कांग्रेस के लिये शाहबानो जैसी भूल बनेगा सबरीमाला?
0कहावत है कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते वे इतिहास दोहराने को अभिषप्त होते हैं। आजकल दिशाहीन कांग्रेस पार्टी का कुछ ऐसा ही हाल नज़र आ रहा है। कांग्रेस ने केरल में आने वाले चुनाव में जीतने पर एक ऐसा कानून बनाने का वादा किया है। जिससे वहां के सबरीमाला मंदिर में एक खास उम्र की महिलाओं को जाने की अनुमति नहीं होगी। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट इस तरह की रोक को गैर कानूनी घोषित कर चुका है। इस निर्णय पर केरल की सत्ताधारी वामपंथी सरकार अमल भी शुरू कर चुकी थी।
-इक़बाल हिंदुस्तानी
ऐसा लगता है कि 2014 के बाद 2019 में भी भाजपा से लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस बुरी तरह बौखला गयी है। उसको यह समझ में नहीं आ रहा है कि वह कैसे भाजपा और संघ परिवार का मुकाबला करे। इतना ही नहीं वह अपनी सोच के वामपंथी क्षेत्रीय और अन्य सेकुलर दलों के साथ भी तालमेल बनाकर नहीं चल पा रही है। पहले राहुल गांधी ने गुजरात में विधानसभा चुनाव के दौरान भगवा वस्त्र धरण कर विभिन्न मंदिरों में पूजा अर्चना और अपने आप को शिवभक्त घाषित कर खुद को पूरी तरह हिंदू साबित करने का प्रयास किया।
उसके बाद कांग्रेस ने खुद पर बार बार लगने वाले मुस्लिम समर्थक पार्टी के आरोप को धोने के लिये केरल की मुस्लिम लीग कश्मीर की पीडीएफ और असम में बदरूद्दीन अजमल की पार्टी एयूडीएफ से दूरी बनानी शुरू की। फिर कांग्रेस ने मुसलमानों के खिलाफ होने वाले पक्षपात और अन्याय पर चुप्पी साधनी शुरू की। इसके बाद उसने मुसलमानों को चुनाव में कम टिकट देना शुरू किया। इसके बाद भी जब उसका मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप से पीछा नहीं छूटा तो उसने नरम हिंदुत्व का रास्ता अपनाना शुरू कर दिया। अचानक देश की सियासत में राष्ट्रीय स्तर पर जब औवेसी की एमआईएम का मुस्लिम पार्टी के तौर पर तेजी से उदय होने लगा तो कांग्रेस ने कुछ राहत की सांस ली।
इसके साथ ही उसने भी एमआईएम को भाजपा की बी टीम बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन अब लगता है कि कांग्रेस ने खुद को हिंदू पार्टी के तौर पर पेश करने का मन बना लिया है। संविधान सबको समानता का अधिकार देता है। कोई भी सरकार ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जिससे संविधान की इस मूल भावना का निषेद्य हो। ऐसा नहीं हो सकता कि कांग्रेस इस बात को नहीं जानती हो। लेकिन उसने केरल के सबरीमाला मंदिर में सभी आयु की महिलाओं को प्रवेश देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और उस पर वहां की कम्युनिस्ट सरकार के अमल करने को हिंदू धर्म का विरोधी बताते हुए जबरदस्त मोर्चा खोल दिया था।
इतना ही नहीं राजनीतिक लाभ के लिये कांग्रेस को इस मुद्दे पर प्रगतिशील एलडीएफ सरकार के खिलापफ हिंदू साम्प्रदायिकता की खुलकर सियासत करने वाली भाजपा के साथ खड़े होने आंदोलन करने और एक तरह से सुप्रीम कोर्ट व संविधान का विरोध करने में भी कोई संकोच लज्जा या अनैतिकता नहीं दिखाई दी। कांग्रेस के इस महिला विरोधी समानता विरोधी और लिंगभेद वाले अवसरवादी रूख़ से इतना ज़रूर हुआ कि उसको 2019 के लोकसभा चुनाव में केरल की 20 में से 19 सीटें जीतने में सफलता मिल गयी। कांग्रेस ने केरल में अप्रैल में होने जा रहे राज्य विधानसभा चुनाव के लिये अपना जो घोषणापत्र तैयार करना शुरू किया है।
उसमें साफ लिखा है कि वो केरल के लोगों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए यह तय करने का अधिकार सबरीमाला के मुख्य पुजारी मंदिर कमैटी और हिंदू समुदाय को देगी कि वे मंदिर में किस आयु की महिलाओं का प्रवेश नहीं चाहते हैं। कांग्रेस ने दो क़दम आगे बढ़कर यहां तक ऐलान कर दिया है कि अगर कोई इस नियम को तोड़ेगा तो उसको दो वर्ष की सज़ा देने का कानून भी बनाया जायेगा। ज़ाहिर बात है कांग्रेस के इस फैसले से कट्टरपंथी खुश होंगे। हो सकता है कि वह अपने इस फैसले से केरल का अगला विधानसभा चुनाव जीत भी ले। लेकिन यहां कांग्रेस को यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि उसने ऐसी ही एक भूल शाहबानो के केेस में की थी। जिसका खामियाज़ा वह आजतक भुगत रही है।
साम्प्रदायिकता अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक नहीं होती। ना ही वह मुसलमानों की अच्छी और हिंदुओं की बुरी होती है। साम्प्रदायिकता तो जातिवाद क्षेत्रवाद और हिंसा व लोभ की तरह एक बुराई ही होती है। लेकिन कांग्र्रेस केरल की सत्ता किसी भी कीमत पर हासिल करने को इतनी उतावली और बेचैन है कि वह भाजपा से भी दो कदम आगे बढ़कर हिंदू कट्टरपंथ का सहारा लेकर सरकार बनाने को उतावली लग रही है। कांग्रेस को यह भी नहीं दिखाई दे रहा कि अब केरल का वह माहौल नहीं है जो 2018 में सबरीमाला पर कोर्ट का फैसला आने के बाद 2019 में बना था।
हालांकि उसमें भी भाजपा का बड़ा रोल था। लेकिन केरल में भाजपा का राजनीतिक स्थान बहुत मामूली होने की वजह से कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल होने से कम्युनिस्ट विरोधी हवा का सियासी लाभ अकेले उठाने में सफल हो गयी थी। हाल ही में स्थानीय निकाय के चुनाव में जिस तरह वामपंथी नेतृत्व मंे एलडीएफ ने भारी जीत हासिल की है। उससे भी साफ लग रहा है कि अब कांग्रेस को फिर से एकतरफा जीत मिलने वाली नहीं है। वह यह भी भूल गयी है कि सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के पक्ष में वहां 20 लाख महिलाओं ने मानव श्रृंखला बनाकर अपना समर्थन जताया था।
हालांकि बाद में मोदी सरकार की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिये बड़ी बैंच बनाकर एक तरह से अपने ही ऐतिहासिक संवैधानिक और समानता के सराहनीय निर्णय पर रोक लगा दी थी। कांग्रेस की यह हालत तब है जबकि उसके शीर्ष नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी कोर्ट का फैसला आने के बाद शुरू शुरू में महिलाओं के पक्ष में खड़े थे। लेकिन बाद में जब कांग्रेस की केरल यूनिट ने इस मुद्दे पर महिला विरोधी रूख़ अपनाया तो कांग्रेस हाईकमान भी इस मुद्दे पर अपने प्रगतिशील और संवैधानिक समानता के रूख से पलट गया।
कांग्रेस ने 1985 में शाहबानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के समानता और मानवता के संवैधानिक फैसले को कट्टरपंथियों के दबाव में पलटकर पहले भी ऐसी ही भूल की थी। लेकिन लगता है कि कांग्रेस ने भारत की राजनीति की धुरी पूरी तरह बदलने वाली इस सियासी गल्ती से कोई सबक नहीं सीखा है।
0 लेखक पब्लिक ऑब्जर्वर के प्रधान संपादक व स्वतंत्र पत्रकार हैं।।