिल करने की लड़ाई है। ऐसा संभवतया पहली बार हुआ है कि संघ प्रमुख की बात पर संघ परिवार में ही मतभेद सामने आये हैं जबकि विपक्षी दलों का कहना है कि वे इसको सच नहीं मानते।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच से पूरा देश परिचित है। भाजपा आज जहां है उसमें संघ का ही सबसे बड़ा योगदान है। कई बार जब भाजपा की सरकारें या पीएम मोदी लक्ष्मण रेखा लांघते हैं तो संघ उनको ब्रेक लगाने की कोशिश करता है। बताते हैं कि लोकसभा चुनाव में भी जब भाजपा के मुखिया जे पी नड्डा ने एक अंग्रेज़ी दैनिक को दिये इंटरव्यू में कहा कि भाजपा को अब संघ की ज़रूरत नहीं है तो संघ को यह बहुत बुरा लगा और उसने चुनाव में उतना काम नहीं किया जितना वह पहले करता रहा है। बाद में दावा किया गया कि इसी वजह से 400 पार का दावा कर रही भाजपा साधारण बहुमत से भी पीछे रहकर 240 पर अटक गयी। इसके बाद भागवत का बयान आया कि सच्चे स्वयंसेवक को अहंकार नहीं करना चाहिये। यह इशारा मोदी की तरफ माना गया। इसके बाद संघ और भाजपा में बैठकर बात हुयी और गिले शिकवे दूर कर हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में संघ ने पहले की तरह खुलकर काम कर भाजपा को जीत दिलाई। हालांकि संघ विरोधी और विपक्षी दल इस सब कवायद को मिली जुली कुश्ती मानकर चलते हैं। उनका कहना है कि संघ अलग अलग मौको पर अलग अलग बयान देकर सोची समझी योजना के तहत भाजपा को संकट से बचाता है। संघ को जानने वाले यह भी दावा करते हैं कि संघ कभी कभी भाजपा के खिलाफ या अपनी ही परंपरागत सोच से अलग बोलकर विपक्ष का स्पेस छीनना चाहता है। 
मिसाल के तौर पर भागवत इससे पहले भी कह चुके हैं कि राम मंदिर का मामला अलग था, वह सुलझ चुका है। अब हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग तलाश करना ठीक बात नहीं है। वह एक मौके पर हिंदू मुसलमान दोनों का डीएनए एक ही बता चुके हैं। उनका कहना है कि देश में दोनों धर्म के लोग लंबे समय से आपसी सौहार्द से रहते आ रहे हैं। अगर हम दुनिया के सामने मिलजुलकर रहने का एक आदर्श रखना चाहते हैं तो हमें खुद ऐसा करके एक माॅडल विश्व के सामने पेश करना होगा। उनका दो टूक कहना था कि राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ लोगों को लगता है कि वे ऐसे ही विवादित मंदिर मस्जिद के दूसरे मिलते जुलते मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बन सकते हैं जबकि यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इतिहास गवाह है कि राम मंदिर का आंदोलन धार्मिक ना होकर राजनीतिक था। जिसकी वजह से आज भाजपा सत्ता में है। 
14 अप्रैल 2000 को भाजपा नेत्री स्व. सुषमा स्वराज ने भोपाल में यह बात स्वीकार भी की थी। हालांकि संघ यह सच स्वीकार नहीं करता है लेकिन वह राम मंदिर आंदोलन की तरह कोई दूसरा आंदोलन देश में खड़ा होने या उसके बहाने संघ को बाईपास कर भाजपा की राजनीति परवान चढ़ने से भी डरता है। हालांकि कुछ लोग यह भी दावा करते हैं कि संघ प्रमुख ने यह बयान देश में इस तरह के धार्मिक विवाद थोक में सामने आने से भारत की छवि विश्व में खराब होने और खासतौर पर मुस्लिम मुल्कों में काम कर रहे लाखों हिंदुओं को परेशानी से बचाने के लिये दिया है। इसके साथ ही राजनीति के जानकार यह भी आरोप लगाते हैं कि भाजपा के वोटबैंक में ही एक वर्ग आयेदिन मंदिर मस्जिद के अनेक विवाद सामने आने से देश में शांति खतरे में पड़ने हिंसा होने और देश की छवि खराब होने से व्यापार को हो रहे नुकसान से संघ और भाजपा से खफा होता जा रहा है। इसका अंदाज़ इससे मिलता है कि भाजपा को अगर अपने हिंदू मुस्लिम के एजेंडे पर ही चुनावी जीत का विश्वास होता तो वह लाडली बहना जैसी योजनाओं की रेवड़ी बांटने का काम हर राज्य में शुरू नहीं करती। इसके साथ ईवीएम में हेरफेर विरोधी दलों के समर्थक वोट काटने भाजपा समर्थकों के फर्जी वोट मतदाता सूचियांे में जोड़ने कुल डाले गये वोट से अधिक वोट गिने जाने और नकद धन बांटकर वोटर्स को लुभाने के ढेर सारे आरोप विपक्ष उस पर नहीं लगाता या फिर चुनाव आयोग इन आरोपों को गंभीरता से लेकर अपनी विश्वसनीयता बहाल करने जनता का भरोसा लोकतंत्र में कायम करने और अपनी निष्पक्षता बनाये रखने के लिये इस तरह के आरोपों का गंभीर तथ्यपूर्ण और प्रमाणिक जवाब देकर वीवीपेट की गिनती कराने की विपक्ष की मांग स्वीकार कर खुद के स्वायत्त और स्वतंत्र होने का भरोसा दिलाता। 
      भागवत के बयान का अगर कोई धार्मिक नेता विरोध करे तो समझ में आता है लेकिन जब वही लोग खुलकर विरोध करने लगें जिनको संघ ने अब तक खाद पानी देकर पाला पोसा है तो यही माना जायेगा कि या तो भागवत ऐसा औपचारिक बयान देकर केवल दिखावा कर रहे हैं या फिर साम्प्रदायिकता कट्टरता और संकीर्णता का जो जिन्न उन्होंन सौ साल में बोतल से बाहर निकालकर बड़ा आकार दे दिया है वह अब वापस बोतल में जाने वाला नहीं है। वैसे भी विपक्ष का आरोप रहा है कि संघ में लोकतंत्र का अभाव है। उसका दावा है कि वहां कोई आॅनपेपर सदस्यता नहीं है। उसके मुखिया का कोई चुनाव सार्वजनिक रूप से नहीं होता है। वह अपना बाकायदा कोई संविधान या रिकाॅर्ड भी नहीं रखता है। वहां इलैक्शन नहीं स्लैक्शन होता है। संघ प्रमुख जो कहते हैं वही अंतिम और सब कुछ है। असहमति या विरोध के लिये कोई जगह नहीं है। लेकिन आज जो कुछ हो रहा है उससे लगता है कि अब हालात भागवत यानी संघ की पकड़ से बाहर निकलते जा रहे हैं। आने वाला समय संघ और भाजपा के साथ कट्टर और उदार हिंदुओं के शक्ति परीक्षण का होगा। भागवत पहली बार अपने विरोध की अपनों की ही आवाज़ो पर एक बार को ज़रूर सोच रहे होंगे।
0 फूल था मैं मुझको कांटा बनाकर रख दिया,
 और अब कांटे से कहते हैं कि चुभना छोड़ दे।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*