Thursday, 26 December 2024

आंबेडकर को मानते हैं?

*डा. अंबेडकर को अगर मानते हैं, 
उनके संविधान को क्यों नहीं मानते?*
0 पिछले दिनों संसद में बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर को लेकर ज़ोरदार बहस हुयी। सरकार और विपक्ष दोनों यह दिखाने की कोशिश कर रहे थे जैसे उनसे बड़ा अंबेडकर का चाहने वाला कोई दूसरा नहीं हो सकता। लेकिन सच यह है कि बाबा साहब के नाम पर उनकी मूर्ति और संविधान को लेकर बड़े बड़े दावे करने वाले विभिन्न दल और नेता अंबेडकर के विचारों उसूलों और उनके बताये रास्ते पर चलने को तैयार नहीं हैं। खासतौर पर मोदी सरकार और राज्यों की भाजपा सरकारों ने अंबेडकर को लेकर बहुत आडंबर किये हैं। इसके पीछे दलित समाज को खुश करने का नाटक अधिक रहा है। लेकिन बाबा साहब ने भारत का जो संविधान बनाया था। उस पर कोई चलने को तैयार नहीं है। यह ठीक ऐसी ही बात है जैसे हिंदू समाज पूरे विश्व को एक परिवार बताता है। लेकिन जब वर्ण व्यवस्था और अल्पसंख्यकों का सवाल आता है तो इसका एक बड़ा वर्ग उनके खिलाफ खुलेआम खड़ा हो जाता है। ऐसे ही मुसलमान इस्लाम की बड़ी बड़ी बातें करते हैं। लेकिन जब अमल की बात आती है तो पैगंबर का सब्र और सुलह का रास्ता छोड़कर कई जगह कुछ कट्टरपंथी मुसलमान उग्र होकर खुद मुसीबत मोल ले लेते हैं।    
*-इकबाल हिंदुस्तानी*
कहने को हमारे देश में लोकतंत्र है। चुनी हुयी सरकारें हैं। पुलिस है। कोर्ट हैं। जांच एजेंसियां हैं। मीडिया हैं। संविधान है। चुनाव आयोग सूचना आयोग मानव अधिकार आयोग अल्पसंख्यक आयोग सीबीआई और ईडी जैसी कथित स्वायत्त संस्थायें हैं। यानी कानून का राज बताया जाता है। लेकिन वास्तव में क्या सब नागरिकों के अधिकार समान हैं? व्यवहार में तो ऐसा बिल्कुल भी नजर नहीं आता है। विडंबना यह है कि हमारे पीएम सीएम एमपी एमएलए पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी सभी संविधान की शपथ लेकर अपने पद ग्रहण करते हैं। लेकिन हम देख रहे हैं कि कई मामलों में आयेदिन इस शपथ के विपरीत वे आजकल पूरी निडरता और क्रूरता से अन्याय पक्षपात अत्याचार का काम करने में हिचक नहीं रहे हैं। विधानमंडलों में पक्षपातपूर्ण कानून बनाने से लेकर पुलिस के द्वारा अपने विरोधी लोगों को टारगेट करने में अब उनको जरा भी लज्जा नहीं आती है। क्या संविधान इसकी इजाजत देता है? नहीं देता तो आप डा. अंबेडकर को काहे झूठमूठ की श्रध्दांजलि का नाटक करते हो? 
    एक नया संविधान विरोधी चलन देखने में आ रहा था कि अगर किसी पर दंगा या किसी अपराध का आरोप लगता है तो उस पर अपराध साबित होने से पहले ही पुलिस प्रशासन सत्ता में बैठे अपने आकाओं का राजनीतिक एजेंडा लागू करने के लिये उसके घर या दुकान व अन्य प्रोपर्टी पर बुल्डोजर चलवा देता था। क्या कानूनन बिना नोटिस दिये कोई सरकार ऐसा कर सकती है? संविधान से नहीं कर सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले ही इस तरह के मामलों पर कुछ हद तक रोक लगा दी है। इसके बाद भी यूपी में कुख्यात अपराधियों के नाम पर फर्जी मुठभेड़ में आरोपियों को मार डालना और कई के पांव में गोली मारकर हाफ एनकाउंटर कर देना अब आम बात हो चुकी है। ऐसे ही भीड़ द्वारा किसी पर भी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहंुचाने का आरोप लगाकर उसकी जान ले लेना अब सामान्य सा हो चुका है। क्या ये संविधान के हिसाब से सही है? नहीं तो बाबा साहब को कहां मान रहे हैं आप? आज दंगा होने पर एक वर्ग विशेष को सबक सिखाने और एक वर्ग विशेष को तुष्टिकरण कर उनसे थोक में वोट लेकर अनैतिक तरीके से चुनाव जीतने को यह सब सोची समझी योजना के तहत करने का विपक्ष का आरोप सही नजर नहीं आ रहा है? 
      अपवाद के तौर पर कभी कहीं हो जाता तो इन हरकतों को नजर अंदाज भी किया जा सकता था। लेकिन ऐसा एक दो बार नहीं एक दो राज्यों में नहीं कई राज्यों में एक पार्टी की सरकारें लगातार कर रही हैं तो क्या इसे कानून का राज कहा जा सकता है? हालांकि विपक्ष की सरकारें भी दूध की धुली नहीं हैं। कांग्रेस ने अपने 40 साल के एकक्षत्र राज में संविधान का खूब मज़ाक बनाया है। चुनी हुयी दर्जनों सरकारें अपने राजनीतिक स्वार्थ में बर्खास्त की हैं। अब भाजपा सरकार उससे भी कई गुना आगे निकलकर तमाम संविधान विरोधी काम खुलेआम कर रही है। क्या इसे संविधान का राज कहा जा सकता है? क्या ऐसा करने वाले बाबा साहब के समर्थक हो सकते हैं? बाबा साहब के संविधान के नाम पर साम्राज्यवादी मनमानी अत्याचारी अन्यायपूर्ण और पक्षपातपूर्ण शासन व्यवस्था लागू करने का काम कैसे किया जा सकता है? अब यह बात ढकी छिपी नहीं रह गयी है कि एक संस्था और एक दल खुलेआम एक वर्ग विशेष का दानवीकरण करने पर तुला है। इस वर्ग के खिलाफ धर्म संसद के नाम पर आयेदिन जहर उगला जा रहा है। 
     सुप्रीम कोर्ट के हेट स्पीच के खिलाफ सख़्त कानूनी कार्यवाही करने के बार बार आदेश के बावजूद सरकारें अव्वल तो इन मामलों का संज्ञान ही नहीं लेती। जब मामला कोर्ट में चला जाता है तो मजबूरन हल्की धाराओं मेें एफआईआर दर्ज की जाती हैं। इसके बाद सत्ता के इशारे पर जांच के नाम पर केस को कमजोर किया जाता है। नतीजा यह होता है कि कोर्ट से आरोपियों को जल्दी ही जमानत मिल जाती है। आरोपी फिर से अपने नफरत और झूठ फैलाने के मिशन में लग जाते हैं। दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों सेकुलर हिंदू दलितों और संघ परिवार की विचार धारा का विरोध करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के मामलोें मेें जरूरत से ज्यादा तेजी दिखाई जाती है। उनके मामलों में धारायें भी अधिक गंभीर लगाई जाती हैं। उनकी जमानतों का कोर्ट में लगातार विरोध किया जाता है। उधर कोर्ट जहां पहले छोटे छोटे मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर पिछली सरकारों से सखती से जवाब तलब करते थे। आजकल देखने में आ रहा है कि या तो सरकार के खिलाफ आने वाले केस सुनवाई के लिये लिस्टेड ही नहीं होते या फिर उन पर कोर्ट राहत देने में पहले जैसे उदार नहीं रहे हैं। 
   सुप्रीम कोर्ट के एक चीफ जस्टिस ने कहा था कि इंसाफ केवल होना ही नहीं चाहिये बल्कि होता हुआ नजर भी आना चाहिये। इतना तो साफ है कि आज न्याय हो भी रहा हो तो वह नजर नहीं आ रहा है। इतना ही नहीं सरकारों ने संविधान के खिलाफ काम करके भी विरोध के रास्ते बंद कर दिये हैं। मीडिया से लेकर कोर्ट चुनाव आयोग ईडी सीबीआई इनकम टैक्स कई बार सरकार का पक्ष लेते नज़र आते हैं। विपक्षी नेताओं को करप्शन का आरोप लगाकर पहले घेरा जाता है, डराया धमकाया जाता है फिर भी नहीं मानने पर उनको जेल भेज दिया जाता है, उनकी सम्पत्यिां ज़ब्त कर ली जाती हैं, जब वे भाजपा में आ जाते हैं तो उनकी एक एक हज़ार करोड़ की सम्पत्यिां वापस करने के साथ ही उनको पाक साफ घोषित कर विधायक सांसद मंत्री और उपमुख्यमंत्री के साथ सीएम तक बना दिया जाता है। क्या बाबा साहब के संविधान पर चलकर यह सब अनर्थ किया जा सकता है? तमाम सरकारी संस्थान निजी हाथों में सौंपकर आरक्षण खत्म किया जा रहा है? सरकारी पदों पर नियुक्तियों में खुलकर घोटाला बेईमानी गड़बड़ी भाईभतीजावाद जातिवाद और साम्प्रदायिकता का खुला खेल फरूखाबादी बेशर्मी से खेला जा रहा है। पक्ष हो या विपक्ष उनकी सरकारों का करप्शन पक्षपात भेदभाव अन्याय अत्याचार बेईमानी और झूठ कई बार साफ नज़र आता है लेकिन बाबा साहब की दुहाई देंगे।                                      
*0 उसके होंठों की तरफ ना देख वो क्या कहता है,*
*उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता है।।*
*0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर व पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Friday, 20 December 2024

प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट

*प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट का भाविष्य: 
कोर्ट नहीं सरकार का रूख़ तय करेगा?* 
0 देश में एक बार फिर मंदिर मस्जिद के कई विवाद खड़े होने लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने वक्ती तौर पर इन पर स्टे कर दिया है। कुछ लोगों को लगता है कि प्लेसेज़ आफ़ वर्शिप एक्ट के रहते इस तरह के विवाद खड़े ही नहीं होने चाहिये थे। कुछ लोग इस तरह के विवादों को तूल देने के लिये पूर्व चीफ़ जस्टिस चंद्रचूड़ की उस मौखिक टिप्पणी को मानते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि यह एक्ट किसी धर्म स्थल का स्वरूप बदलने से रोकता है लेकिन उसका सर्वे कर सच जानने से नहीं रोकता । इसका नतीजा यह हुआ कि बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे का रास्ता इस टिप्पणी से खुल गया। इसके बाद मथुरा की ईदगाह अजमेर की दरगाह और संभल की जामा मस्जिद से लेकर दिल्ली की जामा मस्जिद तक के सर्वे का मामला निचली अदालतों में पहंुच गया।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
1991 में जब पी वी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट पास किया था तो उस टाइम मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं का एतराज़ यह था कि इसमें बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि को शामिल क्यों नहीं किया गया। जबकि यह मामला कोर्ट में विचाराधीन था और इसे भाजपा व संघ परिवार ने बहुत बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना रखा था जिससे इसको एक्ट से बाहर से रखा गया था। कम लोगों को पता होगा कि उस समय भाजपा ने इस एक्ट का भी यह कहकर विरोध किया था इससे हिंदुओं के आस्था पूजा और एतिहासिक धार्मिक धरोहरों को वापस पाने के मौलिक अधिकार का हनन होगा। लेकिन वह सत्ता में नहीं होने की वजह से इस कानून को पास होने से रोक नहीं सकी थी। आज हालात बदल चुके हैं। भाजपा तीसरी बार सत्ता में आई है। काफी लंबे समय से इस एक्ट को भाजपा की सोच से प्रभावित कुछ वकील सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते रहे हैं। कोर्ट इस एक्ट की संवैधानिकता को परखने के लिये केंद्र सरकार से उसका रूख कई बार जानने के लिये कई साल से समय दे रहा है। लेकिन मोदी सरकार इस पर चुप्पी साधे रही है। आमतौर पर किसी भी दल की सरकार सत्ता में हो संसद से पास हुए किसी भी कानून का बचाव वह करती रही है। लेकिन प्लेसेज़ आॅफ वर्शिप एक्ट के पक्ष में भाजपा शुरू से ही नहीं रही है। 
  इसलिये यह माना जा रहा है कि वह आज नहीं तो कल इसके खिलाफ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संसद से पास कानून के विरोध की तरह कोर्ट में अपना पक्ष रख सकती है। वह इस एक्ट को खत्म भी कर सकती है। यह भी हो सकता है कि वह इसमें कुछ संशोधन करके हिंदुओं के लिये बहुत महत्व के चंद धार्मिक स्थलों को मस्जिद से बदलकर मंदिर करने के अभियान में कानून के स्तर पर सहयोग करने को खुलकर सामने आये। लेकिन इसमें यह भी आशंका है कि इस पर सुप्रीम कोर्ट अपनी मुहर लगाने से मना कर दे। यह अजीब बात है कि जो लोग इस एक्ट को बनाते हुए यह कहकर विरोध कर रहे थे कि इस एक्ट से बाबरी मस्जिद राममंदिर विवाद को बाहर नहीं रखा जाना चाहिये था। आज वही सबसे अधिक इस कानून का हवाला देकर कह रहे हैं कि इसमें साफ लिखा है कि जो धार्मिक स्थल 15 अगस्त 1947 में जिस स्वरूप में था जिसके पास था जिस धर्म का था वह वही रहेगा। यानी उसको बदला नहीं जा सकता, ऐसा इस एक्ट में लिखा है। इतना ही नहीं अब इस एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर मस्जिद विवाद में जो कुछ कहा था 
उसका वास्ता देकर भी याद दिलाया जा रहा है कि सबसे बड़ी अदालत ने न केवल यह माना था कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गयी थी बल्कि यह भी कहा था कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना सरासर कानून का उल्लंघन था। कोर्ट ने यह भी दोहराया था कि इतिहास में सैंकड़ो साल पहले अगर किसी धार्मिक स्थल को तोड़कर कोई दूसरा पूजा स्थल बना भी दिया गया हो तो इतिहास की उस गल्ती को अब सुधारा नहीं जा सकता। साथ ही यह भी कहा था कि यह काम कम से कम अदालतें तो बिल्कुल भी नहीं कर सकतीं। अदालत ने इस एक्ट को देश के धर्मनिर्पेक्ष स्वरूप को बनाये और बचाये रखने के लिये भी अपरिहार्य बताया था। इसलिये 1991 का प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट भविष्य में ऐसे किसी विवाद को पूरी तरह से रोकने के लिये सही बनाया गया है। आज इस एक्ट को यह कहकर ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है कि यह एक्ट हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करता है। यह भी कहा गया है कि यह एक्ट संविधान के खिलाफ बनाया गया है। यहां तक दावा किया गया है कि ऐसा कोई कानून बनाने का संसद को अधिकार ही नहीं था। 
     कुछ लोगों का कहना है कि धार्मिक स्थल जैसे के तैसे रखने की कट आॅफ डेट 15 अगस्त 1947 नहीं 1192 होनी चाहिये जब पृथ्वी राज चैहान जंग हार गये थे। इस पर कुछ लोग यह भी कहते हैं कि फिर तो यह तारीख 712 सन होना चाहिये जब मुहम्मद बिन कासिम पहली बार किसी मुस्लिम राजा के तौर पर भारत आया था। हो सकता है कि रिटायर्ड मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने विवादित धार्मिक स्थल का सर्वे करने से 1991 के इस कानून में कहीं भी नहीं रोकने की बात मौखिक रूप से सही कही हो लेकिन उस बात का न्यायिक निर्णय में कही चर्चा ना होेेेेने के बावजूद ऐसे विवादित मामले लोवर कोर्ट में दायर करने और उन पर सर्वे का आदेश जल्दबाज़ी में पास करने की बाढ़ आ गयी जिससे इस एक्ट का मकसद मंशा और मूल आत्मा ही ख़तरे में पड़ गयी। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्टे करके उस भूल को सुधारा है। लेकिन इस एक्ट की संवैधनिकता और इस पर केंद्र सरकार के रूख के जाने बिना सुप्रीम कोर्ट किसी अंतिम निर्णय तक नहीं पहंुच सकता। जिससे देश में ऐसे विवादित मामले थोक में सामने आने और उन पर आपसी टकराव बढ़ने की तलवार अभी भी लटकी हुयी है। 
हालांकि यह भी ज़रूरी नहीं है कि केंद्र सरकार या याचिका कर्ताओं के मात्र यह कहने से सुप्रीम कोर्ट इस कानून को असंवैधनिक मानने को तैयार हो जाये कि इससे हिंदुओं के मौलिक पूजा के अधिकार का हनन होता है। लेकिन इतना ज़रूर है कि देश की एकता अखंडता और भाईचारा व शांति बनाये रखने के लिये यह एक्ट बहुत बड़ी चर्चा का विषय बन गया है। संभल मेें जामा मस्जिद के कोर्ट के दूसरी बार सर्वे के आदेश के बाद जो हिंसा हुयी जिसमें कई लोग मारे गये वह भी अफसोसनाक और निंदनीय है। लेकिन जब तक इस देश की जनता को यह बात समझ नहीं आती कि मंदिर मस्जिद के विवादों से राजनीति को लाभ होता है और जनता के असली मुद्दे दफन हो जाते हैं तब तक सुप्रीम कोर्ट से ही यह आशा की जा सकती है कि वह जनहित देशहित और मानवता के हित में इस तरह के मामलों पर स्थाई और ठोस रोक हमेशा के लिये लगा सकता है।
0 वक्त ऐसा कि बग़ावत भी नहीं कर सकते,
और ज़ालिम की हिमायत भी नहीं कर सकते।।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 5 December 2024

बढ़ती आर्थिक असमानता

बढ़ रही है आर्थिक असमानता, पूंजीवाद इस सच को नहीं मानता!
0 जी 20 सम्मेलन मंे ब्राजील के पीएम लूला डी सिल्वा ने दुनिया में बढ़ती आर्थिक असमानता के लिये पूंजीवाद को ज़िम्मेदार बताते हुए बड़े कारापोरेट घरानों और पूंजीपतियों पर सुपर रिच टैक्स यानी सम्पत्ति कर की मांग की है। आपको याद दिलादें फिलहाल ब्राजील के पास ग्रुप 20 की अध्यक्षता है। ग्रुप की इनइक्विलिटी सम्मिट में यह प्रस्ताव रखा गया था। हमारे देश में मोदी सरकार ने उल्टा बड़े पूंजीपतियों पर टैक्स कम कर दिया है। साथ ही अडानी अंबानी जैसे चंद पूंजीपतियों को सरकार का संरक्षण मिल रहा है। जिससे इनकी सम्पत्ति दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती जा रही है। भारत इस सच से हमेशा आंखें चुराता है लेकिन अब वित्तमंत्री और आरबीआई के गवर्नर इस गंभीर मुद्दे पर चर्चा करने केे लिये मजबूर हो गये हैं।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     दुनिया की पूरी इकाॅनोमी लगभग 100 ट्रिलियन डालर है। इनमें सबसे अधिक अर्थव्यवस्था अमेरिका की 30 ट्रिलियन तो चीन की 20 ट्रिलियन डालर है। भारत की इकाॅनोमी मात्र 3.6 ट्रिलियन डालर है। जो कि विश्व में पांचवे स्थान पर आती है। आंकड़ों से समझा जा सकता है कि पूरी दुनिया की कुल दौलत में से आधी अकेले अमेरिका और चीन के पास है। जी 20 की बैठक में शामिल होने वाले दुनिया के तमाम देशों के वित्तमंत्री और सेंटरल बैंकों के गवर्नर के नाम हैं। हमारे देश में न केवल पूंजीवाद चल रहा है बल्कि खुलकर आवारा पूंजी अपना खेल खेल रही है। हालत अब यह है कि पहले पूंजीपति राजनीतिक दलों को चंदा देकर कुछ काम निकाल लिया करते थे। लेकिन अब वे बाकायदा सत्ताधरी दल को इतना बड़ा चंदा देेे रहे हैं कि सरकार उनके हिसाब से न केवल बन रही गिर रही है बल्कि नीतियां भी उनकी सुविधा संरक्षण और लाभ को केंद्र में रखकर बन रही है। मोदी भाजपा और संघ को इस बात से कोई समस्या नहीं है। मोदी तो एक बार आवेश में यहां तक कह चुके हैं कि क्या अमीरों को गरीब कर दे सरकार? दरअसल मोदी का आर्थिक माॅडल शुरू से ही अडानी जैसे पंूजीपतियों को खुला संरक्षण देकर उनसे पार्टी के लिये बेतहाशा चुनावी चंदा लेकर सत्ता में आना और संघ का एजेंडा आगे बढ़ाना रहा है। उनको बढ़ती आर्थिक असमानता से कोई सरोकार नहीं है। उनको घटते रोज़गार से भी कोई प्राॅब्लम नहीं है। 
विडंबना यह है कि मोदी इस मामले में अकेले नहीं हैं बल्कि पूरी दुनिया खासतौर पर अमेरिका ब्रिटेन यूरूप जी 20 के अधिकांश देश पूंजीपतियों के साथ ही खड़े हैं। आॅक्सफेम की आर्थिक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में आर्थिक असमानता अश्लीलता की सभी सीमायें पार कर गयी है। सर्वे के अनुसार पिछले दस साल में विश्व के एक प्रतिशत अमीरों ने कुल 42 प्रतिशत दौलत जोड़ी है। दुनिया के 50 प्रतिशत बाॅटम के लोगों के पास जितनी दौलत है उससे 34 गुना अधिक सम्पत्ति इन चंद धनपतियों के पास है। लोकसभा चुनाव के दौरान जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यही बात बोली थी तो भाजपा ने उनको ऐसे घेरा जैसे वे कोई देश विरोधी बात कह रहे हैं? पीएम मोदी ने तो राहुल गांधी के इस बयान को साम्प्रदायिक रंग देकर यहां तक कह दिया था कि वे हिंदूआंे की सम्पत्ति छीनकर मुसलमानों को बांटना चाहते हैं। सच यह है कि हिंदुत्व की आड़ में संघ परिवार भाजपा और मोदी चंद पूंजीपतियों के हित में अधिक काम कर रहे हैं। लेकिन सत्ता की पाॅवर अपने पुलिस प्रशासन और गोदी मीडिया के बल पर वे दुष्प्रचार के सहारे जनता को ऐसा महसूस कराते हैं जैसे उनसे बड़ा हिंदू समर्थक कोई दूसरा नहीं है। वे सभी गैर भाजपा दलों विपक्षी नेताओं सेकुलर हिंदुओें को हिंदू विरोधी देश विरोधी और करप्ट बताते हैं लेकिन इन दलों के साथ चुनावी गठबंधन करने में उनको तनिक भी संकोंच नहीं होता। 
साथ ही जिन विरोधी नेताओं को वे बेईमान हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी तक बताते रहते हैं उनके भाजपा में आने पर बेशर्म से चुप्पी साध लेते हैं। उनके खिलाफ पहले से दर्ज करप्शन के केस बंद कर क्लीन चिट दे दी जाती है। जी 20 में आर्थिक असमानता का मुद्दा चर्चा का विषय बन जाने पर मोदी सरकार मजबूरी में इस पर अपना पक्ष रख रही है। लेकिन इससे पहले उनकी सरकार आॅक्सफेम की रिपोर्ट को झुठला चुकी है। अब खुद सरकार के आर्थिक सर्वे में भी जब यही बात बार बार उभरकर सामने आ रही है कि आर्थिक असमानता वास्तव में है। यह बढ़ती भी जा रही है। ऐसे में मोदी सरकार के लिये इस मुद्दे से आंखे चुराना अधिक दिन संभव नहीं होगा। जी 20 में यह चर्चा हो रही थी कि दुनिया के कुल 3000 अरबपतियों पर 2 प्रतिशत सुपर रिच टैक्स लगाकर 200 से 250 बिलियन डालर जुटाये जा सकते हैं। मोदी सरकार के तमाम दावों वादों और आश्वासनों के बावजूद देश में बढ़ती बेरोज़गारी महंगाई और गरीबी से जनसंख्या के बड़े हिस्से का जीवन यापन करने को ज़रूरी आय अनाज कपड़ा मकान शिक्षा और स्वास्थ्य का खर्च असहनीय होता जा रहा है। 
हालत यह है कि देश के मीडियम क्लास का साइज़ कम होने लगा है। बड़ी बीमारी नौकरी छूटने या अचानक बड़ा नुकसान होने से तीन करोड़ लोग हर साल मीडियम क्लास से निधर््ान वर्ग में आ जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि केवल जीडीपी बजट और इकाॅनोमी का साइज़ बढ़ने से नहीं बल्कि संसाधनों अर्जित धन और सम्पत्ति के न्यायपूर्ण बंटवारे से ही समग्र समाज का भला हो सकता है। नेशनल संैपल सर्वे आॅफिस एनएसएसओ उपभोग के आंकड़ों के आधार पर आय का विवरण तय करता है लेकिन नई स्टडी इसको ठीक पैमाना नहीं मानती। आर्थिक जानकारों का कहना है कि लोगोें की आय का बड़ा हिस्सा ऐसी मदों में चला जाता है जिसका कंज़प्शन से सीधा सरोकार नहीं होता है। इस मामले में नेशनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकाॅनोमिक रिसर्च और प्युपिल रिसर्च आॅफ इंडियाज़ कंज्यूमर इकाॅनोमी हाउस होल्ड इनकम के आंकड़े बेहतर पैमाना अपनाने से अधिक कारगर और विश्वसनीय हैं। इससे भारत जैसे विभिन्न क्षेत्रोें आर्थिक स्तरों और सामाजिक वर्गों का आय का स्तर ठीक से समझने में आसानी हो जाती है। विश्व असमानता के आंकड़े भी नेशनल एकाउंट टैक्स रिकाॅर्ड और पंूजीगत आय पर निर्भर होते हैं। इससे पहले कि दुनिया में दस्तक दे रही मंदी बड़ी विकराल समस्या का रूप धारण कर ले भारत जी 20 के देश नाटो देश यूरूपीय यूनियन से जुड़े देश अमेरिका ब्रिटेन चीन रूस फ्रांस अरब देशों को चाहिये कि वे आर्थिक असमानता को रोकने सबको रोज़गार देने और अमीरों पर सुपर रिच टैक्स लगाकर गरीबों को उनके खातों में सीध्ेा मदद भेजने की व्यवस्था सुनिश्चित करें नहीं तो पंूजीवाद भी समाजवाद की तरह धरती से उखड़ना शुरू हो जायेगा।
0 हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये,*
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।*
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।