मोदी मीडिया और मनी भी नहीं
दिला पायेंगे भाजपा को बहुमत?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0विकास के एजेंडे पर
सांप्रदायिकता, जातिवाद व क्षेत्रीयता भारी!
300 से ज्यादा सीटें जीतेंगे- पहला दावा।
मिशन 272 पूरा होने जा रहा है-दूसरा दावा। बहुमत मिले या ना मिले सबसे बड़ा दल
भाजपा ही होगी- तीसरा दावा। और अब तो हद ही हो गयी जब मोदी के सबसे बड़े सिपहसालार
अमित शाह ने कहा कि हमें किसी से भी सपोर्ट लेकर सरकार बनाने में किसी दल से परहेज़
नहीं है। इससे पहले मोदी एक साक्षात्कार में कह चुके हैं कि हम राजनीतिक छुआछूत
में विश्वास नहीं करते। कमाल है एक तरफ नीतीश कुमार और नवीन पटनायक जैसे क्षेत्रीय
नेता मोदी के नाम पर पहले से ही परहेज़ कर रहे हैं दूसरी तरफ शाह का यह बयान आते ही
ममता बनर्जी और मायावती को अपने समर्थकों को यह सफाई देनी पड़ती है कि वे किसी कीमत
पर दंगे के आरोपी मोदी को सरकार बनाने में मदद नहीं करेंगी।
तीसरी तरफ यूपीए एनडीए और तीसरा मोर्चा की
कहानी को शॉर्ट करते हुए कांग्रेस मोदी को रोकने के लिये कुछ भी करने से परहेज़
नहीं करने की एक सूत्रीय रण्नीति पर चल रही है जिससे लड़ाई मोदी बनाम सारा विपक्ष
हो चुकी है, ऐसे में भाजपा का यह दावा कितना हास्यस्पद और आत्मश्लाघा का लगता है
कि हमें कोई समर्थन देगा तो हम ले लेंगे। अरे भाई आपको बिना मांगे समर्थन कोई क्या
देगा आपको तो अपनी शर्तों पर भी कोई सपोर्ट देने को तैयार नहीं है। वैसे भी एक
अंग्रेजी की मिसाल है- बैगर कैन नॉट भी चूज़र। चुनाव के अंतिम चरण तक भाजपा को यह
बात दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ नज़र आ
रही है कि एनडीए को 200 से 225 तक ही सीटें मिलने जा रही हैं। ऐसे में मोदी
के नाम पर अन्य क्षेत्रीय दलों को सपोर्ट के लिये राज़ी करना मुश्किल ही नहीं असंभव
हो सकता है।
अगर किसी चमत्कार से भाजपा गठबंधन को ढाई सौ
तक सीटें मिल जायें तो ही बाकी एमपी जुटाये जा सकते हैं। यह ठीक है कि भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी और गुजरात के
मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी से कोई सहमत हो या असहमत, प्रेम करे या घृणा और समर्थन
करे या विरोध लेकिन उनके 2014 के चुनाव को विकास के एजेंडे पर लाकर सत्ताधारी
यूपीए गठबंधन के लिये बड़ी चुनौती बन जाने को अब कांग्रेस और सपा के नेता भी
स्वीकार करने को मजबूर हो रहे हैं। यह बहस का विषय हो सकता है कि गुजरात पहले से ही
और राज्यों के मुकाबले विकसित था या मोदी के शासनकाल में ही उसने विकसित राज्य का
दर्जा हासिल किया है लेकिन इस सच से मोदी के विरोधी भी इन्कार नहीं कर सकते कि आज
मोदी को भाजपा ने अगर पीएम पद का प्रत्याशी प्रोजेक्ट किया है तो इसके पीछे उनकी
कट्टर हिंदूवादी छवि कम उनका ‘विकासपुरूष’ वाला चेहरा ज्यादा उजागर किया
जा रहा है।
इतना ही नहीं मोदी भाजपा का परंपरागत एजेंडा
राम मंदिर, समान आचार संहिता और कश्मीर की धारा 370 हटाने का मुद्दा पहले कहीं
भी नहीं उठा रहे थे लेकिन असम और बनारस में जिस तरह से मोदी ने यू टर्न लेकर अपना
पुराना हिंदूवादी चेहरा अचानक चमकाना शुरू
किया उससे लगा कि विकास का एजेंडा जब जातिवादी और क्षेत्रवादी शक्तियों के स्पीड
ब्रेकर से झटका खाने लगा तो भाजपा को भी अपना पुराना आज़माया हुआ सांप्रदायिक कार्ड
खेलना चाहिये।
इससे पहले भाजपा नेता गिरिराज मोदी विरोधियों
को पाकिस्तान भेजने और विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया मुस्लिमों को हिंदू बस्तियों से
खदेड़ने का अपना छिपा एजेंडा पहले ही रह रहकर झलक दिखा रहे थे जिस पर मोदी ने उनको
एक सोची समझी रण्नीति के तहत वाजपेयी उदार और आडवाणी कट्टर वाली छवि की तरह
दोस्ताना झिड़की दी थी कि मेरे समर्थक प्लीज़ ऐसी बातें ना करें जिससे मिशन को
नुकसान हो लेकिन जब उन्होंने संघ परिवार के गुप्त सर्वे में यह पाया कि विकास के
नाम पर सरकार बनाने लायक सीटें जीतना टेढ़ी खीर होगी तो वे कारपोरेट सैक्टर की
क्रोनी मनी और पेड न्यूज़ के ट्रेडर पत्रकारों के मीडिया के बाद अपने हिंदूवादी
एजेंडे का सहारा लेने को खुलकर मैदान मंे आ गये लेकिन तब तक देर चुकी थी और लगता
यह है कि अव्वल तो भाजपा की सीट 200 से ज्यादा नहीं आ रही और उसके नाम के दो दर्जन
घटकों को छोड़ दिया जाये तो शिवसेना, तेलगूदेशम, अकाली दल और लोजपा मिलकर भी
दो दर्जन सीटों का आंकड़ा पार कर पायें तो बहुत होगा।
इस तरह हमारा पहले की तरह अनुमान यही है कि
एनडीए की गाड़ी 225 सीट के आसपास मोदी के नाम पर आ कर अटक सकती है। एक तथ्य और सत्य
यह भी है कि मोदी को यूपीए की नालायकी, भ्रष्टाचार और महंगाई का अधिक
लाभ मिल रहा है। मोदी, भाजपा और संघ इस नतीजे पर शायद पहंुच चुके हैं कि
भाजपा को अगर सत्ता में आना है तो हिंदूवादी एजेंडा छोड़ा भले ही ना जाये लेकिन उस
पर ज़ोर देने से शांतिपसंद और सेकुलर सोच का हिंदू ही उनके समर्थन में आने को तैयार
नहीं होता। इसलिये बहुत सोच समझकर यह रण्नीति बनाई गयी थी कि चुनाव भ्रष्टाचार के
खिलाफ और सबका साथ सबका विकास मुद्दे पर लड़ा जाये तो ज्यादा मत और अधिक समर्थन
जुटाया जा सकता है।
सेकुलर माने जाने वाले नेता चाहे जितने दावे
करंे लेकिन मैं यह बात मानने को तैयार नहीं हूं कि गुजरात में मोदी केवल 2002 के
दंगों और साम्प्रदायिकता की वजह से लगातार जीत रहे हैं। देश की जनता भ्र्रष्टाचार
से भी तंग आ चुकी है वह हर कीमत पर इससे छुटकारा चाहती है, यही वजह है कि केजरीवाल की
जुम्मा जुम्मा आठ दिन की आम आदमी पार्टी से उसे भाजपा से ज्यादा उम्मीद नज़र आई तो
उसने दिल्ली में आप को सर आंखों पर लेने में देर नहीं लगाई। आज भी केजरीवाल की
नीयत पर उसे शक नहीं है भले ही वह उसकी काम करने की शैली और कुछ नीतियों से सहमत
नहीं हो। दरअसल मोदी भाजपा की कमज़ोरी और ताकत दोनों ही बन चुके है। इस समय हैसियत
में वह पार्टी में सबसे प्रभावशाली नेता माने जाते हैं।
उन्हें चुनौती देने वाला कोई दूसरा ’विकासपुरूष’ नहीं है। ऐसा माना जा रहा है
कि अगर भाजपा 200 तक लोकसभा सीटें भी जीत जाती है तो चुनाव के बाद मोदी की जगह
किसी और उदार भाजपा नेता को पीएम बनाने के प्रस्ताव पर जयललिता, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और मायावती को
राजग के साथ आने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी। इन सबके आने के अपने अपने
क्षेत्रीय समीकरण और विशेष राजनीतिक कारण है। कोई भाजपा या विकास का प्रेमी होने
के कारण नहीं आयेगा। इन सबके साथ एक कारण सामान्य है कि कांग्रेस के बजाये भाजपा
के साथ काम करना इनको सहज और लाभ का सौदा लगता है लेकिन ममता और माया इस बार जो
भाषा बोल रही हैं उससे हालात बदले हुए भी लग रहे हैं।
0 मेरे बच्चे तुम्हारे लफ्ज़
को रोटी समझते हैं,
ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।