Friday, 17 January 2025

चुनावी निष्पक्षता...

चुनाव निष्पक्षता पर विपक्ष की 
आशंकायें दूर करेगा चुनाव आयोग?
0 चुनाव की निष्पक्षता और सब दलों को समान अवसर उपलब्ध कराना चुनाव आयोग की संवैधानिक ज़िम्मेदारी होती है। इतना ही नहीं चुनाव की प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाये रखना सरकार का भी कानूनी उत्तरदायित्व है। लेकिन जिस मनमाने ढंग से पिछले दिनों चुनाव आयोग ने दिल्ली राज्य के चुनाव का एलान करते हुए सवालों के जवाब दिये उससे यह प्रक्रिया शक के दायरे में आ गयी है। इसके साथ ही विपक्ष जिस तरह से इवीएम पर बार बार उंगली उठा रहा है, वह भी हमारे संविधान लोकतंत्र और चुनाव आयोग की ईमानदारी के लिये चिंता का विषय है। गोदी मीडिया की सरकार की एकतरफा पैरवी की वजह से कुछ वाजिब और जायज़ सवाल पूछे ही नहीं गये। नहीं तो दिल्ली में सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी के आरोपों पर स्पश्टीकरण सामने आ सकता था। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने पिछले दिनों

दिल्ली में प्रैस वार्ता के दौरान हरियाणा और महाराष्ट्र राज्यों के चुनावों को लेकर विपक्ष के लगाये गये तमाम आरोपों को बिना किसी प्रमाण आंकड़ों और तथ्यों के सामने रखे ज़बानी तौर पर नकार दिया। इसके साथ ही उन्होंने दिल्ली के आगामी चुनाव को लेकर पक्ष विपक्ष के लगाये जा रहे बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम काटने और फर्जी वोटर्स के नाम जोड़ने के मुद्दे पर ज़बान बंद रखी। विपक्ष का सवाल रहा है कि महाराष्ट में लोकसभा चुनाव में कुल 9 करोड़ 28 लाख वोट 6 माह बाद ही विधानसभा चुनाव में 9 करोड़ 77 लाख कैसे हो गये? इसके बाद मतदाता सूची में नये मतदाता बनाने और पुरानों के नाम काटने को लेकर दिल्ली में आप सावधान हो गयी है। 
      उसका दावा है कि महाराष्ट्र में भाजपा ने 50 लाख नये मतदाता जोड़कर चुनाव लिस्ट मंे गड़बड़ी की है? दिल्ली में भी संसदीय चुनाव के मुकाबले होने जा रहे असैंबली चुनाव की वोटर लिस्ट में 8 लाख मतदाता बढ़ गये हैं। इसके साथ ही लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वोटों में भी वहां 75 लाख वोटर्स का भारी अंतर है। यह माना जा सकता है कि कंेद्र और राज्य के चुनाव में लोगों का अलग अलग रूजहान होता है जिससे विधानसभा में वोट देने वाले वोटर्स की तादाद बढ़ सकती है लेकिन चुनाव आयोग नये मतदाता इतनी बड़ी संख्या में बढ़ने का कोई सटीक जवाब नहीं दे पाया है। उसका दावा है कि उसने नये मतदाता बनाने को जो अभियान चलाया यह उसका नतीजा है। सवाल यह भी उठता है कि चुनाव आयोग के द्वारा ऐसा अन्य राज्यों में क्यों नहीं किया गया? चुनाव आयोग इस सवाल का भी कोई सही जवाब नहीं दे पाया कि वहां शाम 5 बजे से रात 11 बजे तक इतना ज़बरदस्त वोटर टर्नआउट कैसे बढ़ा? इस शक को दूर करने के लिये वोटिंग की वीडियोग्राफी देखी जा सकती थी लेकिन यहां तो चुनाव आयोग ने हाल ही में नियम बदलकर यह वीडियोे फुटेज देखने पर ही रोक लगा दी है। जिससे विपक्ष का शक और भी गहरा गया है। दिल्ली के चुनाव आयुक्त ने खुद कहा है कि जिस तरह से 30 दिन में 5 लाख नये लोगों ने मत बनवाने के लिये आवेदन किया है उससे सघन जांच की आवश्ययकता है क्योंकि यह अप्रत्याशित है। आप का आरोप है कि लगभग हर विधानसभा क्षेत्र में 10 प्रतिशत वोट नये बनाने और साढे़ 5 प्रतिशत लोगों के वोट काटने के आवेदन आ रहे हैं। संदेह बढ़ाने वाली बात यह है कि जिनके नाम से ये आवेदन आये हैं उनसे संपर्क करने पर वे अपना नाम उनकी जानकारी बिना फर्जी तरीके से प्रयोग करने की बात बता रहे हैं। अजीब बात यह भी है कि ऐसी 4183 एप्लीकेशन मात्र 84 लोगों की तरफ से लिखी गयी हैं। 
     चुनाव आयोग का इस पर कहना है कि बिना ठोस सबूत के किसी का वोट नहीं काटा जाता। लेकिन नये वोट बनाने को लेकर वह उदार रहा है इसके बारे में आयोग कोई संतोषजनक उत्तर नहीं देेेे पा रहा है? जब चुनाव आयोग के बीएलओ घर घर मुहल्ले मुहल्ले जाकर पहले ही गलत वोट काटने और नये जोड़ने का अभियान चला चुके हैं तो नई एप्लीकेशन वोट काटने और जोड़ने के लिये इतने बड़े पैमाने पर कहां से आ रही हैं? चीफ इलैक्शन कमिश्नर राजीव कुमार ने शेर ओ शायरी करते हुए विपक्ष के आरोप हवा में उड़ाते हुए यहां तक कह दिया कि शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था। आप का यहां तक दावा है कि पिछले चुनाव में उनकी पार्टी को 49 लाख से अधिक वोट मिले थे। जिनमें से 9 लाख वोट काटे जा रहे हैं। दूसरी तरफ केजरीवाल का कहना है कि भाजपा इतने ही नये फर्जी वोटर जोड़कर अपने पिछली बार के 35 लाख वोटर को 44 लाख पहुंचाना चाहती है। लेकिन चुनाव आयोग इन गंभीर आरोपों पर चुप्पी साध रहा है। इवीएम को लेकर भी विपक्ष उंगली उठाता रहा है लेकिन आयोग उस पर भी बात नहीं करता है। दरअसल इंडिया गठबंधन सभी इवीएम का सौ प्रतिशत वीवीपेट से मिलान की व्यवस्था चाहता है। वीवीपेट यानी वोटर वेरिफियेबिल पेपर आॅडिट ट्रायल वो सिस्टम है जिसमें मतदाता जब अपना वोट इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में बटन दबाकर डालता है तो पास में रखी एक अन्य मशीन वीवीपेट में यह दिखता है कि वोटर ने अपना वोट जिस प्रत्याशी को कास्ट किया वह उसी को गया। इवीएम को लेकर आज इंडिया विपक्ष या कांग्रेस ही नहीं एक समय था जब खुद भाजपा भी संदेह जताती थी। आईटी से जुड़े उसके वरिष्ठ नेता नरसिम्हा ने तो इवीएम के खिलाफ बाकायदा लंबा अभियान चलाते हुए एक किताब तक लिख दी थी। 
      इवीएम में गड़बड़ी होती है या नहीं इस बारे में तब तक कोई दावे से नहीं कह सकता जब तक कि इस आरोप को सही साबित नहीं कर दिया जाता। हालांकि जानकार दावा करते हैं कि जिस मशीन या चिप को नेट से नहीं जोड़ा गया है उसको हैक नहीं किया जा सकता लेकिन तकनीकी विशेषज्ञ इस मुद्दे पर अलग अलग राय रखते हैं कि किसी भी इलैक्ट्राॅनिक डिवाइस को इस तरह से सेट किया जा सकता है कि उसमें पड़ेे वोट इधर से उधर कर दिये जायें। यही वजह है कि अमेरिका इंग्लैंड और कई यूरूपीय देशों सहित विदेशों में चुनाव वापस बैलेट पेपर से कराये जाने लगे हैं। हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि इवीएम में गड़बड़ी हो रही थी लेकिन इतना ज़रूर है कि उन देशों ने अपनी जनता और सभी दलों को विश्वास में लेने और चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने को यह कदम उठाया है।
0 उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़,
 हमें यक़ीं था हमारा क़सूर निकलेगा।।        
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

90 घंटे काम क्यों...

90 घंटे चाहिये काॅरपोरेट को काम, 
कंपनी का लाभ, देशहित का नाम !
0 एल एंड टी के चेयरमैन एस एन सुब्रहमण्यन ने कामगारों को 90 घंटे काम करने का उपदेश दे दिया है। वे अपने कर्मचारियों को शनिवार को छुट्टी नहीं देते हैं। वे चाहते हैं कि उनके कामगार संडे को भी काम करें। उधर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इतना अधिक काम करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। मेडिकल एक्सपर्ट दावा करते हैं कि आजकल पहले ही युवाओं पर इतना काम का बोझ है कि उनको इसके तनाव के चलते हार्ट अटैक ब्लड पे्रशर और डायबिटीज़ की समस्याओं का बहुत कम उम्र में ही सामना करना पड़ रहा है। साथ ही ट्रेड यूनियन वामपंथी और सामाजिक संगठन भी मूर्ति और सुब्रहमण्यन की इस सलाह को युवाओं का आर्थिक और मानसिक शोषण करने वाला पूंजीवादी सोच का नमूना बताकर विरोध में उतर आये हैं।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई यही है कि यह पूंजी बढ़ाने यानी लाभ को ही सब कुछ मानकर चलता है। जबकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है जिसे रोज़ी रोटी यानी आमदनी के साथ ही भावनाओं आस्थाओं  मनोरंजन मानवता सामाजिकता संवेदनशीलता परिवार प्यार मुहब्बत सेवा अध्ययन गीत संगीत साहित्य घूमने फिरने गपशप हंसी मज़ाक आराम रिश्ते नातों के लिये भी समय चाहिये। चालाकी और धूर्तता यह कि कारपोरेट कम से कम पैसे में अधिक से अधिक काम अपनी कंपनी के लिये लेकर इसे देश के लिये बताकर कामगारों का खून चूसना चाहता है। ऐसे दौर मंे जब वर्क लाइफ बैलेंस पर राष्ट्रीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक जमकर बहस चल रही है, लाॅर्सन एंड टुब्रो के मुखिया से यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी तो सालाना 51 करोड़ है, जो उनकी कंपनी के कर्मचारियों के वेतन से 543 गुना अधिक है। उनका कहना है कि जो लोग संडे की छुट्टी करते हैं वे घर पर अपनी पत्नी को निहारकर क्या हासिल कर लेते हैं? उनको शायद यह पता नहीं कि और भी ग़म हैं ज़माने में काम के सिवा। एक फिल्मी गीत के बोल हैं- तेरी दो टकिया की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाये। ऐसे लोगोें को धनपशु कहा जाता है जिनको जीवन में पैसे के सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता या धन दौलत ही सबकुछ लगता है। ऐसे लोगों का बस चले तो ये ज़मींदारी या सामंतवादी युग की तरह से मज़दूरों के गले में बेड़िया डालकर उनसे दिन रात काम करायें और उनको केवल जिं़दा रहने के लिये 24 घंटे में दो रूखी सूखी रोटी ही दें। यानी इंसान नहीं इनको गुलाम चाहिये। चर्चा यह भी है कि 90 घंटे काम की बिना मांगे सलाह देने वाले काॅरपोरेटर सर के पास केंद्र सरकार की जल शक्ति योजना का अरबों रूपये का टेंडर है और ये काॅन्ट्रैक्टर्स से काम पूरा कराकर उनका पैसा पूरा और समय पर ना देने के लिये भी बदनाम हैं। यही वजह है कि लेबर टैक्सटाइल्स पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य और सीपीआई एमएल के बिहार से सांसद राजाराम सिंह ने श्रम मंत्री को पत्र लिखकर 90 घंटे काम का विरोध करते हुए कहा है कि अधिक समय काम करने से प्राॅडक्टिविटी बढ़ने की जगह घट जाती है। उन्होंने यह भी कहा कि सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिये क्योंकि ऐसा करना श्रम कानून का उल्लंघन होगा। 
     1921 में इंटरनेशनल लेबर आॅर्गनाइजेशन के मुताबिक सप्ताह में 48 घंटे काम का अंतर्राष्ट्रीय नियम बनाया गया था। 1935 आते आते दुनिया के विकसित और सभ्य देशों ने काम के घंटे घटाकर 40 कर दिये और आज ये सम्पन्न और समृध्द देशों में 29 से 35 तक आ चुके हैं। मिसाल के तौर पर अधिक उत्पादकता और बेहतर अर्थव्यवस्था के हिसाब से नार्वे सबसे आगे है लेकिन यहां कामगार 35 घंटे ही काम करते हैं। ऐसे ही 29 घंटे तक काम लेने वाले आॅस्ट्रिया फ्रांस और डेनमार्क में भी सबसे अच्छा रिर्टन मिलता है। 90 घंटे काम की सलाह देने वाले यह नहीं सोचते कि भारत में 90 प्रतिशत मज़दूर असंगठित क्षेत्र में हैं। श्रम पोर्टल पर केवल 28 करोड़ कामगार दर्ज हैं। इनमें से 94 प्रतिशत की आमदनी 10 हज़ार से भी कम है। जबकि ये सप्ताह में सातों दिन 10 घंटे से अधिक काम करते हैं। ढाबों होटलों और हलवाई की दुकान पर मज़दूर 12 से 14 घंटे तक काम करते हैं। लेकिन उनको पर्याप्त पैसा नहीं मिलता। आई एल ओ की अपै्रल 2023 की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत घंटों के हिसाब से काम में दुनिया में सातवें स्थान पर है। घामिया भूटान और कांगों जैसे देशों का स्थान इस रैंकिंग मेें भारत से पहले आता है। इन छोटे देशों में लोग 50 घंटे तक काम करते हैं। लेकिन खराब अर्थव्यवस्था की वजह से यहां अधिक घंटे काम करने के बाद भी लोगों को वेतन बहुत कम मिलता है। इसकी वजह इन देशों की उत्पादकता कम और गरीबी अधिक होना माना जाता है। यही कारण है कि भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 140 वें स्थान पर है। इससे यह पता चलता है कि अधिक मेहनत करने के बाद भी लोगों को पूरा या अधिक वेतन नहीं मिलता है। यह बात किसी हद तक सही है कि राष्ट्र निर्माण अनुशासन और समर्पण मांगता है लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे देश में काम करने वाले योग्य और प्रतिभाशाली युवाओं की कमी है जो उन ही लोगों से अधिक काम करने की अपील कर रहे हैं जिनपर पहले ही कम वेतन में अपने टारगेट पूरा करने का जानलेवा दबाव है। 
       कंपनियों के चेयरमैन डायरेक्टर एमडी और दूसरे सलाहकार सप्ताह में कितने घंटे काम करते हैं? यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी कई गुना क्यों बढ़ रही है? इंफोसिस के सीईओ की कमाई ही कंपनी के नये कर्मचारी से 2200 गुना अधिक है। 2008 में कंपनी के सीईओ का वेतन 80 लाख और किसी नये भर्ती कर्मचारी का वेतन 2.75 लाख था। मनी कंट्रोल की रिपोर्ट बताती है कि 10 साल बाद यह सौ गुना बढ़कर जहां 80 करोड़ हो गया वहीं नये भर्ती कर्मचारी का वेतन केवल 3.60 लाख ही हुआ क्योें? एक सप्ताह में तो मात्र 168 घंटे ही होते हैं। ऐसे में किसी सीईओ को कितने गुना बढ़े घंटे काम करने की सलाह देंगे और कैसे देंगे? क्योंकि 2.75 लाख वाले कर्मचारी को तो उन्होंने 3.60 लाख सेलरी होने पर पहले से डेढ़ गुना से अधिक काम करने की सलाह दे दी लेकिन यही देशभक्ति और भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की सलाह सीईओ को क्यों नहीं दे रहे? क्या यह सब कंपनी का मुनाफा बढ़ाने की सोची समझी कवायद का हिस्सा तो नहीं? पश्चिमी देश आज अधिक काम से नहीं बल्कि तकनीक आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस व रोबोटिक्स से गुणात्मक विकास को बढ़ा रहे हैं। साथ ही वे अपने यहां शोध पर अधिक धन खर्च कर रहे हैं। उल्टा हमारे देश में 2008 में शोध पर खर्च होने वाला पैसा 0.8 प्रतिशत से घटाकर 0.7 कर दिया गया है। 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर में काम के बढ़े घंटे कम करने की मांग को लेकर एतिहासिक संघर्ष होने के बाद मानवीय सामाजिक और नैतिक आधार पर कारखाने वाले नौकरी के घंटे कम करने को तैयार हुए थे। आज फिर वही पूंजीवाद राजनैतिक दलों को मोटा चंदा देकर उनके सत्ता में आने पर कई देशों में अपने हिसाब से काम के घंटे और रोज़गार की कठिन शर्ते बनवा रहा है। मज़दूरों का तो मशहूर नारा ही रहा है कि 8 घंटे काम के 8 घंटे आराम और 8 घंटे सामाजिक सरोकरा के चाहिये।
0 जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
  उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 2 January 2025

भागवत का विरोध

भागवत की संघ परिवार नहीं मानता, कोई विपक्षी यह सच नहीं मानता!
0 आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों कहा था कि राम मंदिर निर्माण के बाद कुछ लोग ऐसे ही अनेक विवादित मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बनने का असफल प्रयास कर रहे हैं। इस बयान का जहां सेकुलर लोगों ने स्वागत किया वहीं संघ परिवार से जुड़े अनेक कट्टर हिंदूवादी नेता इसके खिलाफ़ खुलकर सामने आ गये। इतना ही नहीं संघ का माउथ पीस समझे जाने वाला अंग्रेज़ी अख़बार आॅर्गनाइज़र तक इस बयान से असहमति जताते हुए लिखता है कि यह सोमनाथ से संभल और उससे आगे तक इतिहास की सच्चाई जानने और सभ्यतागत न्याय हासिल करने की लड़ाई है। ऐसा संभवतया पहली बार हुआ है कि संघ प्रमुख की बात पर संघ परिवार में ही मतभेद सामने आये हैं जबकि विपक्षी दलों का कहना है कि वे इसको सच नहीं मानते।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच से पूरा देश परिचित है। भाजपा आज जहां है उसमें संघ का ही सबसे बड़ा योगदान है। कई बार जब भाजपा की सरकारें या पीएम मोदी लक्ष्मण रेखा लांघते हैं तो संघ उनको ब्रेक लगाने की कोशिश करता है। बताते हैं कि लोकसभा चुनाव में भी जब भाजपा के मुखिया जे पी नड्डा ने एक अंग्रेज़ी दैनिक को दिये इंटरव्यू में कहा कि भाजपा को अब संघ की ज़रूरत नहीं है तो संघ को यह बहुत बुरा लगा और उसने चुनाव में उतना काम नहीं किया जितना वह पहले करता रहा है। बाद में दावा किया गया कि इसी वजह से 400 पार का दावा कर रही भाजपा साधारण बहुमत से भी पीछे रहकर 240 पर अटक गयी। इसके बाद भागवत का बयान आया कि सच्चे स्वयंसेवक को अहंकार नहीं करना चाहिये। यह इशारा मोदी की तरफ माना गया। इसके बाद संघ और भाजपा में बैठकर बात हुयी और गिले शिकवे दूर कर हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में संघ ने पहले की तरह खुलकर काम कर भाजपा को जीत दिलाई। हालांकि संघ विरोधी और विपक्षी दल इस सब कवायद को मिली जुली कुश्ती मानकर चलते हैं। उनका कहना है कि संघ अलग अलग मौको पर अलग अलग बयान देकर सोची समझी योजना के तहत भाजपा को संकट से बचाता है। संघ को जानने वाले यह भी दावा करते हैं कि संघ कभी कभी भाजपा के खिलाफ या अपनी ही परंपरागत सोच से अलग बोलकर विपक्ष का स्पेस छीनना चाहता है। 
मिसाल के तौर पर भागवत इससे पहले भी कह चुके हैं कि राम मंदिर का मामला अलग था, वह सुलझ चुका है। अब हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग तलाश करना ठीक बात नहीं है। वह एक मौके पर हिंदू मुसलमान दोनों का डीएनए एक ही बता चुके हैं। उनका कहना है कि देश में दोनों धर्म के लोग लंबे समय से आपसी सौहार्द से रहते आ रहे हैं। अगर हम दुनिया के सामने मिलजुलकर रहने का एक आदर्श रखना चाहते हैं तो हमें खुद ऐसा करके एक माॅडल विश्व के सामने पेश करना होगा। उनका दो टूक कहना था कि राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ लोगों को लगता है कि वे ऐसे ही विवादित मंदिर मस्जिद के दूसरे मिलते जुलते मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बन सकते हैं जबकि यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इतिहास गवाह है कि राम मंदिर का आंदोलन धार्मिक ना होकर राजनीतिक था। जिसकी वजह से आज भाजपा सत्ता में है। 
14 अप्रैल 2000 को भाजपा नेत्री स्व. सुषमा स्वराज ने भोपाल में यह बात स्वीकार भी की थी। हालांकि संघ यह सच स्वीकार नहीं करता है लेकिन वह राम मंदिर आंदोलन की तरह कोई दूसरा आंदोलन देश में खड़ा होने या उसके बहाने संघ को बाईपास कर भाजपा की राजनीति परवान चढ़ने से भी डरता है। हालांकि कुछ लोग यह भी दावा करते हैं कि संघ प्रमुख ने यह बयान देश में इस तरह के धार्मिक विवाद थोक में सामने आने से भारत की छवि विश्व में खराब होने और खासतौर पर मुस्लिम मुल्कों में काम कर रहे लाखों हिंदुओं को परेशानी से बचाने के लिये दिया है। इसके साथ ही राजनीति के जानकार यह भी आरोप लगाते हैं कि भाजपा के वोटबैंक में ही एक वर्ग आयेदिन मंदिर मस्जिद के अनेक विवाद सामने आने से देश में शांति खतरे में पड़ने हिंसा होने और देश की छवि खराब होने से व्यापार को हो रहे नुकसान से संघ और भाजपा से खफा होता जा रहा है। इसका अंदाज़ इससे मिलता है कि भाजपा को अगर अपने हिंदू मुस्लिम के एजेंडे पर ही चुनावी जीत का विश्वास होता तो वह लाडली बहना जैसी योजनाओं की रेवड़ी बांटने का काम हर राज्य में शुरू नहीं करती। इसके साथ ईवीएम में हेरफेर विरोधी दलों के समर्थक वोट काटने भाजपा समर्थकों के फर्जी वोट मतदाता सूचियांे में जोड़ने कुल डाले गये वोट से अधिक वोट गिने जाने और नकद धन बांटकर वोटर्स को लुभाने के ढेर सारे आरोप विपक्ष उस पर नहीं लगाता या फिर चुनाव आयोग इन आरोपों को गंभीरता से लेकर अपनी विश्वसनीयता बहाल करने जनता का भरोसा लोकतंत्र में कायम करने और अपनी निष्पक्षता बनाये रखने के लिये इस तरह के आरोपों का गंभीर तथ्यपूर्ण और प्रमाणिक जवाब देकर वीवीपेट की गिनती कराने की विपक्ष की मांग स्वीकार कर खुद के स्वायत्त और स्वतंत्र होने का भरोसा दिलाता। 
      भागवत के बयान का अगर कोई धार्मिक नेता विरोध करे तो समझ में आता है लेकिन जब वही लोग खुलकर विरोध करने लगें जिनको संघ ने अब तक खाद पानी देकर पाला पोसा है तो यही माना जायेगा कि या तो भागवत ऐसा औपचारिक बयान देकर केवल दिखावा कर रहे हैं या फिर साम्प्रदायिकता कट्टरता और संकीर्णता का जो जिन्न उन्होंन सौ साल में बोतल से बाहर निकालकर बड़ा आकार दे दिया है वह अब वापस बोतल में जाने वाला नहीं है। वैसे भी विपक्ष का आरोप रहा है कि संघ में लोकतंत्र का अभाव है। उसका दावा है कि वहां कोई आॅनपेपर सदस्यता नहीं है। उसके मुखिया का कोई चुनाव सार्वजनिक रूप से नहीं होता है। वह अपना बाकायदा कोई संविधान या रिकाॅर्ड भी नहीं रखता है। वहां इलैक्शन नहीं स्लैक्शन होता है। संघ प्रमुख जो कहते हैं वही अंतिम और सब कुछ है। असहमति या विरोध के लिये कोई जगह नहीं है। लेकिन आज जो कुछ हो रहा है उससे लगता है कि अब हालात भागवत यानी संघ की पकड़ से बाहर निकलते जा रहे हैं। आने वाला समय संघ और भाजपा के साथ कट्टर और उदार हिंदुओं के शक्ति परीक्षण का होगा। भागवत पहली बार अपने विरोध की अपनों की ही आवाज़ो पर एक बार को ज़रूर सोच रहे होंगे।
0 फूल था मैं मुझको कांटा बनाकर रख दिया,
 और अब कांटे से कहते हैं कि चुभना छोड़ दे।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*